ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 14 मई 2020

कविता (द्रौपदी)











        ~द्रौपदी-
         ~~~~~
सुनो
धर्मराज युधिष्ठिर !
कहो तो
क्या सोच कर तुमने
द्रौपदी को जुए की बिसात पर
चौसर की कौड़ियों सा
उछाल दिया ?
क्या सोचा तुमने
स्त्री है तो कहीं भी

कैसे भी
इस्तेमाल कर लोगे तुम
यही न ?

उन्नीसवें दाँव में
खुद को हारने के बाद
क्या हक बचा था उस पर
या खुद पर
कैसे दाँव पर भार्या को
लगा दिया
तुमने ?
और तुम चारों ,
तुम भी तो पति थे न ?
क्यों नहीं तुमने हाथ पकड़ा
भाई का
किस मर्यादा में बंधे बैठे रहे
नतशिर ?

मर्द कहाते
परम यशस्वी
परम वीर
आत्मीयों की
परम ज्ञानियों की सभा में
किसी की भी भुजाएं
क्यों नहीं फड़कीं
बेशर्मी के उस दाँव पर
कुल वधू के चीर-हरण पर
दारुण पुकार पर
क्यों नहीं उबला लहू
शिराओं में
नपुंसक ही थे क्या सब ...?

हाँ
उस काले दिन
हरण हुआ जरूर था
मात्र चीर का नहीं
हरण था मनुष्यता का
लज्जा का
वीरता का
इंसानियत का
मर्यादा का
रिश्तों का !

और तुम द्रौपदी ?
गृह-प्रवेश पर ही
बाँट दी गईं
किसी ने भी कहा
बाँट लो
और तुम पाँच पतियों में
सिर झुकाए,चुपचाप
बँटने को तैयार हो कैसे गईं?
हुँकार क्यों नहीं भरी
नहीं स्वीकार मुझे
कोई वस्तु नहीं
जीती जागती इंसान हूँ मैं
कदापि नहीं तैयार बँटने को
जो वस्तु बना दे
नहीं स्वीकार वो सप्तपदी भी !

ग़लत को सिर झुका
स्वीकार करते
देखो न फिर
कहाँ लाकर खड़ी
कर दी गईं तुम
बेशर्मों ,कायरों ,बेगैरतों
की सभा में
चौसर की बिसात पर
मातम मनातीं
बदहवास
विलाप करतीं !

इस सबके बाद भी
रहीं सहधर्मिणी
हद है !
क्यों नहीं त्याग किया तब
उन पाँचों का
उस कुल का
उन तथाकथित,सम्मानित
परिजनों का
सडाँध मारती परम्पराओं का
जहाँ वस्तु की तरह
बाँट दी जाती है
और
कौड़ियों की तरह
बिसात पर हार दी जाती है
कुल-वधू भी!

अरे द्रौपदी
एक बार कस कर
कम से कम थूक तो देतीं
उस आलीशान
चमचमाते भवन के
कालिख पुते
प्रांगण पर  !!
                — डॉ. उषा किरण

चित्र; गूगल से साभार

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 14 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जन जन के आर्तनाद को शब्दों में ढाला है आपने। ये प्रश्न सभी के मन में है। वे दूसरे युग के प्राणी थे। कुंती/कर्ण, गंगा पुत्र, अश्वस्थामा आदि अनूठे चरित्र थे। इनसे तो हम ही भले कि हम विरोध कर पाते हैं, माता/पिता के गलत निर्णय का, आज भी।

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    1. आपने मेरे मन की बात कही है कैसे लोग थे वे ? वे धर्मराज और पत्नि के प्रति घोर अधर्म करते हैं । द्रौपदी इतनी तेजस्विनी होकर कहीं कितनी विवश नजर आती है ...सही इनसे तो हम ही भले😊👍

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  3. वह पुरुष क्या, जो सुरक्षा न दे सके, वह बुजुर्ग क्या - जो परिस्थिति का हवाला देकर अन्याय देखते रहें और द्रौपदी तुम ... चीरहरण के पूर्व ही हुंकार करना था ।
    आपकी रचना झंकृत करती है

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  4. मर्मस्पर्शी रचना | मन को उद्वेलित करते भाव

    जवाब देंहटाएं

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