ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कस्तूरी



हरसिंगार
जूही,चंपा,चमेली
रात की रानी
महकती है सारी रात
मेरे आंगन में
या शायद...
तकिए या चादर में ?
नींद से लड़ती
चांद-तारों को डपटती
चांदनी से लिपटती
सारी रात
पलटती रही करवट
अकुला कर उठ बैठी
खुद को सूंघा...
अरे !
यह सुगंध तो झर रही थी...
इसी तन के उपवन से
या शायद
मन के प्रांगण से
या शायद
मेरी ही नाभि से...
कहीं दूर कबीर गा रहे हैं
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी...!!

4 टिप्‍पणियां:

  1. आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २१०० वीं बुलेटिन अपने ही अलग अंदाज़ में ... तो पढ़ना न भूलें ...



    ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कुछ इधर की - कुछ उधर की : 2100 वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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