मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -
~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~
जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ललकारे , मुट्ठी में आसमान को भरने के स्वप्न देखने लगे ,जब कल्पना वक्त की निर्मम लहरों से चुराई रेत ,बन्द सीप ,शंख आदि बटोर कर अनुभूतियों का घर सजाने लगे, वेदना के पाखी शब्दों के नीड़ तलाशने लगें, लहरों और बादलों से बातें करे और कल्पनाओं की हीर अभिव्यक्ति के राँझे की तलाश में यहाँ वहाँ भटकने लगे , हृदय के शून्य को भरने की व्यग्रता वेदना बन जाये तब ताना-बाना जैसी कृति हमारे सामने आती है .
डा. ऊषाकिरण को जितना मैंने जाना है , इस पुस्तक से वह परिचय और प्रगाढ़ हुआ है . उनके सरल तरल स्नेहमय सुकोमल व्यक्त्तित्त्व का दर्पण है तानाबाना . यों तो वे मेरी आत्मीया हैं , मुझे बड़े स्नेह के साथ यह सुन्दर उपहार भेजा . इसलिये इसे पढ़ना और पढ़कर इसके विषय में कुछ कहना मेरा तो एक कर्त्तव्य भी है और एक जरूरी काम भी लेकिन वास्तव में यह किताब ही ऐसी है कि कोई अनजान भी इसे देख-पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रहेगा . लगभग सौ कविताओं और इतने ही सुन्दर उनके खुद के रचे गए सुन्दर चित्रों से सजी यह ऐसी कृति नहीं कि जल्दी से पढ़ो और थोड़ा बहुत लिखकर मुक्त हो जाओ . इसमें गहरे पैठकर ही मोतियों का सौन्दर्य दिखाई देता है . कुमार विश्वास जी ने शुरु में ही लिखा है कि ऊषा जी कविता को चित्रात्मक नजरिया से देखतीं हैं और चित्रों कवितामय नजरिया से . यही बात उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करती है .
संग्रह की पहली कविता ‘परिचय’ पढ़कर ही ऊषा जी के कद का पता चल जाता है जिसमें अनूठी उपमा और बिम्ब के साथ विविधवर्णी भाव हैं .’तुम होते तो’ एक बहुत प्यारी कविता है जिसमें हर भाव और सौन्दर्य-बोध किसी के होने न होने पर आधारित हैं . बहुत कोमल भाव . देखिये— .”..जब छा जाते हैं/ बादल घाटियों में / मन पाखी फड़फड़ता है/ ...पहुँचती नहीं कोई एक भी किरण /वहाँ घना कुहासा छाया है.....सारी किरणें जो ले गए तुम/ अपनी बन्द मुट्ठी में .”
हर रचना कवि के मन का दर्पण होती है . ऊषा जी अपनी हर रचना में पूरी ईमानदारी और सादगी के साथ मौजूद हैं .उनका भाव-संसार कोमल , अछूता , उदार और संवेदना से भरा हुआ है . वे कभी परछाइयों’ को पकड़कर कभी ‘पारिजात’ की गन्ध को बाँधकर और कभी ‘चाँद को थाली ‘ में उतारकर खुद को बहलाने की बात कहती हैं . यह बात कहने में जितनी सुन्दर है समझने में उतनी ही मर्मस्पर्शी है .वे शिकवे शिकायतों का बोझ लादे रहने की पक्षधर नहीं हैं . ‘मुक्ति’ कविता में बड़े प्रभावशाली तरीके से यह बात कही है –“आओ सब /,..करने बैठी हूँ हिसाब/ कब किसने दंश दिया/ किसने किया दगा/.... किसने ताने मारे /सताया किसने /...जब मन छीजा /तब किसका कंधा नहीं था पास/.. फाड़ रही हूँ पन्ना पन्ना /यह इसका /यह उसका./..आओ सब ले जाओ/ अपना अपना /मुक्त हुई मैं /...जाते जाते बन्द कर जाना दरवाजा /.....बहुत सादा सी लगने वाली यह कविता असाधारण है .दरवाजा बन्द करने में एक सुन्दर व्यंजना है . वे नदिया के साथ बहना चाहती हैं ( नदिया कविता ),मुट्ठी में आसमान भर लेना चाहती है ( एक टुकड़ा आसमान) हवाओं में गुम होना चाहतीं हैं खुशबू की तरह ...कहीँ सूफियाना रंग है तो कहीं शाश्वत जीवन-दर्शन .सुख और दुख का स्रोत हम स्वयं हैं ( हम कविता) क्षमताएं हमारे भीतर हैं . कस्तूरी कविता में यही बात है--- “हरसिंगार ,जूही /...महकती है सारी रात/ ....मेरे आँगन में/ ..या तकिये चादर में /...अरे यह खुशबू तो झर रही है /इसी तन-उपवन से/ ..दूर कबीर गा रहे हैं काहे री नलिनी....”
‘ताना-बाना’ में प्रेम और संवेदना के रंग सबसे गहरे हैं . ‘चौबीस-बरस’ और ‘क्यूँ’ कविताओं में प्रेम की वेदना बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है . रहस्यवाद से रची बसी ‘क्यूँ’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—--“.....मैंने कहा था / क्या दोगे मुझे /...तुमने एक लरजता मोरपंख/ रख दिया मेरे होठों पर/ एक धूप बिखेर दी गालों पर /..एक स्पन्दन टाँक दिया वक्ष पर/ एक अर्थ बाँध दिया आँचल में /..तब से तुम्हें पुकार रही हूँ /..तुम कहीं नजर नहीं आते/... या कि हर कहीं नजर आते हो .”.
भाई को याद करते हुए लिखी ‘पतंग’ कविता बरबस ही आँखें सजल कर देती है—
“आज तुम नहीं /पर तुम्हारा स्पर्श हर कहीं है/ तुम्हारी खुशबू हवाओं में /.....तुम्हारी स्मृतियों की डोर आज भी मेरे हाथों में है /पर तुम्हारी पतंग /....कहीं दूर../ बहुत दूर निकल गई है भाई ..”
‘ताना-बाना’ का फलक बहुत व्यापक है .उसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता . उसमें यादें हैं फरियादें हैं , माँ का वात्सल्य है , बेटियों की उड़ानें हैं .शहीदों के लिये भावों के पुष्प हैं ,प्रेम की पीड़ा है , मुक्ति की प्रबल आकांक्षा है . ‘बहुत बिगड़ गई हूँ मैं’ और ‘पाप’ कविता में मुक्ति का सुखद अनुभव पाठकों को भी कुछ पलों के लिये जैसे मुक्त कर देता है . नारी के दमन शोषण की व्यथा-कथा के साथ उसे उठकर संघर्ष करने की प्रेरणा ‘तुम सुन रही हो ? और ‘सभ्य औरतें’ कविताओं में बोल नही रही , चीख रही है . ‘यूँ भी’ कविता अपने अस्तित्त्व को दबाने और उस पर पर प्रश्न लगाने वाली व्यवस्था को सिरे से नकारती है . गान्धारी के माध्यम से ऊषा जी ने व्यभिचारियों ,अत्याचारियों की माताओं को सही ललकारा है .
ऊषा जी की कल्पनाएं और बिम्ब मोहक हैं . कुछ उदाहरण देखें–-(1) “रात में /जुगनुओं को हाथ में लेकर /खुद को साथ लिये /..सात समुद्र तैर कर /धरती को पार कर / दूर चमकते मोती को/ मुट्ठी में बन्द कर लौटना .....”
(2) “सूरज को तकती/ सारे दिन महकती नीलकुँई/ साँझ ढले सूरज के वक्ष पर /...आँख मूँद सोगई ..”
(3) “तारों ने होठों पर /उँगली रख /हवा से कहा /धीरे बहो / उजली चादर ओढ़ अभी अभी/ सोई है सुकुमारी रात ..”
(4) “धूप –सुनहरी लटों को झटक/ पेड़ों से उछली/ खिड़की पर पंजे रख /सोफे पर कूदी /छन्न से पसर गई कार्पेट पर /...ऊधम नहीं ..मैं बरजती हूँ पर वह जीभ चिढ़ा खिलखिलाती है /..शैतान की नानी धूप ..”
(5) “थका-माँदा सूरज/ दिन ढले /टुकड़े टुकड़े /लहरों में डूब गया जब/ सब्र को पीते /सागर के होठ और भी नीले होगए .”
(6) “ हाथ में दिया लिये / जुगनू की सूरत में / गुपचुप / धरती पर आकर.../ किसे ढूँढ़ते हैं ये तारे / मतवाले /”
ऊषा जी की स्वभावानुरूप ही भाषा कोमल और ताजगी भरी है . कहीं ‘नए नकोर प्रेम की डोर ‘ जैसे खूबसूरत प्रयोग भी हैं .
कुल मिलाकर ऊषा जी की यह पुस्तक अनूठी है . बार बार पढ़ने लायक . आधुनिक चित्रकला में हालांकि मेरी समझ कम है फिर भी इतना तो समझ सकी हूँ कि हर चित्र कविता का ही सुन्दर चित्रांकन हैं . हाँ एक बात विशेष रूप से कही जानी चाहिये कि पुस्तक का कलेवर बेहद खूबसूरत है . आवरण , पृष्ठ ,निर्दोष छपाई ..यह सब उत्कृष्ट है . जिसने कृति को अधिक सुन्दर और आकर्षक बना दिया है . . शिवना प्रकाशन को इसके लिये बहुत बधाई . और ऊषा जी को तो क्या कहूँ . खुद को भगवान का गढ़ा हुआ डिफेक्टिव पीस कहने वाली डा. ऊषाकिरण को ईश्वर ने खूब तराशा है . बस यही कामना कि वे स्वस्थ रहें और सुन्दर कविताएं कहानियाँ लिखती रहें .
लेखिका- गिरिजा कुलश्रेष्ठ