ताना बाना
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
रविवार, 27 जुलाई 2025
तो अभी…!!
सोमवार, 14 जुलाई 2025
कुछ हट कर ….
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
कीमत ( लघुकथा)
हरे धनिए का डिब्बा खोला तो देखा काफी सड़ा पड़ा था। मेरी त्योरियाँ चढ़ गईं। कल ही तो आया था, गुड्डू से कहा था, जा भागकर एक गड्डी हरा धनिया ले आ।सोचा दस- बीस का होगा , लेकिन सब्जी वाला निकला महाचतुर, बच्चा समझ कर सौ का नोट धरा और मोटी सी गड्डी हरे धनिए की थमा दी।
"बताओ फ्री में मिलता है, सौ का नोट रख लिया, भाई बड़ा महंगा पड़ा!”
"वो कह रहा था कि बरसात में मंहगा मिलता है “ गुड्डू सकपकाते हुए बोला। गुस्सा तो बहुत आया पर अब हरे धनिए के लिए क्या तो लड़ने जाऊँ मरी कड़ी धूप में , सोचकर बड़बड़ाते हुए दो डिब्बों में खूब सहेज कर फ्रिज में रख दिया।
"कल ही तो सौ रुपए का मँगाया और आज सड़े पड़े हो?”मैंने झुँझलाकर कहा।
“गल्ती तुम्हारी है सौ का नोट बच्चे को क्यों दिया, और मुझे क्यों सौ रुपये सुना रही हो , कोई सब्जी तो तुम्हारी मेरे बिना बनती नहीं, पर सब्जी वाले से झिकझिक करके मुझे हमेशा फ्री में ही लेती हो, मेरी कोई कीमत ही नहीं जैसे ” धनिए ने भी अकड़कर कहा।
“ओहो…तो इसीलिए सड़ गए ?”
"हाँ इसीलिए….क्योंकि कुछ लोगों को फ़्री में मिले की क़ीमत समझ नहीं आती, सड़ जाओ तभी समझ आती है।” धनिए ने गर्दन झटककर कहा।
— उषा किरण
शनिवार, 5 जुलाई 2025
गरीब ( लघुकथा)
कोरोना के कारण दो साल तक आर्यन की बर्थडे पर कोई नहीं जा सका था तो मानसी ने इस बार सबको फोन पर जोर देकर कहा कि इस बर्थडे पर सबको जरूर आना है|
दिन में आर्यन ने अपने दोस्तों के साथ बर्थडे सेलिब्रेट की और शाम को पारिवारिक पार्टी होटल में थी, तो सब टाइम से तैयार होकर वहीं पहुँच गए।
केक काट कर हंसी मजाक के बीच खाना- पीना चल रहा था। मेरी दृष्टि सामने की टेबिल पर बार-बार जा रही थी, जहाँ बहुत सुन्दर परिवार के दस-बारह सदस्य और तीन बच्चे बैठे थे ।खूब मंहगे डायमंड के जेवरों में झिलमिलाती व ब्रांडेड कपडों में सजी औरतों से आती इम्पोर्टेड परफ़्यूम की खुशबुओं के झोंकों से पूरा माहौल गमक रहा था।
सहसा मेरा ध्यान उनमें से एक बुजुर्ग महिला पर गया।
" अरे ये तो मिसेज चड्ढा हैं…!” मेरे मुंह से अनायास ही निकला ।
" आप पहचानती हैं इन लोगों को ? “ मानसी ने पूछा।
" हाँ, कई साल पहले ये हमारे पड़ोसी थे। इनकी तब बहुत छोटी सी दुकान हुआ करती थी। परन्तु आज सुना है कि दिल्ली के किसी मॉल में खूब बड़ी दुकान है और बड़े बेटे ने रेडीमेट गारमेन्ट्स की फैक्ट्री डाली है …किस्मत से खूब लक्ष्मी जी की कृपा है अब !”
उनके साथ प्रैम में छोटे बच्चे को लेकर आई बारह तेरह साल की एक लड़की भी थी। वेष-भूषा से वो बच्चे की सेविका लग रही थी। बच्चा प्रैम में सो रहा था और वो लड़की दूसरी छोटी मेज पर बैठी उन सबको खाते टुकुर-टुकुर देख रही थी। उसके सूखे होंठ, मुरझाया चेहरा और कातर बड़ी-बड़ी आँखें देख कर मन बहुत बेचैन हो उठा। मेरा मन कर रहा था उसे अपनी टेबिल पर लाकर पेट भरके खिला- पिला दूँ, परन्तु यह संभव नहीं था।उन सबकी प्लेटें मंहगे, लजीज बुफे के पकवानों से भरी थीं, जिसे वे भर-भर कर लाते और आधा खाते, आधा छोड़ते और फिर दूसरी और तीसरी प्लेट भर लाते।
मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था कि उस लड़की को कम से कम पूरा बुफे न भी खिलाते पर डोसा , बर्गर टाइप कुछ न कुछ तो खिला सकते थे।सब बच्चे-बड़े खा रहे हैं और बच्ची बेचारी भूखी बैठी उन्हें देख रही है।
सहसा किसी ने मेरे कन्धे को स्पर्श किया तो मैंने पलट कर देखा। मिसेज चड्ढा बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराती हुई खड़ी थीं।
" अरे आप ? बहुत सालों बाद देखा, आप तो जरा भी नहीं बदलीं…कैसी हैं?” मैं हैरान थी , वाकई बीस सालों बाद भी उम्र की एक भी लकीर उनको छू तक नहीं गई थी। बल्कि स्वास्थ्य व सुकून की लालिमा ने चेहरे का सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया था।
" तो आप ही कहाँ बदलीं? पहले से ज़्यादा निखर गई हैं।माफ़ कीजिए, आपको देखा तो रुका नहीं गया, मिलने चली आई।” कहते हुए हंस कर गले लग गईं ।
हमने एक- दूसरे की खैर- खबर और फोन नं० लिए। उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे-बहू की मैरिज एनिवर्सरी है आज, वही सेलिब्रेट करने आई थीं पूरे परिवार के साथ। आगे मिलने का वादा लेकर वे अपनी टेबिल पर परिवार के पास लौटने लगीं, तभी शरद फुसफुसा कर मानसी से बोला-
" मम्मी तो कह रही थीं कि बहुत अमीर हो गए हैं अब ये लोग, पर हैं तो अभी भी गरीब ही। देखो न, एक छोटी बच्ची को खिलाने के लिए बेचारों के पास पैसे कम पड़ गए …!”
उसके लहजे में तीखा व्यंग्य था। उसकी फुसफुसाहट काफी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मैं समझ गई उसकी मंशा। मैंने आँखें तरेर कर उसे चुप रहने का इशारा किया…घबड़ा कर मिसेज चड्ढा की तरफ देखा …जाते- जाते उनके कदम कुछ पल ठिठके …फिर आँखें झुकाए वे तेजी से अपनी टेबिल पर वापिस लौट गईं।
— उषा किरण
भ्रम (लघुकथा)
सर्द कोहरे से भरी सुबह…जीवन के खो गए पृष्ठ को तलाशती सी दीपा बयालीस सालों बाद फिर से उसी शहर के, उसी पार्क के, गुलमोहर के नीचे बनी बेंच की तरफ अनमनी सी बढ़ रही है। ना जाने कौन सी कशिश उसे वहाँ लिए जा रही है।
अरे…वहां तो पहले ही कोई वृद्ध हाथ में गुलमोहर का गुच्छा थामे विचारमग्न बैठे हैं। वह बराबर वाली बेन्च पर आहिस्ता से बैठ गई…!
दोनों ने एक-दूसरे को गौर से पर अजनबी , खोजती निगाहों से कई बार देखा…दोनों की टटोलती सी दृष्टि में कई सवाल थे पर मौन। मन किया पास जाकर नाम पूछ ले , कहीं वही तो नहीं…फिर सोचा कुछ भ्रम भी भले लगते हैं…बने रहने चाहिए।
एक घंटे बाद शॉल कसकर लपेटते हुए वह बाहर की तरफ चल दी…!!
— उषा किरण
फोटो; गूगल से साभार
कृष्णा
मर्यादा पुरुषोत्तम राम, तुम्हारी भक्ति के बावजूद— मैंने चुना, त्रिभंगीलाल कृष्ण होना… विनम्रता, त्याग, सहनशीलता, ममता,सम्मान और प्यार सब ...
