ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

स्मृति — चित्रण—( भारतीय महिला साहित्य समागम” )



6th और 7th फ़रवरी को इंदौर में आयोजित वामा तथा घमासान डॉट कॉम के सौजन्य से "अखिल भारतीय महिला साहित्य समागम” के आयोजन में अतिथि वक्ता के रूप मे भाग लेने के लिए इंदौर से आमन्त्रण मिलने पर पहले तो असमंजस में थी पर बाद में जाने का तय किया । सुरभि भावसार ने हम लोगों के एयर टिकिट व रहने की व्यवस्था करवाई।
             इंदौर मैं पहली बार गई ।वहाँ के लोगों के स्वभाव की मिठास और मेहमान नवाज़ी  ने सच में मन मोह लिया।एयरपोर्ट पर वरिष्ठ पत्रकार राजेश राठौर जी हमको रिसीव करने आए थे वो रास्ते भर हमें शहर व प्रोग्राम की जानकारी देते रहे शहर की साफ़-सफ़ाई के बारे में और भविष्य की योजनाओं के बारे में बताते रहे ।सारा शहर एकदम साफ़ सुथरा देख बहुत अच्छा लगा ।
हमारा रुकने का इंतजाम साउथ एवेन्यू होटल में किया गया था ।होटल के  द्वार पर ही ज्योति जैन जी बुके व मीठी मुस्कान सहित  स्वागत के लिए स्वयम् प्रस्तुत थीं।उनकी आत्मीयता ने सफर की थकान मिटा दी।
        थोड़ी देर बाद ही रूम में कार्यकारिणी की सदस्याएँ अमर चड्ढा, पद्मा राजेन्द्र ,वसुधा गाडगिल,अंतरा करवडे, सुरभि भावसार मिलने आईं और बहुत अपनत्व से पूछा कि हमें कोई परेशानी या कमी तो नहीं है !
उसके बाद घमासान डॉट कॉम से अर्जुन राठौर जी कैमरामैन को लेकर आए और एक छोटा सा इंटरव्यू लिया ।
             6th फ़रवरी को उद्घाटन-सत्र में बराबर में ही 'जाल सभाग्रह’ पहुँचे  जहाँ चाय नाश्ते का इंतजाम था उसके पश्चात कार्यक्रम प्राम्भ हुआ ।सभी अतिथि वक्ताओं का स्वागत पगड़ी पहना कर,श्रीफल ,स्मृति चिन्ह एवम् उपहार देकर किया गया ।
स्वागत सत्र में मृदुला सिन्हा व चन्द्रकान्ता जी को सुनने का अनुभव बहुत अच्छा रहा ।स्त्री-विमर्श पर जीवन मंथन से निकला हर वाक्य जीवन अनुभव का सार था जैसे ,जहाँ सिर्फ़ समस्याएँ ही नहीं उनके समाधान का भी रास्ता दिखाया।मृदुला सिन्हा जी ने कहा कि स्त्री या पुरुष की जगह अब परिवार विमर्श की जरूरत है ।
अन्य कविता व कहानी सत्रों में सत्रों में मालिनी गौतम,अलकनन्दा साने ,जयश्री रॉय ,सुषमा गुप्ता, इत्यादि को सुनने का अनुभव बहुत आनन्ददायक रहा।
7th फ़रवरी को भी टॉक शो में रुचिवर्धन मिश्र,रचना समंदर,निर्मला भुराड़या,वर्षा गुप्ता तथा अन्य सत्रों में सीमा जैन,शील कौशिक,जयंती रंगनाथन,नासिका शर्मा , जया जादवानी व रेणु जैन इत्यादि के परिपक्व विचारों को सुनने का अनुभव अविस्मरणीय रहा।
इसके अतिरिक्त विभिन्न शहरों से पधारी महिला साथियों ने भी अपनी कविताएं तथा लघु-कथाएँ सुनाईं।गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी ने भी बहुत सुरीली आवाज में कविता का सस्वर पाठ किया और अर्चना चावजी व कविता वर्मा जी ने भी लघु-कथा सुनाई ।
सभी के विचारों को सुनना ,मिलना-जुलना,गपशप ,संग खाना- पीना ,और फ़ोटोग्राफ़र के कहने पर मिल कर कैटवॉक कर खिलखिलाते हुए फ़ोटो खिंचवाना स्मृति -पटल पर सदा के लिए अंकित हो गया।
फेसबुक पर ही परिचय हुआ था संजय नरहरि पटेल जी से वो अत्यन्त व्यस्त होने पर भी मिलने आए कुशलता पूछी ।
निधि जैन भी बहुत स्नेह से मिलीं उनका घर आने का निमन्त्रण वक्त न होने के कारण स्वीकार नहीं कर सकी जिसका अफसोस रहा ।
फ़ेसबुक के माध्यम से गाने के शौक़ीन हम जैसे दीवानों का अर्चना चावजी और वन्दना अवस्थी दुबे ने एक ग्रुप बनाया ‘गाएँ गुनगुनाएँ ग्रुप ‘जो महिला साहित्यकारों एवम् ब्लॉगर्स का ही ग्रुप है ।ढा़ई साल में सभी में बेहद आत्मीयता हो गई है।उनमें  से अर्चना चावजी ,गिरिजा जी और कविता वर्मा जी से पहली बार उक्त प्रोग्राम में मिल कर इतनी ख़ुशी और स्नेह मिला कि कह नहीं सकती ।
गिरिजा जी के साथ ग्वालियर से आईं उनकी दोस्त प्रतिभा द्विवेदी जी से भी खूब आत्मीयता हो गई ।
अर्चना जी की सहजता ,सौम्यता,गंभीरता व आत्मीयता ने मन मोह लिया ।एक तपस्विनी सा औरा है उनका।गाती भी बहुत मधुर हैं ।उनका धैर्य व सबको साथ लेकर चलने का भाव अनुकरणीय है ।बहुत कुछ सीखने को मिलता है उनसे।कर्तव्यपरायणता व दूसरों के काम आने में उनकी मिसाल दी जा सकती है बहुत निर्मल मन है उनका।
            गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी का प्यार तो आँखों और बातों से हर पल छलक रहा था ।दो दिन साथ रहे पर बहुत कुछ सुनने-कहने से रह गया ।पुन: मिलने का वादा लेकर जुदा हुए।वे इतनी प्यार और भाव भरी लगीं कि इत्मिनान से साथ बैठ कर उनको खूब सुनने का मन कर रहा था।वे बहुत ही सुरीला गाती हैं ।भजन ,ग़ज़ल, शास्त्रीय संगीत सभी पर उनकी मज़बूत पकड़ है ।उनका स्नेहिल स्पर्श हथेलियों में आज भी महसूस होता है।
                कविता वर्मा जी से दोस्ती भी फ़ेसबुक पर ही हुई थी वे भी बहुत आत्मीयता से मिलीं ।बहुत मीठी बोली और मीठा स्वभाव है उनका । उनके पति का जन्मदिन था परन्तु रात तक  हमारे ही साथ रहीं ।मालिनी गौतम जी भी हम लोगों जैसी ही  मिल गईं ।हम सबको अपनी गाड़ी में बैठा कर कविता वर्मा जी शाम को खजराणा मंदिर ले गईं जहाँ गणपति के दर्शन कर षोडशियों की तरह खूब मस्ती धमाल किया हमने और ख़ूब वीडियो बनाईँ व सेल्फ़ी लीं ।
            फिर अगले दिन कविता जी ने साहित्य समागम के प्रोग्राम  के बाद अपने श्रीमान जी को भी बुला लिया तो हम चारों उनके साथ उनकी गाड़ी में लद कर सर्राफ़ा बाज़ार गए ।
सर्राफ़ा बाज़ार भी एक ही अजूबा है ।नौ बजे तक तो सर्राफ़ा बाज़ार चलता है और उसके बाद वहीं चाट बाज़ार लग जाता है जो रात दो बजे तक जाग्रत रहता है ।भीड़ इतनी जैसे कोई मेला लगा हो ।आलू पैटी,जोशी के दही बड़े,भुट्टे की कीस ,पानी पूरी,गराड़ू,साबूदानाखिचड़ी,जलेबी ,पोहा,मालपुआ,रबड़ी,क़ुल्फ़ी फ़ालूदा, शरीफे की रबड़ी सब चखने में ही बुरी तरह पेट भर गया ।और बहुत कुछ बाकी रह गया था।
जोशी के दही बड़े खाने में तो मज़े के थे ही उनको उछाल कर बनाने की कारीगरी और एक ही चुटकी से बारी-बारी मसाले डालने का हुनर भी कम मनोरंजक नहीं था ।उसकी दुकान के सामने सदा भीड़ लगी रहती है । वहीं अर्चना जी भी अपनी बेटी और मायरा  के साथ आ गईं ।हम सबने भाई साहब की एक दिन पहले गुज़र चुकी बर्थडे को फिर खूब खा पीकर मस्ती से मनाया । ।पान खाकर वापिस लौटे भीड़ इतनी थी कि चलना मुश्किल हो रहा था हम बार - बार कहे जा रहे थे कि बाप रे इंदौरी कितने चटोरे जबकि कसर हमने भी नहीं छोड़ी 













शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

कविता— वेलेन्टाइन डे



नहीं ...आज तो नहीं है मेरा वैलेंटाइन डे
लेकिन...
मेरे हाथों में मेंहदी लगी देख तुमने
समेट दिए थे चाय के कप जिस दिन
बुखार से तपते माथे पर रखीं
ठंडी पट्टियाँ जब
ठसका लगने पर पानी दे
पीठ सहलाई जब
जानते हो मुझे मंडी जाना नहीं पसंद तो
फ्रिज में लाकर सहेज दिए
फल- सब्ज़ियाँ जब
ठंड से नीली पड़ी उंगलियों को
थाम कर गर्म हथेली में
फूँकों से गर्मी दी जिस दिन
या परेशान देख पिन  लगा दिया साड़ी में जब
बदल दिया बच्चों का गीला नैपकिन और
बूँदें आती देख अलगनी से
उतार दिए कपड़े जब
तेज नमक पर भी खा ली सब्जी या
पी ली फीकी चाय बिना शिकायत जब
पेंटिंग बनाते देख बच्चों को चुपचाप
रेस्तराँ ले गए स्कूटर पर और
मेरा भी करा लाए खाना पैक जब
व्याकुल हो करवाचौथ पर बार-बार
आसमाँ में चाँद ढूँढ रहे थे जब
मेरी बहन ,भाई की तकलीफों में
साथ खड़े हुए जब
आखिरी वक्त पापा ,अम्मा  को थामा जब
मॉर्निंग- वॉक से लौटते हरसिंगार,चंपा के
ओस भीगे सुगन्धित फूल चुन कर
सिरहाने टेबिल पर सजा दिए जब
...................
तब...तब...तब
हाँ हर उस दिन मेरा वैलेंटाइन डे था तब !!!!🌹
                                      —-उषा किरण.
                                          14. 2 .2020

शनिवार, 18 जनवरी 2020

कहानी — अनकही

  
                            ————


चूँ कि मुझे  हर काम इत्मिनान से करना पसंद है तो हमेशा फ़्लाइट के लिए काफ़ी मार्जिन लेकर ही  घर से निकलता हूँ ।वैसे भी एयर पोर्ट पर ड्यूटी-फ़्री शॉप्स से छोटी-मोटी शॉपिंग करना मुझे पसंद है । सोनल के लिए परफ्यूम और ईशान के लिए शर्ट ले ली थी और अपने लिए अपनी मनपसंद स्टारबक्स की लार्ज कॉफ़ी लाते लेकर आराम से बैठ कर सिप लेने लगा था कि देखा बोर्डिंग स्टार्ट हो गई तो कॉफ़ी ख़त्म कर उठ गया ।
अपनी सीट ढूँढ कर मैंने केबिन में सूटकेस जमाया और इत्मिनान से बैठ  आस-पास का जायज़ा लेने लगा ।विंडो सीट पर एक स्टूडेंट्स टाइप लड़का कानों में ईयरफ़ोन लगा कर चिप्स खाने में मस्त था लेफ़्ट वाली सीट ख़ाली थी अभी ।
फ़्लाइट से पहले मुझे हमेशा ये टेंशन रहता है कि पता नहीं आजू-बाज़ू के सहयात्री कौन होंगे ,कई बार कोई महिला यदि छोटे बच्चे के साथ हो तो परेशानी हो जाती है ।सहसा याद आया तो सोनल को फ़ोन लगा कर बात की और इत्मिनान से मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगा ।
बराबर वाली सीट के पास आकर एक महिला सीट नं॰ चैक करने लगी उसकी शक्ल देखते ही लगा जैसे धड़कन रुक जाएगी 'नताशा ...हाँ वही ...वही तो है...तीस साल बाद !’मैंने देखा वो केबिन में बैग रखने की कोशिश कर रही है उसे परेशान देख मैं उठा ।
"मे आई “ कह कर उसका बैग सैट कर दिया ।
"थैंक्स” कह कर जैसे ही उसकी दृष्टि मेरे चेहरे पर पड़ी वो भी चौंक पड़ी फिर तुरंत ही सँभली और बैठ कर सीट-बैल्ट बाँधने लगी ।मैंने नोटिस किया उसके चेहरे पर कुछ बादल से घुमड़ आए थे पर वो तटस्थ सी बैठी रही ।मैं मैगज़ीन में आँखें गढ़ा पढ़ने का बहाना करने लगा और वो भी सैटिल होकर पर्स से कोई बुक निकाल कर पढ़ने लगी ।
यूँ तो वक़्त की धारा बहा ले जाती है आदमी को बहुत आगे पर कुछ ज़िद्दी पत्तों जैसे पल इंकार कर देते हैं धारा में बहने से और वहीं कहीं तटों के सीने में मुँह छिपाए बरसों दुबके पड़े रहते हैं ।
कितनी बदल गई है नताशा पर पहले से ज़्यादा सुंदर और स्मार्ट लग रही है । क्रीम कलर का रॉ सिल्क का सूट ,खोल कर लिया ब्लैक एन्ड क्रीम कलर का सिल्क का दुपट्टा ,पर्ल एन्ड डायमंड के टॉप्स ,काली बिंदी,कॉपर कलर की सैंडिल,कलाई में चौड़ा सा डायमंड का बैंगल, पीठ पर कमर तक लहराते खुले रेशमी बाल।कनपटियों से इक्के-दुक्के चाँदी के तार झलक रहे थे,सिर पर गॉगल्स टिकाए वो पहले से कहीं ज़्यादा स्मार्ट और कॉन्फ़िडेंट लग रही थी ।लम्बी तो थी ही रंग भी पहले से साफ़ हो गया था ।बदन भर गया था पर एकदम सुडौल ।बड़ी- बड़ी पनीली सपनीली सी आँखें अब भी वैसी ही थीं नीर भरी बदरी सी, लगता बस अब बरसीं कि तब बरसीं।उसमें से पता नहीं किस इत्र या परफ़्यूम की भीनी- भीनी आती किसी फूल जैसी ख़ुशबू से मुझे तन्द्रा घेर रही थी ।
जिस तरह वो मुझे देख कर चौंकी थी उससे शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रही थी, फिर तनु ने फ़ेसबुक एकाउन्ट मुझसे ही तो बनवाया था तो पासवर्ड मुझे पता था ।प्राय: तनु के एकाउन्ट की गलियों से सेंध लगा फ़ेसबुक की खिड़की से नताशा की वॉल पर उसके सुन्दर संसार में ताक-झाँक कर लेता था ,इसी से पल भर में ही पहचान गया मैं ।बच्चों के साथ, पति के साथ बिताए ख़ुशनुमा पलों , पर्व-त्योहारों पर रंगोली बनाते,दिए सजाते,रंग खेलते ,बच्चों और पति के साथ नाचते -गाते फ़ोटो को देख प्रतीत होता था वो बहुत ख़ुश और संतुष्ट है अपने जीवन में ।
पहचान तो लिया मैंने वर्ना वो इतनी बदल गई थी कि बिना परिचय पहचानना असंभव होता।तब की छुई- मुई लतिका सी नताशा अब पुष्पित छितराए तरु में परिवर्तित हो बेहद आकर्षक हो चुकी थी ।सोचा नाम पूछूँ या हलो कहूँ ? फिर रुक गया ,मन ही मन कहा 'छोड़ो शेखर बेटा अब क्या कहना ,क्या सुनना जब वक़्त रहते ही नहीं कह पाए तुम कुछ, तो अब तो रहने ही दो !’ मेरे मन में भयंकर उथल -पुथल मची थी l मन में उठा बवंडर जाने कहाँ -कहाँ उड़ाए लिए जा रहा था मुझे ।खिड़की के बाहर बादल साथ-साथ दौड़ रहे थे और मन मेरा अतीत के पीछे -पीछे।
उस दिन एग्ज़ाम बाद थका-हारा छुट्टियों में घर आकर लम्बी चादर तान कर सो रहा था कि सुबह ही तनु ने चादर खींच कर झिंझोड़ दिया "भैया...ओ भैया उठो जल्दी !”
"अरे क्या है सोने दे न” मैंने झुंझला कर चादर फिर सिर तक तान ली ।
"अरे आख़िरी डेट है आज एडमिशन की ,मेरा फ़ॉर्म कॉलेज में जमा कर आओ ...उट्ठो जल्दी तुम!”
" क्या है ख़ुद जा न, मुझे सोने दे !”
"अभी कहती हूँ मम्मी को ,मम्मी....मम्मी” फिर मम्मी आईं , तो उठना ही पड़ा ।
"चुडै़ल ...पिछले जन्म की दुश्मन है तू मेरी” एक धौल उसकी पीठ पर जमा बाथरूम में घुस गया।
इतना ग़ुस्सा आ रहा था ...टेलर के यहाँ से कपड़े ला दो,मार्केट तक छोड़ आओ,मेरी फ्रैंड के यहाँ छोड़ दो,मूवी दिखाने ले चलो... मेरे आने से पहले ही हमेशा एक लम्बी लिस्ट तैयार रहती तनु की ।
एक कप चाय पी जींस चढ़ा कर स्कूटर स्टार्ट करते ही तनु पीछे से चिल्लाई "अरे नहा तो लेते भैया”।
" कौन तेरे लिए दूल्हा देखने जा रहा हूँ आकर नहाऊँगा “ मैंने कहा। 
कॉलेज में एडमिशन का आख़िरी दिन होने से बहुत भीड़ थी ।लड़किएं तरह-तरह के सवाल पूछ रही थीं और काउंटर पर बैठा क्लर्क चिड़चिड़ा कर ,झुँझला कर जवाब दे रहा था।
मैं साइड में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया ,सोचा जब भीड़ छँट जाएगी तब इत्मिनान से जमा करूँगा।तभी मैंने देखा कि एक दुबली-पतली लम्बी ,मासूम सी सूरत वाली , आसमानी सूट पहने लड़की से क्लर्क बत्तमीजी से बात कर रहा था ।
"देखती पढ़ती हैं नहीं कुछ ,बस मुँह उठा कर चली आईं ,अरे भरने से पहले फ़ॉर्म पढ़ तो लेतीं मैडम प्रॉस्पेक्टस में कहीं लिखा है कि म्यूज़िक है हमारे कालेज में ...हैं ? “
" पर...पर हमने तो पेपर में पढ़ा था ...”वो हकला कर बोली ,उसके माथे पर पसीना आ गया,चेहरा अपमान और शर्म से लाल पड़ गया।वो बेहद नर्वस हो गई।
" अरे ये लो न पॉलीटिकल साइंस ,कितने अच्छे नं॰ हैं इसमें तुम्हारे “ उसने दाँत फाड़ते हुए कहा।उस लड़की का चेहरा रुँआसा हो रहा था ।अब मुझसे नहीं रहा गया वहीं बैठे- बैठे मैंने ग़ुस्से से आँखें निकालीं ।
"यहाँ बैठने से पहले आप ज़रा होमवर्क कर लेते तो अच्छा नहीं रहता वैसे ? पेपर में छपा है इस साल से म्यूज़िक शुरु हो रहा है आपके कॉलेज में और आपको ही पता नहीं ? आप इसी कॉलेज से हैं या कहीं से उधारी पर लाए गए हैं ? अपनी मर्ज़ी के सब्जेक्ट बाँट रहे हैं ...हाऊ कैन यू डू दिस ?”मैंने सख्ती से हड़काया।
उसने जल्दी से मेज़ की दराज़ से एक फ़ाइल निकाली और उलट-पलट कर देखी फिर दाँत निपोर कर बोला "अरे जी अकेली जान क्या-क्या देखूँ ? जे कालेज वाले भी रोज़ ही कोई नया नियम बना देवैं हैं बताओ हम भी क्या करें और जे लड़कियों ने भी मार दिमाग का फ़ालूदा कर रखा है जी, हमारी भी मुसीबत है ।लाओ जी मुन्नी फ़ार्म दो हम ओ. के.कर देते हैं बाद में देखेंगे ।”सभी लड़कियों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई ।
"चलो किसी ने तो अक़्ल ठिकाने लगाई खड़ूस की” कोई लड़की फुसफुसाई ।
उस आसमानी सी लड़की के चेहरे पर कुछ सुकून और आँखों में कृतज्ञता छलक उठी । उसने बैग से झट पैसे निकाले और फ़ॉर्म के साथ जमा कर सर्र से निकल गई "थैंक्यू” जाते-जाते नीची निगाह कर धीरे से कह गई ।मैं मुस्कुरा दिया।
" अरे पता है वहाँ वो तेरी भायली ...क्या नाम है उसका... हाँ नताशा शर्मा भी आई थी ।बस तू ही लाट साहब है वहाँ लड़कियों में भेज दिया मुझे “मैं घर आकर तनु से बोला।
" अरे पर तुमको कैसे पता भैया कि वो नताशा ही थी ? तनु ने हाथ नचा कर उत्साह से पूछा।
“अरे फ़ॉर्म पर पढ़ा मैंने और तू भूल गई तूने शिमला ट्रिप की फ़ोटो दिखाई थीं न मुझे इसी से पहचान गया ।पर इस ज़माने में इतनी छुई- मुई रह कर काम चलता है क्या ? मिनमिन कर रही थी ये नहीं कि डाँट लगा देती उस बत्तमीज क्लर्क की “।तनु को मैंने सारी बात बताई फिर ।
"अरे भैया वो बहुत सीधी और पढ़ाकू टाइप है ।लड़ना- भिड़ना उसके बस का नहीं ।”
पहले दिन तनु जब कॉलेज गई तो लौट कर मुझ पर फट पड़ी “भैया तुमने मेरी इज़्ज़त का कचड़ा कर दिया हाँ नहीं तो ।”
“अरे मैंने क्या किया भई,क्या हुआ?”
" होना क्या था पता है आज कॉलेज में जब मैंने नताशा को बताया कि " पता है उस दिन भैया ने तुमको देखा था और मिनमिनाने वाली बात बताई तो पता है क्या बोली वो ?” तनु ने अपनी आँखें गोल करके कहा ।
" क्या कहा ये तो बताओ “ मैंने हँस कर कहा ।
" बोली ' ओहो ! तो वो लम्बू थे तुम्हारे भैया ? छि: नहाते नहीं ,शेव नहीं करते क्या और शर्ट तो लग रहा था जैसे घड़े से निकाल कर पहनी थी,बैड से सीधे उठ कर आ गए थे क्या जनाब ?’ कहा था कि नहीं तुमसे नहा कर जाओ मुझे यही डर था कि मेरी कोई फ्रैंड न देख ले तुमको ?” तनु की आँखें और गोल हो गईं ।वो वाक़ई शर्मिंदा लग रही थी सिर पकड़ कर बैठ गई।
" हा हा शेरों के मुँह किसने धोए...वैसे बोल भी लेती हैं मैडम, मैं तो समझा था कि बस मिनमिन ही करती हैं ,उसे तो मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए था...इतना कचकच जो मेरे लिए बोल रही थी तो वहाँ तो बोला नहीं गया, तब तो रूआँसी सी ,गूँगी गुड़िया बनी खड़ी थीं... और मुझे सर्टिफ़िकेट नहीं लेना उससे ,कह देना ...हुँह !“ मैंने लापरवाही से कहा जैसे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हो।
" मिनमिन ? पता भी है बेस्ट डिबेटर थी स्कूल में “ ।
" हाँ तो यहाँ कौन कम हैं गोल्ड मैडलिस्ट हैं बता देना ज़रा उसे, कहीं ऐसा- वैसा समझ रही हो ।वो तो हम ज़रा सादगी पसंद हैं “ जाते-जाते मैंने नाटकीय अंदाज में कॉलर खड़े किए ।
सच तो ये है कि उसकी मासूम सूरत और भोली सी आँखों ने मुझे बाँध लिया था ।सारे दिन उसकी बातें और सूरत मेरे मन-मस्तिष्क में घूमती रहीं और उसकी बात पर हँसी आती रही।
जब भी हॉस्टल से छुट्टियों में घर आता वो तनु के साथ पढ़ती ,बैडमिंटन खेलती, मेंहदी लगाती तो कभी झूले की पींगें बढ़ाती दिख जाती ।मुझे देखते ही लजा कर किताब में झट मुँह झुका लेती या बिना बात सैंडिल या चुन्नी ठीक करने लगती ।गालों पर अबीर सा बिखर जाता।
उसके जाते ही तनु मुझे छेड़ने लगती " भैया तुम शादी कर लेना नताशा से सच इत्ती अच्छी लड़की नहीं मिलेगी तुमको ,वैसे भैया सच बोलना तुम्हारा भी दिल आ गया है न ... वो तुम उसको देखते हो न तो साफ़ दिखता है तुम्हारी आँखों में ,है न ...बोलो है न?” वो खिलखिल कर छेड़ती तो मैं एक चपत लगा मुस्कुरा देता।
सच तो ये था कि मुझे हर पल छुट्टियों का इंतज़ार रहता ।एक जोड़ी शर्मीली आँखें मुझे घर की ओर खींचतीं हरदम ।हरदीप बहुत बढ़िया ग़ज़ल गाता था मैं अक्सर उससे सुनाने को कहता 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन...’और खो जाता कहीं, वो मुझे छेड़ता " ओए कौन है शर्मीले नैनों वाली बता- बता...कौन है हमारी भाभी ?”
मैं मुस्कुरा देता पर सच तो ये है कि जब भी तनु और हरदीप मुझे नताशा के लिए भाभी कह कर छेड़ते तो हज़ार दीप मन में जल जाते... साधना,मुमताज़, शर्मिला ,वहीदा,मधुबाला सब उस छुई-मुई में ही मुझे नज़र आतीं ।बगिया के फूल हों या चाँद,बस हर जगह उसी का चेहरा नज़र आता।चाँदनी में संगीत सुनाई देता तो झींगुरों की आवाज़ में पायल की रुनझुन सुनाई देती ।एक नशा सा तारी रहता मुझ पर उन दिनों ।
मैं इतना ख़ुश रहता कि अब मुझे ना तो ग़ुस्सा आता था और ना ही किसी की बात ही बुरी लगती थी और सबसे मज़े की बात तो ये कि अब मेरा पढ़ने में बहुत मन लगता ।एक मक़सद मिल गया हो जैसे जीवन को।यार-दोस्त भी मेरे इस परिवर्तन पर हैरान थे प्राय: छेड़ते "क्या बात है यार कोई प्यार -मोहब्बत का चक्कर है क्या ? मैं हँस कर टाल जाता ।
एक दिन मम्मी बोलीं " शेखर जाकर बेटा ज़रा तनु को नताशा के यहाँ से ले आ “।
" मम्मी मुझे पढ़ना है उसको फोन कर कह दो रिक्शे से आ जाए” ।
”अरे अँधेरा घिर रहा है अकेले आना ठीक नहीं चला जा बेटा।”
मैं ना नुकुर कर ज़रूर रहा था पर मेरे मन में लड्डू फूट रहे थे ।दोनों घरों के संस्कार ऐसे थे जहाँ पर लड़के और लड़की की फ्रैंडशिप को लेकर बहुत सहज नहीं थे सब अत: कभी बात करने की या ख़त लिखने की हिम्मत ही नहीं हुई । मन ही मन ख़ुश था कि आज शायद सामने बैठ कर ठीक से देखने का या शायद बात करने का मौक़ा मिल जाए।
मैंने बैल बजाई तो दोनों बाहर ही निकल आईं ।मैं सड़क पर स्टुपिड की तरह स्कूटर लिए खड़ा ही रह गया मेरे अरमानों पर पानी फिर गया ।नताशा ने बरामदे के खम्भे से मेरी ओट ले ली।
"अच्छा बाय “ कहती तनु स्कूटर पर आकर बैठ गई और मैंने स्कूटर स्टार्ट कर चलते-चलते नताशा पर उड़ती सी दृष्टि डाली वो खम्भे की ओट से एक आँख से मुझे ही देख रही थी ।
" भाई ये तेरी भायली ज़रा सा भी एटीकेट्स नहीं जानती क्या?”स्कूटर खड़ा कर अंदर आते ही मैं भुनभुनाया।
" क्यों भई क्या हो गया...अब क्या कर दिया मासूम ने ?”
" हुँह ! मासूम ...मैं कोई ड्राईवर या नौकर हूँ क्या ? ये भी नहीं कि कोई भला मानुस आया है भाई ,तो चाय-पानी ही पूछ लें ,बस !अब कभी मत कहना लाने को... हाँ नहीं तो “ मैं भुनभुनाया ।मेरे मन की हताशा ग़ुस्से में बदल गई।
"अरे भैया वो बहुत शर्माती है तुमसे ,मैं छेड़ती रहती हूँ न उसको कि मेरी भाभी बन जा तो कतराती है तुम्हारे सामने आने से “ तनु ने हँस कर कहा ।
" अजी हाँ शक्ल देखी है गँवार की “ मैंने मन की पुलक दबाते हुए कहा ।
"हाँ हाँ देखी है न तुम्हारी आँखों में...उसे देखते ही तुम्हारी आँखों में जो सौ-सौ वॉट के बल्ब जलने लगते हैं न उसी में देखी है “ तनु खिलखिला पड़ी और मैं झेंप कर हट गया वहाँ से ।
अचानक एयर हॉस्टेस ड्रिंक्स पूँछने लगी "विच ड्रिंक वुड् यू लाइक टू हैव सर ?”
"ऑरेंज जूस” कह कर मैंने साइड वाली सीट पर कनखियों से देखा वो बिना हिले-डुले किताब में आँखें गढ़ाए बैठी थी पर एक घंटे से पेज नं० एट्टी नाइन पर ही अटकी थी ।मुझे मन ही मन हँसी आ गई मतलब नताशा भी कहीं और ही विचरण कर रही हैं ।शरीर से यहाँ होकर भी मन कहीं और ही है।
बस एक घंटे में फ़्लाइट लैंड कर जाएगी फिर पछताते रहना जीवन भर लल्लू की तरह |मैंने मन ही मन ख़ुद को लानत मलामत भेजी ।
" हाय !माय सेल्फ़ शेखर...शेखर मिश्रा “ मैंने हिम्मत करके कहा ।
" हाय ! नताशा शर्मा “ मैंने देखा उसके होंठ और उँगलियाँ कँपकँपा गईं।
" जी,मैंने पहचान लिया था आपको ...दरअसल तनु ने दिखाई थीं एकाध बार आपकी फ़ोटो “ मैं झूठ बोल रहा था।
"मैंने भी...” नताशा कहते-कहते रुक गई उसने भी तनु की वॉल पर कई बार शेखर को तनु से राखी बँधाते तो कभी शादी की फ़ोटो में हंसते -नाचते देखा था । उसने अपनी उँगलियाँ बीच में फँसा कर गोद में किताब रख ली।
" आप बैंगलोर में रहती हैं ?” मैंने यूँ ही बात आगे बढ़ाते हुए कहा जबकि मैं जानता था कि वो दिल्ली में रहती है ।
"नहीं वहाँ मेरी बेटी की जॉब लगी है उसी को सैटिल करने गई थी मैं दिल्ली में रहती हूँ और आप ?
" मैं बैंगलोर में ...बेटा गुड़गाँव में है उसी के पास जा रहा हूँ , वाइफ़ तो महीने भर से वहीं हैं ।
" क्या करता है बेटा आपका ?”
" कार्डियोलॉजिस्ट है...दरअसल कल मेरी एन्जियोग्राफी होनी है इसी से....”।
" ओह ! सब ख़ैरियत... ?”
" अरे बिल्कुल ,परफ़ेक्ट ...दरअसल बीबी,बेटा कुछ ज़्यादा ही फ़िक्र करते हैं...बच्चे और वो भी डॉक्टर हों तो एक्स्ट्रा प्रिकॉशन्स लेते हैं ...दिल मेरा अभी भी फ़िट है, ख़ूब धड़कता है “कह कर उसकी तरफ़ शरारत भरी आँखों से देख मैं ज़ोर से हँस पड़ा ।
"ओह ! ब्लेस यू “उसने मेरी तरफ़ पहली बार ध्यान से देखा फिर नज़र हटा ली।उसका चेहरा गुलाबी हो गया।अब हम फिर चुप थे।
उसने धीरे से गोद में रखी किताब उठा ली और पढ़ने लगी, मैं भी मैगज़ीन के रास्ते तीस साल पीछे इलाहाबाद की एक सड़क कर निकल लिया, जहाँ चिलचिलाती धूप में कॉलोनी के सामने तनु नताशा को साइकिल सिखा रही थी ।
बाल और होश बिखरे हुए, मुँह खुला ,चेहरे पर पसीने की बूँदें ।साइकिल पर नताशा डरी हुई ,डगर-मगर और उसके पीछे पूरे जोश से भागती ,चिल्लाती ,लाल मुँह ,कैरियर पकड़े तनु " हाँ-हाँ शाबाश आ गई बस बैलेंस कर ...हैंडिल संभाल हैंडिल...”।
इतने में सामने से स्कूटर पर मुझे आता देख नताशा हड़बड़ा कर बैलेंस खो बैठी और बाउंड्री पर साइकिल सहित धड़ाम से ज़ोर से गिर पड़ी । 
"पगलैट कहीं की अच्छा ख़ासा चला रही थी... अरे ये कोई भूत हैं क्या जो देखते ही गश आ गया तुझे ।” तनु चीख़ रही थी और नताशा दर्द और शर्म से हाथों में मुँह छिपाए स्तब्ध बैठी थी ।वहाँ कँटीले तार भी थे जिसमें उसके कपड़े फँस गए थे , कोहनी और घुटने छिल गए थे ।
मैंने जल्दी से जाकर उसको साइकिल से मुक्त किया ।और तनु को डाँटा ।
" अरे उनको चोट लगी है तनु ये कोई टाइम है चिल्लाने का ...बिहेव योर सेल्फ़ ..उठाओ उन्हें ।”
तनु ने तारों से उसके कपड़े निकाले ।कई जगह से कपड़े फट गए थे ।वो चुपचाप रो रही थी ।तनु उसको सहारा देकर अंदर लाई ,कपड़े चेंज करवाए और मरहम पट्टी की ।
मैं भी टैबलेट और पानी लेकर आया ।" ज़्यादा तो नहीं लगी न ,टिटनेस का इंजेक्शन लगवा
लीजिएगा ।ये खा लीजिए दर्द हो रहा होगा...वैसे साइकिल तो चलानी आ ही गई आपको “ मैं शरारत से मुस्कुराया ।
मेरे हाथ से पानी और टैबलेट लेते वो भी झेंप कर मुस्कुरा दी "थैंक्स”।
"हीरोइन है पूरी...”कह तनु भी खिलखिला पड़ी ।
बरसों पुरानी बात याद कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई ।उस रात बड़ी कविता सी उमड़ -उमड़ कर आ रही थी...मोरपंखी नीले सूट में मुँह छिपाए बैठी नताशा को याद करके नीलकमल...नीलकमल सा कुछ लिख कर जाने कितने पन्ने फाड़ दिए पर कविता को न तो बनना था न बनी ।अपने कवि न होने पर बड़ा अफ़सोस हो रहा था उस रात ...फिर डायरी उठा कर लिखा -
" धूल में पड़ा
नीलकमल 
कुछ धूमिल 
कुछ घायल !”
ये मेरी ज़िंदगी की पहली और आख़िरी कविता थी ।
यादों की जैसे रील खुल गई थी।एक प्रश्न जो तीस सालों से मेरा पीछा करता रहा है ...अब भी बार-बार अंदर ही अंदर टक- टक कर रहा था 'क्यूँ आख़िर क्यूँ....’?
कई बार उसकी आँखों में भी अपने लिए कुछ ख़ास देखा था ...दोनों परिवार भी तैयार थे फिर क्यूँ वो आज नहीं है मेरे संग ....आख़िर क्या बात थी ?
मूर्ख फ़्लाइट लैंड कर जाएगी कुछ ही देर में ....और बस फिर पछताते रहना सारी उम्र ...अन्तस ने डाँट लगाई।
"बाई दि वे हस्बैंड क्या करते हैं आपके ...कैसे हैं?”मैंने पूछा।
"डॉक्टर हैं” उसने धीरे से पलकें उठा कर मेरी तरफ़ देखा और धीमे से मुस्कुराई।
" बहुत अच्छे हैं ...सबसे अच्छी बात है चैरिटी की धुन रहती है बहुत काम करते हैं इसके लिए।”उसके चेहरे पर प्रेम और गर्व की अनुभूति झलक रही थी।
" अच्छे तो होंगे ही आख़िर आपने जो चुना है उनको “ शायद कुछ तल्ख़ी ,जलन या व्यंग्य सा उतर आया होगा मेरे लहजे में उसने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा और दृष्टि नीची कर ली ।
कुछ देर में वो उठी और टॉयलेट की तरफ़ चली गई ।मैंने उसकी सीट पर रखी किताब उठाई नाम पढ़ा ‘डॉ. ब्रायन वीज- मैनी लाईव्स मैनी मास्टर्स’।
दोनों परिवारों की तरफ़ से सब मन बना ही चुके थे हमारे रिश्ते के लिए ,कहीं कोई परेशानी नहीं थी ।हमारी पढ़ाई पूरी होने का इंतज़ार था ।मैं बी.ई. के फ़ाइनल ईयर में था उसके बाद जॉब लगते ही सोच रहा था कि मम्मी से कहूँगा कि नताशा की मम्मी से बात करें ।
इसी बीच पापा का ट्रांस्फ़र हो गया और हम लोग कानपुर चले गए।मेरे मन में गहरी उदासियों का मौसम था ।कभी-कभी दूर से ही सही वो छुट्टियों में घर आने पर देखने को तो मिल जाती थी अब वो भी नहीं ।तनु उससे फ़ोन पर लम्बी-लम्बी बातें करती रहती ,भाभी कह कर उसे छेड़ती ।मेरे कान उसी तरफ़ लगे रहते तनु की बातों से ही उसकी बातों का अनुमान लगाता रहता।
मेरा मन सौ -सौ बहाने ढूँढ़ता इलाहाबाद जाने के पर कुछ सूझता ही नहीं था।हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि दोनों ही परिवार पुराने विचारों के थे अत: लगता था कहीं बात न बिगड़ जाए तो मन मार कर रह जाता।बस इसी उलझन और तड़प के साथ पढ़ाई पूरी कर जॉब के लिए इंटरव्यू की तैयारियों में जुट गया ।
उस दिन बहुत ख़ुशी-खुशी घर लौटा ।इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ था ।अंदाज हो गया था कि जॉब मुझे ही मिलने वाली है ।सैलरी भी बहुत अच्छी होगी..ख़ुशी के मारे ट्रेन में रात भर नींद ही नहीं आई जागी आँखों से सपने देखता रहा ।
पर शाम को कमरे में जब चाय देने आई तो उदास सी तनु चुपचाप चेयर पर बैठ गई ।
“और व्हाट्स-अप ...क्या चल रहा है ज़िंदगी में “?मैंने उसे ख़ामोश देख पूछा।
"भैया वो...दरअसल एक बात बतानी थी” वो ठिठक गई।
“हाँ-हाँ तो बोल न क्या बात है ?”
“भैया वो नताशा का रिश्ता तय हो गया कहीं “ वो रुआँसी होकर बोली और सहम कर मेरा मुँह ताकने लगी ।
" रिश्ता तय हो गया मतलब ?....अरे ऐसे कैसे ?” मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ ।"ऐसे कैसे बात ख़त्म कर दी उन्होंने ?”
"क्यों भैया कब बात पक्की हुई ? कोई सेरेमनी भी हुई नहीं थी ...एक दिन जाने से पहले उसकी मम्मी ने पहल की भी थी पर मम्मी ने कह दिया कि "पढ़ाई पूरी हो जाए, जॉब लगने दीजिए फिर करेंगे।अाँटी ने कहा रिंग सेरेमनी कर देते हैं शादी बाद में हो जाएगी पर मम्मी ने कहा जल्दी क्या है ...हम तनु के लिए भी लड़का देख रहे हैं यदि ठीक मिल जाय तो हम पहले तनु की शादी करेंगे मैंने कहा भी मुझे नहीं करनी अभी , पर बस फिर आँटी चुप रह गईं “।
" और तू मुझे ये बात अब बता रही है ....तब क्यों नहीं कहा ?“ मुझे बहुत ज़ोर से ग़ुस्सा आया।
" मुझे लगा ठीक है मम्मी ने मना तो किया नहीं है ,ठीक ही सोच रही होंगी “ मुझे क्या पता था कि नताशा इस बीच कहीं और के लिए हाँ कह देगी ।“तनु सहम गई।
मैं चुपचाप कुर्सी पर दोनों हाथों से सिर पकड़े बैठा रहा ।मन में ज़ोर की मरोड़ उठ रही थी ।
" तू जा अभी”। कह कर मैं कमरे में अँधेरा कर लेटा रहा रात तक ।मम्मी और तनु खाने के लिए बुलाने आईं मैं " सिर में दर्द है ...भूख नहीं “कह कर मुँह ढ़ांपे पड़ा रहा ।
थोड़ी देर में भाभी आईं " खाना खा लो यहीं ले आई हूँ...बुखार तो नहीं? लाओ बाम लगा दूँ “ उन्होंने माथे पर हाथ लगाया ।
"नहीं भाभी भूख नहीं है रहने दीजिए सोने से ठीक हो जाएगा ,बस आप प्लीज़ एक कप कॉफ़ी बना दीजिए,“।
"खाना टेबिल पर रखा है खा ज़रूर लीजिएगा, नहीं तो और दर्द होगा ...” कॉफी देकर भाभी दरवाजा उढ़का कर चली गईं ।
रह-रह कर मेरे आँसू तकिया भिगोते रहे ।मुझे मम्मी के ऊपर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था ।मम्मी ने क्यों नहीं बात मान ली आँटी की ।एक बार मुझसे ही पूछ लिया होता कम से कम ।
मैं इंटरव्यू के बाद कितने ख़्वाब बुनता आया था कि एपॉइन्टमेन्ट लैटर आते ही मम्मी को कहूँगा कि नताशा की मम्मी से बात करें परन्तु यहाँ तो सब उलट- पलट गया था । ख़ुद को दिलासा दिया कि अभी कौन सी शादी हो गई है ...चढ़ी बरातें लौट जाती हैं ।कल ही बात करता हूँ ।
दूसरी सुबह मैं तनु के कमरे में गया " तनु तू बात कर न नताशा से ,ज़रूर उसकी मम्मी ने ज़बर्दस्ती की होगी ।बताना मेरी जॉब बस लग ही गई है ...या मेरी बात करवा दे उससे “।
तनु ने मेरी तरफ कातर आँखों से देख कर ग़ुस्से से जो कहा उसने मुझे तोड़ कर रख दिया ।
"कोई ज़बर्दस्ती नहीं की गई उसके साथ ...तुम क्या सोचते हो भैया मैं चुप रही हूँगी ? जब नताशा ने बताया कि उसका रिश्ता तय हो गया है किसी डॉक्टर से तो मैंने तुरंत आँटी से बात की पर पता है उन्होंने क्या कहा ? वो बोलीं कि -बेटा जब मनीष का रिश्ता आया तो मैंने कहा नताशा से कि मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? तो उसने कहा कि नहीं आप यहीं हाँ कह दो ! भैया मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि मैंने फिर फ़ोन करके नताशा को ख़ूब सुनाईं ,पर वो रोती रही बस यही कहती रही 'मुझे माफ़ कर दो तनु !’बहुत पूछा पर कुछ नहीं बताती बस रोती रहती है ...मैं जानती हूँ भैया मन ही मन तुम्हें बहुत प्यार करती है पर न जाने उसने ऐसा क्यूँ किया ....आप बात करोगे भैया ? मुझे तो कुछ नहीं बताती शायद आपको बता दे !”
" न रहने दे अब कोई फ़ायदा नहीं....शायद देर कर दी मैंने “ कह कमरे से बाहर निकल गया ।
मेरा अहम् बुरी तरह आहत हो गया था।
मैंने देखा नताशा टॉयलेट से वापिस आ रही थी मैंने उसकी किताब उसकी सीट पर रख दी ।उसकी आँखें धुली-धुली सी थीं चेहरा कुछ उतरा सा था । उसकी पर्सनैलिटी में हमेशा से एक रॉयल-टच था उसकी चाल-ढ़ाल ,दृष्टि,भाव-भंगिमा में आभिजात्य झलकता था जो उसे ग्रेस देता था, यही था जो उसे औरों से अलग करता था....मुझे मोहित करता था और यह उम्र के साथ और बढ़ा ही था।
मैं चुपचाप सोचता सा खिड़की से बादलों के खेल देख रहा था और सोच रहा था कि ठीक हमारे सपनों की तरह ही पीछे-पीछे भागते हैं ये भी, पकड़ने को हाथ बढ़ाओ तो मुट्ठी ख़ाली।
"आप पुनर्जन्म में विश्वास करती हैं ? “ मैंने उसके हाथ में पकड़ी पुस्तक की ओर इशारा कर पूछा "दरअसल मैंने पढ़ी है ये बल्कि इसके बाद वाली भी पढ़ी हैं ।”
" जी हाँ विश्वास तो करती थी पर अब इसको जैसे-जैसे पढ़ रही हूँ विश्वास दृढ़ होता जा रहा है ।”
कुछ देर चुप रह कर वह कुछ सोचती रही उसके मन की बेचैनी उसके चेहरे पर साफ़ नजर आ रही थी किताब का पेज उसकी उँगलियों के बीच लगभग फट चुका था।
" मुझे आपसे माफ़ी माँगनी है “ उसने बहुत हिम्मत जुटा मुँह नीचा करके कहा ।
"पर किस बात की “मैंने जान कर भी अनजान बन कर पूछा।
" आप जानते हैं मैं क्या कह रही हूँ “मैंने देखा उसके होंठ काँप रहे थे।
”पर हमारे बीच तो कोई वादा नहीं था तो...आप कुसूरवार नहीं हैं ।”
" मैं जानती हूँ मैंने आपका दिल बहुत दुखाया है”उसकी पलकें भीग गईं ।
सीट बैल्ट बाँधने का एनाउन्समेन्ट हो चुका था ।कुछ ही देर में हम फिर से दुनिया की भीड़ में खो जाने वाले थे।
"हाँ दुखाया तो है... चलिए तो ये भी बता दीजिए आख़िर क्यों ...?” कह कर मैं सीधे उसकी आँखों में देखने लगा।
" ज़िंदगी हमारे हिसाब से कहाँ चलती है शेखर जी ...अगले पल क्या होगा कौन जानता है ? किसी परिवार के एक सदस्य के साथ हुआ हादसा कई बार सभी की ज़िंदगियों को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है ।मनीष की मम्मी और मेरी मम्मी बचपन की सहेलियाँ थीं। साथ-साथ पढ़ी थीं ,शादी भी एक ही शहर में हुई तो दोस्ती का रंग प्रगाढ़ होता गया।दोनों के पापाओं की भी ख़ूब जमती थी ।घंटों शतरंज खेलते रहते ,मैं और दीदी उनको 'शतरंजी यार ‘कह कर छेड़ते थे ।
दीदी शादी के बाद से ही नर्क भोग रही थीं और एक दिन आख़िर में तंग आकर उन्होंने अपना जीवन ख़त्म कर लिया ।पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर गए हों ।पापा को एक ही अफ़सोस खाए जाता था कि मैंने उसे वहाँ भेजा ही क्यों ?”
" मुझे बताया था तनु ने ...सुन कर बेहद अफ़सोस हुआ “मैंने कहा ।
" दीदी के ससुराल वालों ने पापा की बहुत बार बेइज़्ज़ती की ,हर बार कोई न कोई डिमान्ड रख देते थे ।पापा चुपचाप पूरी करते सोचते कि शायद एक दिन सब ठीक हो जाएगा ।ऊपर से वो लोग दीदी को बच्चे न होने का ताना देते ...जीजाजी की दूसरी शादी करने की धमकी देते ।दीदी के स्वाभिमान को ठेस लगती पापा का अपमान उनसे सहा नहीं जाता था... बस एक दिन ख़त्म कर लिया ख़ुद को ।
पापा-मम्मी पर जैसे वज्रपात हुआ, बुरी तरह टूट गए ।भैया लखनऊ में रह कर पढ़ाई कर रहा था सुन कर भागा-भागा आया पर वो और मैं संभाल नहीं पा रहे थे उनको। भैया की पढ़ाई छूटने की नौबत आ गई ।
मनीष की मम्मी और पापा ने सब संभाला ।भैया को हिम्मत-हौसला देकर हॉस्टल भेजा।
एक साल बाद मनीष ने भी पढ़ाई पूरी कर इलाहाबाद में ही हॉस्पीटल जॉइन कर लिया ।वे रोज शाम पापा-मम्मी को देखने आते ।सबके साथ चाय पीते हँसते -हँसाते ,ख़ूब डिस्कशन्स करते धीरे-धीरे हमें हिम्मत मिली,पापा जो गुमसुम हो गए थे कुछ बाहर आए अपने खोल से ।ज़िंदगी की गाड़ी कुछ पटरी पर आने लगी ।
एक दिन मनीष की मम्मी ने मेरा हाथ मनीष के लिए माँगा तो पापा बहुत इमोशनल हो गए ,बहुत दिनों बाद मैंने उनको ख़ुश देखा था ।वो मनीष को बहुत चाहने लगे थे बहुत भरोसा करने लगे थे ।
मैं गुमसुम थी शादी के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी।
फिर एक दिन मनीष की मम्मी मेरे कमरे में आईं ,बोलीं "बेटा मैं जानती हूँ तुम्हारे मन में बहुत दु:ख है इस समय शादी का नहीं सोच पा रही हो पर बेटा पापा मम्मी को देखो...उनको इस सदमे से तुम ही बाहर निकाल सकती हो ।फिर यहीं रहोगी पास ही ,जब चाहो आ सकती हो।“ 
मैं सिर झुकाए रो रही थी मेरे सिर को अपने सीने से लगा लिया बोलीं " न बेटा रोना नहीं ...दु:ख तो हमारा रास्ता ढूँढते अनायास आ ही जाते हैं ,दरवाजा खटखटा देते हैं ...पर हमको ही उठ कर ख़ुशियों की खिड़किएं खोलनी होती हैं न। घर में शादी की ख़ुशियाँ आएँगी ,बच्चों की रौनक़ होगी तो वो भी सँभल जाएँगे ...ज़िंदगी से प्यार करने की वजह दो उनको...और बेटा हम सब तुम्हारे साथ हैं ...तुम जैसी बहू मिल कर हम भी धन्य हो जाएँगे ये मत समझना कि हम कोई तरस खाकर रिश्ता माँग रहे हैं ये सपना तो मैंने बरसों पहले ही देख लिया था ...ख़ूब सोच-समझ कर जवाब देना।”
बस फिर मैंने हाँ कर दी क्योंकि मैं जानती थी कि यहाँ मम्मी-पापा.....” उसका गला रुँध गया ।
फ्लाइट लैंड कर चुकी थी ।उसने हाथ की किताब पर्स में रख दी ।
" मुझ पर विश्वास तो किया होता ...एक मौक़ा तो दिया होता “मैंने धीरे से उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।
" किस आधार पर करती ...आपसे तो कभी बात ही नहीं हुई थी ... जानती ही कितना थी आपको और आपकी विचार-धारा को ? मेरे लिए पापा- मम्मी को ज़िंदा रखना मुश्किल होता जा रहा था ।मनीष ने जीवन संग दुबारा जोड़ा उनको...बस ईश्वर ने और ज़िंदगी ने जैसा चाहा मान लिया ।”
" पता नहीं ज़िंदगी फिर ये मौक़ा दे न दे एक बात पूछनी थी आपसे ,कई सालों से ख़ुद से पूछते थक गया हूँ “ मैंने इमोशनल होकर कहा ,वो ध्यान से एकटक मेरी शक्ल देख रही थी ।
" क्या आपने कभी भी मुझसे...” उसने मुझे बीच में ही रोक दिया ।
" कुछ सवालों के जवाब नहीं होते शेखर जी...”वो जैसे नींद में बोल रही थी।
" मुझे लगता है प्यार से ज़्यादा अविश्वसनीय और कुछ होता है नहीं ,आज है कल नहीं है ...हमारे साहबज़ादे वेदान्त का तीसरा अफ़ेयर चल रहा है और वो हर बार उतने ही सीरियस होते हैं ।”वो हँसी में मेरे सवाल को ख़ूबसूरती से टाल गई।
बस ! इसके बाद बचता ही क्या था कहने को ?मुझे शायद अपना जवाब मिल गया था।
"शुक्रगुज़ार हूँ ज़िंदगी का आपसे आख़िर मिलवा दिया “कह कर मैंने आगे बढ़ कर केबिन से उसका और अपना बैग निकाला।
" जी ! ये मेरे लिए भी अच्छा हुआ ... चलती हूँ...अपना ध्यान रखिएगा...बाय !” उसने मेरे चेहरे को भर नज़र देखा...वो मेरे बहुत क़रीब खड़ी थी मेरी साँसें थम सी गईं।मैंने एक हाथ बढ़ा कर हौले से उसे पल भर को सीने के पास किया "बाय !”
फिर वो सधे क़दमों से आगे चल दी ।मैं भी थोड़ा डिस्टेंस मेन्टेन करता हुआ चल दिया ।नताशा ने फिर पलट कर नहीं देखा । उदासियों के कुहासे मेरा दम घोंट रहे थे ।सीने को पार कर उसकी ख़ुशबू धड़कनों से घुल- मिल रही थीं...एक सुकून सा था... तो कुछ चटक भी गया था भीतर ही भीतर... 'उसने मेरा भरोसा नहीं किया’।
सोनल जैसी समझदार प्यार करने वाली बीबी और ईशान जैसे कुशाग्र बेटे ने यूँ तो जीवन में ख़ुशियों के सब रंग बिखेर दिए थे पर कुछ था जो तन्हाइयों में अक्सर टीसता था। 
नताशा का मुझे नकार दिया जाना मैं ज़िंदगी में कभी स्वीकार ही नहीं कर पाया था ।एक आग सी सुलगती रही जीवन भर भीतर ही भीतर कि आख़िर क्या कमी थी मुझमें ? ख़ुद को हारा हुआ महसूस करता । ख़ुशियों की फुहारों में एक निर्जन सन्नाटे से भरा कोना था जो कभी भी नहीं भीगा ...यूँ ज़िंदगी से कोई शिकायत भी नहीं रही कोई।
चलते-चलते सहसा ध्यान आया अरे मोबाइल नं॰ तो लिया ही नहीं फिर मन ही मन हँस पड़ा मैं ख़ुद से पूछा "ज़िंदगी से अभी भी कोई सवाल बाक़ी है क्या ? “ 
अनदेखे नताशा के पति मनीष के प्रति ईर्ष्या से भर उठा मन ।मैंने सिर झटका ।नताशा की पीठ से अलविदा कह मैं जैसे नीम बेहोशी में आगे बढ़ गया गुलज़ार साहब की कभी पढ़ी नज़्म मेरे दिल में धड़क रही थी ...
" दिखाई देते हैं इन लकीरों में साए कोई
मगर बुलाने से वक़्त लौट न आए कोई
वो जर्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे
कहाँ गए बहते पानी में बुलाए कोई...
मज़ार पर खोल कर गरेबाँ दुआएँ मांगे
वो आये तो लौट कर तो न जाये कोई...”

" कहाँ हो यार ? “एयरपोर्ट से बाहर निकल गाड़ी में बैठते ही मनीष का फ़ोन आ गया।
" गाड़ी में हूँ आ रही हूँ !” मैंने थकी सी आवाज़ में कहा ।
“ अरे यार जल्दी आओ तुम ...सब गड़बड़ हो रही है ...एक तो किचिन का नल टपक रहा है ...रमाबाई आई नहीं कल से ...ओमपाल के दाँत में दर्द है कुछ काम हो नहीं रहा उससे और तुम्हारे साहबजादे के कल से एग्ज़ाम हैं ,एक हंगामा उन्होंने मचाया हुआ है”मनीष बुरी तरह बौखलाए हुए थे।
मुझे हँसी आ गई " ओफ् बताया न रास्ते में हूँ... बन्द करो अपना ये तब्सरा ,कुछ नहीं होता तुमसे कभी कोई भी डॉक्टर से शादी न करे ...आ रही हूँ कोई परी तो नहीं जो उड़ कर आ जाऊँ “ ।
" अरे यार परी ही हो तुम मेरी ...कैसे मैनेज करती हो ये सब जादू की छड़ी से ? नहीं यार आई मीन इट”।मनीष की आवाज़ स्नेहसिक्त हो उठी।
गाड़ी की सीट पर पीछे सिर टिका कर आँखें बन्द कर लीं ।वैसे तो मेरे मन में कहीं सुकून था कि मैं शेखर को बता सकी अपनी मजबूरी...पर सच तो ये था कि बहुत कुछ छुपा ले गई थी कैसे बताया जा सकता था पूरा सच ?
घर पहुँचते ही मनीष क्लीनिक से उठ कर आए बाँहों में कस कर माथे पर प्यार किया ।अलमारियाँ की चाबी देते चेहरा ध्यान से देखते बोले " अरे ठीक तो हो न बीबी चेहरा बहुत उतर रहा है तुम्हारा ....कहीं बी.पी.लो तो नहीं हो गया फिर ?”
" अरे सब ठीक है सफ़र की थकान है आराम करूँगी ,कॉफ़ी पिऊँगी तो ठीक हो जाऊँगी।” 
" अच्छा सुनो रात को आठ बजे की मेरी सिंगापुर की फ़्लाइट है कॉन्फ़्रेंस में जाना है दो दिन के लिए ,तो पैकिंग कर देना प्लीज़ “कह कर मनीष क्लीनिक में चले गए।
बालों को जूड़े में कस किचिन की तरफ़ गई ।वाक़ई पाँच दिन में ही घर की वो हालत हो गई थी जैसे तूफ़ान गुज़रा हो कोई।फ़्रैश होकर कॉफी पीकर मोर्चा संभाला ।
रमाबाई की ख़बर ली,हड़काया कि" कह कर गई थी कि नहीं कि मेरे पीछे नागा मत करना “।ओमपाल के लिए मनीष से कह डेंटिस्ट से अपॉइन्टमेन्ट लिया पेन किलर दी उसे ,फिर वेदान्त की समस्याएँ सुनीं,थोड़ी सी ललुआ-पुतुआ की ।प्लम्बर को फ़ोन किया ,शेफाली को कॉल कर उसकी सुनी कि जॉब का पहला दिन कैसा रहा ,जल्दी से डिनर तैयार करवाया और मनीष के लिए भी डिनर पैक किया वो फ़्लाइट में भी घर का ही खाना प्रिफर करते हैं ,फिर उनका सूटकेस पैक किया।
सब काम करते ,निबटाते बुरी तरह थक गई ।मनीष ने साथ एयरपोर्ट तक चलने को कहा तो थके होने पर भी मना नहीं कर पाई जानती थी मिस कर रहे होंगे तो चली गई ।
लौट कर चेंज कर कॉफ़ी ले बैड पर पीछे कुशन लगा पसर गई ।कोई- कोई दिन कितना अजीब होता है न...जैसे ज़िंदगी को ज़िद आ गई हो कि आज की तारीख के कैनवास पर सारे रंग लगाने 
ही हैं मुझे ।पर्स खोल कर बुक निकाली ही थी कि अचानक सरसराती एक स्लिप गिर गई उठा कर पढ़ा-
"मुसाफिर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी 
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी !!”
ज़रूर ये शेखर ने रखी होगी जब मैं टॉयलेट गई थी ,'हे भगवान कितने फ़िल्मी है अब भी ‘ सोच मैं मुस्कुराई ।
जब भी मैं तनु के घर जाती और यदि शेखर घर होते तो रेडियो पर कोई ग़ज़ल तेज़ आवाज़ में लगा देते।इधर-उधर कर किसी ओट से देखते ।बैडमिंटन खेलती तनु के साथ ,तो खिड़की पर परछाइयाँ मँडराती देखती।
किताब बन्द कर आँखें मूँद लेट गई ।मन फिर यादों की परछाइयों के पीछे भागने लगा ...पता नहीं क्यों कुछ परछाइयाँ उम्र भर पीछा नहीं छोड़तीं ।
उस दिन कॉलेज से ही तनु उसे अपने घर ले गई ,दोनों को साथ मिल कर प्रॉजेक्ट बनाना था ।आँगन पार करते देखा बरामदे में तनु की भाभी रो रही थीं तनु की मम्मी और उनके पिताजी बातें कर रहे थे ।हम दोनों तनु के रूम में आ गए ।
" मैं आती हूँ “तनु चेंज करने अंदर चली गई ।
" अरे पाँचवाँ महिना चल रहा है कुछ ऊँच -नीच हो गई तो क्या करेंगे आप और हम ? हाजीपुर में तो कोई अच्छा डॉक्टर भी तो नहीं होगा निरा क़स्बा है वो ।” तल्ख़ी से तनु की मम्मी बोलीं ,उन लोगों की बातों की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही थीं ।
“ मैं गाड़ी लेकर आया हूँ बहन जी आप परेशान न हों आराम से जाएगी हम पूरा ध्यान रखेंगे ,इसकी माँ का आख़िरी वक़्त है ,इसी में प्राण अटके हैं ,मैं इसको मिलवा कर जल्दी ही छोड़ जाऊँगा ।सबसे छोटी है तो अपनी माँ की ज़्यादा लाड़ली है “ वे रुआँसे से गिड़गिड़ा रहे थे । 
" मम्मी जी मैं ध्यान रखूँगी अपना, प्लीज़ जाने दीजिए”भाभी गिड़गिड़ा रही थीं ।
" अरे कैसे फ़िक्र न करें बताओ...पहलौटी में कुछ गड़बड़ हो गई तो सारी उम्र तरसते रहेंगे बच्चे का मुँह देखने को ,कई बार देखा पहले बच्चे में गड़बड़ हुई तो ख़राबी आ गई फिर हुए ही नहीं ।चलो ज़िद छोड़ो बहू खाना खिलाओ अपने पिताजी को और रवाना करो टाइम से पहुँच जाएँगे “।कई बार कहने पर भी आँटी टस से मस नहीं हुईं ।
हार कर वे बोले " अच्छा दामाद जी से पूछ लीजिए एक बार।” 
" अरे उससे क्या पूछना बच्चा है वो अभी और भाई हमारे यहाँ बच्चे बड़ों के बीच नहीं बोलते “थोड़ी देर बाद मैंने खिड़की से भाभी के पापा को बिना भाभी को लिए ही जाते देखा ।भाभी उनको गाड़ी तक छोड़ कर आँखें पल्लू से पोंछती अंदर आ गईं और कोई भी उनको विदा करने दरवाज़े तक भी नहीं गया ,मुझे ये देख बहुत हैरानी हुई मन करुणा से भीग गया ।
तनु ने बताया कि तीसरे ही दिन भाभी की माँ चल बसीं मैंने पूछा "अरे, भाभी तो मिल लीं न उनसे ?”
" अरे नहीं वो निरा क़स्बा है मम्मी बहुत केयर करती हैं भाभी की...मम्मी ने तो बाद में भी नहीं भेजा रोने -पीटने में कहीं तबियत ख़राब हो जाती “।
फिर ख़ूब चहक कर कहने लगी " पता है हमारे घर में पहला बेबी होगा यू नो आयम वैरी इक्साइटेड....मैं तो चाहती हूँ बेटी ही हो मैं न ख़ूब सजाऊँगी फिर उसे ...।”
वो बोल रही थी और मेरा मन कहीं और भटक रहा था ।शालू दीदी की सास का चंडी रूप ,लाचार से पापा-मम्मी और विवश रोती हुई दीदी का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था ।
कुछ दिन बाद तनु के पापा का ट्राँस्फर कानपुर हो गया वो लोग कानपुर शिफ़्ट हो गए ।इधर दीदी ने आखिर एक दिन ज़लालत से तंग आकर ख़ुद को और अपने साथ हम सबको भी लपटों के हवाले कर दिया ।पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर ही गए दोनों बिस्तर से लग गए ।पापा एक्यूट डिप्रेशन में चले गए ।मैं मन ही मन बहुत नाराज़ थी दीदी से ... पढ़ी लिखी थीं तलाक़ ले लेतीं...इतना बड़ा क़दम उठाते ज़रा नहीं सोचा पापा-मम्मी के बारे में ?
जब वो जा रही थीं तब मैंने कई बार रोका "दीदी मत जाओ कोई जॉब कर लेना या और आगे पढ़ लेना “ पर हमेशा की तरह यही कहती गईं कि " एक बार और चांस देकर देखती हूँ शायद...”।काश रुक जातीं वो ।
हम ठीक से केस भी नहीं लड़ पाए भैया अकेला क्या-क्या करता उन लोगों ने पुलिस को पैसा भर कर और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके एक्सीडेंट सिद्ध कर दिया और हम सब तड़प कर रह गए ।पूरा परिवार सदमे में डूब गया ।
इसी बीच मनीष की मम्मी को जब पता चला तो भागी-भागी आईं ।वो अपने बड़े बेटे के पास लंदन में थीं।मैं आँटी से लिपट कर बहुत रोई ।उन्होंने सब संभाल लिया वो सुबह से रात तक हमारे ही घर रहतीं ।अंकल भी प्राय: शतरंज बग़ल में दबाए आ जाते और पापा को भी ज़बर्दस्ती बैठा लेते खेलने के लिए।अंकल ने समझा बुझा कर हौसला बँधा कर भैया को भी हॉस्टल भेजा ।
साल भर बाद एक दिन आँटी ने बहुत प्यार और सम्मान से मेरा हाथ माँगा ।मम्मी ने अकेले में मुझसे पूछा " बेटा बीना ने मनीष के लिए तुम्हारा रिश्ता माँगा है ,मैंने हाँ नहीं की है।”
" माँ हाँ कर दो “ मैंने खूब सोच -समझ कर एक दिन मम्मी से कहा ।
" देख ले बेटा तू कहे तो मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? मैं जानती हूँ कि तुम शेखर....”मैंने बीच में ही टोक कर कहा ।
" नहीं ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप सोच रही हैं ...आप हाँ कर दो मम्मी ...मैं यहीं रहूँगी इलाहाबाद में आपके और पापा के पास...मैं आपसे दूर नहीं रह सकती !” मैं मम्मी से लिपट कर रोती रही ।
पर दिमाग से लिए फ़ैसलों को यदि दिल इतनी आसानी से मान लेता तो बात ही क्या थी ।दिल पूरी तरह से बग़ावत पर उतर आया था। दूसरे ही दिन मैं तेज़ बुखार में तप रही थी ।मन का ताप तन पर पूरी तरह से तारी था।पन्द्रह दिन तक मनीष रोज़ मुझे दो बार देखने आते । मेरे माथे पर पट्टियाँ रखते,पापा-मम्मी के साथ चाय पीते,स्वास्थ्य पर,राजनीति पर चर्चा करते ,हँसी -मज़ाक़ करते ,चुटकुले सुनाते।
पापा के ब्लड-प्रेशर और मम्मी की बिगड़ी शुगर की बागडोर उन्होंने संभाल ली थी तो मेरी बागडोर साधनी क्या मुश्किल थी फिर ? पापा-मम्मी के चेहरे की रंगत बदलने लगी और घर फिर से चहकने लगा।पन्द्रह दिन तप कर,जल कर मैं भी ठीक हो गई ,उठ गई कमर कस कर ।
अपने फ़ैसले पर कभी भी अफ़सोस नहीं हुआ मुझे ज़िंदगी में ...पर कभी-कभी मन कचोटता था ।तनु कहती "भैया कितने डिप्रेशन में हैं नताशा ,दुखी हैं तू सोच नहीं सकती ...वो अंदर ही अंदर घुटते हैं ,तूने ऐसा क्यों किया थोड़ा सा इंतज़ार किया होता ।” 
मैं क्या कहती बस चुप रह जाती ।पूरी सच्चाई कभी नहीं कह सकी ।कैसे बताती कि तुम्हारी मम्मी का वो रूप ,तुम्हारी भाभी व उनके पिता की विवशता ,गिड़गिड़ाना देख कर मैं जब उनकी जगह ख़ुद को और पापा को रख कर देखती तो मेरी रुह काँप जाती ।बड़ी मुश्किल से पापा मम्मी ने फिर से जीना सीखा था मैं अपने हाथों फिर से उन्हें उसी आग में झोंकने का रिस्क नहीं ले सकती थी..."बस कुछ सच्चाइयाँ यूँ ही दफ़्न हो जाती हैं “ मैं बुदबुदाई।
उस दिन ,उस वक्त मेरा शेखर के घर पर होना ,तनु की भाभी और आँटी के बीच की सब बात सुनना सब कुछ अपनी आँखों से देखना,जैसे बाय चान्स नहीं था ...ये ईश्वर का इशारा था ,जैसे सोच समझ कर रची कोई साज़िश।
शेखर कहाँ हैं ,कैसे हैं कभी नहीं पूछ सकी तनु से और ना ही कभी तनु उनका कोई ज़िक्र करती थी, जबकि हम आज तक भी दोस्त हैं, दुनिया भर की बातें करते हैं।
लॉन की तरफ़ से दरवाज़े पर कुछ आहट सी हुई जैसे किसी ने दस्तक दी हो ।
"कौन” मैंने कहा पर कोई जवाब न पाकर खिड़की से बाहर झाँका कोई नहीं था ।सोचा शायद बिल्ली रही होगी । पूर्णिमा की चाँदनी छिटकी देख शॉल लेकर बाहर लॉन में निकल आई ।
अपनी ही ख़ामोशियों में लिपटी सर्द रात कोहरे की चादर ओढ़े बेसुध पड़ी थी ।कोहरे की बूँदें पत्तों से सरक कर काँपते सूखे पत्तों पर टप-टप गिर, रह-रह कर सन्नाटा तोड़ रही थीं ।
मदालस सा पूर्ण चाँद,पूर्णिमा की मादक चाँदनी,हल्के से कोहरे की धुँध ,मधुकामनी और रात की रानी की भीनी-भीनी सी महक सब मिल कर जैसे कोई जादू सा रच रहे थे।उन सर्द ख़ामोशियों में अपनी ख़ामोशियाँ घोलती मैं न जाने कब तक सुन्न खड़ी रही ,जैसे किसी ने मेरे पैर जकड़ लिए थे ।चाह कर भी अंदर नहीं जा पा रही थी। जाने क्या हो गया था मुझे ...स्तब्ध खड़ी थी ।
कुछ था जो मुझे छूकर हौले से गुज़र रहा था जैसे कोई ख़ुशबू हल्के से मेरे गालों को छूकर निकल गई ...अवश ,सम्मोहित सी मैं वहीं कुर्सी पर बैठ गई । पता नहीं कब तक बेसुध सी बैठी रही ।
अचानक होश आया सारा बदन सर्दी से काँप रहा था ।शॉल से ख़ुद को कस कर लपेटती अंदर आकर रज़ाई में दुबक गई ।
याद आया कल कितने सारे काम हैं lचैस्टर को वैक्सीनेशन के लिए भेजना है। आर.ओ .की सर्विस करानी है , कुछ नई पौध माली से मंगानी हैं ...सोचते-सोचते पता नहीं कब नींद ने आ घेरा।
दूसरा दिन भी बेहद व्यस्त था।सब निबटा कर दोपहर रूम में गई मोबाइल चार्ज होने के लिए लगाया हुआ था, निकाल कर मैसेज चैक किए तनु का मैसेज फ़्लैश किया ..." भैया नहीं रहे कल रात दस बजे ....हार्ट अटैक ।”
" कल रात .....” मैं बेसुध सी बुदबुदाई ..हाथ से मोबाइल छिटक कर गिर गया...स्क्रीन चटक कर सुन्न हो गई !!



इति



   
























शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

कविता — पराजित


तुमने ये कहा
तुमने वो कहा
तुमने ऐसे क्यों कहा
तुमने वैसे क्यों कहा
तुम तो हो ही ऐसी
तुम तो हो ही वैसी
तुमने दिल दुखाया मेरा
अब मेरे दिल का क्या
मेरी फ़ीलिंग्स का क्या
तुमको ऐसे नहीं कहना था
तुमको वैसे नहीं कहना था
टूट गया रिश्ता
टूट गया दिल
..........
हैरान
परेशान
खड़ी हूँ अपने पराजित
'निन्यानवे ‘के साथ
कटघरे में
सिर झुकाए
और ...
मेरा 'एक’ गर्वित
गौरवान्वित
बड़ी चालाकी से
अर्थों का उलट- फेर कर
खड़ा है मैडल लिए जीत का
मुस्कुराता हुआ
उस पार !!

#निन्यानवेकाफेर

शनिवार, 21 सितंबर 2019

पुस्तक- समीक्षा— देशी चश्मे से लंदन डायरी ; लेखिका - शिखा वार्ष्णेय



REPLY


डॉ० उषा किरण 
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पूरी किताब लिखकर छपवाने के बाद पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय जब बेहद, मासूमियत से हमसे पूछतीं हैं कि मेरी किताब ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ किस विधा के अन्तर्गत आएगी तो उनकी सादगी पर बहुत प्यार आता है और कहीं पढ़ी ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती है…. ‘लीक पर वे चलें जिनके पग हारे हों’।
अब चाहें किसी भी विधा में आती हो पर उक्त पुस्तक बेहद मनोरंजक, ज्ञानवर्धक व संग्रहणीय है जिसे शिखा वार्ष्णेय ने बहुत दिल से काफी रिसर्च व ऑब्जर्ब करने के पश्चात लिखा है। ऐसा लगता है जैसे हमारे लिए कोई झरोखा खोल दिया है लंदन से या फिर जैसे कोई हमारी बहुत आत्मीय स्वजन दोनों देशों के बीच एक ऐसा दर्पण लेकर खड़ी हैं जिसमें एक तरफ तो लंदन व आसपास की सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवम् सामाजिक झलक देखने को मिलती है तो दूसरी तरफ हम विदेशी परिप्रेक्ष्य में अपनी संस्कृति, सभ्यता व नैतिक मूल्यों को भी तुलनात्मक रूप से तौलते चलते हैं।
जब भी हमारे बच्चे या हम लंदन जाना चाहें या कि जा रहे है या जाकर लौटे हों तो जो प्रश्न लगातार दिमाग में बंवडर मचाते हैं उन सभी का उत्तर है इस पुस्तक में।
लंदन की साफ-सुथरी सड़के, वैभव-पूर्ण ऊँची इमारतें, बहुत सुंदर साफ हरे-भरे पार्क, सभ्यता, तमीज, अनुशासन, खूबसूरत गोरे-चिट्टे, लम्बे जैसे साँचे में ढ़ले मोम के पुतले जैसे लोगों को देख बरबस मूंह से निकलता है- ‘”गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त हमी अस्तो हमी अस्तो”  ’ लगता है स्वर्ग ऐसा ही होता होगा! कहीं कोई समस्या ही नहीं होती होगी यहाँ के लोगों को परन्तु जब शिखा की लंदन डायरी पढ़ी तो सारा भ्रम जाता रहा कि नहीं आखिर तो हम इंसान हैं चाहे जहाँ रहें पूर्ण कैसे हो सकते हैं। सभी की अपनी उपलब्धियाँ हैं तो परेशानियाँ और समस्याएं भी है जिनसे वे लगातार जूझ रहे हैं।
बचपन में जैसे बाइस्कोप वाला चंद पैसों में चुटकियों में हमें भारत भ्रमण करा देता था ठीक वैसे ही 63 आलेखों के माध्यम से शिखा हमें बेहद रोचक-शैली में एक के बाद एक लेख पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। पहले आलेख ‘पुरानी साख व गौरवपूर्ण इतिहास’ में वे वहाँ के राजसी ठाठ-बाठ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि आज ब्रिटेन भी बाकी देशों की तरह आर्थिक मंदी से गुजर रहा है ऐसे में इंगलैंड की रानी का हीरक-जयंती पर शाही सेलिब्रेशन में खुल कर खजाना लुटाने पर वे अपनी प्रतिक्रिया देती हैं कि ‘पूरा यूरोप किस आर्थिक मंदी से गुजर रहा है अब यह किसी से छुपा नहीं है पर बढ़ती बेरोजगारी व गरीबी जैसी समस्याओं का असर कहीं पड़ता नहीं दिखाई देता।
दूसरे आलेख ’लोमड़ी का आंतक’ जब हम पढ़ते हैं तो हँसी आ जाती है। ‘लो जी लंदनवासियों, हम जाने कब से बंदरों, गली के आवारा कुत्तों, सांपों, मक्खियों, मच्छरों से दो-दो हाथ कर रहे है और तुमसे एक लोमड़ी मौसी नहीं संभल रहीं, नाक में दम कर रखा है उनका. वे लिखती है कि ‘यू के एक ऐसा देश है जहाँ सर्वोच्च पद पर महारानी के रूप में स्त्री ही आसीन है वहाँ भी स्त्रियों के खिलाफ अपराध व भेदभाव के किस्से प्रायः सुनाई दे जाते हैं’ पढ़ कर हम कुछ सोचने पर विवश हो जाते हैं। पर वहीं जब हम पढ़ते हैं कि स्कूलों में लड़कों व लड़कियों को समान रूप से सिलाई, कुकिंग, छोटी-मोटी रिपेयरिंग, बुजुर्गों की देखभाल सिखाई जाती है तो अच्छा लगता है।
हमारे अंधविश्वास पर, हंसने वालों, तोहमतें लगाने वालों की आँखों में आँखें डाल ‘अंधविश्वास की व्यापकता’ आलेख में शिखा पूछती हैं कि भाई ठीक है हमारी रोजमर्रा की न जाने कितनी बातों को अंधविश्वास या रूढ़िवादिता कहा जाता है परन्तु भारत से बाहर लगभग सभी देशों व समाज में इस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। वे कहती है हाँ हम पत्थर की मूर्ति पूजें तो अंधविश्वासी और ये जो  ‘स्टोन हैज’ को विरासत समझ सहेज रहे हैं वो क्या हैं? हम भूतों चुडैलों को मानते हैं तो आपके यहाँ भी तो हान्टेड हाउस हैं जहाँ प्रेतात्माएं टहलती हैं। हैलोइन जैसे त्यौहार तो आप भी मनाते हैं… ठीक है हम परियों की, फरिश्तों की कहानियों से बच्चों को सपने दिखाते हैं तो आपके सांता क्लॉज भी तो बच्चों को भरमाते ही हैं। यदि हम पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं तो मरने के अगले ही दिन पुनः ईसा मसीह का जिंदा हो जाना भी तो वही है न?

अपने देश पर गर्व महसूस होता है जब ये ‘प्रवासी का महत्व’ आलेख में बताती हैं कि ब्रिटेन में भारत का चिकन टिक्का राष्ट्रीय पकवान माना जाता है। वह ब्रिटेन जिसकी आर्थिक उन्नति में विदेशी यात्रियों का बहुमूल्य योगदान है जिसके प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की शान विदेशों से आने वाले छात्र ही बढ़ाते हैं।
अच्छा लगा पढ़ कर कि वहाँ के लोग हर संस्कृति को अपना लेते हैं। क्रिसमस के साथ होली, दीवाली, ईद, नवरात्रि, गरबा सब त्यौहारों को मिलजुल कर अनुशासित ढंग से मनाते हैं। वे लिखती हैं कि ‘मतलब साफ है आपको अपने हाथ फैलाने का हक है पर वहीं तक जहाँ से किसी और की नाक नहीं शुरू होती’। वे पतझड़ को भी उत्सव की तरह मनाते हैं।
लिखती हैं कि जब भी इंडिया में कोई बड़ा हादसा होता है तो उसकी धनक लंदन प्रवासी भारतीयों के मन में भी छटपटाहट पैदा करती है। उनको भी बुरा लगता है क्योंकि इससे विदेशों में हमारे देश की छवि खराब होती है। वे मदद करने की भी कोशिश करते हैं।
‘ऐसा भी चुनावी प्रचार’ में लेखिका लिखती है कि हमारी तरह लाउडस्पीकर का शोर नहीं, कहीं कम्बल नहीं बंटते, घर-घर जाकर हाथ जोड़ने की भी परम्परा नहीं, साफ-सुथरी दीवारें, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के स्थान पर वे सब सिर्फ अपनी पॉलिसी एवं कार्यो का ब्यौरा देते हैं। यह सब चुनावी बवंडर से गुजरे हम भारतवासियों को अनुकरणीय लगता है। साथ ही हैरानी होती है यह पढ़ कर कि यू के के प्रधानमंत्री व एम पी भी मेट्रो से ऑफिस जाने में गुरेज नहीं करते। साधारण घर में रहते हैं, आम लोगों की तरह लाइन में लगते हैं। मेयर ‘बोरिस जॉनसन’ साइकिल से ऑफिस जाते थे।

‘गलियों के गैंग’ पढ़कर ज्ञान होता है कि वहाँ गैंग्स की गुंडागर्दी से जूझ रहे समाज व अभिभावकों के लिए कितनी चिंता का विषय है। इसके अलावा बच्चों पर बढ़ता शिक्षा का दबाव, बढ़ती स्वास्थ्य समस्याएं, मंदी की मार पर भी प्रकाश डाला है। अधिकारों की दुविधा जैसे लेख पढ़ कर लगता है कि बहुत कुछ समस्याएं समान हैं। आपने युवकों की समस्याओं लाइफ स्टाइल व मानसिकता पर भी लिखा है। सोलह वर्ष की आयु के पश्चात माता -पिता से अलग रहने की मजबूरी और भविष्य में पुनः संयुक्त-परिवार की संभावना पर भी प्रकाश डाला है। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन व प्रतियोगिताओं के बढ़ते प्रेशर के कारण वहाँ के बच्चों का दर्द शिखा को द्रवित कर देता है क्योंकि वहाँ भी फ्रस्टेटेड होकर वे आत्महत्या कर रहे हैं।
माँ के भी नौकरी करने के कारण बच्चों की परवरिश की समस्या दोनों देशों में लगभग समान ही है। नैनी व क्रच के विकल्प मौजूद है पर सारे दिन माँ से अलग रहकर बच्चा माँ के सीने से लग रात में यही पूछेगा कि ‘कल स्कूल से लेने आप आओगी न मम्मा…’। इस पुस्तक में बुजुर्गो की समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। जहाँ हमारे देश में तीन पीढ़ियाँ आज भी कई परिवारों में हंसी-खुशी साथ रह लेती हैं, एक दूसरे का सहारा बनती हैं वहीं इंग्लैंड में ज्यादातर लोग अकेले जीवन बिता रहे हैं। परन्तु कहीं न कहीं असहिष्णुता व आधुनिकता के चलते हम भारतीय भी इस व्यवस्था को अपनाते जा रहे हैं। जो बहुत दुखद है।
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर कि जहाँ हमारे यहाँ हिन्दी की उपेक्षा होती है लोग इंगलिश बोलने में शेखी समझते हैं वहीं लंदन में हिन्दी को बहुत सम्मान प्राप्त है। स्कूलों में भी हिन्दी बहुत चाव से सीखते हैं व समय-समय पर हिन्दी में विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित होतीं हैं। वे हास्य के मूड में काका हाथरसी को याद करती हैं क्योंकि कभी उन्होंने रूस जाकर हिन्दी सीखने की बात की थी. कहती हैं वे आज होते तो कहते-
‘पुत्र छदम्मी लाल से बोले केसरी नंदन,
हिन्दी पढ़नी होय तो जाओ बेटा लंदन।‘
एक समय था जब दुनिया के हर कोने से बेहतर इलाज़ के लिए लोग लन्दन जाते थे आज उसी लंदन शहर में अपने नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य-व्यवस्था नहीं है। वहाँ की कमजोर होती अर्थव्यवस्था पर भी उक्त पुस्तक प्रकाश डालती है।
‘यहाँ भी बाबा’ पढ़ कर हैरानी होती है कि सैकड़ों एशियन लंदन में झाड़-फूंक या भूत- आत्माओं के भगाने के चक्कर में पैसों व जान से हाथ धो बैठते हैं।
‘योगा डे’ की तर्ज पर ही कुत्तों के लिए ‘डोगा डे’ की भी कक्षाएं चलती हैं। धन्य हो! पढ़ कर हंसी आ जाती है। ‘डब्बा वाला ऑफ़ लंदन वे कहती है कि किसी अंग्रेज को खाने की इतनी चिन्ता करते नहीं देखा जितनी हम भारतीयों को रहती है कि ‘बेटा शादी कर लो तब विदेश जाना वर्ना खाने-पीने की परेशानी होगी’। तो भई जिनके भी बच्चे लंदन जाना चाहते है या जा रहे हैं बेफिक्र होकर जाएं शिखा ने बताया कि हर तरह का डब्बा वाला, भारतीय खाने की व्यवस्था है वहाँ भी।
लिखती है कि हैरानाी होती है कि यहाँ युवाओं में विवाह-संस्था के प्रति सम्मान माता-पिता व बुजुर्गों का सम्मान करने वाली युवा पीढ़ी बेहद सुलझी व इरादों में स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त स्कूल बस का महत्व वी.आई.पी. कल्चर खेलों के प्रति बढती आशा, ऐसा भी दान (शुक्राणु दान), हॉर्न- संस्कृति, अधिकारों की दुविधा आदि विषयों पर भी बहुत बेबाकी से रोचक व ज्ञानवर्धक तरीके से लेखिका ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

वे बताती है कि बेशक भारतीय भारत से निकल आयें पर उनके अंदर से भारत को नहीं निकाला जा सकता। भारत और उसकी संस्कृति किसी न किसी रूप में उनके अंदर सांसें लेती ही रहती है। यहाँ के रहन-सहन, व्यवहार, परम्पराओं को भले ही हमने छोड़ दिया है परन्तु अभी भी वहाँ उसे दिल में बसा रखा है और उसमें बहुत बड़ा हाथ टीवी चैनलों से प्रसारित होने वाले धारावाहिक फिल्मों व हिन्दी गानों का भी है।
थेम्स के किनारे लगे साउथ ईस्ट सांस्कृतिक मेले व उसमें सजे भारतीय व्यंजनों के स्टाल देख याद कर वह कह उठती हैं-
‘नींद मिट्टी की महक सब्जे की ठंडक
मुझको अपना घर बहुत याद आ रहा है।
शिखा के रंग-रूप पर बिल्कुल भी न जाएं क्योंकि उनका दिल पक्के हिन्दुस्तानी रंग में रंगा है और वे भारतीय संस्कृति व सभ्यता से पूर्णतः लबरेज है जो कि आपको इस पुस्तक को पढ़कर साफ नजर आ जाएगा।
तो यदि आप या आपके बच्चे या परिचित जो कोई लंदन जा रहे हों या वहां के बारे में कैसी भी उत्सुकता हो तो आपको ‘देशी चश्में से लंदन डायरी’ अवश्य पढ़नी चाहिए और अपने मित्रों व परिचितों को गिफ्ट भी करनी चाहिए।
मैं शिखा को इतनी ज्ञानवर्धक व रोचक पुस्तक लिखने के लिए बधाई देती हूँ। लीक से हट कर लिखी यह पुस्तक कहीं मील का पत्थर साबित होगी।
और अंत में शीतल माहेश्वरी को भी बधाई दिए बिना लेखन अधूरा रह जाएगा। प्रथम प्रयास है यह उनका पर लंदन की जगमगाहट व ग्लैमर को उन्होंने बखूबी कवर पेज में समेटा है.
डॉ. उषा किरण
हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट(फाइन आर्ट)
मेरठ कॉलेज 
मेरठ 
***
पुस्तक – देशी चश्मे से लन्दन डायरी (2019) 
लेखिका – शिखा वार्ष्णेय 
प्रकाशक – समय साक्ष्य 
मूल्य – 200 रु 
पुस्तक amazon.in पर उपलब्ध

 (शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 14 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2019 से साभार)


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खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...