ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

कविता

 






दरिया नहीं कोई

जो तुझमें समा जाऊँगी 

रे सागर, 

तिरे सीने पे अपने 

कदमों के निशाँ

छोड़ जाऊँगी…!!


                   — उषा किरण 




यूँ गुज़री है अब तलक, आत्मकथा

 प्रिय सीमा जी🌺    'यूँ गुज़री है अब तलक ‘ पढ़कर अभी समाप्त की है। मन इतना अभिभूत व आन्दोलित है कि कह नहीं सकती। बहुत सालों बाद किसी कि...