ताना बाना
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
गुरुवार, 9 जुलाई 2020
कविता-/ एकलव्य
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कविता
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
रविवार, 14 जून 2020
कविता— इससे पहले
इससे पहले कि फिर से
तुम्हारा कोई अज़ीज़
तरसता हुआ दो बूँद नमी को
प्यासा दम तोड़ दे
संवेदनाओं की गर्मी को
काँपते हाथों से टटोलता
ठिठुर जाए और
हार जाए जिंदगी की लड़ाई
कि हौसलों की तलवार
खा चुकी थी जंग...
इससे पहले कि कोई
अपने हाथों चुन ले
फिर से विराम
रोक दे अपनी अधूरी यात्रा
तेज आँधियों में
पता खो गया जिनका
कि काँपते थके कदमों को रोक
हार कर ...कूच कर जाएँ
तुम्हारी महफिलों से
समेट कर
अपने हिस्सों की रौनक़ें...
बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ
बोझ बन गईं जो
कान दो थके कदमों की
उन ख़ामोश आहटों पर
तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं
और लौट गईं चुपचाप
सुन लो वे सिसकियाँ
जो घुट कर रह गईं गले में ही
सहला दो वे धड़कनें
जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में
काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो
सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...
मत रखो समेट कर बाँट लो
अपने बाहों की नर्मी
और आँचल की हमदर्द हवाओं को
रुई निकालो कानों से
सुन लो वे पुकारें
जो अनसुनी रह गईं
कॉल बैक कर लो
जो मिस हो गईं तुमसे...
वो जो चुप हैं
वो जो गुम हैं
पहचानों उनको
इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़
एक दर्दनाक खबर बन जाए
इससे पहले कि फिर कोई
सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए
इससे पहले कि तुम रोकर कहो -
"मैं था न...”
दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से
गले लगा कर कह दो-
" मैं हूँ न दोस्त !!”
— डॉ० उषा किरण
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कविता
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
मंगलवार, 9 जून 2020
कविता— काहे री नलिनी.....
काहे री नलिनी.....”
~~~~~~~~~
घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप
बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ
कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर
पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद
हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद
गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!!
— डॉ. उषा किरण
Dr. Usha Kiran
Size-30”X 30”
Medium - Mixed media on Canvas
TITLE -"Kahe ri Nalini”(काहे री नलिनी)
~~~~~~~~~
घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप
बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ
कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर
पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद
हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद
गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!!
— डॉ. उषा किरण
Dr. Usha Kiran
Size-30”X 30”
Medium - Mixed media on Canvas
TITLE -"Kahe ri Nalini”(काहे री नलिनी)
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
रविवार, 7 जून 2020
कविती— काहे री नलिनी.....
डॉ. उषा किरण
पेंटिंग साइज-30”X 30”
मीडियम—मिक्स्ड मीडिया
टाइटिल -"काहे री नलिनी.....”
घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप
बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से ,
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर
पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद
हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद
गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!
— डॉ. उषा किरण
पेंटिंग साइज-30”X 30”
मीडियम—मिक्स्ड मीडिया
टाइटिल -"काहे री नलिनी.....”
घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप
बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से ,
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर
पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद
हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद
गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!
— डॉ. उषा किरण
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कविता
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
शुक्रवार, 29 मई 2020
स्मृति- -चित्रण ( आँचल की खुशबू)
आँचल की खुशबू —
~~~~~~~~~~~~
"उषा इधर आओ”
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
“मैं क्यों का क्या मतलब ? काटो भिंडी हम कह रहे हैं बस...हर समय किताबों में घुसी रहती हो ये नहीं कि कुछ काम- काज सीखो ।”
"अब ये भिंडी काटने में क्या सीखना होता है भई...ए राजपाल सुनो इधर आओ चलो तुम ये भिंडी काटो...हमें पढ़ना है।”
“अरे राजपाल से हम भी कटवा लेते पर ये भिंडी आज तुम ही काटोगी समझीं “ अब तक अम्माँ को गुस्सा आ चुका था तो हमने चुपचाप बैठ कर फटाफट भिंडी कतरने में ही अपनी खैर समझी।
“ये भिंडी काटी हैं तुमने कोई छोटी कोई बड़ी और बिना देखे काटे जा रही हो जाने कितने कीड़े काट दोगी तुम ?”
“अरे हम कीड़े देखते जा रहे थे पर छोटी बड़ी से क्या फर्क पड़ने वाला है सब्ज़ी पक के सब बराबर ही हो जानी हैं “ हम चिनचिनाए।
“रुको ...देखो जो छोटी होगी वो जल्दी पक जाएगी और जो बड़ी है वो देर से तो जब तक बड़ी पकेगी छोटी भिंडी घुट जाएगी ...समझीं...सिर्फ़ दो चार पेंटिंग बना कर दीवार पर सजा देना ही काफी नहीं होता ,हर काम में कलात्मकता होनी चाहिए ...खाली कविता कहानी से ही जीवन नहीं चलता है !”
उनका लैक्चर शुरु हो चुका था ...बात पूरी हो हम तब तक अपने दड़बे में घुस किताब उठा चुके थे,बात ख़त्म ।
पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई ...आज उस बात के 43 साल बाद भी जब भी ,जितनी बार हमने भिंडी काटी हैं ये भिंडी प्रकरण हमेशा स्मृतियों में भिंडी सा चिपक कर साथ चला आया है।
बस अम्माँ यूँ ही चलती हो तुम साथ मेरे ...अपनी बातों, नसीहतों , मुहावरों और किस्सों से महकती हो मेरे भीतर ...तुम्हारी पीठ से चिपक कर तुम्हारा पल्लू सूँघती थी मैं जब छोटी थी ...क्या पता था अनजाने में ही जीवन भर के लिए वो सुगन्ध अन्तर्तम में बसा रही थी मैं...माँ कभी भी कहीं नहीं
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
“मैं क्यों का क्या मतलब ? काटो भिंडी हम कह रहे हैं बस...हर समय किताबों में घुसी रहती हो ये नहीं कि कुछ काम- काज सीखो ।”
"अब ये भिंडी काटने में क्या सीखना होता है भई...ए राजपाल सुनो इधर आओ चलो तुम ये भिंडी काटो...हमें पढ़ना है।”
“अरे राजपाल से हम भी कटवा लेते पर ये भिंडी आज तुम ही काटोगी समझीं “ अब तक अम्माँ को गुस्सा आ चुका था तो हमने चुपचाप बैठ कर फटाफट भिंडी कतरने में ही अपनी खैर समझी।
“ये भिंडी काटी हैं तुमने कोई छोटी कोई बड़ी और बिना देखे काटे जा रही हो जाने कितने कीड़े काट दोगी तुम ?”
“अरे हम कीड़े देखते जा रहे थे पर छोटी बड़ी से क्या फर्क पड़ने वाला है सब्ज़ी पक के सब बराबर ही हो जानी हैं “ हम चिनचिनाए।
“रुको ...देखो जो छोटी होगी वो जल्दी पक जाएगी और जो बड़ी है वो देर से तो जब तक बड़ी पकेगी छोटी भिंडी घुट जाएगी ...समझीं...सिर्फ़ दो चार पेंटिंग बना कर दीवार पर सजा देना ही काफी नहीं होता ,हर काम में कलात्मकता होनी चाहिए ...खाली कविता कहानी से ही जीवन नहीं चलता है !”
उनका लैक्चर शुरु हो चुका था ...बात पूरी हो हम तब तक अपने दड़बे में घुस किताब उठा चुके थे,बात ख़त्म ।
पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई ...आज उस बात के 43 साल बाद भी जब भी ,जितनी बार हमने भिंडी काटी हैं ये भिंडी प्रकरण हमेशा स्मृतियों में भिंडी सा चिपक कर साथ चला आया है।
बस अम्माँ यूँ ही चलती हो तुम साथ मेरे ...अपनी बातों, नसीहतों , मुहावरों और किस्सों से महकती हो मेरे भीतर ...तुम्हारी पीठ से चिपक कर तुम्हारा पल्लू सूँघती थी मैं जब छोटी थी ...क्या पता था अनजाने में ही जीवन भर के लिए वो सुगन्ध अन्तर्तम में बसा रही थी मैं...माँ कभी भी कहीं नहीं
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स्मृति -चित्रण
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
सोमवार, 25 मई 2020
कविता— आचार- संहिता
कब , क्या कहा माँ ने
भूल जाओ अब
वो सारी नसीहतें
वो हिदायतें
लिखो न अब
खुद की आचार संहिता
अपनी कलम से
अपनी स्याही से
और फिर
सौंप देना बेटी को
वो लिखेगी उसके आगे
अपने हिसाब से
मनचाहे रंगों से
आखिर
क्यों ठिठके रहें हम
चौखटों में सिमटे
सोचते रहें कि...
क्या कहा था माँ ने
दादी या नानी ने
हक है हमारा भी
आसमानी कोनों पर
चाँद-सूरज और
उड़ते परिंदों पर
सतरंगे इन्द्रधनुषी रंगों
सनसनाती उन्मुक्त
शीतल बयारों और
इठलाती बदलियों पर
और ...
जहाँ भी होंगी माँ
भले ही वो
उंगली से बरजेंगी
पर चुपके से
आँखों से मुस्कुराएंगी
यकीन मानो
वो भी
सुकून पाएंगी...!!!
—उषा किरण
(रेखाँकन : उषा किरण )
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कविता
तूलिका और लेखनी के सहारे अहसासों को पिरोती रचनाओं की राह की एक राहगीर.
रविवार, 24 मई 2020
स्मृति चित्रण (नर में नारायण)
"मैं सोया और स्वप्न देखा
कि जीवन आनन्द है
मैं जागा और देखा कि
जीवन सेवा है
मैंने सेवा की
और पाया कि
सेवा आनंद है”
—रवीन्द्रनाथ टैगोर
चार दिन पहले मालविका का फोन आया तो बताने लगी कि वो जिस एन जी ओ "प्रगति “के साथ काम करती है उस स्कूल में जब टीचर ने ऑनलाइन क्लास लेते समय एक बच्ची को होमवर्क न करने पर डाँटा तो वो बोली मैडम तीन दिन से खाना नहीं खाया हमसे नहीं पढ़ा जा रहा । दरअसल प्रगति के तीनों ही स्कूलों में बहुत गरीब घरों के बच्चे पढ़ते हैं ।उन टीचर ने मालविका को बताया मालविका ने तुरन्त फोन नं० लेकर उसके फादर से बात की और घर में जितना भी राशन , मैगी के पैकिट, ब्रैड, दूध था सब थैलों में भरा ,आदी ने भी अपने चॉकलेट्स बिस्किट लाकर दिए ।सब खाने पीने का सामान गवीश के साथ ले जाकर उसके पापा को पास के मार्केट में बुला कर दे दिया ।उन्होंने बताया कि वो गाड़ी धोने का काम करते हैं पर आजकल न तो गाड़ी निकलतीं न ही धुलतीं हैं तो लोगों ने पैसे देने बन्द कर दिए,बहुत परेशानी है।मालविका ने बोर्ड के सभी मेंबर से बात की सबने मिल कर अरेंजमेन्ट किया । कुछ निर्णय लिए गए ...फंड्स का इंतजाम कर राशन के पैकिट्स बनवाए और सभी बच्चों के घर फोन करके उनके पेरेन्ट्स को स्कूल बुला कर राशन व स्टेशनरी देने की व्यवस्था सुरक्षित तरीके से करवाई। । वो बता रही थी कि राशन देते समय जब मैंने पूछा कि अब गाँव तो नहीं जाओगे तो सभी ने यही कहा कि खाने का इंतजाम तो हो गया पर मकान का किराया कहाँ से लाएंगे ।आपस में सभी बोर्ड मेंबर से सलाह कर फिर सभी के एकाउन्ट में चार- चार हजार रुपये भी डलवाए ।अब तीनों स्कूलों के लगभग 450 बच्चों और उनके परिवारों के चेहरों पर मुस्कान वापिस आ रही है अभी भी निरन्तर राशन बाँटा जा रहा है और बच्चे भी अब मन लगा कर होमवर्क पूरा करते हैं ।मुझे यह सब सुन कर बहुत तसल्ली , संतोष और खुशी मिली।
मालविका मुझे बता रही थी कि उस बच्ची के फादर जिस सोसायटी में कारें धोने का काम करते थे वहाँ काफी रिच फ़ैमिलीज रहती हैं जिनका शायद किसी होटल या रेस्टोरेन्ट का लन्च या डिनर का एक बार का या एक जोड़ी जूते का बिल जितना आता होगा उतने में उस बेचारे का पूरा परिवार महिने भर खाना खा सकता है पर इस आपदा काल में उनको यदि बिना काम किए पैसे दे देंगे तो उनको तो ऐसी कोई कमी नहीं आने वाली है पर ....दरअसल बात नीयत की है ।
आपकी इस लालच की वजह से उनका पूरा परिवार भूखा सोएगा ये क्यों नहीं दिखाई देता । आपकी तो ऐयाशी कुछ कम हो सकती है पर वो बेचारे तो भूखों मर जाएंगे।पुताई वाले, कबाड़ी वाले,रिक्शा ,ऑटो वाले, धोबियों,छोटी दुकानों वाले ,घरों में काम करने वाली बाइयों इन सबका क्या हाल होगा आप सोच कर देखिए।हम सबकी मदद नहीं कर सकते पर जो हमारे दायरे में है हम उतना तो कर ही सकते हैं ।
इस पोस्ट को लिखने का मकसद बस यही है कि मुझे लगता है कि किसी की भी अच्छी बातों और कामों को शेयर जरूर करना चाहिए होसकता है इससे कुछ और लोगों को भी कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिले ।
मेरी सभी से गुजारिश है दिल बड़ा रखिए अपने सहायकों को पूरा पेमेन्ट करिए हो सके तो कुछ एक्स्ट्रा देकर मदद करिए वर्ना भूखे पेट वो अपने देस-गाँवों को लौटेंगे या यहीं कैसे जिन्दा बचेंगे।हो सकता है वो लौटें ही नहीं तब? कैसी होगी आपकी जिंदगी इन सबके बिना...जरा सोचिए।
आपदा- काल है ,गरीबों के लिए ये समय काल बन कर आया है ।यथासंभव इनकी मदद करिए जहाँ- जहाँ जितनी हो सके ।यकीन मानिए मंदिरों ,तीर्थों , पूजा,अनुष्ठानों से आप जितना पुण्य कमाएंगे उससे दस गुना ज्यादा इस संकट की घड़ी में उनकी मदद करके कमाएंगे, भूखों का पेट भरके कमाएंगे ।नर में ही नारायण को देखिए ।
ये सच है कि कोई भी नेकी की राह आसान नहीं होती ।बहुत रुकावटें आती हैं । जब आप शुभ संकल्प लेते हैं तो कुछ लोग नकारात्मकता भी फैलाते हैं ऐसे वक्त पर ...लेकिन यदि आप उजले मन से नेकी के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो राहें खुद आसान हो जाती हैं । कभी कहीं पढी पंक्तियाँ कुछ-कुछ याद आ रही हैं...
"साफ है मन यदि
राह है सच्चाई की
तो प्रार्थना के बिना भी
प्रसन्न होंगे देवता....!!” 🙏
#फोटो_प्रगति_में_राशन_वितरण
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स्मृति -चित्रण
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खुशकिस्मत औरतें
ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...