ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 25 सितंबर 2022

शर्मसार

 


"आपका खून लगने से ये नया चाकू एकदमी खुट्टल हो गया!” सब्जी काटते-काटते गीता ने मुझसे कहा।

"क्या मतलब?”मैंने उत्सुकता से पूछा !

"हमारे पहाड़ में कहते हैं कि नई दराँती या चाकू से यदि किसी का हाथ कट जाए तो उसकी धार खत्म हो जाती है !” मैं अविश्वास से हंस पड़ी।

"अरे ऐसा भी होता है कहीं?”

मैंने समझाया उसे पर वो उल्टा मुझे समझाती रही कि "नईं ये बात एकदम सच है।”

शाम को  जब मैं उसी चाकू से प्याज काट रही थी तो हैरान रह गई वाकई उसकी धार भोथरी हो गई थी । सालों पुराने चाकू उससे तेज थे और उसके साथ आया दूसरा चाकू भी बेहद खतरनाक था लेकिन इस वाले से  तो फल भी नहीं काटे जा पा रहे थे।

मुझे बड़ी हैरानी हुई कि जो नया चाकू हफ्ते भर पहले ही इतना तेज था कि उससे मेरी उंगली बहुत गहरी कट गई थी, खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, सारे उपाय करने पर भी बहुत देर बाद बन्द हुआ और बहुत खून बह गया था। आज उसकी धार एकदम ही खत्म हो गई थी।

मैंने हैरानी से गीता से पूछा "अरे ये क्या चक्कर है ? क्या कहते हैं तुम्हारे पहाड़ में, ऐसा क्यों होता है ?”

"हम कहते वो शर्मिंदा हो गया!” 

वो हँस कर बोली ! तब से मैं ने उसका नाम ही शर्मिंदा चाकू रख दिया है।

अक्सर सोचती हूँ  इंसान अपने कर्मों और  बातों से जाने किस- किस को, कब- कब यूँ ही आराम से आहत करता है। इँसान अपने फायदे या गुस्से की खातिर दूसरे का गला काट देता है., अपने कर्मों और जहरीली  बातों से किसी का भी दिल तोड़ते जरा नहीं सोचता। हम शारीरिक, भावनात्मक हर तरह की हिंसा करते हैं, पर जरा शर्मिंदा नहीं होते। किसी की बनी- बनाई साफ- सुथरी इमेज पर डाह, क्रोध व ईर्ष्या की छुरी चला कर उसकी आजन्म सहेजी मर्यादा, गरिमा व सम्मान का पल भर में कत्ल करते जरा नहीं सोचते और ये चाकू जिसका धर्म ही है काटना वो अपनी वजह से किसी का खून बहते देख कितना शर्मिंदा हुआ पड़ा है ...कमाल है ! 

सच मुझे बहुत हैरानी है, अपने उस चाकू की शर्मिंदगी पर ...प्यार आता है उसकी कोमल सम्वेदना पर ।मैं बुदबुदा कर कहती हूँ कि "मैंने माफ किया तुझे, अरे, गल्ती तो मेरी ही थी, हर समय जल्दी रहती है तो लापरवाही से कट गयी उँगली, तुम्हारी क्या गलती है इसमें ?” लेकिन कोई फ़ायदा नहीं होता उसकी शर्मिंदगी नहीं जाती ...धार वापिस नहीं आती। हम इंसानों से तो ये चाकू ही कितना भला और गैरतमन्द है ...नहीं?

—————————————

  —उषा किरण

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना सोमवार 26 सितम्बर ,2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२६-०९ -२०२२ ) को 'तू हमेशा दिल में रहती है'(चर्चा-अंक -४५६३) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. ओह्ह्ह... अकल्पनीय।
    अत्यंत भावपूर्ण और संवेदनशील मन की कोमल अभिव्यक्ति।
    कहानी का विश्लेषण अत्यंत सटीक लगा।
    बहुत सुंदर लेखन उषा जी।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  4. क्या सचमुच ऐसा हुआ उषा जी, यदि हुआ है तो सही कहा आपने शर्मिन्दा हम इंसानों को होना चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कामिनी जी ये सही है कि बिना बात एकदम चाकू खुट्टल हो गया लेकिन कारण क्या है ये समझ नहीं आया तो हमने गीता की बात ही सही मान ली…लेकिन बुद्धि तो अभी भी तर्क करती है मानने को तैयार नहीं…अब सभी लोग गौर करिए…इसी मंशा से लिखा…लेकिन ये विचार तो आया कि यदि ये सही है तो हम इंसानों से ये चाकू बेहतर हैं 😊

      हटाएं
  5. ओह ! ऐसा भी होता है !
    सुन्दर एवं विचारणीय विश्लेषण।

    जवाब देंहटाएं
  6. जी चाकू उँगली कटने के बाद खुट्टल तो हुआ अब कारण समझ नहीं आ रहा था तो गीता का दिया तर्क ही घुटक लिया…आप भी आगे से गौर करिए …. 😊

    जवाब देंहटाएं
  7. अद्भुत.., चाकू की संवेदना से उठा मन का चिन्तन सोचने को मजबूर करता है मानवीय संवेदनाओं के लुप्तप्राय समय में …। सुन्दर सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  8. अनूठी/रोचक कहानी। पहाड़ों में ऐसा कहते हैं तो कोई बात होगी।

    जवाब देंहटाएं

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