ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 11 मई 2020

कविता— माँ






सारे दिन खटपट करतीं
     लस्त- पस्त हो
   जब झुँझला जातीं
             तब...
  तुम कहतीं-एक दिन
   ऐसे ही मर जाउँगी
       कभी कहतीं -
    देखना मर कर भी
  एक बार तो उठ जाउँगी
           कि चलो-
        समेटते चलें
    हम इस कान सुनते
      तुम्हारा झींकना
  और उस कान निकाल देते
            क्योंकि-
   हम अच्छी तरह जानते थे
       माँ भी कभी मरती हैं !
        कितने सच थे हम
                आज...
      जब अपनी बेटी के पीछे
            किटकिट करती
       घर- गृहस्थी झींकती हूँ
                  तो कहीं-
     मन के किसी कोने में छिपी
          आँचल में मुँह दबा
            तुम धीमे-धीमे
           हंसती हो माँ...!!!

                        ——   उषा किरण
                         रेखाँकन; उषा किरण )

11 टिप्‍पणियां:

  1. क्योंकि वो माँ है इसलिए हमेशा साथ रहती है ... जीती है बच्चों के साथ साथ ...
    संवेदनशील रचना ...

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    उत्तर
    1. और जाने के बाद भी बेटी में रूपान्तरित हो जाती है😌

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  2. वाह! चिरंजीवी रहती है माँ! हमेशा।

    जवाब देंहटाएं
  3. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 12 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. बहुत सुन्दर रचना ! माँ कभी मर ही नहीं सकतीं ! हर किस्से में, हर बात में, हर याद में, हर चीज़ में ज़िंदा रहती हैं ! हमारे अंतर में साँसें लेती हैं और हमें जीवन देती रहती हैं !

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  5. सही कहा आपने साधना जी ...धन्यवाद प्रोत्साहित करने के विए��

    जवाब देंहटाएं

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