ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 9 जून 2020

कविता— काहे री नलिनी.....

काहे री नलिनी.....”
~~~~~~~~~

घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप

बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ

कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर

पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद

हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद

गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!!
                                       — डॉ. उषा किरण

Dr. Usha Kiran
Size-30”X 30”
Medium - Mixed media on Canvas
TITLE -"Kahe ri Nalini”(काहे री नलिनी)

2 टिप्‍पणियां:

  1. कबीर जी की दार्शनिक विचारधारा से भींजी रचना को विस्तार देती और मानव-मन की व्यथा को उघारती आपकी रचना और साथ ही विभिन्न माध्यमों से लिपटी हुई तूलिका का चित्र-पटल पर फिसलने के परिणाम का संगम .. अनुपम द्वय हैं ...

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    1. कविता और पेंटिंग को ध्यान से देख ,पढ़ कर प्रतिक्रिया देने का बहुत शुक्रिया!

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