ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 24 मई 2020

स्मृति चित्रण (नर में नारायण)





"मैं सोया और स्वप्न देखा
कि जीवन आनन्द है
मैं जागा और देखा कि
जीवन सेवा है
मैंने सेवा की
और पाया कि
सेवा आनंद है”
        —रवीन्द्रनाथ टैगोर

चार दिन पहले मालविका का फोन आया तो बताने लगी कि वो जिस एन जी ओ "प्रगति “के साथ काम करती है उस स्कूल में जब टीचर ने ऑनलाइन क्लास लेते समय एक बच्ची को होमवर्क न करने पर डाँटा  तो वो बोली मैडम तीन दिन से खाना नहीं खाया हमसे नहीं पढ़ा जा रहा । दरअसल प्रगति के तीनों ही स्कूलों में बहुत गरीब घरों के बच्चे पढ़ते हैं ।उन टीचर ने मालविका को बताया मालविका ने तुरन्त फोन नं० लेकर उसके फादर से बात की और घर में जितना भी राशन , मैगी के पैकिट, ब्रैड, दूध था सब थैलों में भरा ,आदी ने भी अपने चॉकलेट्स बिस्किट लाकर दिए ।सब खाने पीने का सामान गवीश के साथ ले जाकर उसके पापा को पास के मार्केट में बुला कर दे दिया ।उन्होंने बताया कि वो गाड़ी धोने का काम करते हैं पर आजकल न तो गाड़ी निकलतीं न ही धुलतीं हैं तो लोगों ने पैसे देने बन्द कर दिए,बहुत परेशानी है।मालविका ने बोर्ड के  सभी मेंबर से बात की सबने मिल कर अरेंजमेन्ट किया । कुछ निर्णय लिए गए ...फंड्स का इंतजाम  कर राशन के पैकिट्स बनवाए और सभी बच्चों के घर फोन करके उनके पेरेन्ट्स को स्कूल बुला कर राशन व स्टेशनरी देने की व्यवस्था सुरक्षित तरीके से करवाई। । वो बता रही थी कि राशन देते समय जब मैंने पूछा कि अब गाँव तो नहीं जाओगे तो सभी ने यही कहा कि खाने का इंतजाम तो हो गया पर मकान का किराया कहाँ से लाएंगे ।आपस में सभी बोर्ड मेंबर से सलाह कर फिर सभी के एकाउन्ट में चार- चार हजार रुपये भी डलवाए ।अब तीनों स्कूलों के लगभग 450 बच्चों और उनके परिवारों के चेहरों पर मुस्कान वापिस आ रही है अभी भी निरन्तर राशन बाँटा जा रहा है और बच्चे भी अब मन लगा कर होमवर्क पूरा करते हैं ।मुझे यह सब सुन कर बहुत तसल्ली , संतोष और  खुशी मिली।
               मालविका मुझे बता रही थी कि उस बच्ची के फादर जिस सोसायटी में कारें धोने का काम करते थे वहाँ काफी रिच फ़ैमिलीज रहती हैं जिनका शायद किसी होटल या रेस्टोरेन्ट का लन्च या डिनर का एक बार का या एक जोड़ी जूते का बिल जितना आता होगा उतने में उस बेचारे का पूरा परिवार महिने भर खाना खा सकता है पर इस आपदा काल में उनको यदि बिना काम किए पैसे दे देंगे तो उनको तो ऐसी कोई कमी नहीं आने वाली है पर ....दरअसल बात नीयत की है ।
आपकी इस लालच की वजह से उनका पूरा परिवार भूखा सोएगा ये क्यों नहीं दिखाई देता । आपकी तो ऐयाशी कुछ कम हो सकती है पर वो बेचारे तो भूखों मर जाएंगे।पुताई वाले, कबाड़ी वाले,रिक्शा ,ऑटो वाले, धोबियों,छोटी दुकानों वाले ,घरों में काम करने वाली बाइयों इन सबका क्या हाल होगा आप सोच कर देखिए।हम सबकी मदद नहीं कर सकते पर जो हमारे दायरे में है हम उतना तो कर ही सकते हैं ।
         इस पोस्ट को लिखने का मकसद बस यही है कि मुझे लगता है कि किसी की भी अच्छी बातों और कामों को शेयर जरूर करना चाहिए होसकता है इससे कुछ और लोगों को भी कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिले ।
    मेरी सभी से गुजारिश है दिल बड़ा रखिए अपने सहायकों को पूरा पेमेन्ट करिए हो सके तो कुछ एक्स्ट्रा देकर मदद करिए वर्ना भूखे पेट वो अपने देस-गाँवों को लौटेंगे या यहीं कैसे जिन्दा बचेंगे।हो सकता है वो लौटें ही नहीं तब? कैसी होगी आपकी जिंदगी इन सबके बिना...जरा सोचिए।
आपदा- काल है ,गरीबों के लिए ये समय काल बन कर आया है ।यथासंभव इनकी मदद करिए जहाँ- जहाँ जितनी हो सके ।यकीन मानिए मंदिरों ,तीर्थों , पूजा,अनुष्ठानों से आप जितना पुण्य कमाएंगे उससे दस गुना ज्यादा इस संकट की घड़ी में उनकी मदद करके कमाएंगे, भूखों का पेट भरके कमाएंगे ।नर में ही नारायण को देखिए ।
ये सच है कि कोई भी नेकी की राह आसान नहीं होती ।बहुत रुकावटें आती हैं । जब आप शुभ संकल्प लेते हैं तो कुछ लोग नकारात्मकता भी फैलाते हैं ऐसे वक्त पर ...लेकिन यदि आप उजले मन से नेकी के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो राहें खुद आसान हो जाती हैं । कभी कहीं पढी पंक्तियाँ कुछ-कुछ याद आ रही हैं...
     "साफ है मन यदि
     राह है सच्चाई की
     तो प्रार्थना के बिना भी
     प्रसन्न होंगे देवता....!!” 🙏

#फोटो_प्रगति_में_राशन_वितरण

गुरुवार, 14 मई 2020

कविता (द्रौपदी)











        ~द्रौपदी-
         ~~~~~
सुनो
धर्मराज युधिष्ठिर !
कहो तो
क्या सोच कर तुमने
द्रौपदी को जुए की बिसात पर
चौसर की कौड़ियों सा
उछाल दिया ?
क्या सोचा तुमने
स्त्री है तो कहीं भी

कैसे भी
इस्तेमाल कर लोगे तुम
यही न ?

उन्नीसवें दाँव में
खुद को हारने के बाद
क्या हक बचा था उस पर
या खुद पर
कैसे दाँव पर भार्या को
लगा दिया
तुमने ?
और तुम चारों ,
तुम भी तो पति थे न ?
क्यों नहीं तुमने हाथ पकड़ा
भाई का
किस मर्यादा में बंधे बैठे रहे
नतशिर ?

मर्द कहाते
परम यशस्वी
परम वीर
आत्मीयों की
परम ज्ञानियों की सभा में
किसी की भी भुजाएं
क्यों नहीं फड़कीं
बेशर्मी के उस दाँव पर
कुल वधू के चीर-हरण पर
दारुण पुकार पर
क्यों नहीं उबला लहू
शिराओं में
नपुंसक ही थे क्या सब ...?

हाँ
उस काले दिन
हरण हुआ जरूर था
मात्र चीर का नहीं
हरण था मनुष्यता का
लज्जा का
वीरता का
इंसानियत का
मर्यादा का
रिश्तों का !

और तुम द्रौपदी ?
गृह-प्रवेश पर ही
बाँट दी गईं
किसी ने भी कहा
बाँट लो
और तुम पाँच पतियों में
सिर झुकाए,चुपचाप
बँटने को तैयार हो कैसे गईं?
हुँकार क्यों नहीं भरी
नहीं स्वीकार मुझे
कोई वस्तु नहीं
जीती जागती इंसान हूँ मैं
कदापि नहीं तैयार बँटने को
जो वस्तु बना दे
नहीं स्वीकार वो सप्तपदी भी !

ग़लत को सिर झुका
स्वीकार करते
देखो न फिर
कहाँ लाकर खड़ी
कर दी गईं तुम
बेशर्मों ,कायरों ,बेगैरतों
की सभा में
चौसर की बिसात पर
मातम मनातीं
बदहवास
विलाप करतीं !

इस सबके बाद भी
रहीं सहधर्मिणी
हद है !
क्यों नहीं त्याग किया तब
उन पाँचों का
उस कुल का
उन तथाकथित,सम्मानित
परिजनों का
सडाँध मारती परम्पराओं का
जहाँ वस्तु की तरह
बाँट दी जाती है
और
कौड़ियों की तरह
बिसात पर हार दी जाती है
कुल-वधू भी!

अरे द्रौपदी
एक बार कस कर
कम से कम थूक तो देतीं
उस आलीशान
चमचमाते भवन के
कालिख पुते
प्रांगण पर  !!
                — डॉ. उषा किरण

चित्र; गूगल से साभार

सोमवार, 11 मई 2020

कविता— माँ






सारे दिन खटपट करतीं
     लस्त- पस्त हो
   जब झुँझला जातीं
             तब...
  तुम कहतीं-एक दिन
   ऐसे ही मर जाउँगी
       कभी कहतीं -
    देखना मर कर भी
  एक बार तो उठ जाउँगी
           कि चलो-
        समेटते चलें
    हम इस कान सुनते
      तुम्हारा झींकना
  और उस कान निकाल देते
            क्योंकि-
   हम अच्छी तरह जानते थे
       माँ भी कभी मरती हैं !
        कितने सच थे हम
                आज...
      जब अपनी बेटी के पीछे
            किटकिट करती
       घर- गृहस्थी झींकती हूँ
                  तो कहीं-
     मन के किसी कोने में छिपी
          आँचल में मुँह दबा
            तुम धीमे-धीमे
           हंसती हो माँ...!!!

                        ——   उषा किरण
                         रेखाँकन; उषा किरण )

सोमवार, 4 मई 2020

पुस्तक समीक्षा- ताना बाना

मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -
 ~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~




जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ललकारे , मुट्ठी में आसमान को भरने के स्वप्न देखने लगे ,जब कल्पना वक्त की निर्मम लहरों से चुराई रेत ,बन्द सीप ,शंख आदि बटोर कर अनुभूतियों का घर सजाने लगे, वेदना के पाखी शब्दों के नीड़ तलाशने लगें, लहरों और बादलों से बातें करे और कल्पनाओं की हीर अभिव्यक्ति के राँझे की तलाश में यहाँ वहाँ भटकने लगे , हृदय के शून्य को भरने की व्यग्रता वेदना बन जाये तब ताना-बाना जैसी कृति हमारे सामने आती है .
डा. ऊषाकिरण को जितना मैंने जाना है , इस पुस्तक से वह परिचय और प्रगाढ़ हुआ है . उनके सरल तरल स्नेहमय सुकोमल व्यक्त्तित्त्व का दर्पण है तानाबाना . यों तो वे मेरी आत्मीया हैं , मुझे बड़े स्नेह के साथ यह सुन्दर उपहार भेजा . इसलिये इसे पढ़ना और पढ़कर इसके विषय में कुछ कहना मेरा तो एक कर्त्तव्य भी है और एक जरूरी काम भी लेकिन वास्तव में यह किताब ही ऐसी है कि कोई अनजान भी इसे देख-पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रहेगा . लगभग सौ कविताओं और इतने ही सुन्दर उनके खुद के रचे गए सुन्दर चित्रों से सजी यह ऐसी कृति नहीं कि जल्दी से पढ़ो और थोड़ा बहुत लिखकर मुक्त हो जाओ . इसमें गहरे पैठकर ही मोतियों का सौन्दर्य दिखाई देता है . कुमार विश्वास जी ने शुरु में ही लिखा है कि ऊषा जी कविता को चित्रात्मक नजरिया से देखतीं हैं और चित्रों कवितामय नजरिया से . यही बात उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करती है .
संग्रह की पहली कविता ‘परिचय’ पढ़कर ही ऊषा जी के कद का पता चल जाता है जिसमें अनूठी उपमा और बिम्ब के साथ विविधवर्णी भाव हैं .’तुम होते तो’ एक बहुत प्यारी कविता है जिसमें हर भाव और सौन्दर्य-बोध किसी के होने न होने पर आधारित हैं . बहुत कोमल भाव . देखिये— .”..जब छा जाते हैं/ बादल घाटियों में / मन पाखी फड़फड़ता है/ ...पहुँचती नहीं कोई एक भी किरण /वहाँ घना कुहासा छाया है.....सारी किरणें जो ले गए तुम/ अपनी बन्द मुट्ठी में .”
हर रचना कवि के मन का दर्पण होती है . ऊषा जी अपनी हर रचना में पूरी ईमानदारी और सादगी के साथ मौजूद हैं .उनका भाव-संसार कोमल , अछूता , उदार और संवेदना से भरा हुआ है . वे कभी परछाइयों’ को पकड़कर कभी ‘पारिजात’ की गन्ध को बाँधकर और कभी ‘चाँद को थाली ‘ में उतारकर खुद को बहलाने की बात कहती हैं . यह बात कहने में जितनी सुन्दर है समझने में उतनी ही मर्मस्पर्शी है .वे शिकवे शिकायतों का बोझ लादे रहने की पक्षधर नहीं हैं . ‘मुक्ति’ कविता में बड़े प्रभावशाली तरीके से यह बात कही है –“आओ सब /,..करने बैठी हूँ हिसाब/ कब किसने दंश दिया/ किसने किया दगा/.... किसने ताने मारे /सताया किसने /...जब मन छीजा /तब किसका कंधा नहीं था पास/.. फाड़ रही हूँ पन्ना पन्ना /यह इसका /यह उसका./..आओ सब ले जाओ/ अपना अपना /मुक्त हुई मैं /...जाते जाते बन्द कर जाना दरवाजा /.....बहुत सादा सी लगने वाली यह कविता असाधारण है .दरवाजा बन्द करने में एक सुन्दर व्यंजना है . वे नदिया के साथ बहना चाहती हैं ( नदिया कविता ),मुट्ठी में आसमान भर लेना चाहती है ( एक टुकड़ा आसमान) हवाओं में गुम होना चाहतीं हैं खुशबू की तरह ...कहीँ सूफियाना रंग है तो कहीं शाश्वत जीवन-दर्शन .सुख और दुख का स्रोत हम स्वयं हैं ( हम कविता) क्षमताएं हमारे भीतर हैं . कस्तूरी कविता में यही बात है--- “हरसिंगार ,जूही /...महकती है सारी रात/ ....मेरे आँगन में/ ..या तकिये चादर में /...अरे यह खुशबू तो झर रही है /इसी तन-उपवन से/ ..दूर कबीर गा रहे हैं काहे री नलिनी....”
‘ताना-बाना’ में प्रेम और संवेदना के रंग सबसे गहरे हैं . ‘चौबीस-बरस’ और ‘क्यूँ’ कविताओं में प्रेम की वेदना बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है . रहस्यवाद से रची बसी ‘क्यूँ’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—--“.....मैंने कहा था / क्या दोगे मुझे /...तुमने एक लरजता मोरपंख/ रख दिया मेरे होठों पर/ एक धूप बिखेर दी गालों पर /..एक स्पन्दन टाँक दिया वक्ष पर/ एक अर्थ बाँध दिया आँचल में /..तब से तुम्हें पुकार रही हूँ /..तुम कहीं नजर नहीं आते/... या कि हर कहीं नजर आते हो .”.
भाई को याद करते हुए लिखी ‘पतंग’ कविता बरबस ही आँखें सजल कर देती है—
“आज तुम नहीं /पर तुम्हारा स्पर्श हर कहीं है/ तुम्हारी खुशबू हवाओं में /.....तुम्हारी स्मृतियों की डोर आज भी मेरे हाथों में है /पर तुम्हारी पतंग /....कहीं दूर../ बहुत दूर निकल गई है भाई ..”
‘ताना-बाना’ का फलक बहुत व्यापक है .उसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता . उसमें यादें हैं फरियादें हैं , माँ का वात्सल्य है , बेटियों की उड़ानें हैं .शहीदों के लिये भावों के पुष्प हैं ,प्रेम की पीड़ा है , मुक्ति की प्रबल आकांक्षा है . ‘बहुत बिगड़ गई हूँ मैं’ और ‘पाप’ कविता में मुक्ति का सुखद अनुभव पाठकों को भी कुछ पलों के लिये जैसे मुक्त कर देता है . नारी के दमन शोषण की व्यथा-कथा के साथ उसे उठकर संघर्ष करने की प्रेरणा ‘तुम सुन रही हो ? और ‘सभ्य औरतें’ कविताओं में बोल नही रही , चीख रही है . ‘यूँ भी’ कविता अपने अस्तित्त्व को दबाने और उस पर पर प्रश्न लगाने वाली व्यवस्था को सिरे से नकारती है . गान्धारी के माध्यम से ऊषा जी ने व्यभिचारियों ,अत्याचारियों की माताओं को सही ललकारा है .
ऊषा जी की कल्पनाएं और बिम्ब मोहक हैं . कुछ उदाहरण देखें–-(1) “रात में /जुगनुओं को हाथ में लेकर /खुद को साथ लिये /..सात समुद्र तैर कर /धरती को पार कर / दूर चमकते मोती को/ मुट्ठी में बन्द कर लौटना .....”
(2) “सूरज को तकती/ सारे दिन महकती नीलकुँई/ साँझ ढले सूरज के वक्ष पर /...आँख मूँद सोगई ..”
(3) “तारों ने होठों पर /उँगली रख /हवा से कहा /धीरे बहो / उजली चादर ओढ़ अभी अभी/ सोई है सुकुमारी रात ..”
(4) “धूप –सुनहरी लटों को झटक/ पेड़ों से उछली/ खिड़की पर पंजे रख /सोफे पर कूदी /छन्न से पसर गई कार्पेट पर /...ऊधम नहीं ..मैं बरजती हूँ पर वह जीभ चिढ़ा खिलखिलाती है /..शैतान की नानी धूप ..”
(5) “थका-माँदा सूरज/ दिन ढले /टुकड़े टुकड़े /लहरों में डूब गया जब/ सब्र को पीते /सागर के होठ और भी नीले होगए .”
(6) “ हाथ में दिया लिये / जुगनू की सूरत में / गुपचुप / धरती पर आकर.../ किसे ढूँढ़ते हैं ये तारे  / मतवाले /”
ऊषा जी की स्वभावानुरूप ही भाषा कोमल और ताजगी भरी है . कहीं ‘नए नकोर प्रेम की डोर ‘ जैसे खूबसूरत प्रयोग भी हैं .
कुल मिलाकर ऊषा जी की यह पुस्तक अनूठी है . बार बार पढ़ने लायक . आधुनिक चित्रकला में हालांकि मेरी समझ कम है फिर भी इतना तो समझ सकी हूँ कि हर चित्र कविता का ही सुन्दर चित्रांकन हैं . हाँ एक बात विशेष रूप से कही जानी चाहिये कि पुस्तक का कलेवर बेहद खूबसूरत है . आवरण , पृष्ठ ,निर्दोष छपाई ..यह सब उत्कृष्ट है . जिसने कृति को अधिक सुन्दर और आकर्षक बना दिया  है . . शिवना प्रकाशन को इसके लिये बहुत बधाई . और ऊषा जी को तो क्या कहूँ . खुद को भगवान का गढ़ा हुआ डिफेक्टिव पीस कहने वाली डा. ऊषाकिरण को ईश्वर ने खूब तराशा है . बस यही कामना कि वे स्वस्थ रहें और सुन्दर कविताएं कहानियाँ लिखती रहें .
                                                                                       लेखिका- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कविता— एक दिन


   ~ एक दिन~
     ~~~~~~

तुम तो
नफरत की सिलाइयों से
अपनी बदबूदार सोच का
एक मैला सा स्वेटर बुनो
क्योंकि
तुम्हें क्या मतलब इससे
कि देश मेरा जल रहा है
कराह रहा है
बंट रहा है
तड़प रहा है
भूखा है
डरा हुआ है
मर रहा है
तुम तो बस अपनी
अँधेरी परिधि की हद में
आत्ममुग्ध  हो
गर्वोन्मत्त हो थोड़ा सा भौंह उठा
हल्के से मुस्कुराओ
और फिर से शुरु हो जाओ
क्योंकि-
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है कि-
देश मेरा जल रहा है
सिसक रहा है...
तुम तो बस अपनी बदबूदार सोच से
नफरत की सिलाइयों से
एक मैला सा स्वेटर बुनो
पहनो और
सो जाओ !
लेकिन वे जो हैं न
अपनी छोटी -छोटी हथेलियों में
सूरज उगाए बढ़ रहे हैं
बुन रहे हैं एक रोशनी का वितान
वे ही बचा ले जाएंगे अपनी उजास
मेरे देश को
पूरे विश्व को
और मानवता को भी
तुम देखना एक दिन....!!!!

                     — उषा किरण

फोटो:गूगल से साभार

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कविता —ना कहना





तुम ये कहना
तुम वो कहना
इसे भी कहना
उसे भी कहना
इस बात पे कहना
उस बात पे कहना
यहाँ भी कहना
वहाँ भी कहना
जो दिखे
उसे कहना
ना दिखे
उसे भी कहना
सब कुछ कहना
परन्तु...
सही को सही
और
गलत को गलत
बस ये कभी न कहना !!!!!
                     डॉ० उषा किरण
                     ( रेखांकन ; उषा किरण)

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...