तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन में ठहर गया वो थी बस करुणा और मर्दों के प्रति नफरत व गुस्सा।
ये रईस और नवाबों में कितनी हवस थी जो कई बेगमों, बीवियों के बावजूद कोठों की भी जरूरत पड़ती थी। जाने कहाँ- कहाँ से मासूम लड़कियों को खरीद कर इनकी हवसपूर्ति के लिए कोठों को आबाद किया जाता था मासूम लड़कियों को तवायफ बनाया जाता था। और हद्द तो ये है कि उन्हीं ऐयाश अमीरों व नवाबों की तवायफों से पैदा हुई औलादें फिर उन्हीं कोठों पर घुँघरू बाँध तवायफ बन कोठे आबाद करतीं या बेटे दलाल और तबलची बनते। वो तो भला हो फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी बदौलत लाहौर व हिन्दुस्तान की कई तवायफों ने बाद में गायिका व अभिनेत्री बनकर इज़्ज़तदार जिंदगी गुजारी और आज उनका नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। उनके बच्चों व परिवार को भी समाज में इज़्ज़त की नजर से देखा गया जिनमें से एक नरगिस की माँ जद्दनबाई भी थीं । खैर अब ये बातें जाने देते हैं और बात करते हैं हीरामंडी की। अब मैं तो कोई समीक्षक हूँ नहीं तो बस दिल की बात ही कहूँगी।
पहले तो इस सीरीज़ को देखते साहिर लुधियानवी का लिखा बहुत पुरानी फिल्म साधना का गाना याद आ गया-
"औरत ने जनम दिया मर्दों को
मर्दों ने उन्हें बाजार दिया
जब जी चाहा मसला- कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया…!”
इस नज़्म में ही इन औरतों के दर्द की पूरी दास्तान दर्ज हो जैसे…!
जब ट्रेलर देखा तो मेरी नजर गाने "सकल बन फूल रही सरसों …” पर ही अटक गई । हाँ सारी हीरोइनें, डांस, हावभाव, मुद्राएँ, पेशाकें, जेवरात ग़ज़ब, लेकिन मेरी सुई अटकी कि पोशाकों में ये नया सा पीला रंग कौन सा ले आए भंसाली साहब ? अभी तक फिल्मों में शोख लाल, गुलाबी, नारंगी , काले और हरे रंग में ही मुजरे देखे थे।ये तीखी पीड़ा , उदासी को, देशभक्ति को समेटे, छिपाये हुए सरसों ,अमलतास या सूरजमुखी सा पीला नहीं ये तो खेतों में लहलहाती गेहूँ की पकी सुनहरी बालियों पर जब सन्ध्या की किरणें पड़ती हैं या बर्फ़ से ढंकी हिमालय चोटियों पर सूर्यास्त से कुछ पहले जो आभा होती है वैसी ही पीतवर्णीय आभा है कुछ। सबसे पहले तो इस शेड ने ही दिल चुरा लिया। रात भर सुई अटकी रही इसके पीलेपन पर , सुबह होते ही फिर पैलेट पर ढूँढा तो Light raw umber, orange, unbleached titinum के मेल- मिलाप से कुछ बात बनी, शेड पकड़ में आया तो मन प्रसन्न हो गया। एक तो हमें नई- नई मोहब्बत हुई है पीले रंग से पर क्या बताएं इस नए पीले के अनोखे शेड से तो इश्क़ ही हो गया।
हीरामंडी सीरीज़ बहुत खूब बनाई है लेकिन बाद के दो- तीन एपीसोड कमाल के बने हैं।जिसकी वजह से यह सीरीज़ एक अलग ही मुकाम हासिल करती है। गाना सबसे बढ़िया लगा।"सकल बन फूल रही सरसों”, और "चौदहवीं शब को कहाँ चाँद कोई ढलता है…!”
और क्या कहें ये नई लड़की शरमिन सहगल पर जाकर फिर हमारी निगाह ठहर गईं…हमने पढ़ा कि लोग काफ़ी आलोचना कर रहे हैं कि एक्सप्रेशन विहीन एक्टिंग की है भंसाली की भानजी ने पर हमें तो वो ही एक्टिंग भा गई। एक लड़की जो कोठे पर रहकर तवायफ की बेटी होने पर भी शेरो शायरी की दुनियाँ में विचरती है, शायरा बनने के ख़्वाब बुनती है, हकीकत से कोसों दूर खोई- खोई सी बादलों में विचरती है …कोठे पर बेशक है पर तवायफ नहीं बनी है अभी, तो वो यही एक्सप्रेशन तो देगी न, सपनों में खोई- खोई सी आँखें और धुआँ धुआँ सा चेहरा…। कटाक्ष, चंचलता, खिलखिलाहट, रोना- पीटना और लुभावनी अदाएं ये सारे भाव उसके किस काम के ? वो सब तो बाकी सबमें भरपूर दिखाई देते ही हैं। बाद में किया गया उसका मुजरा भी मुजरा कम प्रेम दीवानी की दीवानगी भरा रुदन ही नजर आता है और जब किसी का प्रेम सारी सीमाएँ तोड़कर देशप्रेम का बाना पहन ले तो सदके उस प्यार के।
एक विशेष बात ने बहुत सुकून दिया कि इस कोठों की कहानी में कितने ही अश्लील दृश्य परोसे जा सकते थे पर भंसाली साहब का शुक्रिया कि तवायफों को भी शालीनता से पेश किया है ,कहीं कोई अश्लीलता, छिछोरीपन नहीं। बल्कि अन्त तक आते- आते स्त्री ( याद है न कि तवायफ भी स्त्री ही होती हैं) की अस्मिता व गरिमा को बहुत मार्मिक व शालीन तरीके से हीरामंडी से निकाल देशभक्ति के रंग में रंग कर एक नया मुकाम दिया है…इसके लिए एक सैल्यूट तो बनता है।
बाकी चीजों के बारे में तो और सब लोग लिखेंगे ही और हमसे बेहतर ही लिखेंगे तो हम क्या लिखें ?
बस इतना जरूर कहेंगे कि देख डालिए, वाकई लाजवाब बनाई है हीरामंडी…।
— उषा किरण