आँचल की खुशबू —
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"उषा इधर आओ”
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
“मैं क्यों का क्या मतलब ? काटो भिंडी हम कह रहे हैं बस...हर समय किताबों में घुसी रहती हो ये नहीं कि कुछ काम- काज सीखो ।”
"अब ये भिंडी काटने में क्या सीखना होता है भई...ए राजपाल सुनो इधर आओ चलो तुम ये भिंडी काटो...हमें पढ़ना है।”
“अरे राजपाल से हम भी कटवा लेते पर ये भिंडी आज तुम ही काटोगी समझीं “ अब तक अम्माँ को गुस्सा आ चुका था तो हमने चुपचाप बैठ कर फटाफट भिंडी कतरने में ही अपनी खैर समझी।
“ये भिंडी काटी हैं तुमने कोई छोटी कोई बड़ी और बिना देखे काटे जा रही हो जाने कितने कीड़े काट दोगी तुम ?”
“अरे हम कीड़े देखते जा रहे थे पर छोटी बड़ी से क्या फर्क पड़ने वाला है सब्ज़ी पक के सब बराबर ही हो जानी हैं “ हम चिनचिनाए।
“रुको ...देखो जो छोटी होगी वो जल्दी पक जाएगी और जो बड़ी है वो देर से तो जब तक बड़ी पकेगी छोटी भिंडी घुट जाएगी ...समझीं...सिर्फ़ दो चार पेंटिंग बना कर दीवार पर सजा देना ही काफी नहीं होता ,हर काम में कलात्मकता होनी चाहिए ...खाली कविता कहानी से ही जीवन नहीं चलता है !”
उनका लैक्चर शुरु हो चुका था ...बात पूरी हो हम तब तक अपने दड़बे में घुस किताब उठा चुके थे,बात ख़त्म ।
पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई ...आज उस बात के 43 साल बाद भी जब भी ,जितनी बार हमने भिंडी काटी हैं ये भिंडी प्रकरण हमेशा स्मृतियों में भिंडी सा चिपक कर साथ चला आया है।
बस अम्माँ यूँ ही चलती हो तुम साथ मेरे ...अपनी बातों, नसीहतों , मुहावरों और किस्सों से महकती हो मेरे भीतर ...तुम्हारी पीठ से चिपक कर तुम्हारा पल्लू सूँघती थी मैं जब छोटी थी ...क्या पता था अनजाने में ही जीवन भर के लिए वो सुगन्ध अन्तर्तम में बसा रही थी मैं...माँ कभी भी कहीं नहीं
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
“मैं क्यों का क्या मतलब ? काटो भिंडी हम कह रहे हैं बस...हर समय किताबों में घुसी रहती हो ये नहीं कि कुछ काम- काज सीखो ।”
"अब ये भिंडी काटने में क्या सीखना होता है भई...ए राजपाल सुनो इधर आओ चलो तुम ये भिंडी काटो...हमें पढ़ना है।”
“अरे राजपाल से हम भी कटवा लेते पर ये भिंडी आज तुम ही काटोगी समझीं “ अब तक अम्माँ को गुस्सा आ चुका था तो हमने चुपचाप बैठ कर फटाफट भिंडी कतरने में ही अपनी खैर समझी।
“ये भिंडी काटी हैं तुमने कोई छोटी कोई बड़ी और बिना देखे काटे जा रही हो जाने कितने कीड़े काट दोगी तुम ?”
“अरे हम कीड़े देखते जा रहे थे पर छोटी बड़ी से क्या फर्क पड़ने वाला है सब्ज़ी पक के सब बराबर ही हो जानी हैं “ हम चिनचिनाए।
“रुको ...देखो जो छोटी होगी वो जल्दी पक जाएगी और जो बड़ी है वो देर से तो जब तक बड़ी पकेगी छोटी भिंडी घुट जाएगी ...समझीं...सिर्फ़ दो चार पेंटिंग बना कर दीवार पर सजा देना ही काफी नहीं होता ,हर काम में कलात्मकता होनी चाहिए ...खाली कविता कहानी से ही जीवन नहीं चलता है !”
उनका लैक्चर शुरु हो चुका था ...बात पूरी हो हम तब तक अपने दड़बे में घुस किताब उठा चुके थे,बात ख़त्म ।
पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई ...आज उस बात के 43 साल बाद भी जब भी ,जितनी बार हमने भिंडी काटी हैं ये भिंडी प्रकरण हमेशा स्मृतियों में भिंडी सा चिपक कर साथ चला आया है।
बस अम्माँ यूँ ही चलती हो तुम साथ मेरे ...अपनी बातों, नसीहतों , मुहावरों और किस्सों से महकती हो मेरे भीतर ...तुम्हारी पीठ से चिपक कर तुम्हारा पल्लू सूँघती थी मैं जब छोटी थी ...क्या पता था अनजाने में ही जीवन भर के लिए वो सुगन्ध अन्तर्तम में बसा रही थी मैं...माँ कभी भी कहीं नहीं