ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

चाह



मत देना मुझे

कभी  भी 

इतनी ऊँचाई 

कि गुरुर में  गर्दन

अकड़ जाए 

और सुरुर में भाल

झुके न कहीं,

नाक उठा दिखाऊँ 

हरेक को 

उंगली की सीध में

बस अपने ही फलक 


हरेक बात के मायने 

अपनी ही 

डिक्शनरी में तलाशूं,

हरेक का कद 

खुद से बौना लगे

हरेक ऊँचाइयों को

खुद से ही मापने लगूँ


दिखे न मुझे कोई बड़ा 

अपने सिवा,

सबका खुदा 

खुद को ही मान

मैं  खुद को  ही सजदे

करने लगूँ...

नहीं ! मत देना मुझे 

इतनी ऊँचाई


ऊँचे पर्बत से 

जहाँ गिरता हो झरना

उसी अतल गहराई में 

नदिया के किनारे

बना देना मुझे 

बस एक अदने से 

पौधे पर अधखिला

इक नन्हा सा  जंगली फूल....!!


                    — उषा किरण 🍁🍃🌷


चित्र; Pinterest से साभार

9 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी सुंदर अभिलाषा ... अति सुंदर ।

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