ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

दहलीज से परे...!




बेशक ...

उनके पाँवों के नीचे 

ज़मीनें संकरी थीं

और सिर पर

सहमा सा आसमाँ

छाया था चहुँओर 

तिमिर घनघोर 

पथ अनचाहा

राह अनजानी

पर उनके पास पंख थे

मज़बूत हौसलों के

और हाथ थी 

हिम्मत की मशाल

उनके पद-चापों की 

धमक से

हारते गए अँधियारे

खुलते गए रास्ते

क्षितिज रंगते गए 

सतरंगी रंगों से

देखो गौर से वहाँ अब

उड़ते हैं सुनहरे पंछी 

गाते जीत का मधुर गान...!!


जब भी स्त्री विमर्श की बात होती है । 

स्त्रियों के अधिकारों, उत्पीड़न, अस्मिता, शोषण व सम्मान की बात होती है।और जब भी पढ़ी -लिखी, नौकरीपेशा महिलाएं भी जब अपने उत्पीड़न की ,विवशता की बात करती हैं तो मुझे सर्वप्रथम अपने जीवन में आईं कुछ बेहद सशक्त परिवार की ही कुछ बुजुर्ग महिलाओं की याद आती है जो स्त्री सशक्तीकरण का जीवन्त उदाहरण रहीं। और उनका साहस मुझे सदैव ही अचम्भित करता रहा।


उन्होंने आजन्म कभी किसी की ज़्यादती और धौंस-धपट बर्दाश्त नहीं की।अपने हौसलों की मशाल की रोशनी में मस्तक ऊँचा कर वे हर बाधा पार कर दृढ़ कदमों से चलती रहीं और अन्तत: विजयी हुईं। मजाल है कोई भी उनका किसी  तरह का शोषण करने की सोच भी सके या उनके सामने किसी तरह की बेअदबी कर सके ।


उन्होंने अपनी जिंदगी शान से जी और पूरी गरिमा से जीवन यात्रा सम्पन्न कर आज भी हम सबकी स्मृतियों में न केवल आदर व श्रद्धा की पात्र हैं अपितु अनुकरणीय भी हैं ।


बेशक वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, नौकरी या व्यवसाय नहीं करती थीं।परन्तु बुद्धिमत्ता, आत्मविश्वास और साहस में किसी से भी रत्ती भर भी कम नहीं थीं। आज हम और हमारे बच्चे बहुत गर्व और प्यार से याद करते हैं उन्हें ।


उनमें से कुछ आदरणीय कम उम्र में ही विधवा हो गईं। परन्तु हिम्मत न हार कर पाँच ,सात बच्चों को , घर- गृहस्थी व खेती-बाड़ी को भी आजन्म पूरे सम्मान व गरिमा से खूब संभाला। बच्चों को काबिल बनाया। बहुओं व बेटों को पूरे अनुशासन में रख कर परिवार में सामन्जस्य बनाए रखा तो पोते- पोतियों को भी संस्कार व अनुशासन की घुट्टी पिलाई। वक्त के साथ भरे- पूरे परिवार में सामन्जस्य स्थापित करके तीन पीढ़ियों को पूरी जिजीविषा से साथ लेकर चलीं।


इसी संदर्भ में मुझे याद आती हैं इसके विपरीत कोई पैंतालिस साल पहले बुलन्दशहर के हमारे मकान मालिक गर्ग साहब की बहन `शैलजा रस्तोगी’की।जो कि किसी डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल थीं। शादी के साल दो साल बाद ही पति की मृत्यु के बाद उन्होंने किसी तरह खुद को और बेटी को संभाला, प्राचार्या बनीं , लेकिन हमेशा एक चुप्पी सी घेरे रहती थी उनको। कभी भी हमने उनको हंसते-बोलते,मुस्कुराते नहीं देखा।वे बेहद खूबसूरत अपनी बेटी को खूब सजा संवार कर रखतीं। सभी बच्चों में वो अलग व विशेष दिखाई देती थी।


धीरे-धीरे उषा रस्तोगी गहन अवसाद की शिकार हुईं, फिर टी.बी. ...और दस साल की बेटी को छोड़कर हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं...हार गईं जिंदगी की जंग।बाद में सुना जो बेटी राजकुमारियों सी पल रही थी बाद में धनलोलुप रिश्तेदारों के हाथों बहुत दुखमय जीवन बिता कर एक बेहद साधारण पति व घर में ब्याह दी गई। हारी हुई हिम्मत और हौसला खुद के ही लिए नहीं बच्चों व परिवार के लिए भी कई बार अभिशाप बन जाता है।


इसी तरह याद आता है मेरे एक परिचित का बेटा मयंक जो आई आई टी कानपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके भी कभी कोई जॉब नहीं कर सका।पिता के पैसों से कई बिजनेस शुरु करके लाखों रुपये डुबो कर अब कुंठित हो सारे दिन घर- बाहर झगड़े करना और सबसे बत्तमीजी का आचरण करना मात्र उसकी जिंदगी का मकसद रह गया है। क्या इतने बढ़े संस्थान की डिग्री उसकी विद्वता साबित कर सकी ?


खैर ....जब मैं अपने परिवार की उन बुजुर्ग महिलाओं के बारे में सोचती हूँ कि उनकी इस हिम्मत’ हौसले और दृढ़ता के पीछे कारक क्या थे ? तो मुझे समझ आता है कि कोई जरूरी नहीं कि हर पढ़ा- लिखा, बड़ी डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति हर तरह से बुद्धिमान भी हो और उसी तरह से ये भी ज़रूरी नहीं कि हर अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति निपट मूर्ख ही हो। हो सकता है उसमें पढ़े- लिखे व्यक्ति से ज्यादा वाक्- चातुर्य हो, ज़्यादा व्यवहारिक बुद्धि हो, ज़्यादा सहनशीलता हो, वो प्रत्युत्पन्नमति ज्यादा हो, बेहतर निर्णायक-क्षमता, बेहतर व्यवहारिकता, धैर्य और सहनशीलता हो।


बुद्धिमत्ता का दायरा तो बहुत विस्तृत है आप उसको मात्र डिग्री या परीक्षा में प्राप्त नम्बरों से नहीं आँक सकते।कम पढ़े- लिखे व्यक्ति भी कई बार कई क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाढ़ देते हैं और दूसरी तरफ कुछ खूब बड़े ओहदों पर स्थापित, करोड़ों सम्पत्ति के मालिक होकर भी सब संभालने में असमर्थ साबित होते हैं। जीवन में आई थोड़ी सी असफलता या पराजय न सह कर  निराशा व अवसाद के सागर में डूब जाते हैं ।


प्राय: हमारी एक बीमारी होती है कोई क्या कहेगा और सबसे भलाई लूटने की चाह। इस कामना में वैसे तो कोई बुराई भी नहीं है, परन्तु एक सीमा तक ही ये परवाह उचित है।कई बार हमें बोल्ड होकर इन बातों की परवाह न करते हुए आगे बढ़ कर, परम्पराओं से परे भी निर्णय लेने की हिम्मत होनी चाहिए बशर्ते हमारे अंदर न्यायबुद्धि व तर्कसंगत बुद्धि से निर्णय लेने की क्षमता हो। 


मेरी दादी को मैंने कभी नहीं देखा।वे हम भाई- बहनों के जन्म से पहले ही स्वर्गवासी हो चुकी थीं। मेरे दादाजी की डैथ के समय पापा छह महिने के थे दोनों ताऊ जी, बुआ भी छोटे थे दादी ने सबको संभाला, पढाया- लिखाया, शादी की, कामगारों के साथ खेती- बाड़ी भी संभाली। इतना ही नहीं वे इतनी दबंग व बुद्धमति  थीं और उनमें इतनी ठसक थी कि गाँव के झगड़ों- टंटों में भी सरपंच की भूमिका के लिए बहुत आदर से बुलाई जाती थीं और वे जो फैसले करती थीं वह सबको मान्य होते थे। मेरी मामी, नानी व ननद आदि भी ऐसी ही दबंग महिलाएं थीं।


वे साहसिक महिलाएं स्त्री- विमर्श या किसी भी तरह के विमर्श के  बारे में नहीं जानती थीं और न ही उनको जानने की जरूरत थी।बस मजबूत इरादे,  बुलन्द हौसले और खुद पर विश्वास ही उनके हथियार थे।


 तो मैं कुछ ऐसी ही अपने परिवार की उन बिंदास व ओजस्वी महिलाओं को याद करूँगी जो अतीत के सीने पर छोड़ गई हैं कुछ सशक्त हस्ताक्षर...कल जो मजबूत स्तम्भ रहीं अपने परिवार की और आज भी जिनके छोड़े रौशन पदचाप हमें राह दिखाते हैं।


  तो सर्वप्रथम श्रद्धा सुमन अर्पित शरबती बुआ को....!!🙏

                                                                                              

                                                क्रमश:

                                                                      - उषा किरण


चित्र; `दहलीज से परे ‘ 

( मिक्स मीडियम)

           -उषा किरण




                                                                                             

                                                                                           -

17 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2099...कभी पछुआ बहे तो कभी पुरवाई है... ) पर गुरुवार 15अप्रैल 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।

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  3. "मजबूत इरादे, बुलन्द हौसले और खुद पर विश्वास ही उनके हथियार थे।"

    इस हथियार को जिसने भी धारण कर लिया उसकी जीत तो निश्चित होती है।
    बहुत ही सुंदर प्रेरणादायी लेख,अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा। सादर नमन आपको

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  4. वाकई पढ़ा लिखा होना ज़रूरी नहीं बस हौसले बुलंद होने चाहियें . इस श्रंखला की आगे की कड़ियों का इंतज़ार रहेगा ...
    दहलीज़ में रह कर अपने को दृढ रखना बहुत आसान नहीं ... ऐसी स्त्रियाँ दहलीज़ के भीतर रहते हुए भी दहलीज़ से परे सोचतीं हैं ... शीर्षक बहुत सुन्दर है ...

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  5. नारी शक्ति पर आपकी सशक्त लेखन अति प्रभावशाली व सत्य के बिल्कुल करीब है।
    कौन कहता है कि नारी ने किसी भी युग में अपना प्रभाव नहीं छोडा है।
    नमन व शुभकामनाएं आदरणीया उषा किरण जी।

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  6. बहुत अच्छा लगा पढ़कर । बङे दिनों बाद कुछ ऐसा पढा । आपने मन की बात कह दी । हम सब इन चट्टान जैसी मजबूत नानी, दादी, बुआ, मौसी, माँ को वरदान स्वरुप पा चुके हैं । इन्हें विसंगतियों ने ठोक-पीट कर तैयार किया । पर इनके मन मक्खन से मुलायम ही रहे, जिसकी स्निग्धता अब तक हमें पुचकारती है ।

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  7. नूपुर जी बहुत शुक्रिया...सही कहा आपने हम सभी के पूर्वज ही हमारी बुनियाद हैं ...जिनके लगाए पौधों की छाँव में हम सब आज बैठे हैं !

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