ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 7 जुलाई 2021

बड़ी बी



मात्र बच्चे, पति, पत्नि, रिश्तेदारों से ही परिवार पूरा नहीं होता बल्कि गृहस्थी की नींव में जाने कितनी अन्य महत्वपूर्ण इकाइयों का योगदान मिल कर उसकी नींव को सुदृढ़ बनाते हैं। 

परिवार को सुदृढ़ व सुचारू रूप से चलाने में हमारे सहायकों का भी बहुत योगदान होता ही है। हमारी तरक्की, हमारी खुशी, हमारे चैन, विश्राम, सुचारू व्यवस्था, समाज में रुतबा, शाही खान-पान में भी इनका योगदान है ।औरों का तो नहीं जानती लेकिन मेरी जिंदगी में तो हमेशा रहा ही है ये मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूँ।

जब- जब छुट्टी करने या काम छोड़ देने से इनका सहयोग नहीं मिला तो हमेशा मेरी गाड़ी पटरी से उतर जाती। तब आराम, बढ़िया पकवान, हॉबीज , सुव्यवस्था, पार्टी वग़ैरह मेरी  दिनचर्या से गायब हो जाते रहे।

दूसरे शहर जाकर जॉब करने, बच्चों के पालन-पोषण, रुटीन कामों के बाद अपने आराम , मनोरंजन, पेंटिंग व लेखन के अपने शौक आदि को जारी रख पाने लायक समय व शक्ति को बचा कर रख पाने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।

पहले वॉशिंग मशीन तो होती नहीं थीं तो जो मेरे घर के कपड़े प्रैस करने के लिए ले जाते थे शराफत मियाँ, उनकी ही बीबी को हमने कपड़े धोने पर लगा लिया। सब उनको बड़ी बी ही कहते थे।उनके सात बच्चे थे। तीन लड़के और चार लड़कियाँ। पाँचवी उनकी देवरानी की थी ,जब उसका इन्तकाल हुआ तो उसे भी बड़ी बी ने ही पाल लिया इस तरह उनकी  कुल आठ संतानें थीं।

उनके लड़के जितने सुस्त और औंघियाए हुए थे बेटियाँ उतनी ही चटर- पटर व तितली सी रंगीन व फुर्तीली। वे प्राय: साथ- साथ जोड़ों में आती थीं।और जब तक मैं कपड़े लिख कर गठरी बनाती वे कमरे की चौखट पर बैठी, आँखें गोल-गोल घुमाती कुछ न कुछ मुझसे पूछती रहतीं या अपनी सुनाती रहती थीं।

उनकी माँ बड़ी बी भी  कम बातूनी नहीं थीं, तो मौके- बेमौके हमें पकड़ कर वो भी अपनी कुछ न कुछ दास्तान सुनाने लगतीं ।वे दिन मेरे बेहद व्यस्तता भरे थे। बच्चे छोटे थे तो जॉब, गृहस्थी और बच्चों के कामों में सारे दिन चकरघिन्नी बनी रहती। लेकिन उसको इग्नोर नहीं कर सकती थी वर्ना न जाने कब एक ईंट मेरी गृहस्थी की सरक जाए और मैं ही अगले दिन से थपकी लेकर धमाधम ...। यदि कभी उनकी बात पर तवज्जो न दे पाऊं तो कह देतीं 'ऐ लो जी तुमाए पास तो टैम ही नहीं होता हैगा हमारी बात भी सुनने का।’ 

मैं हंस कर कहती 'अरे सुन तो रही हूँ बड़ी बी, सुनाती जाओ काम हाथ से कर रही हूँ पर कान तुम्हारे ही हैं !’

तो...पता नहीं उन माँ बेटियों को मुझे ही अपने इतने किस्से जाने क्यों सुनाने होते थे ये मुझे आजतक समझ नहीं आता। बड़ी बी से उन दिनों मैंने अपने कई मलमल के दुपट्टे लहरिया में रंगवा कर चुनवाए थे और उनका बेलन बना कर सहेजना सीखा था।जो सालों मेरे पास रहे।

हम अपने पुश्तैनी घर की पहली मंजिल पर रहते थे और नीचे की मंजिल पर हमारे जेठ जी सपरिवार रहते थे। तीनों कमरों और किचिन के बीच बड़ी- बड़ी दो छतें थीं। बड़ी बी किचिन के सामने की छत पर ही कपड़े धोना पसन्द करती थीं और प्राय: हमारे कुकिंग टाइम के समय ही कपड़े धोने आती थीं।

एक दिन हम दूसरे कमरे में थे कि बड़ी बी के चीखने की आवाज आई-' हाय अल्लाह ...बचाओ भाभीईईईईईईई...अरे भाभी बचाओ....!’  हम बदहवास हो तेजी से ताबड़तोड़ भागे। जाकर देखते ही हमारे होश गुम हो गए। एक बहुत ही मोटा सा झज्झू सा बन्दर बड़ी बी के कन्धों पर सवार होकर दोनों हाथों से उनके बालों को पकड़ कर जोर - जोर से झिंझोड़ रहा था, साथ ही खौं- खौं करता जा रहा था। सारा मंजर देख हमें तो जैसे काठ मार गया, लेकिन हमारे हस्बैंड भी चीख पुकार सुन कर आ गए तो उन्होंने जल्दी से एयर गन से हड़का कर बन्दर को भगाया।वहाँ पर बन्दर बहुत आते थे तो हम डंडों व एयर गन का इंतजाम सदा रखते थे।

बदहवास सी हाय- तौबा करती, रोती- पीटती बड़ी बी को उठा कर पानी, शरबत पिला कर शान्त किया। और चैक किया कि कहीं काटा तो नहीं, या नाखून तो नहीं मारा।शान्त होते ही बड़ी बी ने मार बन्दर को गाली देनी और कोसना शुरु कर दिया - 'ऐ मुआ बदमास, नासपीटा देखो तो भाभी कैसा हमें पेड़ सा हिला गया। तौबा…तौबा…चक्कर आ रे अभी भी...।’

तो हमने हंस कर कहा ' अरे अब तो वो भाग गया तभी देतीं गाली...देना था न चाँटा घुमा कर।’

'ऐ जाओ भाभी, तुम भी हमारा ही मख़ौल उड़ा रईं , हाँ नईं तो ...ऐसी- कैसी हौल हो रई पेट में ...और जो वो काट लेता तो ? भाभी सिर घूम रा अब न धुलेंगे हमसे कपड़े आज।’ 

हमने खिला- पिला कर उनको विदा किया और भीगे पड़े कपड़ों को धमाधम निबटाते हुए मुए बन्दर को किटकिटा कर दो-चार गाली हमने भी दे डालीं।आज भी मेंहदी लगे बिखरे, झौआ से बालों में बदहवासी से चीखती और उनके कन्धों पर बैठे बन्दर का वो रौद्र रूप का जलवा जब भी याद आता है तो बरबस हंसी आ जाती है।हंसी की वजह है कि उस पल दोनों एकदम समानरूपा हो रहे थे। जानती हूँ बुरी बात है, हँसना नहीं चाहिए, मैं होती उनकी जगह तो शायद मेरा तो हार्ट फेल ही हो जाता !

एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगीं-'आज तो भाबी सुरैया को खूब छेत दिया हमने ...अरे न हाँडी पकानी, न रोटी से कोई मतलब, न प्रैस के कपड़ों को हाथ लगाती...बस सारे दिन मरी सफाई ही करे जाए है ...बालकन को खेलने दे, न खाने दे कि जाओ बाहर खेलो जाकर, घर गंदा कर दोगे फिर से। आज तो पिट ली, म्हारे हाथों।’

'अरे तो मारा क्यों बेचारी को ? सफाई रखना तो बहुत अच्छी बात है न ...च्च बेचारी...गलत बात है।’

'अरे तुम न जानो हो भाबी, सिगरे दिन की सफ़ाई किन्ने बताई लो भला ? बालक नन्हें खाबें - पीबें भी न...खेलने भी न देती। अरे हमने कही बाल बच्चों वाले भर में किन्ने बताई इतनी सफाई...लो भला...कम्बख्तों के रहवे है इतनी सफाई तो।’ 

हम उसकी बात सुन कर और अपनी सफाई की सनक सोच कर सन्न रह गए…चुप रहने में ही खैरियत समझी।

 दूसरे नम्बर की बेटी रुखसाना बहुत चटर- पटर थी। एक दिन मैं कपड़े लिख रही थी तो वो चौखट पर बैठी मटक- मटक कर गा रही थी `मार गई मुझे तेरी जुदाई….’ सहसा गाते- गाते बोली-`पता है हम सब तुमको न, रेखा कहवे हैं और तुम्हारी मिट्ठू को मन्दाकिनी कहवे हैं, बिल्कुल उनके सी ही सकल है तुम दोनों की।’

‘अच्छा पापा और चुन्नू को क्या कहते हो?’ मिट्ठू ने मजा लेते हुए पूछा।

'तुमाए पापा की मूँछें बिल्कुल जितेन्दर जैसी हैं और भाई तुमारे तो मिथुन जैसे लगे हैं।’ 

तब हमारे जितेन्दर के बाल भी खूब घने थे , मूछें भी ठीक-ठाक ...लेकिन सात साल के चुन्नू की तुलना मिथुन से सुन कर बहुत हंसी आ रही थी। वो खिलंदड़ी ऐसे ही दुनिया जहान की बातें सुनाती बड़ी देर खेलती- खाती बैठी रहती।

 हमारे घर से प्रैस के कपड़े ले जाने और वापिस देने का काम वो ही करती।किसी और के आने पर उनसे लड़ती थी। ईद पर वे लड़कियें नए कपड़ों में खूब सज- धज कर इठलाती हुई मिठाई का डिब्बा लेकर आतीं। मैं बड़ी बी को बहुत मना करती कि मिठाई न भेजा करें पर वे नहीं मानती थीं। मैं भी उन बच्चियों को प्यार से ईदी देकर विदा करती।

बहुत कम उम्र में ही दो- दो लड़कियों के एक साथ निकाह कर दिए गए। बड़ी बी से उनकी खैरियत पूछती रहती तो उनके सुख- दु:ख की खबरें मिलती रहती थीं। उनकी दो लड़कियों की शादी के बाद हम लोग दूसरे घर में शिफ़्ट हो गए जो उनके घर से दूर पड़ता था अत: लड़के या शराफत मियाँ ही कपड़े लाते, ले जाते रहे। बड़ी बी भी कभी-कभी मिलने आ जाती थीं। कभी सूट और कभी अचार माँग कर ले जाती थीं। एक दिन हंस कर बोलीं- `अरे, तमने तो वहाँ की तरहे यहाँ भी खूब फूल पत्ते लगा रक्खे... पता है हमाए घर में इसी से सब बच्चे तुमको पत्तोंवाली कहवे करे है।’ 

'अच्छा...ये नहीं बताया कभी रुखसाना ने?’ मुझे हंसी आ गई उसके वाक्-चातुर्य की याद करके।

अचानक बड़ी बी की आँखें बरसने लगीं, ` कम्बख्त उसका मरद पी के बहुत मारे है बेचारी रुखसाना को। तुम तो देखोगी तो पहचानोगी भी नहीं अपनी रुखसाना को...ऊपर से दो-दो लड़किएं और  हो गईं, तो मरी सास भी न जीने देवे है।’ सुन कर मेरा मन बहुत दुखी हो गया।बहुत देर तक बड़ी बी को हौसला देती रही।अपना घर बनवा कर अब हम और दूर आ गए तो उन लोगों का आना -जाना अब बन्द हो गया है।

वे छोटे- छोटे बच्चे जो सामने पैदा हुए, हमारे बच्चों के ही समानान्तर पले, बढ़े उनसे बहुत ममता हो गई थी।आज उनका सुख-दुख अन्दर तक छू जाता है। सोचती हूँ-

`इस प्यारी- प्यारी दुनियाँ में क्यों अलग- अलग तक़दीर...’

प्रार्थना करती हूँ कि हे प्रभु सबके बच्चों को सुखी रखना...सबको स्वस्थ रखना।🙏

                                            —उषा किरण 


चित्र; गूगल से साभार

रविवार, 4 जुलाई 2021

मा ब्रूयात सत्यमsप्रियम्

बात तीस साल पुरानी है-

कई बाइयों के आगम व प्रस्थान के बाद आखिर एक अच्छी बाई मिली `बीना ‘ जो काम अच्छा करती थी। एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगी-

`बताओ दो दिन नहीं जा पाई उनके काम पे तो लाला के बजार वाली कै रई थीं कि तुमारा कितना काम पड़ा हैगा कपड़े, झाड़ू, पोंचा, बर्तन और तुम गायब हो गईं, हैं…हम बोले भाबी जी काम तो तुमारा  है हमारा थोड़ी न है…तो लगी बहस करने कि नईं तुमारा है …हमने कहा लो बोलो भाबी घर तुमारा, बच्चे तुमारे, पति तुमारा तो उनका सब काम भी तुमारा हुआ न हमारा काए कूँ होता ?’

हम धीरे से ‘हम्म…’ कह कर चुप हो गए।

`नहीं भाबी आप हमेसा सही बात बोलती हो , अब बोलो मेंने गलत कई या सई …?’

मैंने मुस्कुरा कर बात टाली परन्तु वो बार- बार पूछने लगी तो हमने कहा-

` देख बीना सारा काम भले उनका लेकिन जब तू उनसे काम के पैसे लेती है तो फिर वो काम तेरा…सीधी सी बात है !’

हम तो कह कर हट गए परन्तु वो बहुत देर तक छनछनाती रही। अगले दिन से दस दिन को गायब हो गई और मैं काम में चकरघिन्नी बनी बदहवास सी बार - बार अपने गाल पर चाँटा मारती, बड़बड़ाती…सब काम मेरा…सब काम मेरा…पर तीर कमान से निकल चुका था और सुनने वाली तो ग्यारहवें दिन पधारीं। 

तो जब भी बोलो परिणाम सोच कर बोलो, वर्ना………😂😆


शनिवार, 26 जून 2021

सुनो चाँदनी की धुन





मेरी बहुत प्रिय, बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न सखी    Sheetal Maheshwari की पेन्टिंग  ने मुझे आज इस कदर आन्दोलित कर दिया कि आज के चित्र पर कविता बह निकली ।लगता है शीतल ने आजकल कायनात को ही ओढ़- बिछा रखा है…वो ही हमजोली है , और वही गुरु। ध्यान से देखिए इन चित्रों में शीतल की रूह साँस लेती सुनाई पड़ेगी…एक रूहानी अहसास गुनगुनाता है इनमें। काली-सफेद इन डिजिटल पेंटिंग्स में आपको रात की कालिमा पर चाँदनी की ,निराशा पर आशा की , मौन पर संगीत की विजय दिखाई देगी।

साहित्य, संगीत, कला की भागीरथी में वे सतत डुबकी मार कुछ नायाब रचती हैं ।मात्र कुछ ही वर्षों पूर्व शुरु हुई कला यात्रा में शीतल ने जाने कितनी डिजिटल पेंटिंग्स में अपना विस्तार किया…कुछ पुस्तकों के आवरण पृष्ठ बनाए तो एकाध में कथा- चित्रण (स्टोरी इलस्ट्रेशन ) भी रचे।यहाँ ये बता दूँ कि शीतल ने कहीं भी विधिवत कला-प्रशिक्षण नहीं लिया है।

वेबसाइट रेडियोप्लेबैकइंडिया पर भी इन्होंने कुछ कहानियों को अपनी आवाज दी है।

वे खुद भी गाती हैं और कविताएं भी लिखती हैं लेकिन कई साथी कलाकारों के गानों को चित्रों से सजाकर बेहद सुन्दर वीडियो यूट्यूब पर डालती रहती हैं। Rashmi Prabha जी ने मेरी पुस्तक ' ताना- बाना’ पर कई दिनों तक बेहद शानदार तरीके से अपने भाव व्यक्त किए तो शीतल ने उनको भी सुन्दर चित्रों से सजा कर कई सुन्दर वीडियो में ढालकर यूट्यूब पर जड़ कर प्यार बरसाया…अभीभूत हो गई दोनों सखियों के इस प्यार पर…नशा सा तारी है आजतक…और इससे ज्यादा क्या चाहे कोई अपनी किसी किताब का मूल्य या कोई अवार्ड ?

जहाँ सबको अपनी पड़ी रहती है वहीं दूसरों की प्रतिभा पर टॉर्च मारना कोई शीतल से सीखे।

वो शान्त नहीं बैठ सकती …उसके बेचैन क्रिएटिव माइन्ड में कुछ न कुछ तो कुलबुलाता ही रहता है। उनका चमत्कारिक उत्साह हैरान करता है। प्यार से कहती हूँ - `यार कितनी उपजाऊ है तोहार खोपड़िया 😂’

तो आप भी सुनिए इनके चित्रों में चाँदनी और भावों की जुगलबन्दी…!!


शीतल के आज के चित्र पर मेरी कविता-


रोज रात को-

कभी चाँद मुझे ओढ़ता है

और कभी मैं उसे pop

कभी चाँदनी बरसती है मुझ पर

और कभी मैं उस पर 


तारों की जगमग पायल पहनती हूँ कभी 

तो कभी वे शामिल कर लेते हैं हाथ पकड़कर 

मुझे छुप्पमछुपाई में


और तमाम रोज इस तरह हो जाती है 

रात करिश्माई हम दोनों के खेल में


सुबह आते है फिर कड़क सूरज हैड मास्टर

डंडा दिखा हड़काते है , चश्मे के ऊपर से झाँकते हैं -

`एई ऊधम नहीं 

घालमेल कतई  मंज़ूर नहीं ‘

और हमें अपनी अलग- अलग कक्षा में मुँह पर उंगली रख बैठा जाते हैं…!!

                                                  — उषा किरण            

                                                 🍃☘️🌱🍁🌿🌱🍀

















       रात ढलान
   यादों की फिसलन 
       कुचला मन
       —शीतल माहेश्वरी



औढ़ ली  फिर से 
एक ख्याल चांदनी 
एक ख्वाब चांद सा
                -शीतल माहेश्वरी


लहरें नाव
साहिल की तलाश
जीवन चांद
        — शीतल माहेश्वरी



असमंजस ..

में है देहरी..

कदमों की आहट पर 

उस पार 

सपनों की लौ दिखाऊं

या नीले अंधकार की राह बतलाऊं

                   — शीतल माहेश्वरी



फिर एक गीत याद आया " मिलो न तुम तो हम घबराए,मिलो तो आंख चुराए"




                                          

शनिवार, 19 जून 2021

वे कहाँ गुजरते हैं...!!




जो गुजर जाते हैं 

वे तो एक दिन गुजरते हैं

पर जिनके गुजरते हैं

उन पर तो रोज गुजरती है


वे जाते कहाँ हैं

वे तो बस, बस जाते हैं

हमारी यादों में

नीदों में, बातों में

हर छोटी-छोटी चीजों में


वे पलट कर नहीं आते 

पर उनके अक्स पलटते हैं

हमारे बच्चों में

नाती-पोतों  में

उनकी हंसी में

उनकी बातों और आदतों  में


वे याद करते नहीं 

पर वे हमेशा याद आते हैं

हर सुख में, हर दुख में

शादी-ब्याह, रीति-रिवाजों में

तीज त्यौहारों की

चहल-पहल में


वे नहीं देखते पलट कर 

पर हम जरूर पलट कर

एक दिन दिखने लगते हैं 

बिल्कुल उनके जैसे

बच्चे कहते हैं-

एकदम नानी जैसी हो गई हो

या आप हो गए हो बाबा जैसे


जो गुजर जाते हैं

वे कहाँ गुजरते हैं 

गुजरते तो हम हैं 

खुशबुओं से लिपटी

उनकी यादों की गली से

जाने कितनी बार…बार-बार…!!

                   —उषा किरण 🍁🍂🌿🌱

सोमवार, 14 जून 2021

यूँ भी

 



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं

किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...

दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?

कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो

स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

पेंटिंग; सुप्रसिद्ध आर्टिस्ट प्रणाम सिंह की वॉल से साभार 🎨

शुक्रवार, 4 जून 2021

शुभ संकल्प

 


इस कोरोना कहर का सबसे दुखद पहलू है कई बच्चों का अनाथ हो जाना। सरकारों के अपने प्रयास व उद्घोषणाएं हैं पर तसल्ली नहीं होती मन भड़भड़ाता रहता है। अनाथ हुए बच्चों को यदि उनके रिश्तेदार अपनाते हैं तो उनको चार हजार रुपये प्रति माह प्रदान किए जाएंगे।सुन कर कई रिश्तेदार आगे आए हैं,परन्तु निश्चित ही कई रुपयों के लालच में नहीं वैसे भी आगे आकर उन बच्चों को अपना रहे हैं ...जो भी हो परन्तु ये सबसे अच्छा विकल्प है क्योंकि बच्चे अपने ही परिचित परिवार के माहौल में परवरिश पाएंगे और बाकी रिश्तेदारों की भी निगरानी में रहेंगे। आपके किसी रिश्तेदार का कोई बच्चा यदि अनाथ हो गया है तो कृपया दिल बड़ा कर, बढ़ कर हाथ थाम लीजिए।

लेकिन बाकी जो नहीं अपनाए जाएंगे ऐसे बच्चों की भी संख्या हजारों में होगी ही।कितने ही निस्संतान दम्पत्तियों को मैंने ताउम्र ममता की भूख- प्यास से तड़पते व कलपते देखा है, परन्तु वे बच्चा गोद लेने में संकोच व कई तरह की उलझन महसूस करते हैं। यही वक्त है आगे आकर किसी एक बच्चे को गोद लें ।यकीन मानिए ये सिर्फ़ बच्चे के लिए ही नहीं उनके अपने लिए भी सुखद होगा।क्या पता किसी शुभ-मकसद के लिए ही उनका आँगन अब तक सूना रहा...जीवन में आई एक कमी किसी शुभ- संकल्प से, पावन मकसद में ढल जाए और उनके आँगन में व उस बच्चे के जीवन में भी रोशनी की किरणें बिखर जाएं।

आप बहुत से ऐसे लोगों को जानते होंगे कृपया उनको प्रेरित करे। कुछ लोगों के परिवार में उनके माँ- बाप या सास - ससुर नहीं तैयार होते तो उनको समझाएं। यकीन मानिए जिसे वो अपनाएंगे प्यार से, वो भी उनकी अपनी औलाद होगी।

सरकार की तरफ से भी गोद लेने की प्रक्रिया आसान करनी चाहिए । कभी एक ऐसे ही दम्पति को मैने मनाया कि वो किसी अनाथ बच्चे को गोद  लें, वे तैयार हुए पर गोद लेने की लम्बी व जटिल प्रक्रिया से ऊब कर जल्दबाजी में अपने ही रिश्तेदार के बच्चे को गोद ले लिया जिससे बड़ी मूर्खता मुझे दूसरी नज़र नहीं आती क्योंकि जिसके पास जो आँचल है उसकी वो छाँव छीन कर अपनी आँचल की छाँव देकर वे कई तरह की परेशानियों को प्राय: फेस करते हैं। हो सकता है वो बच्चा ही उनको बड़ा होकर कटघरे में खड़ा कर दे किसी दिन।

कृपया आपके जो भी ऐसे निस्संतान परिचित हों उनको प्रेरित जरूर करें। ये संकल्प तो महानतम शुभ-संकल्प की श्रेणी में आता है ।

तो उठिए किसी एक भी शिशु के आँसू पोंछ सकें तो जीवन धन्य हो जाएगा यकीन करें आपके जीवन में नई ख़ुशियाँ बिखर जाएंगी 🙏

शुक्रवार, 28 मई 2021

वो सुबह कभी तो आएगी...*




आजकल आसमान में रोशनी कुछ ज्यादा है


हाथ छुड़ाकर हड़बड़ी में

लोग दौड़ कर सितारे बनने की

जाने कैसी होड़ में शामिल हुए जा रहे हैं ?


धरा पर अँधेरा है या है तीखी पीली धूप

नहीं होता आँखें खोलने का साहस

 ही कुछ देखने या पढ़ने का

एक तेज झपाका जोर से पड़ता है

जैसे जोर से गाल पर कोई चाँटा जड़ता है


दुख सिर्फ़ यही नहीं कि वे चले गए

दुख ये भी है कि चार काँधों पर नहीं गए

 मन्त्र थे विलाप चंदनहार

बिना कुछ कहेसुने ऐसे कौन जाता है

विदाई के बिना बोलो तो

यूँ भी भला कोई जाता है 


सन्नाटों का कफन ओढ़े 

निकल जा रहे हैं लोग चुपचाप

मौन हैनदियाँसागरसारी कायनात 

धरती भी मौन है मौत का तांडव जारी है

पीछे हाँफती पसलियों में चीखें घुटती हैं 


ॐशान्ति...विनम्र श्रद्धांजलि लिखते

थरथराती हैं लाचार उँगलियाँ

रुको बसबहुत हुआ...अब और नहीं 

तितर-बितर हुआ...जो टूट-फूट गया

बहुत कुछ सहेजनासमेटना बाकी है 

पर पहले साँसें तो संभल जाएं

जरा तूफान तो थम जाए

जरा होश तो आए


भूल जाओ अब भी

सारा द्वेषईर्ष्या  क्रोध

पुरानी रंजिशें, आरोप-प्रत्यारोप, प्रतिशोध 

तुम्हारी निर्ममता का सही वक्त नहीं ये

हाथ बढ़ा लगा लो सबको गले

हौसला रखो...हौसला दो

दोस्तदुश्मन की लकीरें मिटा दो

पीली धूपों पर शीतल चन्दन के फाहे रखो

अब भी  समझे तो कब समझ पाओगे 

माना कि ये वक्त बहुत निर्मम है तो क्या

इन्सानियत को भूल 

दाँत बाहर निकाल भेड़िये बन जाओगे


हौसले पस्त हैं...सारे सपने कहीं छिप गए हैं

एक दिन सब ऐश्वर्यसम्पदातेरा-मेरा

यहीं तो छूट जाएंगेनिशानियाँ रह जाएंगी

और...हाथ छूट जाएंगे


बस एक ही आशा,एक ही प्रार्थना

अपनों को काँपते कलेजे से भींच

हाथ बाँध,आसमान पर टिकी हैं आँखें

बेसुध से होंठ बुदबुदाते हैं-

सर्वे भवन्तु सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया ...



हौसला रखोआशाओं के दिए जलाए रखो

नफरत के आगे प्रेम को हारने मत देना 

हम सब फिर मुस्कुराएंगे

मिल कर उम्मीदों केप्रेम-गीत गाएंगे

धरा पर भी एक दिन दीवाली होगी

देखना...वो सुबह जल्द ही जरूर आएगी !!


                  — उषा किरण 

जरा सोचिए

     अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है हर समय उधार मांगती रहती है कामवालों के नखरे बहुत हैं  पूरी हीरोइन...