ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

चले जा रहे हैं


कुछ रास्ते कहीं भी जाते नहीं हैं 

कुछ सफर किसी मंज़िल तक 

कभी पहुँचाते नहीं हैं

चल रहे हैं क्यूँकि

चल रहे हैं  सब 

फितरत है चलना

बस चले जा रहे है...! 


जब भी देखा पलट कर

वहीं खड़े थे

जबकि सालों साल 

बारहा हम चलते रहे थे 

ठीक ,सफर में जैसे

मीलों साथ दौड़कर भी

पीछे छूटे दरख्त 

वहीं तो खड़े थे 


हाँ उड़ जाते हैं बेशक

सहम कर परिंदे जरूर 

क्षितिज के पार चमकती 

रौशनी के करीब 


माना कि चल रहे हैं साथ

चाँद, सूरज, और सितारे

कहाँ पहुँचे कभी

वहीं खड़े हैं 

आज भी सारे


कायनात में शामिल है 

हमारा भी नन्हा सा वजूद

कदम मिला हम भी

बस यूँ ही चले जा रहे हैं


कुछ ख्वाबों की परछाइयाँ 

आँखों के सागर में

मुसलसल डोलती हैं 

कैसे कह दें कि

ख्वाब हम नहीं देखते हैं !

दिल के बागानों में पलती 

खुशबुएँ दिखती तो नहीं 

हाँ पर साथ चलती हैं

रुकती भी नहीं ...!


ये जानती हूं लेकिन

कुछ मुसाफ़िर 

माना कि दिखते नहीं 

पर पहुँचते हैं जरूर 

बताते हैं ये

पानियों में बन्द सफर

नदिया सागर तक पहुँच  

सागर हो जाती है जैसे 

खुद एक दिन 


कहीं पहुँचने की जिद 

हमारी भी कम तो नहीं 

पहुँचेंगे जरूर

बस ये जानते हैं 

साध लूँ साज पर

आज कोई रुहानी सुर

ख़ामोश पानियों का सफर

चलो आज हम भी करते हैं...!!

                            —उषा किरण

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत आभार मेरी रचना का चयन करने हेतु

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  2. अति सराहनीय अभिव्यक्ति उषा किरण जी । मन में कहीं गहरे तक उतर गई ।

    जवाब देंहटाएं

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