ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

दौड़



सुनो,

तुम मुझसे जैसे चाहो वैसे 

जब चाहो तब और जहाँ चाहो वहाँ 

आगे जा सकते हो 

तुमको जरा भी ज़रूरत नहीं कि

तुम मुझे कोहनी से  पीछे धकेलो या कि

धक्का मार कर या टंगड़ी अड़ा कर 

गिराओ या ताबड़तोड़ आगे भागो 

या अपने नुकीले नाखूनों से

मेरा मुँह नोचने की कोशिश करो या 

जहरीले पंजों से मेरी परछाइयों की ही

जड़ों को खोदने की कोशिश करो


तुमको ये सब करने की 

बिल्कुल ज़रूरत ही नहीं 

क्योंकि मैं तुमको बता दूँ कि 

मैं तो तुम्हारी अंधी दौड़ में 

कभी शामिल थी ही नहीं 

मैं हूँ ही नहीं तुममें से कोई एक नम्बर 

मुझे चाहिए नहीं तुम्हारा वो

चमकीला सतरंगी निस्सीम वितान

तुम्हारी जयकारों से गूँजता जहान

वेगवती आँधियाँ, तूफानी आवेग

आँखों, मनों में दहकती द्रोह-ज्वालाएं,दंभ


तुम हटो यहाँ से , 

मुझे कोसने काटने में 

अपना वक्त बर्बाद न करो वर्ना देखो

वे जो पीछे हैं आज, कल आगे बढ़ जाएंगे

तुमसे भी बहुत और आगे

पैरों में तूफान और साँसों में आँधियाँ भरे

वे दौड़े आ  रहे हैं…तुम भी भागो…


सुनो, मुझसे तो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा या 

विवाद होना ही नहीं चाहिए 

बिल्कुल भी नहीं 

मैं तो एक कोने में खड़ी हूँ कबसे

दौड़ने वाले बहुत आगे निकल गए 

दूर बुलंदी पर फहरा रही हैं पताकाएँ 

गा रही हैं उनका  यशगान ….जय हो 


मैं भी खुश हूँ बहुत सन्तुष्ट 

अपनी बनाई  इक छोटी सी धरती और 

छतरी भर आकाश से

साँसें चलने भर हवाएं और 

दो घूँट पानी  भी हैं पल्लू में 

आँखें बन्द कर सुन रही हूँ 

अपने अन्तर्मन में बजता सुकून भरा नाद

इससे ज्यादा सुन नहीं सकती

सह नहीं सकती वर्ना मेरे माथे की शिराओं में  

बहने लगता है लावा और

तलवों से निकलने लगती हैं ज्वालाएं


बहती नदी से एक दिन चुराया था जो

हथेलियों में थामा वो  फूल

कभी का मुरझा कर झर चुका…

बस चन्द बीज बाकी हैं 

देखूँ,रोप दूँ इनको भी  कहीं, 

किसी शीतल सी ठौर…

तो फिर चलूँ  मैं भी …!!

                               —उषा किरण🌼🍃

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2023

लघुकथा

अहा ! ज़िंदगी, मासिक पत्रिका में सितम्बर, 23 अंक में मेरी लघुकथा `टेढ़ी उंगली’ प्रकाशित हुई है। अहा ! ज़िंदगी पत्रि​का दैनिक भास्कर ऐप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।आप भी पढ़िए-


                       ~  टेढ़ी उंगली ~

"बात सुनो,  किचिन में कूलर लगवा दो, बहुत गर्मी लगती है!” दूसरी मंजिल पर खुली छत पर बनी और तीन तरफ़ से खुली होने पर सीधी धूप आने के कारण मई- जून में भट्टी सी तपती थी रसोई।ऊपर से बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं तो उनकी नित नई फरमाइश अलग से । आज ये बनाओ मम्मी , कल वो बनाओ। परेशान होकर शुभा ने आज फिर राघव से कहा।

"अरे कहीं देखा है किचिन में कूलर ? फिर कूलर की हवा गैस पर लगेगी कि नहीं?”राघव ने लापरवाही से कहा।

"हाँ देखा है , खूब देखा है, कूलर क्या ए. सी. भी देखा है। और खिड़की में थोड़ा सा तिरछा करके लगा देंगे…अरे वो सब मेरा सिरदर्द है, मैं मैनेज कर लूँगी न…तुम बस आज छोटा कूलर लेकर आओ। कबसे कह रही हूँ तुम सुनते क्यों नहीं हो ? तुमको खाना बनाना पड़े तो पता चले। बना- बनाया मिल जाता है, तो तुमको क्या पड़ी है….!” 

बहुत देर तक शुभा झुँझला कर छनछनाती रही लेकिन राघव न्यूज पेपर में सिर घुसाए तटस्थ भाव से अनसुना कर बैठे रहे। 

आज शुभा का गुस्सा चरम पर था। चेहरा गर्मी और क्रोध से लाल भभूका हो रहा था। ऐसे काम नहीं चलेगा कुछ करना पड़ेगा । मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराई।

कुकर गैस पर चढ़ा कर राघव से बोली " देखो दो सीटी आ जाएं तो गैस बन्द कर देना मैं नहाने जा रही हूँ ।” बाथरूम में जाकर चुपचाप सीटी आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दो सीटी आईं राघव के रसोई में जाते ही दबे पाँव शुभा ने दौड़ कर रसोई का दरवाजा बन्द करके बाहर से कुँडी लगा दी।

"अरे रे…ये क्या कर रही हो ? खोलो दरवाजा”

" शर्मा जी जरा दस मिनिट तो देखो खड़े होकर, मैं नहा कर आती हूँ , तब तक कश्मीर के मजे लो ।” राघव का गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया। बेतरह गर्मी से बेहाल होकर चीख- पुकार मचाने लगे। 

ऊपर के कमरे में पढ़ रही पूजा पापा की आवाज़ सुनकर दौड़ी आई और किचिन का दरवाजा खोला। बौखलाए से राघव बड़बड़ाते हुए कमरे में कूलर के सामने भागे। माँ की हरकत सुनकर हंस कर पूजा बोली "हा-हा …पापा बिना बात क्यों पंगा लेते हो मम्मी से, सीधी तरह से मान क्यों नहीं लेते उनकी बात !”

शाम को किचिन में गुनगुनाते हुए शुभा कूलर की ठंडी बयार में मुस्कुराते हुए बड़े मन से डोसा बना रही थी।

                                    — उषा किरण🌸🍃




सोमवार, 14 अगस्त 2023

रॉकी और रानी…. मेरे चश्मे से


हाँ जी, देख ली आखिर…! 

न-न करते भी बेटी ने टिकिट थमा कर गाड़ी से हॉल तक छोड़ दिया तो जाना ही पड़ा।सोचा चलो कोई नहीं करन जौहर की मूवी स्पाइसी तो होती ही हैं तो मनोरंजन तो होगा ही।मैं तो कहती हूँ कि आप भी देख आइए…पूछिए क्यों ?

तो भई एक तो मुझे ये मूवी लुभावनी लगी, जैसा कि डर था कि बोर हो जाऊंगी वो बिलकुल नहीं हुई, कहानी ने बाँधे रखा और भरपूर मनोरंजन किया।आलिया बहुत प्यारी लगी है उसकी साड़ियाँ देखने लायक हैं शबाना की भी। रणवीर भी क्यूट लगा है।सबकी एक्टिंग भी बढ़िया है। पुराने गानों को एक ताजगी से पिरोया गया है, खास कर "अभी न जाओ छोड़कर….” गाने का पूरी मूवी में बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है…वगैरह- वगैरह ।

खैर, ये सब तो जो है सो तो है ही। परन्तु सबसे बड़ी वजह है कि  ये कहानी जो एक संदेश छोड़ती है वो बहुत जरूरी बात है।घर- परिवार किसी एक की जागीर नहीं होती उस पर सभी सदस्यों का बराबर हक है। सबके कर्तव्य हैं तो अधिकार व सम्मान भी सबके हैं ।

ठीक है भई माना कि, घर में बुजुर्गों का सम्मान जरूरी है परन्तु इतना भी नहीं कि बाकी सबकी साँसें घुट जाएं, उनकी अस्मिता को कुचल दिया जाय। परम्परा जरूरी हैं बेशक, पर उनका आधुनिकीकरण होना भी उतना ही  जरूरी है। नए जमाने में नई पीढ़ी को सुनना ज़रूरी है। उनके विचार व सुझावों का भी सम्मान होना चाहिए, वे नए युग को पुरानी आँखों से बेहतर तरीके से देख व समझ पाएंगे।

घर की बेटी के मोटापे के आगे उसकी प्रतिभा को कोई स्थान नहीं। जैसे- तैसे किसी से भी ब्याहने को आकुल हैं सब। घर का बेटा कड़क, रौबदार माँ का  फरमाबदार बेटा तो है पर वो ये भूल गया कि  वो किसी का पति, बाप का बेटा, बच्चों का बाप भी है। उनके प्रति भी उसके कुछ फ़र्ज़ हैं । बरगद की सशक्त छाँव में जैसे बाकी पौधे ग्रो नहीं करते वैसे ही कड़क दादी की छाँव में बाकी सब सदस्य बोदे हो गए। बहू और पोती रात में चुपके से रसोई में छिप कर गाती हैं, अपने अरमान पूरे करती हैं और डिप्रेशन में  अनाप शनाप केक वगैरह खा-खाकर वजन बढ़ाती हैं, जो बेहद मनोवैज्ञानिक है। ऐसे में होने वाली बहू की बेबाक राय पहले तो किसी को हज़म नहीं होतीं । उसके क्रांतिकारी प्रोग्रेसिव विचार घर में तूफ़ान ला देते हैं । घर की नींव हिला देते हैं और भूचाल ला देते हैं , परन्तु बाद में सबको शीशा दिखाती हैं।सही है, बेटे के ही नहीं बहू या होने वाली बहू के भी अच्छे सुझावों का स्वागत होना चाहिए ।

क्या हुआ यदि जीवन साथी के संस्कार अलग हैं, तो क्या हुआ यदि होने वाला पति लड़की से शिक्षा, योग्यता वगैरह हर बात में कमतर है लेकिन वो लड़की से प्यार बेपनाह करता है और लड़की के पेरेन्ट्स के सम्मान को अपने पेरेन्ट्स के सम्मान से कम नहीं होने देता। खुद को बदलने के लिए बिना किसी ईगो को बीच में लाए प्रस्तुत है। लड़की की कही हर बात का सम्मान करता है। ये छोटी- छोटी बातें दिल चुरा लेती हैं । रानी के पिता को सम्मान दिलाने के लिए उनके साथ देवी पंडाल में रॉकी का डाँस करने का सीन भी दिल जीत  लेता है। सिर्फ़ लड़की का ही फ़र्ज़ नहीं होता कि वो खुद को बदले, एडजस्ट करे ये फर्ज लड़के का भी उतना ही होता है। दोनों के पेरेन्ट्स का सम्मान बराबरी का होना चाहिए, ये बहुत जरूरी बात सुनाई देती है।

धर्मेंद्र और शबाना की लव स्टोरी भी बहुत ख़ूबसूरती से दिखाई है। कभी-कभी बिना प्यार और सद्भावना के पूरी ज़िंदगी का साथ इंसान को कम पड़ जाता है और कभी मात्र चार दिन का प्यार भरा साथ पूरा पड़ जाता है…जीवन में एक ऐसी सुगन्ध भर जाता है कि उसकी आहट होश- हवास गुम होने पर भी सुनाई देती है।

 हमने रॉकी और रानी की प्रेम कहानी बिल्कुल नहीं बताई है। अब भई यदि हमारे चश्मे पे भरोसा हो तो देख लें जाकर उनकी प्रेम कहानी और न हो तो भी कोई बात नहीं….हमें क्या😎

                                                     — उषा किरण 

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुस्तक समीक्षा ( दर्द का चंदन)



दर्द का चंदन 
~~~~~~~~~~

आज चर्चा करूंगी, मेरी मित्र, बेहतरीन कवयित्री, कथाकार, उपन्यासकार डॉ उषाकिरण जी के उपन्यास 'दर्द का चंदन' की।

उपन्यास तो प्रकाशन के ठीक बाद ही मंगवा लिया था, पढ़ भी लिया था, लिखने में विलंब हुआ, उषा जी माफ़ करेंगी।

उपन्यास 'दर्द का चंदन' की भूमिका में कथाकार हंसादीप ने शुरुआत में ही लिखा है- 

"ये हौसलों की कथा है,

निराशा पर आशा की,

हताशा पर आस्था की,

पराजय पर विजय की कथा है"

निश्चित रूप से ये उपन्यास, हौसलों की ही कथा है। उपन्यास की नायिका, स्वयं उषा किरण जी हैं। आप सबको बता दूँ, कि उषा जी ने स्वयं ब्रेस्ट कैंसर को मात दी है, लेकिन इस मात देने की प्रक्रिया ने कितनी बार डराया, कितनी बार हिम्मत को तोड़ा, कितनी बार मौत से साक्षात्कार करवाया, ये वही जानती थीं, और अब हम सब जान रहे हैं, उनके इस संस्मरणात्मक उपन्यास के ज़रिए।

उपन्यास बेहद मार्मिक है। जब किसी परिवार में भाई-बहन दोनों ही कैंसर से लड़ रहे हों, तब उस परिवार की मनोदशा हम समझ सकते हैं। उषा जी ने क्रमबद्ध तरीके से भाई की बीमारी को विस्तार दिया है। उपन्यास पढ़ते समय, पाठक का दिल भी उसी तरह दहलता है, जैसे उषा जी और उनके परिवार का दहलता होगा।

उषा जी ने उपन्यास में केवल बीमारी का ज़िक्र नहीं किया है, बल्कि इस बीमारी से कैसे लड़ा जाए, इस बात को भी बहुत बढ़िया तरीके से समझाया है। वे स्वयं जैसा महसूस करती थीं, इस मर्ज़ से पीड़ित हर स्त्री, ठीक वैसा ही महसूस करती होगी, ज़रूरत है तो उषा जी जैसी सकारात्मक सोच की, परिजनों के साथ की, जो मरीज़ को टूटने नहीं देता।

उपन्यास की भाषा भी जगह जगह पर काव्यमयी हो गयी है, जिससे पाठक सहज ही उषा जी के कवि मन की थाह ले सकता है। उपन्यास के हर अंक की शुरुआत, कविता से ही की गई है।

बीमारी जब घेरती है, तब व्यक्ति स्वतः ही आध्यात्म की ओर झुक जाता है। घर वाले भी तरह तरह की मनौतियां मनाने लगते हैं। इलाज के दौरान जिस मानसिक दशा से वे गुज़रीं और जिन धार्मिक स्थलों की उन्होंने यात्रा की, उसका बहुत सजीव वर्णन उषा जी ने किया है।

कीमो के दौरान, अस्पताल में मिलने वाले अन्य कैंसर पेशेंट्स की मनोदशा और उषा जी द्वारा उनके भय को दूर करने के प्रयास बहुत सजीव बन पड़े हैं। चूंकि ये भोगा हुआ यथार्थ है, सो कलम से निकला एक एक शब्द, पाठकों तक पहुंचना ही था।

उपन्यास के अंत में उषा जी लिखती हैं-

"मेरा मकसद, इस कहानी के माध्यम से दया या सहानुभूति अर्जित करना नहीं है, सिर्फ यही सन्देश देना था, कि जन्म मृत्यु तो ईश्वर के हाथ है, परन्तु आस्था और सकारात्मकता ने मुझे शारीरिक व मानसिक बल दिया। यदि हम सजग रहें, तो समय पर अपनी बीमारी स्वयं ही पकड़ सकते हैं।"

इस तथ्यपरक उपन्यास के लिए उषा किरण जी साधुवाद की पात्र हैं। भोगा हुआ कष्ट लिखना, यानी उस कष्ट से दोबारा गुज़रना, लेकिन उषा जी ने ये किया, सामाजिक भलाई के उद्देश्य से। उन्हें हार्दिक बधाई व धन्यवाद।

हिंदी बुक सेंटर से प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत 225 रुपये है। छपाई शानदार है और आवरण पर उषा जी द्वारा बनाई गई पेंटिंग भी बेहतरीन है।

इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें, निराश नहीं होंगे।

प्रकाशक और लेखिका को हार्दिक बधाई।

                            —वन्दना अवस्थी दुबे





पुस्तक समीक्षा- पाँव के पंख

शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-




 शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-


शुक्रवार, 16 जून 2023

दर्द का चंदन- उषा किरण



 साहित्यनामा पत्रिका में `दर्द का चंदन' पर बहुत अनोखी परन्तु सटीक समीक्षा लिखी है रचना दीक्षित ने । एक शुक्रिया तो बनता है रचना जी। आइए देखें क्या लिखती हैं वे😊

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एक पाती उषा जी के

प्रिय उषा जी,

आपकी किताब ‘दर्द का चंदन’ नाम पढ़कर भी उस दर्द की पराकाष्ठा को न समझ पाने की भूल कर के पढ़ने लगी क्योंकि अगर पहले से कुछ पता होता तो शायद न पढ़ती। दर्द की गलियों से निकलकर कौन दोबारा उन गलियों में जाना चाहेगा। जब तक पिताजी की और भाई की बीमारी का जिक्र चल रहा था मन असहज होते हुए भी सहजता से पढ़ने का स्वांग करती रही। पर जब आपकी बीमारी का जिक्र आया तो यूं लगा दुखती रग पर किसी ने उंगली नहीं पूरा का पूरा कैंसर रख दिया हो। मैंने किताब रख दी पर फेसबुक पर आपने आग्रह किया कि मैं पढूं क्योंकि दुःख–सुख तो जीवन में आते रहते हैं। सोचने की बात है कि दूसरे को ऐसी सलाह देने और स्वयं उस पर अमल करने में बहुत अंतर होता है जो आपने असल में अपने जीवन में कर दिखाया। दोबारा किताब खोली। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की जगह दर्द का चंदन आपकी ही पंक्तियों से उठा कर माथे पर एक त्रिपुंड सजा लिया और "दर्द हद से बढ़ा तो रो लेंगे, हम मगर आपसे कुछ न बोलेंगे" को मन में बैठा कर मैं दर्द की भूल-भुलइयों में खोने लगी। मेरी अपनी कविता भी रिसने लगी:

पोर पोर पुरवाई उकसाती पीर

बढ़ता ही जाता है सुधियों का चीर

मेरी मां को गर्भाशय का कैंसर हुआ था जब वह 35 साल की थी और यूटरस निकालना पड़ा था। फिर बाद में लगभग 25 साल बाद उन्हें ब्रेस्ट कैंसर भी हुआ पर तकलीफों के साथ भगवान ने उनकी उम्र लिखी थी तो वो अपनी जिंदगी बहुत तो नहीं पर ठीक ठाक जी गईं। इसीलिए ग्रुप में जब कभी बचपन की बात होती है, मायके की बात होती है, मैं चुपचाप खिसक जाती हूँ। बताती चलूं मेरी माँ को दोनों बीमारी थीं तो मैं मेरे लिए तो जोखिम था ही। पहले तो लगातार स्त्री रोग विशेषज्ञ से चेकअप करवाती रही फिर रेगुलर एनुअल हेल्थ चेकअप पर आ गए। इसी बीच बात शायद 23 नवंबर की होगी, एक बार 2018 में एनुअल हेल्थ चेक अप के दौरान ब्रेस्ट में दो गाँठे निकली। फिर क्या था शुरू हो गया भाग दौड़ और टेस्ट का कार्यक्रम। उस समय घर पर कुछ मेहमान थे। इधर हमारा 15 दिन का दुबई और मॉरीशस का टिकट काफी पहले ही हो चुका था। फिर मेहमानों के जाने बाद आनन-फानन में एक सर्जरी हुई 28 नवंबर को फिर उसकी रिपोर्ट आई जो भगवान की कृपा से सामान्य निकली। यूं लगा जान बची तो लाखों पाए। 12 दिसंबर की फ्लाइट थी 10 दिसंबर को टांके कटे, 11 को पार्लर गई, 12 की फ्लाइट पकड़ ली, पर हां, पूरे समय सफर में ध्यान बहुत रखना पड़ा।

यह उपन्यास नहीं ये एक संघर्ष गाथा है, इसे उपन्यास कहना दर्द का अनादर करने जैसा होगा। एक्स रे कक्ष के बाहर लिखा होता है, बिना जरूरत अंदर प्रवेश न करें, विकिरण का खतरा है पर आपने तो नियमों की भयंकर अनदेखी कर दी। विकिरणों को इस कदर हवा दी कि कोई अंदर गया भी नहीं और विकिरणों से छलनी हो गए सबके मन आत्मा और हृदय। यहां दर्द को चंदन के फाहों में लपेट कर उसे शीतलता देने का प्रयास है, ताकि पढ़ने वालों को दर्द की अनुभूति कम हो पर दर्द तो दर्द है। चंदन के भीतर भी कराह उठा स्याही में घुल कर दर्द ने परिसंचरण का रास्ता अपनाया और ले लिया किताब के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक को अपने आगोश में।

अब बात करें आपकी, तो भाई के लिए आकंठ प्रेम मानव, मानवता, प्रकृति और जानवरों के प्रति आपका लगाव आपकी सकारात्मक सोच। यहां कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है मात्र भोगा हुआ यथार्थ है। शब्दों पर कहीं भी कल्पना का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। अपनी अंतहीन पीड़ा के साथ अपनों को खोने का दुःख, वो भयावह पल ‘दुआओं का हाथों में स्ट्रेचर पकड़ साथ साथ चलना’ ‘दवाइयों की महक, औजारों की खनक’ को आत्मसात करना, दर्द, पीड़ा और नकारात्मकता को रोज उठा कर हवन कुंड में डाल स्वाहा करना, समेटना, पुस्तक का रूप देना। हर चीज चलचित्र की तरह आंखों के सामने से गुजरती रही और उसे अंदर तक महसूस करती आपके साथ-साथ मैं भी। बीच बीच में हंसी ठिठोली के बहाने ढूंढते शब्द। टूटी चूड़ियों की माला, गुट्टे खेलना बचपन में लौटना और अपने साथ सबको ले के जाना भी जादूगरी से कम नहीं है।

बीच बीच में गौरव और सीमा का किस्सा, मात्र दो लोगों का परिवार उसमें अकेले सब कुछ करना और न कर पाने की टीस, इंटरकास्ट मैरिज, उससे उठते प्रश्न। अपनी पीड़ा के बीच दूसरे की पीड़ा को समझना और उन्हें दिलासा देना,

प्रोमेनेड बीच’ पर सूर्यास्त, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद गुरु का कष्ट और शिष्य की चिंता और विवशता आपके दर्द में पूरी तरह डूब कर बाहर आने की बात कहता है तब मेरी ही कुछ पंक्तियां अनायास कलम थाम लेती हैं:

कांपते होंठों से

जब दर्द कुतरा था तुमने

दर्द अपने लिबास उतारने को

आतुर हो गया

मैं ज्वालामुखी सी

पिघल कर बहने लगी थी

अस्पताल के पोस्टरों में लिखी बातें जो लोगों को जागरूक करने के लिए होती हैं पर मुश्किल समय में कोई इन पर ध्यान नहीं देता। उस समय तो मात्र एक ही उद्देश्य होता है किसी भी कीमत पर लड़ाई जीतना। अपना घर, अपनी जमीन बेचकर इलाज करवाने को मजबूर लोग, बीमारी और उससे जुड़ी हुई तमाम बातों को इतना विस्तार से लिखना जिससे आम लोग जागरूक हो सकें। कैंसर सेल की सजगता और उनके शैतानी ख्याल, एंटीजन और एंटीबॉडीज का खेल जिसे पढ़ मचल उठी मेरी एक विज्ञान कविता:

आंखों की तरलता

सारी बंदिशें तोड़ चुकी थी

इस सरसराहट ने

दशकों से शांत

रक्त में विचर रही

शरीर की

टी स्मृति कोशिकाओं को

सक्रिय कर दिया

फिर क्या था

एंटीजन पहचाना गया

रक्त में एंटीबॉडीज मचलने लगीं

मुहब्बत की उदास रात की सांसों

पर किसी ने तकिया रख दिया

दर्द के उत्तराधिकारी उमड़ने लगे

एक खुशनुमा मौसम

पहन कर एंटीबॉडीज ने

अंतिम नृत्य प्रस्तुत किया।

आपने क्या सोचा था, मेरी जैसी चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी को शादी में न बुला कर इग्नोर करेंगी और हम मान जायेंगे। यहां तो मान न मान मैं तेरा मेहमान। मैं तो गेटक्रेशर हूं सो बच्चों की शादियों में बिन बुलाए मेहमान की तरह गेट क्रैश कर हो आई और बच्चों के सर पर चिरायु होने का आशीर्वाद भी दे आई। जानती हूँ चुनौतियों के बिना जीवन भी क्या जीवन है, पर ये सिर्फ सुनने में ही अच्छा लगता है, यथार्थ इसके विपरीत है। ये भी उतना ही सच है कि बड़ी लड़ाई या चुनौती जीतने के बाद इंसान में जो निखार आता है वो किसी दूसरी तरह से नहीं आ सकता। 

आपके व आपके परिवार के सुखद जीवन की कामना के साथ।

 

रचना दीक्षित

 


बुधवार, 14 जून 2023

शान्ति निकेतन, सोनाझुरी- हाट और बाउल गीत





शांति निकेतन, कोलकाता से लगभग 180 किमी. दूर बीरभूम जिले के बोलपुर में स्थित है। शांतिनिकेतन की स्थापना देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। बाद में ये जगह उनके बेटे रविन्द्रनाथ टैगोार की वजह से मशहूर हो गई। रविन्द्रनाथ टैगोर ने पथ भवन की शुरूआत की। इस स्कूल में शुरू में 5 बच्चे पढ़ने आए। उन्होंने प्रकृति के बीच कक्षाओं को चलाने का अनोखा तरीका शुरू किया। बाद में इस स्कूल का नाम विश्व भारती यूनिवर्सिटी हो गया। आज कौन ऐसा व्यक्ति है जिसने शान्ति निकेतन का नाम न सुना होगा।

कलकत्ता जाने पर हम लोगों ने जब दो दिन के लिए शान्तिनिकेतन जाने का प्रोग्राम बनाया तो कुछ लोगों ने कहा कि शांति निकेतन और बंगाली माहौल को देखना है तो आपको सोनाझुरी हाट जरूर देखना चाहिए। सोनाझुरी  हाट के नाम से प्रसिद्ध यह हाट हर शनिवार को खोई नदी के तट पर लगती है। शनिवार को ही हम लोग शान्ति निकेतन पहुँचे थे तो खाने के बाद आराम करके शाम को हाट के लिए निकल लिए। यह एक खुला बाजार है जहां हम आदिवासी वस्तुओं और कई अन्य सामान खरीद सकते हैं। इसमें ग्रामीण इलाकों से आर्टिस्ट आते हैं और अपने हाथों से बनाए सामान बेचने के लिए लाते हैं । यहाँ आदिवासियों द्वारा बनाई बहुत सुन्दर पेटिंग्स भी बहुत कम दाम पर बिकने के लिए आई हुई थीं। हमने भी कॉपर के तारों से बनी दुर्गा जी व गणेश जी की दो छोटी पेंटिंग खरीदी। कान्था कढ़ाई की सा़ड़ियाँ भी बिकती देख एक हमने भी खरीद ली। 

कुछ संथाल जनजाति के लोग समूह में गाते हुए डांस कर रहे थे तथा कुछ स्थानीय बाउलों द्वारा गाए जाने वाले अद्भुत गान को सुन कर मैं मुग्ध होकर थम गई। पैरों को जैसे किसी ने जकड़ लिया हो। मन आनन्दमिश्रित करुणा से भीग गया। कैसी साधना होगी इस गायन के पीछे लेकिन एक कपड़ा बिछा कर जिस पर चन्द सिक्के व रुपये पड़े थे हरेक आने- जाने वालों पर गाते हुए आशा भरी करुण दृष्टि डालने वाले ये कलाकार कितनी बदहाली में जीते होंगे। देश - विदेश में जब भी मैं किसी को गा बजाकर भीख माँगते देखती हूँ तो मेरा कलेजा मुँह को आता है।बहुत ही कष्ट होता है लगता है काश…..!

बाउल के गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं।बाउल, बंगाल की तरफ लोकगीत गाने वालों का एक ग्रुप होता है। ये बाउल धार्मिक रीति रिवाजों के साथ गीतों का ऐसा सामंजस्य बिठाते  है की ये लोकगीत सुनने लायक होते है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग या तो हिन्दू वैष्णव समुदाय से ताल्लुक रखते हैं या फिर मुस्लिम सूफ़ी समुदाय से। कहा जाता है कि संगीत ही बाउल समुदाय के लोगों का धर्म है। उन्हें अक्सर उनके विशिष्ट कपड़ों और संगीत वाद्ययंत्रों से पहचाना जा सकता है। बाउल संगीत का रवींद्रनाथ टैगोर की कविता और उनके संगीत (रवींद्र संगीत) पर बहुत प्रभाव था।

ऐसा भी कहते हैं कि बाउल संगीत का मुख्य उद्देश्य अलग अलग जाति, समुदाय धर्म के लोगों को एक कर संगीत के द्वारा उनमें एकता का संचार करना है।ये गायक भगवा वस्त्र धारण किये हुए होते हैं। इनके बाल बड़े होते हैं जिन्हें ये खुले रखते हैं या जूड़ा बांधते हैं। ये लोक गायक हमेशा तुलसी की माला और हाथों में इकतारा लिए हुए होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय भी संगीत है, ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूम घूम के लोक गीत गाते हैं और उससे प्राप्त पैसों से गुज़र बसर करते हैं। केंडुली मेले के ही दौरान ये सभी लोग अपनी भूमि पर जमा होते हैं और बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ अपना ये खूबसूरत पर्व मनाते हैं। 

बाउल के दो वर्ग हैं: तपस्वी बाउल जो पारिवारिक जीवन को अस्वीकार करते हैं और बाउल जो अपने परिवारों के साथ रहते हैं। तपस्वी बाउल पारिवारिक जीवन और समाज का त्याग करते हैं और भिक्षा पर जीवित रहते हैं। उनका कोई पक्का ठिकाना नहीं है, वे एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में चले जाते हैं ।

सेनाझुरी हाट का सबसे बड़ा हासिल था बाउल गान से प्रेम, जो आज भी आँखें बन्द करते ही मेरे कानों में गूँजने लगता है। और इस प्रेम के चलते अब तक तो मैं यूट्यूब पर ढूँढ कर न जाने कितने बाउल गीत सुन चुकी हूँ ।

                            — उषा किरण 🌿🍂🍃🎋

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...