ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 11 मई 2022

क्राँति दिवस- १० मई





इतिहास - विभाग, मेरठ कॉलिज, मेरठ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूर्ण होने पर " आजादी का अमृत महोत्सव ”  के अन्तर्गत 10 मई 1922 को क्राँति - दिवस मनाया गया। मेरा सौभाग्य रहा कि उस अवसर पर आमन्त्रित होने के कारण उन क्राँति वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर प्राप्त हुआ ।

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के इस वर्ष 163 साल पूरे हो रहे हैं। 10 मई 1857 को अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए आजादी की पहली चिंगारी सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैली थी। इसी दिन अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था। यह मेरठवासियों के लिए गौरव की बात है। 

मेरठ का कैंट इलाका एक छावनी इलाका था, जहां सैनिकों के बैरक बने हुए थे. औघड़नाथ मंदिर से नजदीक ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी मंदिर में आकर रुकते थे। उस समय अंग्रेजों ने मंदिर के पास ट्रेनिंग सेंटर भी बनाया था। छावनी में अंग्रेज और भारतीय दोनों सेनाओं के लोग अलग-अलग जगहों पर रहते थे. अंग्रेज भारतीय सैनिकों के प्लाटून को काली पलटन कहते थे. काली पलटन बैरक के पास ही एक शिव मंदिर था जहां पर भारतीय सैनिक पूजा-पाठ करने जाते थे. इसी मंदिर से भारत की आजादी की पहली लड़ाई की शुरुआत हुई. आज भी वह भव्य मन्दिर `काली- पल्टन का मन्दिर’ या `औघड़नाथ -मन्दिर’ के नाम से लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। 10 मई 1857 को मंदिर के प्याऊ पर कुछ सैनिक पानी पीने के लिए पहुंचे. प्याऊ पर उस समय मंदिर के पुजारी बैठे हुए थे. सैनिकों ने हमेशा की तरह पुजारी से पानी पिलाने को कहा लेकिन पुजारी ने सैनिकों को अपने हाथ से पानी पिलाने से इंकार कर दिया. पुजारी ने कहा जो सैनिक गाय और सूअर की चर्बी से बने हुए कारतूस को अपने मुंह से खोलते हैं, उन्हें वह अपने हाथों से पानी नहीं पिला सकते।

1857 की क्रांति का जिक्र करते हुए एक साधु को भी याद किया जाता है। मेरठ के राजकीय संग्रहालय में बाक़ायदा फोटो के साथ ये लिखा गया है कि अप्रैल 1857 में एक साधु आए थे. आजतक भी उस साधु का परिचय अज्ञात ही है। वो कोई सामान्य साधु नहीं था उसके पास हाथी व अश्व थे । साधु का आना और फिर 10 मई को बगावत हो जाना ये महज एक संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक कुशल रणनीति थी। बताया जाता है कि ये साधु भी क्रांतिकारियों के साथ 10 मई 1857 को मौजूद थे, हालांकि साधु के नाम का जिक्र नहीं किया गया है।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि देश के क्रांतिकारी बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बडे़ सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी। रोटी का अर्थ रहा हम सभी भारतीय अपनी रोटी मिल बांटकर खाएंगे तथा खिलते कमल का अर्थ कि हम सभी मिलकर देश को कमल के समान खिलते देखना चाहेंगे।

मेरठ छावनी में सैनिकों को 23 अप्रैल 1857 में बंदूक में चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने के लिए दिए गए। भारतीय सैनिकों ने इन्हें इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था। इसी कारतूस को लेकर महीने भर पहले बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे विद्रोह कर चुके थे और यह बात चारों तरफ फैल चुकी थी. तब 24 अप्रैल 1857 में सामूहिक परेड बुलाई गई और परेड के दौरान 85 भारतीय सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने के लिए दिया गया, लेकिन परेड में भी सैनिकों ने कारतूस का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। इस पर उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दिया गया। मई छह, सात और आठ को कोर्ट मार्शल का ट्रायल हुआ, जिसमें 85 सैनिकों को नौ मई को सामूहिक कोर्ट मार्शल में सजा सुनाई गई। और उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था। 

शहर में में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की चिंगारी उस वक्त फूटी थी, जब देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरा हुआ था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए रणनीति तय की गई थी। एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाना था, लेकिन मेरठ में तय तारीख से पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। 

इतिहासकारों की माने और राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय, मेरठ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रिकार्ड को देखे तो, दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब सदर बाजार से क्रांति की ज्वाला धधक उठी। लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। सदर बाजार क्षेत्र से अंग्रेज फौज पर लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया।  क्रांति के दौरान सदर बाजार की वेश्याएं भी 85 सैनिकों की गिरफ्तारी के बाद उठ खड़ी हुई थीं। वेश्याओं ने सिपाहियों पर चूड़ियाँ फेंकीं। 

उसी समय 11 वीं  व 20वीं पैदल सेना के भारतीय सिपाही परेड ग्राउंड (अब रेस कोर्स) में इकट्ठे हुए और वहीं से अंग्रेजी सिपाहियों और अफसरों पर हमला बोल दिया। पहली गोली 20वीं पैदल सेना के सिपाही ने 11वीं पैदल सेना के सीओ कर्नल जार्ज फिनिश को रेस कोर्स के मुख्य द्वार पर मारी थी। उस सिपाही का नाम आजतक अज्ञात है। इस बीच थर्ड कैवेलरी के जवान अश्वों पर सवार होकर अपने उन 85 सिपाहियों को बंदी मुक्त कराने विक्टोरिया पार्क स्थित जेल पहुंच गए, जिन्हें कोर्ट मार्शल के तहत सजा दी गई थी।

सवा छह बजे तक दोनों जेल तोड़ दी गईं। साथ लाए लुहारों से बेड़ियाँ व हथकडियों को कटवा कर सैनिकों को जेल से मुक्त किया गया। अगले दो घंटे में छावनी इलाका जल उठा। सहसा `दिल्ली- दिल्ली ‘ का उद्घोष हुआ, शाम साढ़े सात बजे के आसपास ये लोग रिठानी गांव के पास एकत्रित हुए और विभिन्न रास्तों से दिल्ली कूच कर गए। 

कहते हैं कि वो अज्ञात साधु भी हाथी पर बैठ  कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ। कुछ सैनिक तो रात में ही नावों के बने पुल को पार कर यमुना किनारे लाल किले की प्राचीर तक पहुंच गए और कुछ भारतीय सैनिक ग्यारह मई की सुबह यहां से दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया ।

रात के हमलों से संभलकर ब्रिटिश सैनिकों ने भी दिल्ली कूच किया, लेकिन तब तक क्रांति की ज्वाला धधक चुकी थी ।क्रांतिकारियों के इस हमले में 50 से अधिक अंग्रेजी अफसर-सिपाही मारे गए। सदर, लालकुर्ती, रजबन आदि हर जगहों पर खून ही खून नजर आ रहा था।

वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. के. डी.  शर्मा ने अपने व्याख्यान में बताया कि नौ मई 1857 का दिन ही वह ऐतिहासिक दिवस था जब सैनिकों की बगावत के बाद बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर पहली बार हिंदुस्तान की आजादी का आगाज हुआ था। इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाकर, 'स्वतंत्र भारत' की आधारशिला रख दी। 

1857 की क्रांति के वीरों को कोटि-कोटि नमन।🙏

फोटो व जानकारी : गूगल से साभार।



रविवार, 8 मई 2022

पेस्ट्री




"काव्या, पढ़ने बैठो बेटा !”

"मम्मी, भूख लगी है !”

मम्मी ने पेस्ट्री दी, मैंने गपागप खा ली। परन्तु मेरा मन नहीं भरा।

"मम्मी एक और दो न !”

मम्मी ने एक और दे दी। खाकर मैं पढ़ने बैठ गई थी। भैया खेल कर आया, सहसा उसका ध्यान कूड़े में पड़े पेस्ट्री के डिब्बे पर गया।

"मम्मी आज पेस्ट्री आई थी, मुझे भी दो न !”

"बेटा, कल मंगवा दूँगी, आज मिठाई खा लो !”

 " आपने मेरे लिए नहीं रखी ?”

वो  रोने लगा। मुझे शर्मिंदगी हुई और बेहद दु:ख हुआ।उस समय केक-पेस्ट्री खाने का चलन बहुत कम था। शहर में पेस्ट्री की इक्का- दुक्का ही दुकान होती थीं तब। ये वो वक्त था जब हमारे आसपास माएँ प्राय: बेटों को चुपड़ी और बेटी को सूखी रोटी खाने को देती थीं ।

पचास साल पहले तीन बेटियों में अकेले बेटे के हिस्से की पेस्ट्री, बेटी को देने वाली, मेरी माँ ने उस एक पेस्ट्री से अनजाने ही मेरे व्यक्तित्व में आत्मगौरव व आत्मविश्वास के बीज रोप दिए थे।

                —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

#मातृदिवसकीबधाई 💐💐

शनिवार, 7 मई 2022

सतसंग


                     

चित्रांगदा की दोस्तों का एक ग्रुप बन गया है ।महिने में एक बार किटी- पार्टी होती है और हर इतवार को वे सब किसी न किसी के घर पर सतसंग के लिए एकत्रित होती हैं और वहाँ पर किसी एक ग्रंथ पर आध्यात्मिक चर्चा होती है।

 फ़िलहाल उसी कड़ी में आज का सतसंग चित्रांगदा के घर पर है और श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का अध्ययन करते हुए मीना जी ने जिनको संस्कृत का व शास्त्रों का बहुत ज्ञान है, सधे व शुद्ध उच्चारण से पढ़ा-

"भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इत्तीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।

इसके साथ ही पंचतत्वों की व्याख्या व विचार- विमर्श शुरु हो गया जो एक घन्टे तक चला। उसके बाद वन्दना व मीना जी व चित्रांगदा ने भजन सुनाए ।

 चित्रांगदा ने जलपान की व्यवस्था भी  की थी, तो सब हल्की- फुल्की बातचीत के साथ खाने- पीने में व्यस्त हो गए। तभी दो साल की गोल- मटोल  ठुमकती हुई परी चित्राँगदा के पास आई और गोद में आने के लिए दोनों हाथ उठाकर ऊँ ऊँ करने लगी। चित्रांगदा  लाड़ से उठाकर गोदी में बैठा कर उसे पुचकारने लगी। उसने चित्रांगदा की प्लेट से कटलेट उठाया और मजे से खाने लगी।

" ये कौन है ?” मीना जी ने पूछा।

"ये हैं हमारी नन्ही परी और मैं इनकी दादी”  उसने परी के बालों को सहलाते हुए कहा।

" दादी ? पर आपके बेटे की तो अभी शादी नहीं हुई न ?” लता जी ने कहा।

" हाँ…ये रीना की बेटी है “ उसने सामने किचिन में काम कर रही रीना की तरफ इशारा किया।

" अरे , आपकी मेड की बेटी ? आपने गोद में बैठा लिया और आपकी प्लेट से खा रही है…कैसे कर लेती हैं ये आप ?” मीना जी ने घिनियाते हुए कहा।

" तो क्या हुआ ? देखिए न कितनी तो साफ- सुथरी है। रीना मेरे साथ ही आउटहाउस में रहती है। ये दो बार नहा-धोकर बेबी सोप व पाउडर से हर समय महकती हैं , अभी भी नहा कर आई हैं ।देखिए न कितनी साफ- सुथरी रहती है , तो घिन कैसी ?” चित्राँगदा ने आवाज दबा कर धीरे से कहा जिससे किचिन में काम कर रही रीना न सुन ले।

" हम तो गोद में नहीं बैठा सकते ऐसे,चाहें कुछ भी हो यार, है तो मेड की ही बेटी न ! लेकिन तुम्हारा कमाल है भई !”

"अरे अभी कुछ ही देर पहले आप ही ने सुनाया था न वो भजन-

अव्वल अल्लाह नूर उपाया 

कुदरत के सब बंदे,

एक नूर ते सब जग उपजाया 

कौन भले को मंदे…तो फिर….?”

परन्तु उसकी सातों विदुषी सखियों के मुख- मंडल पर असंतोष व असहमति छायी ही रही ।

सबके जाने के बाद गोदी में सो गई परी के मासूम चेहरे  को देखते हुए वह सोच रही थी क्या इस बच्ची के पंच- तत्वों और हम सबके पंच- तत्वों में कोई भेद है ? जब सबकी मिट्टी , हवा, पानी , सबका नूर सब एक ही है, तो फिर ये भेदभाव क्यूँ , वो भी बच्चे के साथ ?

ये कैसा सतसंग…?

                                —उषा किरण

सोमवार, 2 मई 2022

वसीयत

 



निकलूँ जब अन्तिम यात्रा पर 

तब मेरे सिरहाने सहेज देना 

कुछ रंग शोख तितली से और 

कुछ बुझे-बुझे राख से 

कुछ ब्रश, कुछ स्याही और 

कुछ कलम भी

थोड़े से खाली पन्ने और

कुछ बर्फ से सफेद 

कोरे कैनवास भी

और हाँ…कुछ सुर-ताल 

और कुछ गीत भी

हो सकता है मन कभी 

बहुत ज़्यादा सील जाए 

तो रख देना साथ मुट्ठी भर धूप 

और ताप से मन तप जाए कहीं तो 

रख देना कुछ मलय समीर

और कुछ बारिशें भी…!

ताकि अनजान देश के 

अनजान सफर में 

उमड़ने लगें जब भावों के बादल 

या फिर जब मन करना हो खाली

तब कूक सकूँ कोयल संग 

ढल सकूँ कैनवास पर तब

सुन्दर- सुगन्धित फूल बन या

कोरे पन्नों में कविता बन कर…!

जैसे धरती पर बिछ जाते हैं

फूल हरसिंगार के

चमकते हैं जुगनू

झिलमिलाते हैं सितारे

मचलती हैं लहरें

मैं भी बिछ जाऊँगी तप्त धरती पर 

एक दिन तब सतरंगी किरण या

शीतल ओस बनके…!!!


                        — उषा किरण

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

बहरे

 

सीट मिलते ही शुभदा आराम से बैठ गई।डॉक्टर ने पन्द्रह दिन बाद की डिलीवरी डेट दे दी थी। शुभदा छह महिने की मैटरनिटी लीव की एप्लिकेशन देकर कॉलेज से वापिस घर लौट  रही थी।डॉक्टर ने  उसे रैस्ट की सख्त हिदायत दी थी।

ग़ाज़ियाबाद बस स्टॉप पर बस के रुकते ही एक बहुत बूढ़ी माई लाठी के सहारे चढ़ी लेकिन एक भी सीट खाली न देख निराश होकर अपने डंडे और बस की रॉड पकड़ कर जैसे- तैसे खड़ी होने की कोशिश में झुकी पीठ सीधी करती, झकोले खाती बेहाल हो रही थी। शुभदा ने सब तरफ देखा । कई युवक आसपास बैठे थे उसे लगा कि उसकी हालत देखकर कोई तो सीट दे ही देगा।

जब पन्द्रह मिनिट तक भी किसी ने सीट नहीं दी तो उससे नहीं रहा गया। उसने उठ कर उनसे अपनीसीट पर बैठने का आग्रह किया। वो बेचारी उसका पेट और हालत देख कर बोलीं-

"ऐ बिटिया तू तो खुद ही बेहाल है…रहे दे!”

"मैं ठीक हूँ आप बैठ जाओ !” 

कह कर शुभदा ने ज़बर्दस्ती उनको अपनी सीट पर बैठा दिया और खुद खड़ी हो गई, लेकिन बढ़े पेट के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। पर्स से न्यूज-पेपर निकाल कर उसे बिछा नीचे बस के फर्श पर ही बैठ गई।पास खड़े दो किन्नर जो सब देख रहे थे सहसा उनमें से एक ताली बजाकर  जोर-जोर से बोलने लगी-" आय हाय आग लगे ऐसी मर्दानगी और मुई इनकी जवानियों को न बूढ़ी का लिहाज न पेटवाली का। बेचारी बच्ची जमीन पर ही लोट गई।बैठे हैं सारे टाँग चौड़ा कर…शरम नहीं आती…मर जाओ सालों सब चुल्लू भर पानी में …!”

बड़बड़ातीं हुई वह शुभदा के पास आ, उसके सिर पर हाथ रख कर बोली-

"जुग-जुग जियो बेटी, जैसी भोली, प्यारी सूरत है वैसी ही सीरत भी दी मालिक ने तुझे ! भगवान चाँद सा मुन्ना दे…ले बेटी ये रख ले, अनारो का आसीस है तिजोरी में रख देना…हम हिजड़े तुम सबसे हमेशा लेते ही हैं, पर देते कभी-कभी ही हैं , खूब फलेगी हमारी दुआ तुझे !”

हकबकाई सी शुभदा के हाथ पर बीस रुपये का सिक्का और कुछ दाने चावल के रख कर किन्नर  ताली बजाते, दुआ देते, बस वालों की लानत- मलामत करते हुए बस से उतर गए। 

बस में सन्नाटा था। कुछ नौजवान मोबाइल में चेहरा घुसाए तो कुछ असम्पृक्त भाव से बहरे बने खिड़की से बाहर देखते यथावत् बैठे रहे।

                                            — उषा किरण

मंगलवार, 22 मार्च 2022

जब फागुन रंग झमकते थे



बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।

प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 

हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 

छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।

रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और बाकी सहेलियों से मिलने निकल जाते। 

रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो’ गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार यही कहते।

गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आते। साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।

पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज कर सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' लला सन्त’ आ रहे हैं ।

पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते, परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था। उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा, जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।

अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बेटी और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको और सबसे खूब पाती भी थीं। 

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -"हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कछु खबाती-पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी ! का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !”  अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 

एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं - "ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्नर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुँक जाता , हम छनछनाते-बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं `अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।’

             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।

गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा, कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।ताऊ जी के हुक्के से सबकी नजर बचा कर दो-चार सुट्टे भी मार लेते। उसकी गुड़गुड़ाहट से पेट में हिलोर उठती तो बहुत मजा आता। कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 

बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने ,मानती कहाँ थीं !”

गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज़ें वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 

सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता,  जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते, जल देकर परिक्रमा करते और लोटे में आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं, होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए। परन्तु कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा छुपता- छुपाता आधी रात ही होली में लपट दिखा देता। बस सारे गाँव में तहलका मच जाता। लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,धोती , पजामे संभालते ,आँखे मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लपड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ , अरे ददा रे काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’ गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।

दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ अबै नाय…कढाई से दूर...!’

पर हम लोग दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।

गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती, गले में ढोल लटका गाते बजाते। गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ परन्तु क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।

दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ। हम सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा भाँग से भी ज्यादा चढ़ता है।रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।

कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे । पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी वहाँ जाने का विशेष आकर्षण होती थी। जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।

मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे। मामा जी रंग, गुलाल की व्यवस्था खूब मन से करते थे और एक दिन पहले टेसू के फूलों को उबाल कर केवड़ा मिला कर बड़े- बड़े देगों में सुगन्धित, पीला-  सुनहरा रंग तैयार करते हुए हम लोगों को टेसू के पानी के औषधीय गुण भी बताते। 

हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल-बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे और इनाम माँगते थे। पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी ।हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?

आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं। अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-गमकते थे। लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें, वो आशीषों भरे हाथ, वो खान- पान का वैभव, वो नाच-गानों संग मस्ती, उमंग…सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे। सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

रीपोस्ट


                                  —उषा किरण

गुरुवार, 17 मार्च 2022

श्रीलंका यात्रा संस्मरण



कोरोना के चलते हम लोग दो साल से बेटे-बहू  से नहीं मिल सके थे फिर अपनी तीन महिने की पोती मीरा से मिलने की भी मन में तीव्र उत्कंठा थी, तो जनवरी के अन्त में हम लोग सिंगापुर गए। कड़ाके की ठंड से वहाँ पहुँच कर और बच्चों से मिल कर बहुत  राहत महसूस की।

कुछ दिन बाद सिंगापुर आवास के दौरान ही बच्चों ने श्रीलंका घूमने का प्रोग्राम बनाया।

श्रीलंका पहुँच कर हम लोग एयरपोर्ट से पहले कोलम्बो में " Shangri la” होटल में एक रात रुके।ये वही होटल है जहाँ पर 2019 में टैररिस्ट अटैक हुआ था। उसके गलियारों से और सुरक्षा की जाँच- प्रक्रिया से गुजरते हुए उस अटैक को स्मरण कर रीढ़ में सुरसुरी सी महसूस हो रही थी।रूम की खिड़की से सामने ही बेहद खूबसूरत नीला- नीला`हम्बनटोटा पोर्ट’( Hambantota  Port ) दिखाई दे रहा था।

श्रीलंका भ्रमण के लिए हमने Galle( गाले) में रहना निश्चित किया था अत: दूसरे दिन ब्रेकफास्ट के बाद हम लोग टैक्सी से गाले के लिए निकल गए। गाले जाने के दो मार्ग हैं , हमने नव- निर्मित हाईवे चुना।एक तो ये मार्ग दूसरे से कुछ छोटा था और बेहद मनोरम था।सारे रास्ते छोटी- छोटी पहाड़ियों, चाय-बागान व केले, सुपारी, काली मिर्च, दालचीनी, इलायची, सुपारी के लम्बे झूमते पेडों के हरे- भरे रास्तों से गुजरते मन प्रफुल्लित हो गया।

गाले में बेटे ने " समुद्र हाउस” व "कोगला लेक हाउस “ दो विला बुक किये थे। कुछ दिन कोगला लेक हाउस में रह कर हम बाकी दिन समुद्र- हाउस में रहे। जिसकी  सबसे बढ़िया बात थी कि पिछला गेट खोलते ही हम सीधे बीच पर होते थे।और खाते, आराम करते सामने रूम से भी  समुद्र देख सकते थे, मानो समुद्र की गोद में ही जा बैठे हों। वहाँ के इंटीरियर में डच प्रभाव दिखाई देता था। दोनों ही विला में चार- पाँच केयर- टेकर थे जो सारी व्यवस्था चुस्त- दुरुस्त रखते थे।खाना भी वहाँ जो कुक थे वे बहुत बढिया बनाते थे। रोज ही बदल-बदल कर दाल,कई तरह के पुलाव व बिरियानी, तरह- तरह की डिशेज, बैंगन, प्याज, कटहल की सब्ज़ियाँ बनाते जो बहुत अपनी सी लगतीं। इसके अतिरिक्त कई तरह के सलाद, इडियप्पम, स्टिंग हॉपर (अप्पम ), कई तरह के डेजर्ट , पापड़ व सलाद होते थे और सबसे मजेदार लगता था फरवरी के मौसम में आम खाने का लुत्फ, जो कि देखने में भद्दे पर बहुत टेस्टी थे। इसीलिए भारतीय खाने को हमने जरा भी मिस नहीं किया।

इस समय वहाँ पर लाइट की काफी समस्या थी ।रोज तीन- चार घंटों के लिए लाइट चली जाती थी अत: जैनरेटर की व्यवस्था करनी पड़ी क्योंकि वहाँ का तापमान इस समय कुछ गर्म था।

श्रीलंका इकॉनॉमी क्राइसिस से जूझ रहा है। पहले 2004 में आई सुनामी के कहर से यहाँ काफ़ी नुक़सान हुआ और अब कोविड संकट से तो सारा विश्व ही पीड़ित है तो श्रीलंका भी आर्थिक-संकट से गुजर रहा है। वैसे भी वहाँ की अर्थ- व्यवस्था टूरिज़्म पर काफी आधारित है। जिस समय हम लोग वहाँ पर थे तब समुद्र-तट पर व सड़कों पर काफी विदेशी , अधिकांशत:  यूरोपियन दिखाई देते थे। वे लोग प्राय: स्कूटर या टुकटुक  पूरे दिन के लिए किराए पर लेकर सारे दिन इधर से उधर  घूमते रहते थे। परन्तु 24 फरवरी को रूस- यूक्रेन का युद्ध शुरु होते ही अचानक यूरोपियन टूरिस्ट की संख्या प्रतिदिन घटने लगी।

पहली नजर में श्रीलंका के निवासी प्राय: सीधे- सादे ही लगे। वहाँ आम बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी, तमिल व सिंघली भाषा का प्रयोग किया जाता है।बातचीत से पता लगा कि वहाँ क़ानून व्यवस्था भी चुस्त- दुरुस्त है और महिलाओं के प्रति होने वाले  अपराधों की संख्या भी काफी कम है।

हमारे आवास के पास ही "सी टर्टल फार्म एन्ड हैचरी, हबराडुआ “ एक संरक्षण केन्द्र था। जिसका उद्देश्य कछुओं को संरक्षित करना है, जो 1986 में स्थापित किया गया था।यहाँ पर अब तक हजारों समुद्री कछुओं को बचाया गया है और जख्मी कछुओं की देखरेख की गई है।श्रीलंका एक ऐसी जगह है जो समुद्री कछुओं के लिए काफी अनुकूल है। 

कई कछुए समुद्र से बाहर निकल कर तट की रेत पर घोंसला खोद कर  उसमें अंडे देकर , उनको पुन: रेत से ढंक कर वापिस समुद्र में लौट जाते हैं, जिनमें से कई नष्ट हो जाते हैं। कुछ को कुत्ते या समुद्री जीव या इंसान  खा जाते हैं, जिसके कारण बहुत मात्रा में अंडे देने पर भी मात्र कुछ ही कछुए सर्वाइव कर पाते हैं । श्रीलंका में कई हैचरी हैं जो उनके संरक्षण का काम करती हैं। हैचरी में काम करने वाले व्यक्ति समुद्र के किनारे से उन अंडों को लाकर केज में रखी रेत में दबा देते हैं और जब बच्चे निकलते हैं तो उनको पानी के टैंक में रख देते हैं।जब वे संभल जाते हैं तो उनको शाम के वक्त समुद्र में छोड़ दिया जाता है। कुछ इच्छुक लोग पैसे देकर अपने हाथों से बहुत खुशी-खुशी उनको समुद्र में छोड़ते  हैं। इसके अतिरिक्त मछली के लिए डाले गए जाल में उलझ कर तथा अन्य कारणों से भी जो कछुए जख्मी हो जाते हैं और जो कछुए इन कार्यकर्ताओं को उपलब्ध हो जाते हैं तो उनको लाकर भी हैचरी में रख कर उनका इलाज व पालन-पोषण किया जाता है ।हमने देखा  एक कछुए का एक पैर कटा हुआ था व एक केज में वे कछुए थे जो प्लास्टिक खा गए थे अत: वे पानी में नीचे नहीं जा पा रहे  थे ऊपर ही तैर रहे थे, वे बहुत कष्ट में थे , उनका इलाज किया जा रहा था। कछुओं के संरक्षण के लिए यह एक सराहनीय प्रयास है।

वहाँ पर बन्दर अलग तरह के दिखाई देते हैं, कुछ- कुछ लंगूर जैसे।उनके कान चपटे, काले तथा पूँछ बहुत लम्बी होती है।

18वीं सदी में डच लोग यहाँ पर रहे थे। आज भी पुर्तगाली और डच लोगों द्वारा बनाया किला सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है जिसे विश्व धरोहर घोषित किया गया है। हम लोग भी " गाले फोर्ट “ देखने गए, जिस पर पुर्तगाली, डच एवम् ब्रिटिश स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट  दिखाई दिया।फोर्ट में बने लाइट हाउस, घंटाघर आदि भी देखे।किले की चौड़ी दीवार से समुद्र देखने का अपना ही आनन्द  था। गाले किला के अन्दर की गलियों की भूल भुलैया आश्चर्यचकित व आल्हादित कर  रही थीं। वर्तमान समय में यहां पर रेस्टोरेन्ट , कपड़े, आभूषण, स्मारिका की खूबसूरत दूकानों से भरा हुआ है जो कि वहाँ आने वाले पर्यटकों को विशेष आकर्षित करता है।

गाले में विशेष रूप से मिरीसा  बीच, उनावातुना  बीच , विजया बीच अपनी विविधतापूर्ण सुन्दरता के कारण पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहते हैं। उनावातुना बीच अपनी सफ़ेद रेत के लिए प्रसिद्ध हैं। इस शांति प्रिय स्थान पर पिकनिक मनाने के लिए भी पर्यटक आते हैं। इसके अलावा इस तट पर रंगीन मछली और कछुए देखने को मिलते हैं हम लोग प्राय: शाम को किसी न किसी बीच पर कुछ घन्टे बिताते और सूर्यास्त देख कर वापिस लौटते। समुद्र के किनारे खड़े होकर सूर्यास्त- दर्शन का अपना अलग ही आनन्द है। समुद्र के पास जाकर कभी तो मेरा मन बहुत वाचाल हो जाता है, भावों व विचारों की अनवरत धाराएं प्रवाहित होने लगती हैं और कभी मन एकदम मौन होकर  शान्त व विचारशून्य हो डुबकी लगा जाता है… कभी समुद्र की विशालता के आगे अपनी क्षुद्रता का भान होता है तो कभी लगता है जैसे समुद्र मेरे ही अन्दर प्रवाहित हो रहा है…समुद्र मुझे एक गहन आध्यात्मिक सा आभास व सुकून देता है।पैरों को छूकर लौट जाती लहरें तन-मन का ताप हर स्फूर्ति से भर जाती हैं।

एक दिन सुबह- सुबह हम लोग "हैंडुनुगोडा टी स्टेट” घूमने के लिए  गए। श्रीलंका के ऐतिहासिक गाले किले और समुद्रतटीय शहर मिरिसा के बीच हैंडुनुगोडा है, जो एक चाय बागान और संग्रहालय है जो अपनी वर्जिन व्हाइट टी  के लिए प्रसिद्ध है।जिसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ चाय माना जाता है। 200 एकड़ में फैले इस बागान में रबर, दालचीनी और नारियल के पेड़ भी उगाये जाते हैं।इस चाय के बागान एवम् स्पाइस- गार्डन में हम गाइड के साथ घूमे।तथा तरह- तरह की टी जैसे-व्हाइट टी , ग्रीन टी, ब्लैक टी, सिनामोन टी, जिंजर टी आदि को केक के पीस के साथ टेस्ट किया। वर्जिन व्हाइट टी का रेट तो लगभग चाँदी की कीमत के बराबर था। माना जाता है कि व्हाइट टी स्वास्थ्यप्रद प्रकार की चाय में से एक है, क्योंकि यह एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती है तथा कैफीन की मात्रा काफी कम होती है। निर्माण व पैकिंग की प्रक्रिया के समय इसके टेस्ट की नजाकत व शुद्धता को बनाए रखने के लिए मानव हाथों से अछूता रखा जाता है ।

लगभग दो हफ्ते श्रीलंका में रह कर हम लोगों ने वापसी के लिए इस बार समुद्र के साथ- साथ चलने वाले दूसरे मार्ग को चुना। वह मार्ग भी बहुत ही सुन्दर था। रास्ते में रुक- रुक कर हम हिक्काडुआ बीच, बैंटोटा बीच ,मास्क- म्यूजियम, देखते और फ़ोटोग्राफ़ी करते हुए वापिस कोलम्बो पहुँचे। लन्च के बाद कुछ देर आराम किया फिर घूमने निकल गए। हम कहीं भी घूमने जाएं जब तक वहाँ के म्यूज़ियम व आर्ट- गैलरी न घूमें हमारी यात्रा अधूरी रहती है तो कोलम्बो की भी एक-दो आर्ट- गैलरी देखीं। टैक्सी ड्राइवर ने हमको एक जगह चाय पीने के लिए विशेष आग्रह किया। वाकई दालचीनी व इलायची डली मीठी सी, बहुत ही स्वादिष्ट गर्म चाय का एक बड़ा सा कप पीकर सारी थकान दूर हो गई।  

बेशक ये कोई तीर्थ- यात्रा नहीं थी परन्तु लंका- प्रवास के समय पूरे समय मन में और ध्यान में सीता माँ , श्रीराम , लक्ष्मण, व हनुमान जी विराजमान थे।  उनका स्मरण निरन्तर बना रहा। आँखों के समक्ष लहराते समुद्र की लहरें थीं तो मन में सुकून और आस्था की धारा अनवरत प्रवाहित हो रही थी। आँखें बन्द कर, हाथ जोड़ प्रणाम कर, श्रीलंका का समुद्र, बीचेज व हरियाली व बच्चों के साथ बिताए हुए सुखद पलों को मन में बसाए हुए दूसरी सुबह वापसी के लिए हम एयरपोर्ट के लिए निकल














खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...