ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 29 मई 2022

वक्त का जवाब


शुभदा की जॉब लगते ही घर में हंगामा हो गया। जिठानियों के ताने शुरु हो गए-" नौकरी करने वाली औरतों के घर बर्बाद हो जाते हैं, बच्चे आवारा हो जाते हैं, पति हाथ से निकल जाते  हैं ….!”
 शुभदा सब सुनती और मुस्कुरा कर टाल जाती 

बाबूजी के सामने पेशी हुई- " अरे बहू , हमारी सात पुश्तों में किसी बहू ने नौकरी नहीं की,क्या कहेंगे सब कि बहू की कमाई खा रहे हैं, नाक कट जाएगी !” शुभदा ने किसी तरह उनको समझाया कि नहीं कटेगी नाक।

पाँच साल के लम्बे संघर्ष व कड़ी मेहनत के बाद आखिर वो आज  यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर के पद परआसीन थी। 

यूनिवर्सिटी लिए तैयार होकर ऊपर से सीढ़ियाँ उतरते अपना नाम सुन कर ठिठक गई।बड़ी जिठानी अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार करते हुए समझा रही थीं- "अरी पढ़ने में मन लगाया कर …चाची की तरह काबिल बन कर नौकरी करना…वर्ना हमारी तरह मूढ़ बन कर सारी  ज़िंदगी चूल्हा ही फूँकेगी !”

शुभदा के होठों पर एक सुकून भरी मुस्कान  आ गई ।
                                              —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 28 मई 2022

मौन



सुनो तुम-

एक ही तो ज़िंदगी है 

बार- बार

और कितनी बार 

उलट-पलट कर 

पढ़ती रहोगी उसे

तुम सोचती हो कि

बोल- बोल कर 

अपनी नाव से

शब्दों को उलीच 

बाहर फेंक दोगी

खाली कर दोगी मन

पर शब्दों का क्या है

हहरा कर 

आ जाते हैं वापिस

दुगने वेग से….

देखो जरा 

डगमगाने लगी है नौका

जिद छोड़ दो

यदि चाहती हो 

इनसे मुक्ति, तो

कहा मानो 

चुप होकर बैठो और

गहरे मौन में उतर जाओ अब…!

                               —उषाकिरण

मंगलवार, 24 मई 2022

नेकी

 


सुबह साफ- सफाई के बाद मैं धूप-दीप जला ही रहा था कि मेरे मेडिकल स्टोर के सामने एक कार आकर रुकी और एक बहुत सम्भ्रान्त महिला व एक युवक उतर कर आगे आए।

महिला कुछ देर तक ध्यान से चंदनहार चढ़े फ्रेम में जड़े फोटो को देखती रहीं l

"ये आपके वालिद…..?”

"जी …दो साल पहले ही हम सबको छोड़कर भगवान के घर…!”

"ओह….आप उनके बेटे हैं?” मैंने देखा उनकी आँखें नम हो गईंl

"जी…आप ?”

"बेटा क्या कहूँ, समझ लो कि आज हम माँ - बेटे  तुम्हारे सामने यदि ज़िंदा खड़े हैं तो इनकी ही बदौलत।”

"मतलब…?”        

 कुछ ठहर कर उन्होंने कहा-                

"पच्चीस साल पहले एक दिन मैंने  यहाँ आकर तुम्हारे पापा से बच्चा गिराने की दवा माँगी थी। उन्होंने कहा कि वो ऐसी कोई दवा नहीं दे सकते, तो मैंने रोते हुए कहा फिर तो रेल की पटरियों पर ही अब मेरी मुश्किलों का अन्त होगा। मैं जाने लगी तो वे मेरे पीछे-पीछे आए और हौसला दिया। जब मैंने उन्हें बताया कि मेरे शौहर ने दूसरी शादी कर ली है और मुझे तलाक देकर घर से निकाल दिया है। मैं पेट से हूँ…अब्बू सुनेंगे तो सदमें से मर ही जाएंगे…मैं कैसे जियूँगी, कैसे अपने बच्चे की परवरिश करूँगी ? तो उन्होंने मुझे समझाया कि एक रास्ता बन्द होने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती। तुम्हारे हिस्से में अँधेरा लिखने से पहले भगवान ने एक रोशनी की किरण तुममें रोप दी है और तुम उसी को खत्म कर देना चाहती हो। उनके समझाने से मुझमें उम्मीद जगी और मैं अपने अब्बू के पास लौट गई। सिलाई कढ़ाई का शौक था तो टेलरिंग का कोर्स किया और अपना छोटा सा बुटीक खोल लिया, आज वो शहर का सबसे बड़ा बुटीक है।ये मेरा बेटा डॉक्टर बन गया है।आज पहली कमाई से तुम्हारे पापा के लिए बहुत इज़्ज़त ओर प्यार से गिफ्ट लाया था, पर…!”

उन्होंने आँखें बन्द कर दुआ पढ़ी और डिब्बे से निकाल कर घड़ी मुझे पहनाते हुए कहा- 

"मना मत करना बेटा , इस माँ की दुआ समझ कर रख लो। ये घड़ी तुमको हमेशा नेकी पर विश्वास दिलाती रहेगी ।इंसान तो एक दिन वक्त के परे चला जाता है, लेकिन उसके किए नेक काम ताकयामत जिंदा रहते हैं…सदा सुखी रहो…अल्लाह  निगेहबान रहें…!”

वे दुआएं देती चली गईं और मैं दूर तक उनकी गाड़ी को जाते देखता रहा।

                                      — उषा किरण

फोटो; गूगल से साभार

रविवार, 22 मई 2022

मेरे घर आना ज़िंदगी



दो तीन दिन पहले घर के बाहर किसी चिड़िया के कर्कश आवाज में चिंचियाने की आवाज सुन कर जाली दरवाजे से बाहर झाँका तो देखा एक चिड़िया ऊपर टंगे गमले में बैठी सब पर  गुसिया रही है । गीता झाडू लगाने गई थी तो उसे डाँट पिला रही थी। गीता ने कहा बड़ी बत्तमीज होती है ये चिड़िया अटैक भी कर देती है और देखो पौधों के बीच घोंसला बना रही है ये अंडे भी देगी तो घर से निकलने पर मुसीबत करेगी, इसका घोंसला उठा कर कहीं और रख दें ? हमने कहा खबरदार हाथ भी मत लगाना दूर हटो सब , पास मत जाना। 

हमें लगा कि बुलबुल है तो Rashmi Ravija से कन्फर्म किया उन्होंने भी कहा कि बुलबुल ही है और बहुत मीठा गाती है हमने कहा कि ये तो बहुत कर्कश आवाज में चीख रही है तो उन्होंने कहा कि अभी गुस्से में होगी। 

खैर तो अब उसने पौधों के बीच बड़ा सुघड़, सुन्दर घोंसला बना लिया है , जिसे किसी लम्बे डोरीनुमा तिनके से स्टैंड के साथ बाँध कर आँधी से बचाने का भी इंतजाम कर दिया है , तीन अंडे दे दिए हैं उसमें। अब डाँट- डपट तो नहीं कर रही । वो ड्यूटी हमने संभाल ली है तो माता निश्चिंत हैं और उसने पहले ही हड़का दिया कि दूर रहना सब, वर्ना मुँह नोच लूँगी। हम सेवा में तत्पर हैं सबको कह दिया है कि घूम कर पीछे से किचिन से आओ- जाओ सामने से नहीं । 

सुना था कि नर बुलबुल ऐसे में मादा बुलबुल के खाने की व्यवस्था करता है पर जरा नहीं झाँकता वो नालायक ।हम ही जाली के दरवाजे के पीछे से हर घंटे ताका-झाँकी  करते रहते हैं । पापा बुलबुल तो बस एक दिन दिखा था सामने तार पर बैठा हीरोपन्ती करता , फिर नजर नहीं आया। हुँह…ये मर्द भी🙄…बेचारी बीच- बीच में उड़ कर दाना- पानी खाने जाती है। तभी हम लोग पौधों में जल्दी से पानी दे देते हैं ।हमने दियों में सामने ही बाजरा और पानी रखा, ख़रबूज़े का टुकड़ा व ब्रैड भी…पर देखती तक नहीं उस तरफ़…जाने क्या वहम है कि हमने जाने क्या मिला दिया होगा…हमारी नेकनियती पर ही विश्वास नहीं…घर में जच्चा के होने जैसी फीलिंग है ..😂खैर आतुर प्रतीक्षा है बच्चों के आने की 🥰

              —उषा  किरण 


शनिवार, 21 मई 2022

चाय- दिवस


 चाय दिवस भी होता है ये आज पता चला।

हमारे तो सारे ही दिवस चाय दिवस ही हैं।

अम्माँ बताती थीं जब वो छोटी थीं तो मामाजी कहीं से चाय की पत्ती लाए थे अंग्रेज मुफ़्त में बाँट रहे थे (कुछ लोगों का कहना था कि देश का सत्यानाश करने को अंग्रेज ये लत हिन्दुस्तानियों को लगाना चाहते थे ) ...खैर तो मामाजी ने पूरे ताम- झाम से थ्री पॉट चाय बनाई ...घड़ी देख कर चाय सिंझाई गई...और  बड़ी नफासत से सबको पिलाई जो तब दो कौड़ी की लगी । 

वो ही अम्माँ बाद में सुबह -सुबह लगभग केतली भर चाय मामा जी के साथ पी जातीं।

मामी जी को तो हर घंटे चहास लगती सारे दिन कटोरी में चाय बनातीं ...न जाने क्यों ? 

दरअसल चाय किस क्वालिटी की है उससे ज़्यादा असर इस बात का होता है कि वो किसके साथ पी जा रही है ...किसी आत्मीय के साथ गुनगुनी बातों संग गर्म चाय के मिठास भरे सिप अन्दर तक तृप्ति व ऊष्मा का अहसास कराते हैं ।

गाँव जाने पर चूल्हे पर औटती चाय मिलती काढ़ा टाइप। अदरक और गुड़ वाली , धूँए की खुशबू वाली ...बटलोही भर चाय बना कर चूल्हे से अंगारे  निकाल उस पर रख दी जाती और जो आता उसमें से धधकती चाय गिलास या कुल्हड़ में दी जाती। एक दिन मैंने भी अपने घर गुड़ की बना कर देखी ...जरा मजा नहीं आया कसैली सी लगी सारी फेंकनी पड़ी । शायद गाँव वाली उस चाय में वो टेस्ट कोई खास गुड़ का था या गाँव की मिट्टी की ख़ुशबू और अपनों के प्यार की मिठास  का ।

दुनिया जहान की एक से एक उम्दा ,तरह- तरह की चाय पीने पर भी कभी-कभी वो ही गाँव वाली चाय की हुड़क उठती है  तो कुल्हड़ मंगा कर उसमें चाय पीकर संतोष करना पड़ता है।गौरव अवस्थी की ये कविता जैसे मेरे ही मन की बात कहती है…अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस की सबको हार्दिक बधाई ।

                   — उषा किरण 


 

सोमवार, 16 मई 2022

पीला

 



पीला रंग पहले पसन्द नहीं था मुझे 

पीला जैसे-

झुलसाती जेठ की धूप

बीमार थकी आँखें

तीखी सी पीड़ा 

जलाता ताप तन-मन का

सब पीला- पीला…!


फिर अचानक मेरी दोस्ती हो गई पीले  से-

देखा जब गुलमोहर की संगत में झूमता

ख़ुशमिज़ाज अमलतास 

ताली बजाकर झूमते सरसों के खेत

पीले शर्मीले नाजुक गुलाब

शरद की राहतों भरी कुनकुनी सी

पीली सुनहरी धूप

और पीताम्बर भी कान्हा  का…!


मुग्ध हो कहा पीले से-

माफ कर दो मुझे 

बहुत अनादर किया तुम्हारा 

हँस कर कहा उसने-

कोई बात नहीं

आदत है हम रंगों को…

गिरगिट तो यूँ ही हैं बदनाम 

हम तो रोज ही  देखते हैं 

रंग  बदलते इंसानों को

चलो एक और सही…!

                            —उषा किरण

शनिवार, 14 मई 2022

गंगूबाई काठियावाड़ी




 हर व्यक्ति का नजरिया किसी भी चीज को देखने का भिन्न- भिन्न होता है। संजय लीला भंसाली की देवदास मूवी मुझे जरा नहीं भाई थी लेकिन  सच्ची कहानी पर आधारित " गंगूबाई काठियावाड़ी” मुझे बहुत पसन्द आई और कुछ लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं आई। तो टटोला खुद को कि हाँ भई तुमको क्यों पसन्द आई इतनी कि हफ्ते में लगभग दो बार देख डाली ?

एक अबोध, अल्हड़, बेहद खूबसूरत, नाजुक खानदानी लड़की जो प्यार में विश्वास कर अपने सपने पूरे करने प्रेमी का हाथ पकड़कर चाबी के गुच्छे के साथ साथ घर की इज़्ज़त भी लेकर निकल पड़ती है और प्रेमी उसे हजार रुपये में कोठे पर छोड़ भाग जाता है।

-होना तो ये चाहिए था कि उस प्यार में लुटी लड़की के सपनों का फलक जब जला तो वो दुनियाँ में आग लगाने का सोचती लेकिन उसका फलक तो और विशाल हो गया । हौसला  तो देखो जरा अपना फलक जला तो जला पर औरों के फलक में अंधेरा दूर करने का संकल्प ले बैठती है ।

- होना तो ये चाहिए था कि प्यार में लुटने पर वो प्यार शब्द से नफरत करने लगती लेकिन होता है ये कि वो अपने जैसी सभी लड़कियों से प्यार करती है , उनके दुखों को अपनाती है जिसके कारण वे सभी उसे अपनी संरक्षिका बना कर गलीच काम से मुक्त करती  हैं।और मन के कोने में जो पावन सा प्यार का बिरवा अनायास फिर उग आया उसको भी जनकल्याण हेतु दूसरे के आँगन में रोप कर खुद धूप में झुलसती रह कर प्यार को मुक्त कर देती है।

- होना तो ये चाहिए था कि उसे कमजोर होकर कोने में पड़े रहकर सिसक- सिसक कर मर जाना था , पर होता ये है कि उसके मन की ताकत उसके नाजुक बदन पर भी भारी पड़ती है।सफेद साड़ी, काला चश्मा, हाथ में पर्स लेकर वो जिस शान से अकड़ कर चलती है आलिया की बॉडी लैंग्वेज देखते ही बनती है।

-  होना तो ये चाहिए था कि बदसूरत माहौल में उसे बदसूरत हो जाना था।परन्तु  कोठेवाली  बना दिए जाने पर भी, और सुन्दर होकर उसका ओजस्वी रूप व व्यक्तित्व दमक उठता है। उसका आत्मविश्वास , हौसला व बुद्धिमत्ता उसे और निखार देते हैं।

-पहली बार बिकती है जब तो उन पैसों को खुद आग लगा कर तुरन्त खाना माँगती है।दो ही रास्ते हैं उसके सामने या तो मर जाए या जो और जैसी ज़िंदगी, जिस भी कारण सामने आ खड़ी हुई है उससे आँख मिलाकर दो- दो हाथ करे।और वो दूसरा रास्ता चुनती है। और चुनती ही नहीं बहुत जल्दी ही अपना ओहदा और कद भी बढ़ा लेती है। सारी दुनिया में अपना लोहा मनवा कर ही दम लेती है। न किसी से डरती है न झुकती है , न ही हालात से समझौता करती है। जो मौका सामने आता है उसको लपक कर अपनी ताकत बना लेती है।

-कुछ लोग आलिया की शबाना आजमी या शर्मिला टैगोर से तुलना कर रहे हैं कि उनकी तुलना में कोठेवाली सी नहीं लगी …हाँ तो क्यों लगना था ? एक मजबूत मन वाला और समाजसेवा का संकल्पधारी व्यक्ति भीड़ में भी सौ- सौ जुगनुओं सा चमकता है। देह बेचकर पैसा कमाने की जगह वह तवायफों व उनके बच्चों के हक की लड़ाई को ही अपने जीवन का मकसद बना लेती है।

-मुझे आलिया की एक्टिंग और मोती जैसे रंग- रूप ने मोह लिया। फिल्म के कुछ गाने भी अच्छे लगे और बाद की आलिया की स्पीच भी। अंधेरी गलियों में कीगई  अंधेरी सी फ़ोटोग्राफ़ी भी…जहाँ चाँदनी में नहाई सी आलिया चाँदनी के फूलों सी चमकती है हर रूप में।

-जहाँ आजकल वेब सीरीज और मूवीज में अश्लीलता व भोंडापन अपने चरम पर है वहाँ संजय लीला भंसाली ऐसे विषय पर भी साफ- सुथरी और सुन्दर मूवी बना ले गए ये प्रशंसनीय है।कोठा संचालिका बनी सीमा पाहवा का रोल व रंग- रूप इतना वीभत्स है कि मन झुलस जाता है । औरत के नसीब में कोठा लिखने वालों और जिनकी वजह से कोठे बनते हैं उन जलील मर्दों के मुँह पर थूकती है ये मूवी।

-इस फिल्म में छिपे दो सन्देश दिखे एक तो ये कि इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है ।शुभ संकल्प हो तो एक तवायफ भी इज्जत कमा सकती है परोपकार का रास्ता चुन सकती है। नारी सशक्तिकरण को दर्शाती ये फिल्म जरा सी विपरीत परिस्थितियों के आने में आत्महत्या करने का संकल्प लेने वालों को भी सबक देती है।उसका यही जुझारू रूप मुझे मुग्ध कर गया और दूसरा मैंने अपने कार्यकाल में बहुत लड़कियों का जीवन प्यार के हाथों गलत कदम उठाकर बर्बाद होते देखा है। प्यार में अंधी होकर , अपने माँ- बाप का घर छोड़ प्रेमी के संग भाग जाने का संकल्प लेने वाली लड़कियों को कोई कदम उठाने से पहले ये फिल्म जरूर ही देख लेनी चाहिए।


( ये मेरा नजरिया है, मैं कोई फ़िल्म समीक्षक तो हूँ नहीं ।जो अच्छा लगा लिख दिया…सबकी सहमति होनी क़तई आवश्यक नहीं है और हाँ नेटफ्लिक्स पर मूवी उपलब्ध है )

                              — उषा किरण 

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...