ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

कविता— कितने मुजरिम ढूँढोगे...?


सिर पर तलवार लिए खड़ा वो
तुम  कितने मुजरिम  ढूँढोगे
दीपक जो जलाए  वो मुजरिम
जो न जलाए वो भी  मुजरिम
पटाखे बोलो किसने फोड़े
तूने  फोड़े  तो  तू  मुजरिम
न  फोड़े  तो  वो  मुजरिम
क्या आपस में सिर फोड़ोगे

इक दिन फ़िज़ा तो बदलेगी
तिमिर भी सब ढल जाएगा
ले नई रोशनी नया सवेरा
रौशन दिन सामने आएगा
फिर कैसे आँख मिलाओगे
फिर दोस्त कहाँ तुम पाओगे
किस-किस से माफ़ी माँगोगे
फिर किसको गले लगाओगे

माना कि कुछ भटके लोगों ने
नफ़रत का पत्थर मारा है
क्या तुम भी अब बोलो तो
चुन-चुन कर पत्थर मारोगे
वो भटक रहे वो डरे हुए
ओनों-कोनों में दुबक रहे
तेरे-मेरे के बीच फँसे
बस अँधियारों में भटक रहे

नफ़रत के मारे लोगों को
ये पत्थर कौन थमाता है
फिर दूर तमाशा देख खड़ा
वो ताली खूब बजाता है
तुम मारोगे ग़र इक पत्थर
वो मारेंगे तब दस पत्थर
तानों,भावों,घातों,बोलों के
किस-किस को पत्थर मारोगे

पत्थर की ज़ुबानें बोलो न
किस इल्म से लेकर आए हो
है कौन जो मज़हब कहता है
नफ़रत की ज़ुबानें बोलो तुम
कोरोना हिन्दू- मुसलमाँ कब
ये कौन तुम्हें बतलाता है
ये धर्म- क़ौम में बाँट तुम्हें
कठपुतली सा कौन नचाता है

तुम करते रहना हिन्दू-मुस्लिम
बस  करते रहना सिख-ईसाई
तुम नफ़रत का ख़ंजर घोंपोगे
कोई जात-धर्म नहीं  पूछेगा
वो दाँव पहले ही चल जाएगा
वो काल के फंदे में अपने
हम सबकी गर्दन जकड़ेगा
और वक़्त वहीं थम जाएगा

बुद्धिजीवी बन इतराते तुम
तो चलो लगाओ बुद्धि ज़रा
वो कौन सी बोली बोलें हम
जो प्रेम-सद्भाव की बात करे
न  तेरे  मेरे  की  जात  गढ़े
भटकों को राह दिखाए वो
कड़ी बीच की बन जाए जो
ऐसी राह कहाँ से पाएँ  हम

क्या करोगे तुम इस दौलत का
इस दौलत से क्या पाओगे
ये मानपत्र ,मैडल, मालाएँ
बोलो क्या संग ले जाओगे
दुनियाँ की रौनक रही नहीं
वो शान-ओ-शौक़त कहाँ गई
सूनी गलियों में  कुत्ते रोते हैं
शमशान में रौनक़ रहती है

कहाँ गए वो सूट-बूट
वो हीरे- मोती के आभूषण
वो ठाट-बाट कारें बंगले
महफ़िलों की रौनक़ कहाँ गईं
लो मंदिर की घंटी मौन हुई
मस्जिद में अजानें खो सी गईं
वो चर्च औ गुरुद्वारों की
प्रार्थना,अरदासें  कहाँ गईं

माँ कहती थीं सो जा चुप कर
वर्ना हाऊ आ जाएगा
चुप कर सो जा जल्दी से
वर्ना पेट तेरा खा जाएगा
आज सच में हाऊ आया है
संग कितनी दहशत लाया है
हम दुबक रहे सब इधर-उधर
हर सिर पर मौत का साया है

तुम लिए तराज़ू बैठे हो
क्या ग़लत - सही बतलाओगे
आँखों की पट्टी खोलोगे
तब सही-ग़लत कह पाओगे
सुनो `नज़ीर’ क्या कहते हैं
क्या कहता उनका इकतारा
`सब ठाठ धरा रह जाएगा
जब लाद चलेगा बंजारा’ !!!
                         —डॉ. उषा किरण
                              18.4.2020

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा रचना ,सामयिक
    आज के हालात बहुत दुखदायी हैं , भावों को शब्द देना हर किसी के बस का नहीं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अर्चना जी बहुत आभार आपका उत्साह बढ़ाने के लिए।

      हटाएं
  2. बस मुजरिम ही ढूंढे जा रहे हैं, सब कटघरे में, न्याय कौन करेगा ?

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 22 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

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