ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 14 मई 2018

तुम होते तो




जब भी
अटक गई चलते-चलते
अब ....?
कोई रास्ता
नजर नहीं आता जब
छा जाते हैं बादल
घाटियों में
मन पाखी फड़फड़ाता है
आंखें ढूंढ़ने लगती हैं तुम्हें
चहुं ओर...
ऐसा नहीं कि
खुशियां छूती न हों अब
ऐसा भी नहीं
कि गीत नहीं जीवन में...
पर क्या करूं
वो जो अन्तर्गोह है न
पहुंचती नहीं वहां
कोई एक किरन भी कभी
घना कुहासा छाया है वहां
तुम्हारे जाने के बाद से ही
सारी किरणें जो ले गए तुम
अपनी बंद मुट्ठी में
.........
फूल तो आज भी खिलते हैं
गीत आज भी गूंजते हैं
पहले की तरह
पर तुम होते आज तो
रंग ,राग,सुवास
कुछ और ही होते

रविवार, 13 मई 2018

मॉं

सारे दिन खटपट करतीं 
लस्‍त- पस्‍त हो 
जब झुंझला जातीं 
तब 
तुम कहतीं- 
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी 
कभी कहतीं- 
देखना मर कर भी चैन कहां? 
एक बार तो उठ ही जाऊंगी 
कि चलो
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते
तुम्‍हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्‍यों कि
हम अच्‍छी तरह जानते थे 
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम 
आज... 
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं 
तो कहीं
मन के कोने में छिपी 
आंचल में मुंह दबा 
तुम धीमे-धीमे 
हंसती हो मां!

बोंसाई


जब से
घने जंगलों को छोड़
ड्रॉइंगरूम के कोने में सिमट गए हो
जरूरत के हिसाब से
हंसते हो
इंचों में नाप के
मुस्कुराते हो
बरगद !
तुम कितने मॉडर्न हो गए हो
आधुनिकता तो सीखे कोई तुमसे
तुमने अपने कद को देखो
कितना छोटा कर लिया है
जब तुम जंगल में थे लोग  कहते हैं-
तुम विस्तृत थे
उन्मुक्त थे
झूमते थे
हंसते थे
हवाओं के साथ सुर मिला कर
गाते थे
पंछी के पंखों के नीचे
अपनी गुनगुनी उंगलियों से
गुदगुदाते थे
तुम्हारी छाया में
कुछ श्रम विश्राम पाते थे
उन लोगों को कहने दो
अपनी तरफ देखो
कितने साफ हो तुम
और कितने सलीकेदार
आखिर
सभी को हक है
अपना स्टैंडर्ड सुधारने का
आज तुम्हारी कीमत है
तुम खरीदे तो जा सकते हो
नहीं, तुम फिक्र न करो
बरगद !
जब मन करे
तभी तुम गाओ
और भूल जाओ सारी आवाजें
मत देखो वे इशारे
जो कह रहे हैं
बरगद ....
अब तुम बौने हो गए हो !
...............................
- उषा किरण


शनिवार, 12 मई 2018

नटखट- चॉंद


रात बारिश की
नन्हीं उंगली पकड़
नीचे उतर आया
नटखट-चॉंद
चलो 
नाव में बिठा कर
वापिस पहुंचाएं .

बेटियाँ

बेटियां होती हैं कितनी प्यारी
कुछ कच्ची
कुछ पक्की
कुछ तीखी
कुछ मीठी
पहली बारिश से उठती
सोंधी सी महक सी
दूर क्षितिज पर उगते
सतरंगी वलय सी
आंखों में झिलमिलाते तारे
पैरों में तरंगित लहरें
उड़ती फिरती हैं तितली सी
बरसती हैं बदली सी
फिर एक दिन-
आँचल में सूरज-चॉंद
ऑंगन की धूप छॉंव लेकर
कोमल सी पलकों से रचातीं
सुर्ख बेल-बूटे
फिर उजले से आंगन में 
रोपती हैं जाकर
बड़े चाव से
कुछ अंकुरित बीज
समर्पण के
संस्कार के
ममता के 
दुलार के
और बेटियां इस तरह 
रचती हैं
क्षितिज के अरुणाभ भाल पर
आगाज
एक नन्हीं सुबह का !!!

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (समापन किश्त)



हमारी प्राचीन मान्यताएं हैं कि जो जैसा करता है वो वैसा भरता है वो इहलोक या परलोक में अवश्य ही उसके फल का भुक्तभोगी होता है...बिट्टा बुआ को गुजरे एक वर्ष भी नहीं बीता था कि जवान बेटे की मृत्यु का दुख बिट्टा बुआ के भाई मंगल सिंह को हिला गया था...कभी बिट्टा बुआ की मृत्यु पर उनकी बहन के रोने पर जो उनकी भाभी बहुत दर्प से कह रही थीं..`जाने लोग कैसे रो लेत हैं हमको तो भाई रुलाई आउत ही नाय है...’नहीं जानती थीं कि नियति तब मुस्कुरा रही थी...और जब जवान बेटे की लाश पर वे अपने बाल नोंच कर पछाड़ें खा कर रो रही थीं तब वही नियति ठठा कर हंस रही होगी...`देखा ऐसे रोना आता है...’ ।
बिट्टा बुआ की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात जब हम लोग गांव गए तो देखा मंगल सिंह खूब बाल्टी भर-भर कर बिट्टा बुआ के कुंए के पानी से नहा रहे थे...घर जाने पर ताऊ जी ने बताया कि मंगल सिंह पागल हो गए हैं बस सर्दी -गर्मी जब देखो नहाने लगते हैं कई -कई बाल्टियों से और आठ-दस बार लोटा मांज कर मानो बुआ की तड़पती-अतृप्त आत्मा को तर्पण देते रहते हैं...उनकी पत्नि किवाड़ के पीछे खड़ी उनकी हालत देख विवश सी रोती रहती हैं...सर्वशक्तिमान से भी पहले कई बार अपनी अन्तर्रात्मा ही हमें सजा दे देती है । गांव के सब लोग कहते हैं कि हर रात मंगल सिंह के लोटे की जलधार के नीचे अंजुलि-बद्ध बिट्टा बुआ की तृषित आत्मा वह जल पीती है...परन्तु मेरा मन यह बात कभी भी स्वीकार नहीं करता जो भाई प्राय: उन पर हाथ तक उठा देता था उसके हाथों दिए तर्पण को स्वीकार करने की अपेक्षा वे प्यासा तड़पना ही स्वीकार करेंगी...भले ही मंगल सिंह का लोटा मांजते घिस जाए या कुंए का जल समाप्त हो जाए ।
मेरा अबोध मन इस विश्वास को भी नहीं झुठला पाता कि रात को वे फरिश्ते का हाथ पकड़ जरूर आती होंगी अपनी क्यारियों के लाल गुलाबों को खिलता देखने के लिए...और भोर से पहले असंख्य झिलमिल तारों के बीच अनन्त गहराइयों के पार स्थित स्वर्ग लोक की ओर उड़ जाती होंगी
—समाप्त 

बिट्टा बुआ (भाग 5)






शनै:-शनै: अनियमित आहार एवं उम्र के तकाजों से उनकी कमर बहुत झुक गई थी...झुर्रियां तो मैंने बचपन से लेकर आखिर तक उतनी ही देखीं...मृत्यु सेछै: -सात माह पूर्व तक उनका स्वास्थय बहुत गिर गया था ठीक से उपचार भी नहीं हो रहा था...उनके जीने की आकांक्षा ही किसे थी ?
अपने बड़े कमरे और आधे आंगन में वे भाई और भाभी को पैर भी नहीं रखने देती थीं...अत: पूरे घर पर कब्जे का स्वप्न पूरा होता देख वे दोनों बहुत पुलकित थे ...और इधर जीवन के अस्त होते सूर्य की किरणें उन्हें निस्तेज करती जा रही थीं...बस तीन चीजों का मोह उन्हें अभी भी जकड़े हुए था कभी घिसट -घिसट कर क्यारी से ढ़ेरों लाल गुलाब तोड़ कर तकिए के पास सजा लेतीं और कभी गिरती-पड़तीं चौपाल पर जाकर कुंए को तृप्त आंखों से देखती रहतीं ...तो कभी जूते चप्पल के ढ़ेर को कृपण की संपत्ति की भांति कांपते हाथों से सहलाती रहतीं ।
एक दिन उनकी तबियत बहुत खराब थी अंत निकट था...बोल नहीं पा रही थीं...गांव वालों ने मिल कर उनकी खाट चौपाल पर निकाली...सब नम आंखों से चारों तरफ घेर कर बैठ गए ...ताई जी तुलसी,गंगाजल उनके मुंह में डाल रही थीं..राम-राम का जाप चल रहा था...सभी का मन भारी था भले ही उनकी तीखी जुबान से कोई न बचा हो पर उनका कोई बैरी भी तो नहीं था...एक पल यदि किसी से झगड़ आतीं तो दूसरे ही पल फिर मेल कर लेतीं..गांव की बेटियों ने भले ही उनकी गाली खाई हो पर विवाह मंडप में कौन ऐसी बेटी थी जिसके दूल्हे को और उसको लाल गुलाब का आशीष न मिला हो जब तक उनके शरीर में ताकत थी भला कौन नवजात -शिशु या कौन नवेली बहू होगी जिसे लाल -गुलाब का तोहफा और ढ़ेरों आशीष न मिले हों...उनके पास और था ही क्या बस यही एक सम्पदा थी और था प्यार और आशीषों से भरा हृदय...सारा गांव ही उनका अपना था और वे सबकी...अन्तिम समय पूरा गांव ही उनकी खाट के चारों तरफ सिमट आया था ।
जब उनकी सांसें अटक-अटक कर गिनती पूरी कर रही थीं तभी अचानक उनके भाई ने बिट्टा बुआ के कमरे से जूते चप्पल निकाल कर बाहर गली में फेंकने शुरू कर दिए...गांव वालों ने रोकने की कोशिश भी की पर उसने किसी की भी नहीं सुनी...बिट्टा बुआ सब देख रही थीं उनकी दोनों आंखों की कोरों से आंसू टपक रहे थे...मानो कह रहे हों कुछ देर और रुक जाओ हमारे प्राण पखेरू उड़ने ही वाले हैं ...जिस घोंसले पर इतने दिन हमारा बसेरा रहा उसे और थोड़ी देर मत उजाड़ो ...पर दुष्टों की आत्माएं भी बहरी ही होती हैं...अंतिम समय जान सबने मिल कर बिट्टा बुआ को धरती पर उतारा...पूरी ताकत से उन्होंने बड़े दर्द से आंख खोल बाहर पड़े जूते -चप्पलों के ढ़ेर को देखा और एक हिचकी के साथ सारे बंधन तोड़ कर प्राण- पखेरू उड़ चले जहां न उन्हें कोई माया थी न मोह का बंधन ।
क्रमश:

जरा सोचिए

     अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है हर समय उधार मांगती रहती है कामवालों के नखरे बहुत हैं  पूरी हीरोइन...