ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 19 मई 2019

कविता —"सभ्य औरतें”




चुप रहो
ख़ामोश रहो
सभ्य औरतें चुप रहती हैं
कुलीन स्त्रियाँ लड़ती नहीं
भले घर की औरतें शिकायत नहीं करतीं
सहनशीलता ही औरत का गहना
और वे गहने पहन रही हैं ,
निभा रही हैं दोनों कुलों की लाज
पिटने का दर्द
कलह का दर्द
तानों का दर्द
बच्चे जनने का दर्द
रेप का दर्द
एसिड फिंकने का दर्द
चुप हैं सभ्य औरतें !
वे ढ़ोलक की थाप पर गा रही हैं सोहर
गा रही हैं ...उठती पीर को
उलाहने दे रही हैं हँस-हँस
ननद को ,सास को...
'...ये कंगना मेरे बाबुल की कमाई का
ठेंगा ले जा ननदी लाल की बधाई का’
वे गा रही हैं बन्नी,
विदाई के गीत,
पराए कर दिए जाने का दर्द-
'...भैया को दीनो महल दुमहले
हमको दियों परदेस रे लखी बाबुल मोरे...’
सम्मानित बरातियों की
जीमती पंगत के ऊपर ढ़ोलक की थाप पर
वे साध कर फेंक रही हैं
सुरीली गालियों के पत्थर,
वे गा रही हैं ज्यौनार...
`...समधी हो गए रे नचनिया कैसे सपरी...’
सावन में याद कर रही हैं ,
अपना बचपन
छूटी गुड़िएं और सहेलिएं
गा रही हैं ...
मायके में भुला दिए जाने का दर्द
झूले पर आसमान तक पींगें बढ़ातीं
कितनी चालाकी से रो रही हैं,
'अम्मा मोरे बाबुल को भेजो री..’
सीने पर रखी शिला
ढ़ोलक की थाप पर
पिघल रही है क़तरा- क़तरा...!

                            - उषा किरण



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