ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 25 मई 2020

कविता— आचार- संहिता




सुनो !
कब , क्या कहा माँ ने
भूल जाओ अब
वो सारी नसीहतें
वो हिदायतें
लिखो न अब
खुद की आचार संहिता
अपनी कलम से
अपनी स्याही से

और फिर
सौंप देना बेटी को
वो लिखेगी उसके आगे
अपने हिसाब से
मनचाहे रंगों से

आखिर
क्यों ठिठके रहें हम
चौखटों में सिमटे
सोचते रहें कि...
क्या कहा था माँ ने
दादी या नानी ने

हक है हमारा भी
आसमानी कोनों पर
चाँद-सूरज और
उड़ते परिंदों पर
सतरंगे इन्द्रधनुषी रंगों
सनसनाती उन्मुक्त
शीतल बयारों और
इठलाती बदलियों पर

और ...
जहाँ भी होंगी माँ
भले ही वो
उंगली से बरजेंगी
पर चुपके से
आँखों से मुस्कुराएंगी
यकीन मानो
वो भी
सुकून पाएंगी...!!!
                       
                     —उषा किरण
               (रेखाँकन : उषा किरण )

                   
     

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