सुबह-सुबह
रसोई से उठती ताज़े नाश्तों की सुगन्ध को चीर
ए सी की लहराती शीत तरंगों और
बाथरूम से उठती मादक सुगन्धों को फ़लाँग ,
पथरीली दीवारों का कलेजा चीर
एक आर्तनाद गूँजता है
तथाकथित पॉश कॉलोनी के
सुगढ़ गलियारों में...
चीख़ कर दरख़्तों से उड़ जाते हैं परिंदे
और भी जर्द हो जाता है अमलतास काँप कर
आलीशान कोठी की मनहूसियत को धकेल
दहशत से चीख़ने लगती हैं ईंटें
मस्तक से बहती रक्त की धार और
सीने में हहराते पीड़ा के सागर को हाथों से दबा ,
जमा हुई सभ्य भीड़ से
याचक सी भीख माँगती हैं दया की
कातर ,सहमी सी आँखें !
-तो क्या हुआ औरत जो तुम पिटीं
सदियों से पिटती ही आई हैं औरतें यूँ ही !
-तो क्या हुआ जो तुम भूखी हो कई दिन से !
- तो क्या हुआ जो एक दिन यूँ ही
अर्थी पर सजने से पहले ही फूँक दी जाओगी !
मत देखो उधर खिड़कियों के पीछे से झांकती
पथराई आँखों और कानों को किसी आशा से
वे सिमटे खड़े हैं वर्जनाओं की परिधियों में जकड़े,
असभ्यता है न किसी की सीमा में अनधिकार चेष्टा ,
और कोई बिना बात क्यूँ बने कन्हैया
क्यूँ पड़े किसी के पचड़े मे
सुनो तुम ,बात समझो-
इससे पहले कि बहती पीड़ाओं के कुँड में डूब जाओ
इससे पहले की सीने की आग राख कर दे तुम्हें
टूट जाए साँसों की डोर
या कि होश साथ छोड़ दे
हिम्मत करो,उठो औरत !
ग़ौर से देखो अपने चारों ओर उठी दीवारों को
क़ैद हो जहाँ तुम
शीशे की कमज़ोर सी दीवार ही तो है मात्र
तो मेरी जान !सुनो तुम,यक़ीन करो
आग को पीते जो ,वो कमज़ोर हो ही नहीं सकते
चाहें जो हो
पहला पत्थर तो उठाना होगा तुमको ही
तो उठाओ और पूरे ज़ोर से घुमा कर उछालो
......
तुम सुन रही हो न ...?
—उषा किरण