इससे पहले कि फिर से
तुम्हारा कोई अज़ीज़
तरसता हुआ दो बूँद नमी को
प्यासा दम तोड़ दे
संवेदनाओं की गर्मी को
काँपते हाथों से टटोलता
ठिठुर जाए और
हार जाए जिंदगी की लड़ाई
कि हौसलों की तलवार
खा चुकी थी जंग...
इससे पहले कि कोई
अपने हाथों चुन ले
फिर से विराम
रोक दे अपनी अधूरी यात्रा
तेज आँधियों में
पता खो गया जिनका
कि काँपते थके कदमों को रोक
हार कर ...कूच कर जाएँ
तुम्हारी महफिलों से
समेट कर
अपने हिस्सों की रौनक़ें...
बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ
बोझ बन गईं जो
कान दो थके कदमों की
उन ख़ामोश आहटों पर
तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं
और लौट गईं चुपचाप
सुन लो वे सिसकियाँ
जो घुट कर रह गईं गले में ही
सहला दो वे धड़कनें
जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में
काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो
सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...
मत रखो समेट कर बाँट लो
अपने बाहों की नर्मी
और आँचल की हमदर्द हवाओं को
रुई निकालो कानों से
सुन लो वे पुकारें
जो अनसुनी रह गईं
कॉल बैक कर लो
जो मिस हो गईं तुमसे...
वो जो चुप हैं
वो जो गुम हैं
पहचानों उनको
इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़
एक दर्दनाक खबर बन जाए
इससे पहले कि फिर कोई
सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए
इससे पहले कि तुम रोकर कहो -
"मैं था न...”
दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से
गले लगा कर कह दो-
" मैं हूँ न दोस्त !!”
— डॉ० उषा किरण
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 15 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंघन्यवाद यशोदा जी !
हटाएंबहुत सुन्दर और प्रेरक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार!
हटाएंBehtareen rachna
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंधन्यवाद!
हटाएं[15/06, 3:30 PM] shobhana chourey: मुम्बई की फिल्मी दुनिया जहाँ मठाधीश बनकर बैठे है वो छोटे पर्दे से आये लोगों को छोटे शहरों से आये लोगों को हमेशा हिकारत से देखते है इसमें ज्यादातर वो लोग है जिनके बाप दादो ने उन्हें यहाँ तक पहुंचाया है जो खुद मेहनत से नही आये और जो मेहनत से प्रसिद्धि पाता है उसे टिकने नहीं देते ये भी एक कारण है।
जवाब देंहटाएंजी यही बात निकल कर आ रही है ...काश अब भी कुछ जागृति आए.
हटाएंबेहतरीन रचना 👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंवाह!सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंधन्यवाद!
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