ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से


"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था

सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था

हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े 

दुश्मन थे हम ही अपने. औरों में कहाँ दम था…”

जिस तरह मेरे लिए किसी किताब को पढ़ने के लिए सबसे पहले प्रेरित करता है उसका कवर और पेपर की क्वालिटी। उसी तरह किसी फिल्म को देखने से पहले उसका टाइटिल व म्यूज़िक का अच्छा होना जरूरी है। अब इस फिल्म का टाइटिल बहुत बाजारू टाइप घटिया लगा हमें और गाना एक भी सुना नहीं था तो पता नहीं था कैसी है, फिर भी देखी तो सिर्फ़ इसलिए कि तब्बू और अजय देवगन दोनों की एक्टिंग कमाल होती है और इसमें साथ थे दोनों, तो ये तो तय था कि टाइम बर्बाद नहीं होगा।तो देखी फिर…और लगा कि इससे बेहतर टाइटिल इसका और क्या होता ?अजय देवगन की आवाज में पूरी नज्म सुनिए, आनन्द आ जाएगा।

एक सम्पूर्ण प्रेम किसे कहते हैं, यदि देखना हो तो देख सकते हैं । ऐसा प्रेम जहाँ सब कुछ खोने के बाद, बिछड़ने के बाद भी जीवन में जो बचा वह सम्पूर्ण प्रेम ही है। जहाँ मीलों दूरी के बाद भी इतनी निकटता है कि विछोह का भी स्पेस नहीं । जहाँ एक का सुखी होना ही दूसरे की सन्तुष्टि है, तो किसी की सन्तुष्टि के लिए ही किसी को सुखी होना है…जहाँ किसी के लिए बर्बाद होने पर भी कोई ग़म नहीं, क्योंकि वह आबाद है….जहाँ कुछ भी न पा सकने पर भी कोई कमी का अहसास नहीं या शायद जहाँ अब कुछ पाना शेष नहीं….तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी तीसरे को सब हासिल होने पर भी ख़ालीपन का अहसास है। खुद को वह असुरक्षित, ठगा हुआ सा महसूस करता है( ठगा हुआ बेशक पर सच के हाथों, छल के हाथों नहीं) प्यार की यही रीत अनोखी है यहाँ पाने और खोने के मीटर पर आप कुछ नहीं नाप सकते ।

कुछ लोगों का मत है कि जिमी को खामखाँ मूवी में डाला गया है।जिम्मी यानि  पति के बिना तो यह प्रेम कहानी अधूरी ही रहकर एक आम कहानी बन जाती। वो न होता तो जेल से निकल दोनों शादी करते, गृहस्थी में बंध जाते…स्वाहा, बात खत्म।

लेकिन यहाँ, जहाँ एक ने प्रेम यज्ञ में अपनी ही आहुति भेंट कर दी उसके हाथ बेशक ख़ाली हैं पर वह जानता है कि नायिका पूरी तरह सिर्फ़ उसकी है, दूसरी तरफ़ पति है जिसने उसे हासिल तो किया पर जानता है कि नायिका को पाकर भी उसके हाथ ख़ाली हैं, उसका सर्वांग पहले ही किसी और का हो चुका है, इस प्रेम यज्ञ में उसने भी अपनी आहुति डाली है। पति बहुत अच्छा इंसान है और इसी अच्छाई से बंधी है वह. पति सालों से अपने उस रक़ीब को जेल से छुड़ाने में बिना बताए प्रयासरत है, जिससे खुद इन्सिक्योर है.ये कहानी एक प्रेम- यज्ञ की कहानी है जिसमें तीनों अपनी-अपनी आहुति डाल रहे हैं, वक्त ने रचा है ये हवनकुंड.

नायिका को अपने पति के प्यार पर भी इतना विश्वास है कि वह जानती है कि पति उसे पूर्व प्रेमी के गले लगा हुआ देख रहा है पर वह निर्भय है, क्योंकि कुछ इतना खोने को है नहीं जिसका डर हो, कोई ऐसा सच नहीं जो छिपा हो तो भय कैसा ? और विश्वास का घृत है इस समिधा में मिला हुआ…!

वैसे इसे आप एक मामूली नाटकीय प्रेम कहानी भी कह सकते हैं और देखने पर आएं तो प्रेम- दर्शन का महाकाव्य रचती है यह फिल्म…बात है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर है। मेरा चश्मा है ही विचित्र जाने क्या-क्या तो दिखा देता है, सब कुसूर उसी का है…।

फिल्म का आखिरी दृश्य जब तब्बू अजय देवगन को नीचे गाड़ी तक छोड़ने जाती है इस फिल्म का प्राण है।एक- एक डायलॉग, हरेक भाव अद्भुत है। अजय देवगन की आँखों में राख और चिंगारी एक साथ दिखाई देती हैं। तृप्ति और प्यास एक साथ मचलते हैं। उसकी आवाज में कही गई नज्म…'औरों में कहाँ दम था…’ लगता है हर शब्द से धुआँ उठ रहा है…बार- बार सुनने का मन करता है।

सच कहूँ तो फिल्म देखते समय गाने से ज्यादा कहानी पर ध्यान था, तो गानों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।फिल्म देखने के तुरन्त बाद जब सारे गाने इत्मिनान से सुने तो मन मुग्ध हो गया।सुनिधि और जुबीन नौटियाल की आवाज में गाया गाना बेहद सुन्दर है-

"ऐ दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना

ये आज की शाम संभाल के रख लेना..

मैं तारे-सितारे करूंगा क्या 

जो पैरों तले ये जमीन न रही 

वजूद मेरा ये तुम ही से तो है 

रहा क्या मेरा जो तुम ही न रही 

ए आंसू ठहर कभी और छलक लेना 

ए दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना…

ये गाना इस फिल्म की आत्मा है जिसे मनोज मुंतज़िर ने बहुत ख़ूबसूरत लिखा है और कम्पोज़ किया है एम.एम. केरावनी ने।सुनिधि की आवाज इस गाने को अलग ही मुकाम पर पहुँचा देती है।

एक और सूफी गाना है- 

"किसी रोज बरस जल- थल करदे न और सता ओ साहेब जी,मैं युगों- युगों की तृष्णा हूँ तू मेरी घटा ओ साहेब जी…” इसको सुनते ही लगा बहुत अपनी सी आवाज है पर है कौन…देखा, अरे ये तो वही है अपनी मैथिली ठाकुर ! ये गाना भी जैसे भटकती रूहों को विश्राम देता है।जैसे प्रार्थना करता है कि जन्मजन्मान्तरों से भटकती प्यासी रूहों को अब इतना बरसो कि तृप्त कर दो….

चारों एक्टर की एक्टिंग कमाल की है।

अब कहानी नहीं बताएंगे, आप खुद ही देखिए। हम बता कर आपका क्यों मजा खराब करें। बस एक चीज खटकती रही कि कुछ सीन को पूरा का पूरा बार- बार दोहराना। कुछ फालतू सीन हटा देते तो फिल्म में कसावट आती।वैसे मैं ज्यादा मीनमेख निकालकर मूवी नहीं देखती. जिस नजरिए से बनाई गई बस उसी से देखती हूँ…अपने काम के मोती चुन लेती हूँ…बस!

यदि अजय देवगन, तब्बू की केमिस्ट्री देखनी है, बढ़िया संगीत सुनना है, प्रेम की पराकाष्ठा देखनी है तो देख लीजिए…सुना है कुछ लोगों को पसन्द नहीं आई तो नहीं आई….अब हमने तो अपने चश्मे से जो देखा वो बता दिया, आगे आपकी मर्ज़ी…आप देखें अपने चश्मे से 

फिलहाल तो हम रात दिन सुनिधि और मैथिली की आवाजों की चाशनी में डूब रहे हैं…अच्छा संगीत भी ध्यान ही है मेरे लिए।

                   —उषा किरण 



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