ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

आखिर...!




आते-आते मुझ तक 

अचानक ठिठक गये 

तुम बसन्त


छोड़ दिया हाथ मैंने

नहीं की मनुहार

एक बार भी

और विदा लेकर 

बस दो मुट्ठी में बीज भर 

आगे बढ़ गई मैं


सालों  साल मुट्ठी ढीली कर 

बेध्यानी में

बरस-दर-बरस 

बारहा मीलों चलती रही

न जाने कितने मौसम

आए-गये


बहुत बाद पलट कर देखा 

हैरान थी

अरे...तुम तो झूम रहे थे

मेरे ही पीछे-पीछे


ठिठक कर मैंने भी 

भर लिया अँक में

मुस्कुरा कर स्वागत किया

आख़िरकार...

आ ही गये तुम बसन्त !!


                    — उषा किरण

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