ताना बाना
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
बुधवार, 8 मई 2024
हीरामंडी मेरे चश्मे से😎
शुक्रवार, 15 मार्च 2024
मुँहबोले रिश्ते
मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।
जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?
क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।
कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?
जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।
खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!
एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…!
बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है।
तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!
—उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार
बुधवार, 13 मार्च 2024
चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से
ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।
दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए में कूद जाएंगी!”
फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।
नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ।
यादों के गलियारों से
मेरी कितनी ही दोस्त हैं पर हम कभी भी एक दूसरे के घर रहने के लिए नहीं जाते। हमारी अम्माँ की बचपन की एक दो सहेलियाँ थीं और ताताजी के भी दो तीन दोस्त थे जहाँ कभी हम उनके घर और कभी वो लोग हमारे यहाँ सपरिवार दो- चार दिनों के लिए छुट्टियाँ मनाने आते थे।ऐसे ही कभी-कभी मौसी के यहाँ तो कभी मामाजी के यहाँ भी जाते थे। कोई फालतू टशन नहीं, बहुत सहजता से हम दोनों परिवार पानी में शक्कर से घुल जाते थे।आज प्राय: घरों में एक या दो बच्चे होते हैं और वे अपने ही घरों की परिधि में सिमटे रहते हैं। वे कहाँ जानते हैं अपने खिलौने, अपना स्पेस, अपना रूम,अपनी चॉकलेट और अपने माता-पिता का प्यार- दुलार भी शेयर करना…एक-दूसरे को बर्दाश्त करना।
हम चार भाई बहन और चार- पाँच उनके बच्चे मिलकर खूब धमाल मचाते थे। खेल-कूद होते तो लड़ाई- झगड़े भी चलते ही रहते थे।ताताजी और अम्माँ भी अपनी कम्पनी में खूब बातें व हंसी मजाक करते। ताश, कैरम भी चलता।वे अपने बचपन की शरारतें हम बच्चों को सुनाते तो हमें भी बहुत मजा आता था। इत्तेफाक से सभी बड़े- बड़े अफसर थे तो आर्थिक परेशानी नहीं थी, काम तो औरतों पर बढ़ जाता था परन्तु नौकर- चाकर, अर्दली भी होते जो घर के काम में हाथ बटाने के साथ- साथ बाजार से दौड़- दौड़ कर रबड़ी, जलेबी, इमरती,समोसे, आम, लीची, आइस्क्रीम वगैरह लाते रहते और जम कर खिलाई- पिलाई के दौर भी चलते रहते।
वीरेन्द्र चाचाजी तो सगे चाचा जैसा प्यार करते थे और ताताजी से विशेष लगाव था उनका। कुछ तेरा- मेरा जैसा भाव ही नहीं था। गोरे चिट्टे चाचाजी बहुत सुन्दर थे और आदर्शवादी भी थे। काफी स्कोप होने पर भी कभी एक रुपये की भी रिश्वत नहीं ली कभी।चाचीजी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थीं और उन जैसे करेले तो कभी कहीं नहीं खाए। चाचीजी और अम्माँ खूब बतियाती थीं और चाची जी स्नेह भी बहुत करती थीं ।
ताताजी के गुजर जाने के बाद एक दो बार चाचाजी से मिली तो वे "मेरा यार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया” कहकर ताताजी को याद करके बच्चों की तरह फूट - फूट कर रो पड़े । मैंने आजतक दो दोस्तों में इतना प्यार नहीं देखा। चाचाजी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन ताताजी की सिगरेट उनके हाथ से लेकर कभी-कभी देवानन्द के स्टाइल में सुट्टे आंगन में साथ में चारपाई पर लेट कर बड़ी मस्ती में लगाते थे। उनका स्वभाव बहुत हंसमुख था। दोनों ने साथ- साथ पढ़ाई की थी तो खूब किस्से सुनाते थे-
"अरी तेरा बाप तो मेरी नकल करके पास होता था।” हम एक स्वर में चिल्लाते "झूठ…झूठ “ तो खूब हंसते और फिर असली किस्सा सुनाते -" अरी तेरा बाप था टॉपर। एग्जाम से एक दिन पहले मैं तो आठ बजे ही लम्बी तान कर सो गया। मेरा यार आया तो मुझे झिंझोड़ कर बोला पढ़ता क्यों नहीं बे ? मैंने कही अबे जिधर से भी किताब खोलू हूँ नई सी ही लगे है, तो पढ़ने से क्या फायदा? इसने कुछ क्वेश्चन लिख कर दिए कि ले इसे याद कर ले पास है जाएगा ।जब एग्जाम में पेपर देखा तो मेरे छक्के छूट गए, मैंने तेरे बाप की कॉपी छीन ली…ये अरे रे रे करता रह गया मैंने कही पहले मेरा लिख, तुझे टॉप करने की पड़ी है यहाँ पास होने के लाले पड़े हैं…हा हा हा ।”
ऐसे किस्सों की भरमार रहती उनके पास।चाचीजी और अम्माँ में भी खूब बनती थी।
दोनों दोस्त जरूर अब ऊपर जाकर फिर मिल गए होंगे और उनकी मस्ती बदस्तूर जारी होगी…।अम्माँ भी उनमें ही जा मिली होंगी।उनकी मस्ती देख हंसती रहती होंगी।चाचीजी की कई दिनों से कोई खबर नहीं है …!!
रविवार, 4 फ़रवरी 2024
विश्व कैंसर दिवस
कैंसर लाइलाज नहीं है, बशर्ते जागरूक रह कर समय पर पकड़ा जाए और समुचित इलाज करवाया जाय।आँखें मूँद लेने से नहीं अपितु एक दिया जलाने से जरूर अंधेरा दूर होता है।पुस्तक 'दर्द का चंदन ’ यही समझाती है…जागरूक रहिए, स्वस्थ रहिए। पुस्तक मेले में उपलब्ध रहेगी।
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"दर्द का चंदन उपन्यास: इंसानी हौसलों की मर्मस्पर्शी दास्तान”
-डॉ. हंसा दीप
“ये हौसलों की कथा है
निराशा पर आशा की, हताशा पर आस्था की
पराजय पर विजय की कथा है”
उषा किरण जी का उपन्यास “दर्द का चंदन” निश्चित ही हौसलों की कथा है। इसे पढ़ते हुए उषा जी के संवेदनशील मन की गहराइयों से परिचय हुआ। इतने भीतर तक जहाँ जाकर पाठक और लेखक का संवाद हो सके। कैंसर जैसी बीमारी से घर के दो सदस्य एक साथ लड़ रहे हों, एक दूसरे को दिलासा दे रहे हों, वहाँ हर कोई अपने दर्द को कमतर महसूस करने लगता है। उषा किरण ने अंत में लिखा है कि किसी सहानुभूति के लिए नहीं लिखी है यह कथा, यानी वे पाठक को इस तथ्य से अवगत करना चाहती हैं कि यह उनकी अपनी जीवन कथा है। जब यथार्थ को कोई भी कलम कागज पर अंकित करती है तो नि:संदेह शब्दों में सच्चाई मर्मांतक हो जाती है।
उषा जी ने कहानी को जीवंतता देते हुए बचपन की यादों को बहुत करीने से पेश किया। ऐसी छोटी-छोटी बातें जो हर पाठक को अपने बचपन की सैर करा दें। उनकी भाषा का प्रवाह पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है- “कहीं-कहीं नन्हे शिशु के अलसाए हाथ-पैरों से फूल-पत्ते मानो माँ के आँचल से निकल इधर-इधर से टुकुर-टुकुर ताक-झाँक कर रहे थे।”
कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो बरबस ही लेखक की कलम के प्रशंसक बन जाते हैं जैसे- “मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।” गद्य के साथ कविता इस तरह संयोजित करके प्रस्तुत की गयी है जैसे लगता है इसके बगैर यहाँ कही गई बात अधूरी ही रहती। भाषायी सौंदर्य में इन कविताओं ने जबरदस्त तड़का लगाया है।
बचपन की यादें माता-पिता पर केंद्रित होकर फिर से उनके बहुत करीब ले जाती हैं। उनके अवसान का समय बच्चों के मन में हमेशा-हमेशा के लिए एक टीस छोड़ जाता है। उषा जी की पीड़ा इन शब्दों में अभिव्यक्त होती है- “कितना मुश्किल होता है अपने माता-पिता को यूँ अस्त होते देखना।”
एक के बाद एक, परिवार पर मौत के साए मँडराने लगे तो किससे शिकायत की जाए और सुनवाई कहाँ होगी, पर हाँ भीतर की व्यथा को यूँ व्यक्त करना एक पल के लिए सुकून जरूर देता है- “और कितना तराशोगी जिंदगी, जब हम ही न होंगे, तो किस काम आएँगे हुनर तेरे”
एक विशेष बात का खयाल रखा है लेखिका ने जो बहुत ही रचनात्मकता के साथ उभर का आया है वह यह कि कैंसर के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। शुरुआत से लेकर अंत तक किस तरह इस घातक बीमारी से लड़ा जा सकता है, मरीज के साथ परिवार किन परिस्थितियों में इससे जूझता है, साथ ही शरीर के संकेतों को अनदेखा न करने का बड़ा संदेश है। कई बार मशीनें उस बीमारी को पकड़ नहीं पातीं पर शरीर लगातार दिमाग को संकेत भेजता है। इसी संकेत की उपेक्षा आगे जाकर जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है।
एक लेखक होने के नाते मैं जानती हूँ कि इसे लिखते हुए न जाने कितने आँसू बहे होंगे, न जाने कितनी बार माता-पिता सामने आकर दिलासा देकर गए होंगे और शायद छोटा भाई तो हर पल जेहन में रहा होगा जिसके मासूम चेहरे ने बहन को अनवरत ढाढस बंधाया होगा।
कहानी के अंत तक मेरे लिए भी आँसू रोक पाना असंभव हो गया था। यही सच इस उपन्यास को विशिष्ट बनाता है कि पाठक पात्रों के साथ जुड़कर उनकी तकलीफ को महसूस करे।
मैं उषा किरण जी को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए उनके हौसलों की दाद देती हूँ। उषा जी, आपका आशावादी, सकारात्मक रवैया पाठकों के जीवन को ऊर्जा से भरने में कामयाब होगा। साथ ही, हर पाठक अपने दर्द की आग को चंदन की शीतलता से कम करने का प्रयास अवश्य करेगा।
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डॉ. हंसा दीप
—दर्द का चंदन पुस्तक से….
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024
मौन
सुनो तुम-
एक ही तो ज़िंदगी है
बार- बार
और कितनी बार
उलट-पलट कर
पढ़ती रहोगी उसे
तुम सोचती हो कि
बोल- बोल कर
अपनी नाव से
शब्दों को उलीच
बाहर फेंक दोगी
खाली कर दोगी मन
पर शब्दों का क्या है
हहरा कर
आ जाते हैं वापिस
दुगने वेग से….
देखो जरा
डगमगाने लगी है नौका
जिद छोड़ दो
यदि चाहती हो
इनसे मुक्ति तो
कहा मानो
चुप होकर बैठो और
गहरे मौन में उतर जाओ अब…!
—
उषाकिरण
गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024
जीवन की आपाधापी में…!!
जीवन की आपाधापी में न जाने हमसे हमारे कितने प्रिय लोगों का हाथ और प्रिय वस्तुओं का साथ अनचाहे छूट जाता है।
नाइन्थ में मैंने वोकल म्यूजिक लिया और घर में आदरणीय `श्री परमानन्द शर्मा’ गुरुजी से विधिवत संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। तबले और हारमोनियम के साथ मैं और दीदी संगीत सीखते थे। गुरुजी की मैं बहुत प्रिय शिष्या थी। उनके हिसाब से मैं बहुत टेलेन्टेड स्टुडेंट थी, जबकि मुझे खुद पर विश्वास जरा सा भी नहीं था। वे प्राय: क्लास में सिखाई जा रही बंदिशों से अलग भी खूबसूरत बंदिशें सिखाते।
गुरुजी को ज्योतिष का भी अच्छा ज्ञान था। मेरी जन्मपत्री एक दिन अम्माँ से मांग कर देखी और बहुत खुश हुए। उस दिन उन्होंने जो भी बातें कहीं वो आगे जाकर सब सच साबित हुईं। अम्माँ ने उनके परिवार को खाने पर आमन्त्रित किया और उनकी गुरुजी की पत्नि से खूब दोस्ती हो गई।अम्माँ प्राय: हम लोगों को साथ लेकर उनके घर जातीं तो कभी उनका परिवार हमारे घर आमन्त्रित रहता।
उन्होंने सुझाव दिया कि मुझे हारमोनियम की जगह तानपूरे के साथ रियाज करना चाहिए। तब ताताजी की पोस्टिंग बुलन्दशहर में थी। वहाँ तानपूरा नहीं मिलता था तो गुरुजी दिल्ली से बस में अपनी गोद में रखकर मेरे लिए तानपूरा लाए और हमने तानपूरा संग रियाज करना शुरु किया…सचमुच रियाज में अलग ही आनन्द आने लगा। हमारा तानपूरा बेहद सुघड़ व सुँदर था। जब गुरुजी कहते कि मेरी ज़िंदगी का अब तक का ये सबसे बढ़िया तानपूरा है तो मैं मगन हो जाती।फिर उसका कवर भी खुद बनवा कर लाए। तानपूरा मिलाना और संभालना सिखाया। टैन्थ में स्लेबस में छोटा खयाल था परन्तु गुरुजी ने बड़ा खयाल, घ्रुपद, धमार व तराना भी सिखाया। प्रैक्टिकल परीक्षा में टीचर की परमीशन से तबले पर संगत करने के लिए खुद कॉलेज आए और हमने चॉयस राग का बड़ा ख्याल वगैरह भी गाया। जाहिर है मेरी डिस्टिन्क्शन आई। मैंने गुरुजी से इलैवेन्थ तक ही, कुल तीन साल तक संगीत की शिक्षा ली फिर ताताजी का ट्रांसफ़र मथुरा हो गया और गुरुजी का साथ छूट गया। गुरुजी ने इतनी अच्छी तैयारी करवा दी थी कि ट्वैल्थ में कोई परेशानी नहीं हुई और म्यूज़िक में डिस्टिन्कशन मार्क्स मिले।
टॉन्सिल की परेशानी की वजह से फिर बी ए में मैंने म्यूज़िक नहीं लिया और धीरे-धीरे मेरी रुचि पेंटिंग और साहित्य की तरफ़ बढ़ती गई, संगीत छूट गया।
गुरुजी के लाये तानपूरे की मैं बहुत संभाल करती थी।जहाँ- जहाँ ट्रांसफ़र होता मैं अपने साथ संभाल कर ले जाती रही।कभी-कभी तानपूरे पर ओम् की चैन्टिंग और सीखे रागों की प्रैक्टिस करती।
संस्कृत में एम ए किया और फिर पेंटिंग में एम ए करते बीच में शादी भी हो गई। अम्माँ बोलीं अब इसे तुम अपने साथ ले जाओ हमसे नहीं संभलेगा। तो ले आए ससुराल, बड़े प्यार से गोदी में रखकर। ससुराल हमारी भरा-पूरा कुनबा थी। वहाँ सबके लिए तानपूरा भी एक अजूबा था। सबके हिस्से में एक- एक कमरा बंटा था। पी-एच॰ डी० की पढ़ाई के साथ जॉब, फिर बेटी हुई तो किताबों , खिलौनों और नैपियों के बीच विराजमान तानपूरे को भी वहीं संभालना होता था। कमरा छोटा लगने लगा। घर तो बड़ा था परन्तु कई शैतान बच्चों के रहते उसे कहीं और नहीं रख सकती थी। तानपूरा बहुत नाजुक होता है तो बहुत संभालने की जरूरत होती है। बहुत संभालने पर भी कुछ डैमेज हो गया।
मेरे दिल की नाजुक रगों से उसके तार बंधे थे। मेरे गुरुजी की कुछ ही सालों बाद कैंसर से डैथ हो गई थी उस समय तक उनके बच्चे भी सैटिल नहीं हुए थे। पता नहीं क्या हुआ सबका…।गुरुजी जिस तानपूरे को गोद में रखकर लाए थे उसको मैं किसी हाल में खुद से दूर करना नहीं चाहती थी। तानपूरा मुझे यह भी याद दिलाता था कि एक सुप्त पड़ी कला है मुझमें, कभी मौका लगा तो फिर से सुरों से सुरीला होगा जीवन। बेशक अभी जीवन से संगीत दूर हो गया हो। लगता जब गुरूजी की इतनी फेवरिट थी तो कुछ तो प्रतिभा रही ही होगी ?
फिर एक दिन मजबूर होकर अपना प्रिय तानपूरा मैंने अपनी एक बहुत प्रिय सखी को सौंप दिया क्योंकि वे उन दिनों संगीत सीख रही थीं । कुछ सालों बाद अपना शौक पूरा होने पर उन्होंने मुझसे पूछ कर वह किसी और जरूरतमंद को दे दिया।
उसके बीस साल बाद मैं बहुत बीमार पड़ी। जब बीमारी से उभरी तो भैया के जिद करने पर एक गुरुजी से फिर से संगीत सीखना शुरु किया। तब कहीं से एक तानपूरे की व्यवस्था की। लेकिन उसका बेहद डार्क कलर और बृहद बेडौल तूम्बा होने के कारण मुझे ज़रा नहीं भाता था।पूरे समय अपना सुनहरी आभायुक्त, यलो ऑकर व बर्न्ट साइना कलर का सुन्दर तानपूरा याद आता जो अजन्ता व एलोरा में उकेरी नारी सौन्दर्य की क्षीण कटि और पुष्ट व सन्तुलित अधोभाग वाली सुन्दरियों सा साम्य रखता था।
आज जब भी किसी गायक को तानपूरे संग गाते देखती हूँ, तो अपने तानपूरे को याद करके मेरे मन में एक हूक सी उठती है, मन विचलित हो उठता है कि काश….!!
"जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या…
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला…।”
—उषा किरण
खुशकिस्मत औरतें
ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...