क्या कभी सोचा है ?
वे जो अपने कोकून में बन्द हो बुनते रहते हैं गुपचुप रेशमी ताना- बाना
ताकि हम दो पल मिलजुल बैठ सकें सुकून से रेशमी अहसास के तले
वे जुटाते रहते हैं अपनी ममता, अपना वक्त, अपनी कोमल सम्वेदनाएं
वे गुपचुप तुम्हारी धूप चुरा कर शीतल फुहार में बदल देना चाहते हैं
उनका मकसद ही है कुछ रेशम-रेशम बुनना, रेशम-रेशम हो जाना…
क्यों डालना है उनको आजमाइश में ?
रहने दो न उनको अपने रेशमी कोकून में गुम
पर नहीं…तुम तो तुम हो
तुम उनके बुने रेशमी धागों को आजमाते हो…तोड़ते हो….चटाक्
क्योंकि हक है तुम्हारे प्यार का…!
प्यार ? तुम भूल जाते हो कि कोई भी बुनावट ताने-बाने से ही बनती है शक या जोर आजमाइश से नहीं
याद है न बचपन में रटते थे-
"रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए
टूटे से फिर न जुड़े जुडे गाँठ पड़ जाय…!”
इससे पहले कि वे आहत हो समेट लें अन्दर अपने ही अहसासों के
रेशमी गुच्छे और उनमें मुँह छिपा खुद ही का दम घोंट लें
सुनो आजमाइश करने वालों…
समझो तड़ाक- फड़ाक करने वालों
ये कोई भवन नहीं जो ईंट गारे से बनता हो
जिसमें लकड़ी सरिए लोहा खपता हो
कोमल रश्मियों से बुना बेहद नाज़ुक वितान है ये
सम्भल जाओ… रुक जाओ…!
रेशम बुनने वाले मन बहुत कोमल होते हैं
कान लगा कर सुनो ध्यान से उनके मधुर रागिनी में बजते अन्तर्नाद में छिपे विलाप को
बेशक वे तुम्हारी धूप चुराने का हौसला रखते हों पर धूप से झुलसते वे भी हैं
पाँव उनके भी लहुलुहान होते हैं ?
जिन रास्तों से गुजर कर वे तुम तक आए
बेशक वे फूलों भरे तो न होंगे
कोई भी रास्ता सिर्फ़ फूलों भरा कब होता है भला ?
तो यदि तुमको प्यार है रेशमी छाँव से तो
रेशम बुनने वाले उनके हाथों को थमने मत देना
इससे पहले कि वे गुम हो जाएं अपने ही घायल जज़्बातों के बियाबान में
रुक जाना, थाम लेना बढ़ कर उनके थके हाथों को
सहला देना लहुलुहान हुए पैरों को…!
—उषा किरण 🍂🌱