ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 26 मई 2024

खाने की बर्बादी



मेरे घर का एक बच्चा होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा है। एक प्रतिष्ठित फाइव- स्टार होटल में छह महिने की ट्रेनिंग के बाद छुट्टियों में घर आया हुआ है।वह अपने अनुभव बताता रहता है। आज उसने बताया कि वहाँ पर रोज तीन टाइम बुफे लगता था और बचा हुआ सारा खाना फेंक दिया जाता था। तो हमने पूछा कि अपने स्टाफ को या जो ट्रेनी थे तुम जैसे उनको नहीं देते थे ? उसने कहा नहीं, हमारा अलग से बनता था बहुत ही ऑडनरी सा खाना और महंगी से मंहगी डिश सब डस्टबिन में…।” हमने कलप कर कहा ” अरे तो तुम लोगों को ही दे देते। और होटल में तो देते होंगे ?”

तो उसने कहा कि "नहीं देते, फ़ाइव स्टार पर यही पॉलिसी है सब जगह। बुफे तो रोज लगता है , कई बार तो बहुत कम लोग खाते हैं और काफ़ी ज़्यादा खाना फिंकता है।” उसके साथ के जो और  बच्चे अन्य जगह पर करते आए उन्होंने भी यही बताया।

सुनकर इतना दुख हुआ कि क्या बताएं। सोचिए जरा रोज कितना सारा खाना इन मंहगे होटलों व रेस्टोरेन्ट में फेंका जाता होगा। कम से कम अपने स्टाफ़ को ही खिला दें, फिर बाकी बचा हुआ खाना कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि गरीबों में बाँट दिया जाय। 

इस विषय में आपको कुछ जानकारी है,यह सच

आपके क्या विचार हैं इस पर ?

— उषा किरण 

शुक्रवार, 10 मई 2024

जरा सोचिए

    


अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है

क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है

हर समय उधार मांगती रहती है

कामवालों के नखरे बहुत हैं 

पूरी हीरोइन है , चोर है

जब देखो बीमारी का बहाना…

मेरा ड्राइवर बत्तमीज है

जवाब देता है, बेईमानी करता है

सच में, इन लोगों ने नाक में दम कर रखा है…

बिल्कुल सही..!

पर क्या कभी सोचा है कि आपकी मेड, माली, ड्राइवर, धोबी, चौकीदार, बच्चों का रिक्शेवाला…ये सब न हों तो आपका क्या हो ? इनकी बदौलत आप कितनी ऐश करते हैं? कितने शौक पूरे करते हैं, कितना आरामदायक व साधनसम्पन्न जीवन जीते हैं ? 

कोविड के दिनों में इनका महत्व काफी समझ आ गया था वैसे हमको और आपको । अपने ही घर का काम करते कमर दोहरी हो गई और मेनिक्योर, पेडिक्योर का तो बाजा बज गया था…नहीं ? 

आपके सहायक अपना कीमती समय, अपना परिश्रम देकर आपका व हमारा घर, आपके बच्चों को, आपके कपड़े, खाने- पीने को संभालती हैं, मदद करती हैं , आप आराम से सोते हुए या गाने सुनते यात्रा एन्जॉय करते हैं और आपका ड्राइवर एक ही मुद्रा में घन्टों ड्राइव करता है, गर्मी, सर्दी, बरसात घर के बाहर या गाड़ी में बैठा जीवन का कितना मूल्यवान समय आपके आराम व सुरक्षा पर खर्च करता है। हमारे सहायकों के  घर में कोई उत्सव हो, बच्चा या पति या बीवी बीमार हो, खुद बीमार हों किसी की डैथ  हो जाए तो भी आप बहुत अहसान जता कर डाँट- डपट कर एक दो दिन की छुट्टी देते हैं । ज़्यादा छुट्टी होने पर पैसे काट लेते हैं । आपके बच्चों को स्कूल से घर लाने वाले रिक्शे वाले के गर्मियों की छुट्टियों के पैसे नहीं देते जबकि आपको अपनी जॉब में छुट्टियों के पूरे पैसे मिलते हैं ।होली, दीवाली पर या कभी जरा सा कुछ बख़्शीश देकर आप कितनी शान से सबके बीच बखान करते हैं ।आपके सहायक कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों व अपने आराम को देने वाला समय आपको देते हैं । 

आप क्या देते हैं? ? ?

चन्द पैसे ? उतने ही न जितने आप एक बार में एक डिनर या एक ड्रेस या एक ट्रिप , या एक गिफ्ट में उड़ा देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता, फैशन की तो नकल हम करते हैं पर ये भी तो जानिए और नकल करिए कि विदेशों में वे सहायिकाओं को कितनी इज्जत, पैसा व सुविधा भी देते हैं । 

जरा सोचिए कि आप उनको जो कीमत देते हैं वो ज्यादा मूल्यवान  है या वो जो वे आपको देते हैं…कभी सोचा है ? हर चीज की कीमत पैसों से नहीं तोली जा सकती। जितना प्यार और सहानुभूति आप आपने पालतू पशु- पक्षी पर लुटाते हैं क्या उसके पचास प्रतिशत के भी ये हक़दार नहीं हैं?


मेरी बात कड़वी अवश्य लगेगी आपको लेकिन इंसानियत के नाते उनको डाँटने फटकारने, पैसे काटने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर

  — उषा किरण

बुधवार, 8 मई 2024

हीरामंडी मेरे चश्मे से😎




           तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और  हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन में ठहर गया वो थी बस करुणा और मर्दों के प्रति नफरत व गुस्सा।

ये रईस और नवाबों में कितनी हवस थी जो कई बेगमों, बीवियों के बावजूद कोठों की भी जरूरत पड़ती थी। जाने कहाँ- कहाँ से मासूम लड़कियों को खरीद कर  इनकी हवसपूर्ति के लिए कोठों को आबाद किया जाता था मासूम लड़कियों को तवायफ बनाया जाता था। और हद्द तो ये है कि उन्हीं ऐयाश अमीरों व नवाबों की तवायफों से पैदा हुई औलादें फिर उन्हीं कोठों पर घुँघरू बाँध तवायफ बन कोठे आबाद करतीं या बेटे दलाल और तबलची बनते। वो तो भला हो फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी बदौलत लाहौर व हिन्दुस्तान की कई तवायफों ने बाद में गायिका व अभिनेत्री बनकर इज़्ज़तदार जिंदगी गुजारी और आज उनका नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। उनके बच्चों व परिवार को भी समाज में इज़्ज़त की नजर से देखा गया जिनमें से एक नरगिस की माँ जद्दनबाई भी थीं । खैर अब ये बातें जाने देते हैं और बात करते हैं हीरामंडी की। अब मैं तो कोई समीक्षक हूँ नहीं तो बस दिल की बात ही कहूँगी।

पहले तो इस सीरीज़ को देखते साहिर लुधियानवी का लिखा बहुत पुरानी फिल्म साधना का गाना याद आ गया-
"औरत ने जनम दिया मर्दों को 
मर्दों ने उन्हें बाजार दिया
जब जी चाहा मसला- कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया…!”
इस नज़्म में ही  इन औरतों के दर्द की पूरी दास्तान दर्ज हो जैसे…!

जब ट्रेलर देखा तो मेरी नजर गाने "सकल बन फूल रही सरसों …” पर ही अटक गई । हाँ  सारी हीरोइनें, डांस, हावभाव, मुद्राएँ, पेशाकें, जेवरात ग़ज़ब, लेकिन मेरी सुई अटकी कि पोशाकों में ये नया सा पीला रंग कौन सा ले आए भंसाली साहब ? अभी तक फिल्मों में शोख लाल, गुलाबी, नारंगी , काले और हरे रंग में ही मुजरे देखे थे।ये तीखी पीड़ा , उदासी को, देशभक्ति को समेटे, छिपाये हुए सरसों ,अमलतास या सूरजमुखी सा पीला नहीं ये तो खेतों में लहलहाती गेहूँ की पकी सुनहरी बालियों पर जब सन्ध्या की किरणें पड़ती हैं या बर्फ़ से ढंकी हिमालय चोटियों पर सूर्यास्त से कुछ पहले जो आभा होती है वैसी ही पीतवर्णीय आभा है कुछ। सबसे पहले तो इस शेड ने ही दिल चुरा लिया। रात भर सुई अटकी रही इसके पीलेपन पर , सुबह होते ही फिर पैलेट पर ढूँढा तो Light raw umber, orange, unbleached titinum के मेल- मिलाप से कुछ बात बनी, शेड पकड़ में आया तो मन प्रसन्न हो गया। एक तो हमें नई- नई मोहब्बत हुई है पीले रंग से पर क्या बताएं इस नए पीले के अनोखे शेड से तो इश्क़ ही हो गया।

       हीरामंडी सीरीज़ बहुत खूब बनाई है लेकिन बाद के दो- तीन एपीसोड कमाल के बने हैं।जिसकी वजह से यह सीरीज़ एक अलग ही मुकाम हासिल करती है। गाना सबसे बढ़िया लगा।"सकल बन फूल रही सरसों”,  और "चौदहवीं शब को कहाँ चाँद कोई ढलता है…!”
     
और क्या कहें ये नई लड़की शरमिन सहगल पर  जाकर फिर हमारी निगाह ठहर गईं…हमने पढ़ा कि लोग काफ़ी आलोचना कर रहे हैं कि एक्सप्रेशन विहीन एक्टिंग की है भंसाली की भानजी ने पर हमें तो वो ही एक्टिंग भा गई। एक लड़की जो कोठे पर रहकर तवायफ की बेटी होने पर भी शेरो शायरी की दुनियाँ में विचरती है, शायरा बनने के ख़्वाब बुनती है, हकीकत से कोसों दूर खोई- खोई सी बादलों में विचरती है …कोठे पर बेशक है पर तवायफ नहीं बनी है अभी, तो वो यही एक्सप्रेशन तो देगी न, सपनों में  खोई- खोई सी आँखें और धुआँ धुआँ सा चेहरा…। कटाक्ष, चंचलता, खिलखिलाहट, रोना- पीटना और लुभावनी अदाएं ये सारे भाव उसके किस काम के ? वो सब तो बाकी सबमें भरपूर दिखाई देते ही हैं। बाद में किया गया उसका मुजरा भी मुजरा कम प्रेम दीवानी की दीवानगी भरा रुदन ही नजर आता है और जब किसी का प्रेम सारी सीमाएँ तोड़कर देशप्रेम का बाना पहन ले तो सदके उस प्यार के।

          एक विशेष बात ने बहुत सुकून दिया कि इस कोठों की कहानी में कितने ही अश्लील दृश्य परोसे जा सकते थे पर भंसाली साहब का शुक्रिया कि तवायफों को भी शालीनता से पेश किया है ,कहीं कोई अश्लीलता, छिछोरीपन नहीं। बल्कि अन्त तक आते- आते स्त्री ( याद है न कि तवायफ भी स्त्री ही होती हैं) की अस्मिता व गरिमा को बहुत मार्मिक व शालीन तरीके से हीरामंडी से निकाल देशभक्ति के रंग में रंग कर एक नया मुकाम दिया है…इसके लिए एक सैल्यूट तो बनता है।

बाकी चीजों के बारे में तो और सब लोग लिखेंगे ही और हमसे बेहतर ही लिखेंगे तो हम क्या लिखें ? 
बस इतना जरूर कहेंगे कि देख डालिए, वाकई लाजवाब बनाई है हीरामंडी…।

— उषा किरण 

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है। 

जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?

     क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।

           कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?

     जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।

       खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!

       एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…! 

       बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है। 

      तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया  रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!

                              —उषा किरण                    


फोटो: गूगल से साभार

बुधवार, 13 मार्च 2024

चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से



हाँ पिछली पोस्ट में मैंने अपनी प्रथम कहानी `बिट्टा बुआ ‘ के छपने की स्मृतियों को साझा किया। बिट्टा बुआ से पहले मनोरमा में छपने हेतु कहानी `गिरगिट और गुलाब’ भेजी थी। बाद में बिट्टा बुआ भेजी। परन्तु सम्पादक अमरकान्त जी ने पहले बिट्टा बुआ छापी क्योंकि वो उन्हें बहुत पसन्द आई थी। गिरगिट और गुलाब कहानी में बहुत कमियाँ होने पर भी सम्पादक अमरकान्त जी ने उस पर गहन चर्चा की, सुझाव दिए , यहाँ तक कि खुद करैक्शन करने के लिए भी कहा पर रिजेक्ट नहीं की। मैंने लिखा था कि कहानी पसन्द न आए तो लौटाइएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा । क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि घर में किसी को पता चले। और पता नहीं तब मैंने क्या- क्या बेवक़ूफ़ी लिखी थीं कि हर बात को बहुत प्यार से समझाया। और फिर बिना करैक्शन के ही कहानी को ज्यों का त्यों ही छाप दिया बस उसका शीर्षक बदल कर "गुलमोहर “ कर दिया था। शायद मैंने बेवक़ूफ़ी में लिखा था कि मैं नहीं चाहती कि कहानी में ज़्यादा परिवर्तन हो। 


ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।

दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं  "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए  में कूद जाएंगी!”


फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।


नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो  अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ। 




यादों के गलियारों से


मेरी कितनी ही दोस्त हैं पर हम कभी भी एक दूसरे के घर रहने के लिए नहीं जाते। हमारी अम्माँ की बचपन की एक दो सहेलियाँ थीं और ताताजी के भी दो तीन दोस्त थे जहाँ कभी हम उनके घर और कभी वो लोग हमारे यहाँ सपरिवार दो- चार दिनों के लिए छुट्टियाँ मनाने आते थे।ऐसे ही कभी-कभी मौसी के यहाँ तो कभी मामाजी के यहाँ भी जाते थे। कोई फालतू टशन नहीं, बहुत सहजता से हम दोनों परिवार पानी में शक्कर से घुल जाते थे।आज प्राय: घरों में एक या दो बच्चे होते हैं और वे अपने ही घरों की परिधि में सिमटे रहते हैं। वे कहाँ जानते हैं अपने खिलौने, अपना स्पेस, अपना रूम,अपनी चॉकलेट और अपने माता-पिता का प्यार- दुलार भी शेयर करना…एक-दूसरे को बर्दाश्त करना। 


हम चार भाई बहन और चार- पाँच उनके बच्चे मिलकर खूब धमाल मचाते थे। खेल-कूद होते तो लड़ाई- झगड़े भी चलते ही रहते थे।ताताजी और अम्माँ भी अपनी कम्पनी में खूब बातें व हंसी मजाक करते। ताश, कैरम भी चलता।वे अपने बचपन की शरारतें हम बच्चों को सुनाते तो हमें भी बहुत मजा आता था। इत्तेफाक से सभी बड़े- बड़े अफसर थे तो आर्थिक परेशानी नहीं थी, काम तो औरतों पर बढ़ जाता था परन्तु नौकर- चाकर, अर्दली भी होते जो घर के काम में हाथ बटाने के साथ- साथ बाजार से दौड़- दौड़ कर रबड़ी, जलेबी, इमरती,समोसे, आम, लीची, आइस्क्रीम वगैरह लाते रहते और जम कर खिलाई- पिलाई के दौर भी चलते रहते।


वीरेन्द्र चाचाजी तो सगे चाचा जैसा प्यार करते थे और ताताजी से विशेष लगाव था उनका। कुछ तेरा- मेरा जैसा भाव ही नहीं था। गोरे चिट्टे चाचाजी बहुत सुन्दर थे और आदर्शवादी भी थे। काफी स्कोप होने पर भी कभी एक रुपये की भी रिश्वत नहीं ली कभी।चाचीजी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थीं और उन जैसे करेले तो कभी कहीं नहीं खाए। चाचीजी और अम्माँ खूब बतियाती थीं और चाची जी स्नेह  भी बहुत करती थीं ।


ताताजी के गुजर जाने के बाद एक दो बार चाचाजी से मिली तो वे "मेरा यार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया” कहकर ताताजी को याद करके बच्चों की तरह फूट - फूट कर रो पड़े । मैंने आजतक दो दोस्तों में इतना प्यार नहीं देखा। चाचाजी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन ताताजी की सिगरेट उनके हाथ से लेकर कभी-कभी देवानन्द के स्टाइल में सुट्टे आंगन में साथ में चारपाई पर लेट कर बड़ी मस्ती में लगाते थे। उनका स्वभाव  बहुत हंसमुख था। दोनों ने साथ- साथ पढ़ाई की थी तो खूब किस्से सुनाते थे-

"अरी तेरा बाप तो मेरी नकल करके पास होता था।” हम एक स्वर में चिल्लाते "झूठ…झूठ “ तो खूब हंसते और फिर असली किस्सा सुनाते -" अरी तेरा बाप था टॉपर। एग्जाम से एक दिन पहले मैं तो आठ बजे ही लम्बी तान कर सो गया। मेरा यार आया तो मुझे झिंझोड़ कर बोला पढ़ता क्यों नहीं बे ? मैंने कही अबे जिधर से भी किताब खोलू हूँ नई सी ही लगे है, तो पढ़ने से क्या फायदा? इसने कुछ क्वेश्चन लिख कर दिए कि ले इसे याद कर ले पास है जाएगा ।जब एग्जाम में पेपर देखा तो मेरे छक्के छूट गए, मैंने तेरे बाप की कॉपी छीन ली…ये अरे रे रे करता रह गया मैंने कही पहले मेरा लिख, तुझे टॉप करने की पड़ी है यहाँ पास होने के लाले पड़े हैं…हा हा हा ।”

ऐसे किस्सों की भरमार रहती उनके पास।चाचीजी और अम्माँ में भी खूब बनती थी।

दोनों दोस्त जरूर अब ऊपर जाकर फिर मिल गए होंगे और उनकी मस्ती बदस्तूर जारी होगी…।अम्माँ भी उनमें ही जा मिली होंगी।उनकी मस्ती देख हंसती रहती होंगी।चाचीजी की कई दिनों से कोई खबर नहीं है …!!



रविवार, 4 फ़रवरी 2024

विश्व कैंसर दिवस




कैंसर लाइलाज नहीं है, बशर्ते जागरूक रह कर समय पर पकड़ा जाए और समुचित इलाज करवाया जाय।आँखें मूँद लेने से नहीं अपितु एक दिया जलाने से जरूर अंधेरा दूर होता है।पुस्तक 'दर्द  का चंदन ’ यही समझाती है…जागरूक रहिए, स्वस्थ रहिए।           पुस्तक मेले में उपलब्ध रहेगी।

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"दर्द का चंदन उपन्यास: इंसानी हौसलों की मर्मस्पर्शी दास्तान”

-डॉ. हंसा दीप

 

“ये हौसलों की कथा है

निराशा पर आशा की, हताशा पर आस्था की

पराजय पर विजय की कथा है”

 

उषा किरण जी का उपन्यास “दर्द का चंदन” निश्चित ही हौसलों की कथा है। इसे पढ़ते हुए उषा जी के संवेदनशील मन की गहराइयों से परिचय हुआ। इतने भीतर तक जहाँ जाकर पाठक और लेखक का संवाद हो सके। कैंसर जैसी बीमारी से घर के दो सदस्य एक साथ लड़ रहे हों, एक दूसरे को दिलासा दे रहे हों, वहाँ हर कोई अपने दर्द को कमतर महसूस करने लगता है। उषा किरण ने अंत में लिखा है कि किसी सहानुभूति के लिए नहीं लिखी है यह कथा, यानी वे पाठक को इस तथ्य से अवगत करना चाहती हैं कि यह उनकी अपनी जीवन कथा है। जब यथार्थ को कोई भी कलम कागज पर अंकित करती है तो नि:संदेह शब्दों में सच्चाई मर्मांतक हो जाती है।

उषा जी ने कहानी को जीवंतता देते हुए बचपन की यादों को बहुत करीने से पेश किया। ऐसी छोटी-छोटी बातें जो हर पाठक को अपने बचपन की सैर करा दें। उनकी भाषा का प्रवाह पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है- “कहीं-कहीं नन्हे शिशु के अलसाए हाथ-पैरों से फूल-पत्ते मानो माँ के आँचल से निकल इधर-इधर से टुकुर-टुकुर ताक-झाँक कर रहे थे।”

कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो बरबस ही लेखक की कलम के प्रशंसक बन जाते हैं जैसे- “मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।” गद्य के साथ कविता इस तरह संयोजित करके प्रस्तुत की गयी है जैसे लगता है इसके बगैर यहाँ कही गई बात अधूरी ही रहती। भाषायी सौंदर्य में इन कविताओं ने जबरदस्त तड़का लगाया है।

बचपन की यादें माता-पिता पर केंद्रित होकर फिर से उनके बहुत करीब ले जाती हैं। उनके अवसान का समय बच्चों के मन में हमेशा-हमेशा के लिए एक टीस छोड़ जाता है। उषा जी की पीड़ा इन शब्दों में अभिव्यक्त होती है- “कितना मुश्किल होता है अपने माता-पिता को यूँ अस्त होते देखना।”

एक के बाद एक, परिवार पर मौत के साए मँडराने लगे तो किससे शिकायत की जाए और सुनवाई कहाँ होगी, पर हाँ भीतर की व्यथा को यूँ व्यक्त करना एक पल के लिए सुकून जरूर देता है- “और कितना तराशोगी जिंदगी, जब हम ही न होंगे, तो किस काम आएँगे हुनर तेरे”

एक विशेष बात का खयाल रखा है लेखिका ने जो बहुत ही रचनात्मकता के साथ उभर का आया है वह यह कि कैंसर के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। शुरुआत से लेकर अंत तक किस तरह इस घातक बीमारी से लड़ा जा सकता है, मरीज के साथ परिवार किन परिस्थितियों में इससे जूझता है, साथ ही शरीर के संकेतों को अनदेखा न करने का बड़ा संदेश है। कई बार मशीनें उस बीमारी को पकड़ नहीं पातीं पर शरीर लगातार दिमाग को संकेत भेजता है। इसी संकेत की उपेक्षा आगे जाकर जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है।

एक लेखक होने के नाते मैं जानती हूँ कि इसे लिखते हुए न जाने कितने आँसू बहे होंगे, न जाने कितनी बार माता-पिता सामने आकर दिलासा देकर गए होंगे और शायद छोटा भाई तो हर पल जेहन में रहा होगा जिसके मासूम चेहरे ने बहन को अनवरत ढाढस बंधाया होगा।

कहानी के अंत तक मेरे लिए भी आँसू रोक पाना असंभव हो गया था। यही सच इस उपन्यास को विशिष्ट बनाता है कि पाठक पात्रों के साथ जुड़कर उनकी तकलीफ को महसूस करे।

मैं उषा किरण जी को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए उनके हौसलों की दाद देती हूँ। उषा जी, आपका आशावादी, सकारात्मक रवैया पाठकों के जीवन को ऊर्जा से भरने में कामयाब होगा। साथ ही, हर पाठक अपने दर्द की आग को चंदन की शीतलता से कम करने का प्रयास अवश्य करेगा।  

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डॉ. हंसा दीप


—दर्द का चंदन  पुस्तक से….

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...