ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कहानी - अनकही

                                               —अनकही—

शेष आगे…..

नताशा 

 " कहाँ हो यार ? “एयरपोर्ट से बाहर निकल गाड़ी में बैठते ही मनीष का फ़ोन आ गया।

" गाड़ी में हूँ, आ रही हूँ !” मैंने थकी सी आवाज़ में कहा ।
“ अरे यार जल्दी आओ तुम ...सब गड़बड़ हो रही है ...एक तो किचिन का नल टपक रहा है ...रमाबाई आई नहीं कल से ...ओमपाल के दाँत में दर्द है कुछ काम हो नहीं रहा उससे और तुम्हारे साहबजादे के कल से एग्ज़ाम हैं, एक हंगामा उन्होंने मचाया हुआ है !” मनीष बुरी तरह बौखलाए हुए थे।
मुझे हँसी आ गई " ओफ् बताया न रास्ते में हूँ... बन्द करो अपना ये तब्सरा, कुछ नहीं होता तुमसे। कभी कोई भी डॉक्टर से शादी न करे ...आ रही हूँ कोई परी तो नहीं जो उड़ कर आ जाऊँ !”
" अरे यार परी ही हो तुम मेरी ...कैसे मैनेज करती हो ये सब जादू की छड़ी से ? नहीं यार आई मीन इट।” मनीष की आवाज़ स्नेहसिक्त हो उठी।
गाड़ी की सीट पर पीछे सिर टिका कर, आँखें बन्द कर लीं। वैसे तो मेरे मन में कहीं सुकून था, कि मैं शेखर को बता सकी अपनी मजबूरी...पर सच तो ये था कि बहुत कुछ छुपा ले गई थी। कैसे बताया जा सकता था पूरा सच ?
घर पहुँचते ही मनीष क्लीनिक से उठ कर आए बाँहों में कस कर, माथे पर प्यार किया।अलमारियों की चाबियाँ देते चेहरा ध्यान से देखते बोले " अरे ठीक तो हो न बीबी, चेहरा बहुत उतर रहा है तुम्हारा ....कहीं बी.पी.लो तो नहीं हो गया फिर ?”
" अरे, सब ठीक है, सफ़र की थकान है, आराम करूँगी ,कॉफ़ी पिऊँगी तो ठीक हो जाऊँगी।” 
" अच्छा सुनो रात को आठ बजे की मेरी सिंगापुर की फ़्लाइट है, कॉन्फ़्रेंस में जाना है दो दिन के लिए ,तो पैकिंग कर देना प्लीज़!” कह कर मनीष क्लीनिक में चले गए।
बालों को जूड़े में कस, किचिन की तरफ़ गई। वाक़ई पाँच दिन में ही घर की वो हालत हो गई थी, जैसे तूफ़ान गुज़रा हो कोई।फ़्रैश होकर कॉफी पीकर मोर्चा संभाला।
रमाबाई की ख़बर ली, हड़काया कि" कह कर गई थी कि नहीं, मेरे पीछे नागा मत करना!” ओमपाल के लिए मनीष से कह डेंटिस्ट से अपॉइन्टमेन्ट लिया, पेन किलर दी उसे। फिर वेदान्त की समस्याएँ सुनीं, थोड़ी सी ललुआ-पुतुआ की ।प्लम्बर को फ़ोन किया। शेफाली को कॉल कर उसकी सुनी, कि जॉब का पहला दिन कैसा रहा ? जल्दी से डिनर तैयार करवाया और मनीष के लिए भी डिनर पैक किया। वो फ़्लाइट में भी घर का ही खाना प्रिफर करते हैं। फिर उनका सूटकेस पैक किया।
सब काम करते ,निबटाते बुरी तरह थक गई। मनीष ने साथ एयरपोर्ट तक चलने को कहा, तो थके होने पर भी मना नहीं कर पाई। जानती थी मिस कर रहे होंगे, तो चली गई ।
लौट कर, चेंज कर, कॉफ़ी ले बैड पर पीछे कुशन लगा पसर गई। कोई-कोई दिन कितना अजीब होता है न...जैसे ज़िंदगी को ज़िद आ गई हो कि आज की तारीख के कैनवास पर सारे रंग लगाने ही हैं मुझे। पर्स खोल कर बुक निकाली ही थी कि अचानक सरसराती एक स्लिप गिर गई उठा कर पढ़ा-
"मुसाफिर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी 
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी !!”
ज़रूर ये शेखर ने रखी होगी जब मैं टॉयलेट गई थी ,'हे भगवान कितने फ़िल्मी है अब भी ‘ सोच कर मुस्कुरा पड़ी।
जब भी मैं तनु के घर जाती और यदि शेखर घर होते, तो रेडियो पर कोई ग़ज़ल तेज़ आवाज़ में लगा देते।इधर-उधर कर किसी ओट से देखते। बैडमिंटन खेलती तनु के साथ, तो खिड़की पर परछाइयाँ मँडराती देखती।
किताब बन्द कर आँखें मूँद लेट गई ।मन फिर यादों की परछाइयों के पीछे भागने लगा ...पता नहीं क्यों कुछ परछाइयाँ उम्र भर पीछा नहीं छोड़तीं ?
उस दिन कॉलेज से ही तनु उसे अपने घर ले गई, दोनों को साथ मिल कर प्रॉजेक्ट बनाना था ।आँगन पार करते देखा बरामदे में तनु की भाभी रो रही थीं तनु की मम्मी और उनके पिताजी बातें कर रहे थे ।हम दोनों तनु के रूम में आ गए ।
" मैं आती हूँ “तनु चेंज करने अंदर चली गई ।
" अरे पाँचवाँ महिना चल रहा है कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करेंगे आप और हम ? हाजीपुर में तो कोई अच्छा डॉक्टर भी तो नहीं होगा निरा क़स्बा है वो ।” तल्ख़ी से तनु की मम्मी बोलीं ,उन लोगों की बातों की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही थीं।
“ मैं गाड़ी लेकर आया हूँ बहन जी, आप परेशान न हों आराम से जाएगी, हम पूरा ध्यान रखेंगे। इसकी माँ का आख़िरी वक़्त है, इसी में प्राण अटके हैं। मैं इसको मिलवा कर जल्दी ही छोड़ जाऊँगा। सबसे छोटी है, तो अपनी माँ की ज़्यादा लाड़ली है !“ वे रुआँसे से गिड़गिड़ा रहे थे। 
" मम्मी जी मैं ध्यान रखूँगी अपना, प्लीज़ जाने दीजिए !”भाभी भी गिड़गिड़ा रही थीं।
" अरे कैसे फ़िक्र न करें बताओ...पहलौटी में कुछ गड़बड़ हो गई तो सारी उम्र तरसते रहेंगे बच्चे का मुँह देखने को ,कई बार देखा है, पहले बच्चे में गड़बड़ हुई, ख़राबी आ गई तो फिर हुए ही नहीं। चलो ज़िद छोड़ो बहू, खाना खिलाओ अपने पिताजी को और रवाना करो टाइम से पहुँच जाएँगे!” कई बार कहने पर भी आँटी टस से मस नहीं हुईं।
हार कर वे बोले " अच्छा दामाद जी से पूछ लीजिए एक बार।” 
" अरे उससे क्या पूछना ? बच्चा है वो अभी और भाई हमारे यहाँ बच्चे बड़ों के बीच नहीं बोलते !” थोड़ी देर बाद मैंने खिड़की से भाभी के पापा को बिना भाभी को लिए ही जाते देखा।भाभी उनको गाड़ी तक छोड़ कर आँखें पल्लू से पोंछती अंदर आ गईं और कोई भी उनको विदा करने दरवाज़े तक भी नहीं गया। मुझे ये देख बहुत हैरानी हुई, मन करुणा से भीग गया ।
तनु ने बताया कि तीसरे ही दिन भाभी की माँ चल बसीं। मैंने पूछा "अरे, भाभी तो मिल लीं न उनसे ?”
" अरे नहीं वो निरा क़स्बा है, मम्मी बहुत केयर करती हैं भाभी की...मम्मी ने तो बाद में भी नहीं भेजा रोने -पीटने में कहीं तबियत ख़राब हो जाती!”
फिर ख़ूब चहक कर कहने लगी "पता है हमारे घर में पहला बेबी होगा! यू नो, आयम वैरी इक्साइटेड....मैं तो चाहती हूँ बेटी ही हो…मैं न ख़ूब सजाऊँगी फिर उसे !”
वो बोल रही थी और मेरा मन कहीं और भटक रहा था ।शालू दीदी की सास का चंडी रूप ,लाचार से पापा-मम्मी और विवश रोती हुई दीदी का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था ।
कुछ दिन बाद तनु के पापा का ट्राँस्फर कानपुर हो गया, तो वो लोग कानपुर शिफ़्ट हो गए ।इधर दीदी ने आखिर एक दिन ज़लालत से तंग आकर ख़ुद को और अपने साथ हम सबको भी लपटों के हवाले कर दिया। पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर ही गए। दोनों बिस्तर से लग गए। पापा एक्यूट डिप्रेशन में चले गए।मैं मन ही मन बहुत नाराज़ थी दीदी से ... पढ़ी लिखी थीं तलाक़ ले लेतीं...इतना बड़ा क़दम उठाते ज़रा नहीं सोचा पापा-मम्मी के बारे में ?
जब वो जा रही थीं तब मैंने कई बार रोका "दीदी मत जाओ कोई जॉब कर लेना या और आगे पढ़ लेना “ पर हमेशा की तरह यही कहती गईं कि"एक बार और चांस देकर देखती हूँ शायद…! काश रुक जातीं वो ।
हम ठीक से केस भी नहीं लड़ पाए। भैया अकेला क्या-क्या करता? उन लोगों ने पुलिस को पैसा भर कर और अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर एक्सीडेंट सिद्ध कर दिया और हम सब तड़प कर रह गए। पूरा परिवार गहरे सदमे में डूब गया।
इसी बीच मनीष की मम्मी को जब पता चला तो भागी-भागी आईं ।वो अपने बड़े बेटे के पास लंदन में थीं।मैं आँटी से लिपट कर बहुत रोई ।उन्होंने सब संभाल लिया। वो सुबह से रात तक हमारे ही घर रहतीं।अंकल भी प्राय: शतरंज बग़ल में दबाए आ जाते और पापा को भी ज़बर्दस्ती बैठा लेते खेलने के लिए। अंकल ने समझा बुझा कर हौसला बँधा कर भैया को भी हॉस्टल भेजा।
साल भर बाद एक दिन आँटी ने बहुत प्यार और सम्मान से मेरा हाथ माँगा ।मम्मी ने अकेले में मुझसे पूछा " बेटा बीना ने मनीष के लिए तुम्हारा रिश्ता माँगा है ,मैंने हाँ नहीं की है।”
" माँ हाँ कर दो “ मैंने खूब सोच -समझ कर एक दिन मम्मी से कहा ।
" देख ले बेटा तू कहे तो मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? मैं जानती हूँ कि तुम और शेखर....” मैंने बीच में ही टोक कर कहा।
" नहीं ऐसा कुछ नहीं है, जैसा आप सोच रही हैं ...आप हाँ कर दो मम्मी ...मैं यहीं रहूँगी इलाहाबाद में, आपके और पापा के पास...मैं आपसे दूर नहीं रह सकती !” मैं मम्मी से लिपट कर रोती रही।
पर दिमाग से लिए फ़ैसलों को यदि दिल इतनी आसानी से मान लेता तो बात ही क्या थी? दिल पूरी तरह से बग़ावत पर उतर आया था। दूसरे ही दिन मैं तेज़ बुखार में तप रही थी। मन का ताप, तन पर पूरी तरह से तारी था। पन्द्रह दिन तक मनीष रोज़ मुझे दो बार देखने आते । मेरे माथे पर पट्टियाँ रखते,पापा-मम्मी के साथ चाय पीते, स्वास्थ्य पर,राजनीति पर चर्चा करते ,हँसी -मज़ाक़ करते ,चुटकुले सुनाते।
पापा के ब्लड-प्रेशर और मम्मी की बिगड़ी शुगर की बागडोर उन्होंने संभाल ली थी तो मेरी बागडोर साधनी क्या मुश्किल थी फिर ? पापा-मम्मी के चेहरे की रंगत बदलने लगी और घर फिर से चहकने लगा।पन्द्रह दिन तप कर,जल कर मैं भी ठीक हो गई, उठ गई कमर कस 
कर ।
अपने फ़ैसले पर कभी भी अफ़सोस नहीं हुआ मुझे ज़िंदगी में ...पर कभी-कभी मन कचोटता था। तनु कहती "भैया कितने डिप्रेशन में हैं नताशा , कितने दुखी हैं, तू सोच नहीं सकती ...वो अंदर ही अंदर घुटते हैं, तूने ऐसा क्यों किया…थोड़ा सा तो इंतज़ार किया होता।” 
मैं क्या कहती बस चुप रह जाती। पूरी सच्चाई कभी नहीं कह सकी ।कैसे बताती, कि तुम्हारी मम्मी का वो रूप, तुम्हारी भाभी व उनके पिता की विवशता, गिड़गिड़ाना देख कर मैं जब उनकी जगह ख़ुद को और पापा को रख कर देखती तो मेरी रुह काँप जाती। बड़ी मुश्किल से पापा-मम्मी ने फिर से जीना सीखा था, मैं अपने हाथों फिर से उन्हें उसी आग में झोंकने का रिस्क नहीं ले सकती थी..."बस कुछ सच्चाइयाँ यूँ ही दफ़्न हो जाती हैं “ मैं बुदबुदाई।
उस दिन ,उस वक्त मेरा शेखर के घर पर होना, तनु की भाभी और आँटी के बीच की सब बातें सुनना, सब कुछ अपनी आँखों से देखना ,जैसे इत्तेफाक नहीं था ...ये ईश्वर का इशारा था, जैसे सोच समझ कर रची कोई साज़िश।
शादी के बाद शेखर कहाँ हैं ,कैसे हैं कभी नहीं पूछ सकी तनु से, और ना ही कभी तनु उनका कोई ज़िक्र करती थी, जबकि हम आज तक भी दोस्त हैं, दुनियाँ- जहान की बातें करते हैं।
लॉन की तरफ़ से दरवाज़े पर कुछ आहट सी हुई जैसे किसी ने दस्तक दी हो ।
"कौन ?”  मैंने कहा, पर कोई जवाब न पाकर खिड़की से बाहर झाँका ,कोई नहीं था। सोचा, शायद बिल्ली रही होगी। पूर्णिमा की चाँदनी छिटकी देख शॉल लेकर बाहर लॉन में निकल आई ।
अपनी ही ख़ामोशियों में लिपटी सर्द रात कोहरे की चादर ओढ़े बेसुध पड़ी थी। कोहरे की बूँदें, पत्तों से सरक कर काँपते सूखे पत्तों पर टप-टप गिर, रह-रह कर सन्नाटा तोड़ रही थीं ।
मदालस सा पूर्ण चाँद, पूर्णिमा की मादक चाँदनी,हल्के से कोहरे की धुँध ,मधुकामनी और रात की रानी की भीनी-भीनी सी महक, सब मिल कर जैसे कोई जादू सा रच रहे थे। उन सर्द ख़ामोशियों में अपनी ख़ामोशियाँ घोलती मैं न जाने कब तक सुन्न खड़ी रही, जैसे किसी ने मेरे पैर जकड़ लिए थे। चाह कर भी अंदर नहीं जा पा रही थी। जाने क्या हो गया था मुझे ...स्तब्ध खड़ी थी।
कुछ था जो मुझे छूकर हौले से गुज़र रहा था जैसे कोई ख़ुशबू हौले से  मेरे गालों को छूकर निकल गई ...अवश ,सम्मोहित सी मैं वहीं कुर्सी पर बैठ गई। पता नहीं कब तक बेसुध सी बैठी रही।
अचानक होश आया, तो सारा बदन सर्दी से काँप रहा था। शॉल से ख़ुद को कस कर लपेटती, अंदर आकर रज़ाई में दुबक गई।
याद आया कल कितने सारे काम हैं। चैस्टर को वैक्सीनेशन के लिए डॉक्टर के पास भेजना है, आर.ओ .की सर्विस करानी है, कुछ नई सीजनल पौध माली से मंगानी हैं ...सोचते-सोचते पता नहीं कब नींद ने आ घेरा।
दूसरा दिन भी बेहद व्यस्त था। सब निबटा कर, दोपहर बैडरूम में गई।मोबाइल चार्ज होने के लिए लगाया हुआ था, निकाल कर मैसेज चैक किए। तनु का मैसेज फ़्लैश किया ..."भैया नहीं रहे, कल रात दस बजे ....हार्ट अटैक।”
"कल रात .....” मैं बेसुध सी बुदबुदाई ..हाथ से मोबाइल छिटक कर गिर गया...स्क्रीन चटक कर सुन्न हो गई !!
          
                                                             - इति-
                                                   


17 टिप्‍पणियां:

  1. ओह्ह्ह...
    कुछ अधूरी कहानियां जीवनभर साँसों बनकर टीसती हैं।
    मन में ठहर गयी उषा जी कहानी।
    बहुत प्रभावशाली है आपकी लेखनी।
    आभार आपका मेरे अनुरोध को स्वीकार करने के लिए।

    सस्नेह।

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    1. श्वेता जी आपके स्नेह का शुक्रिया…आपकी बेताबी देखी नहीं गई तो….😊🥰

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    2. आपके स्नेह से अभिभूत हूँ।
      मन से बहुत शुक्रिया आपका:)

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  2. बड़े ध्यान से पढ़ी है पूरी कहानी। बहुत बढ़िया कहानी लिखी है आपने। कहानी का अंत भी कहानी को और प्रभावशाली बनाता है। नताशा की अनकही,तनु कभी समझ नहीं सकी। वास्तविक ज़िदंगी भी ऐसे बहुत से किरदार मिलते हैं। आपको बहुत -बहुत शुभकामनाएँ।

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    1. कई लोगों को कहानी के अन्त को लेकर शिकायत थी, आपको अच्छी लगी जान कर ख़ुशी हुई…बहुत शुक्रिया 😊

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  3. समापन तक एक सांस में बांधती हुई कहानी के लिए हार्दिक बधाई ।

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    1. उत्साह बढ़ाने का और कहानी पसन्द करने का बहुत शुक्रिया अमृता जी 😊

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  4. अजीब सी हूक सी उठी समापन में..बहुत सुंदर शब्द शिल्प।नताशा की अधूरी कहानी।

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    1. इतने प्यार और मन से पढ़ने के लिए बहुत आभार 😊

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  5. बेहतरीन शिल्प एवं प्रवाह

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  6. दोनों भाग अभी पढ़े आदरणीया उषा जी। लगातार। पढ़ते समय किरदारों में डूब गई जैसे। लगा ही नहीं कि कोई कहानी पढ़ रही हूँ। एक फिल्म सी गुजर गई आँखों के सामने से.... जिंदगी भी कैसे कैसे खेल दिखाती है !

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  7. पहले भाग पढ़े बहुत दिन हो गये दोबारा आ न पायी पर मन में कहानी बार बार घुमड़ती रही आज पूरी कहानी पढकर तसल्ली मिली...सही में जिन्दगी भी कैसे कैसे मोड़ों से होकर गुजरती है ।
    कमाल का लेखन है आपका।

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  8. पहला भाग पढ़े काफी दिन हो गये फिर व्यस्तता वश आना ना हो पाया पर मन में कसक सी रही आज तसल्ली मिली पूरी कहानी पढ़कर।सही में जिन्दगी भी कैसे कैसे मोड़ों से होकर गुजरती है...बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी और कमाल की लेखन शैली।

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