ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 18 जुलाई 2020

"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 1



जब कोई अपना बहुत प्रिय इस तरह आपकी किताब के साथ आपको भी पढ़े गुनगुनी चाय के सिप की तरह धीमे- धीमे बहुत विश्वास से और इतने प्यार से लिख अपना प्यार प्रेषित करे तो कहने को कहाँ रह जाता है कुछ ! रश्मिप्रभा जी आपको बहुत प्यार🥰पढ़िए आप भी क्या कहती हैं वे👇🌿🥀🌱

यह ताना-बाना अपने पूरे शबाब के साथ मुझे बहुत पहले मिला, यूँ लगा था किसी ने भावों का भावपूर्ण गुलदस्ता सजाकर मुझे कुछ विशेष वक़्त के मोड़ पर ले जाने को सज्य किया है । वक़्त के खास लम्हों में मुझे बांधने का अद्भुत प्रयास किया उषा किरण ने ।
उषा किरण, सिर्फ एक कवयित्री नहीं, रेखाओं और रंगों की जादूगर भी हैं । एक वह धागा, जो समय,रिश्ते,भावनाओं को मजबूती से सीना जानता है,उसे जीना जानता है । यह संग्रह उन साँसों का प्रमाण है, जिसे उन्होंने समानुभूति संग लिया । ऐसा नहीं कि विरोध के स्वर नहीं उठाए, ... उठाए, लेकिन धरती पर संतुलन बनाते हुए ।ॐ गं गणपतये नमः की शुभ आकृति के साथ अनुक्रम का आरम्भ है, तो निर्विघ्न सारी भावनाएं पाठकों के हृदय तक पहुँची हैं । परिचय उनके ही शब्दों में,
"क्या कहूँकौन हूँ ?
...उड़ानें बिन पंखों के जाने कहाँ कहाँ ले जाती हैं
 ...कौन हूँ ?"
क्या कहूँ ? परी या ख्वाब, दूब या इंद्रधनुष, ध्रुवतारा या मेघ समूह, ओस या धरती को भिगोती बारिश या बारिश के बाद की धूप ... पृष्ठ दर पृष्ठ जाने कितने रूप उभरते हैं ।       उषा का आभास सुगबुगाते हुए नए दिन का आगाज़ करता है, मिट्टी से लेकर आकाश की विशालता का स्पर्श करता है, अनदेखे,अनसुने,अनछुए एहसासों का प्रतिबिंब बन हृदय से कलम तक की यात्रा करता है और कुछ यूँ कहता है,
"सुनी है कान लगाकर
उन सर्द, तप्त दीवारों पेदफ़न हुई पथरीली धड़कनें ..
."शायद तभी,"हैरान, परेशान होकर पाँव ज़मीन पर रख..."एक मन-ढूंढने लगता है स्लीपर, ... ताकि  बुन सके क्रमिक ताना बाना
 क्रमशः


गुरुवार, 9 जुलाई 2020

कविता-/ एकलव्य





एक प्रणाम तो बनता है उन तथाकथित गुरुओं के भी गुरुओं को जो👇


           एकलव्य
            वे भी थे
       एकलव्य ये भी हैं
      फर्क सिर्फ़ इतना है...
     वो अँगूठा काट देते थे
            ये अँगूठा
            काट लेते हैं ...!
                                —उषा किरण
                                    (ताना-बाना)



रविवार, 14 जून 2020

कविता— इससे पहले


इससे पहले कि फिर से
तुम्हारा कोई अज़ीज़
तरसता हुआ दो बूँद नमी को
प्यासा दम तोड़ दे
संवेदनाओं की गर्मी को
काँपते हाथों से टटोलता
ठिठुर जाए और
हार जाए  जिंदगी की लड़ाई
कि हौसलों की तलवार
खा चुकी थी जंग...

इससे पहले कि कोई
अपने हाथों चुन ले
फिर से विराम
रोक दे अपनी अधूरी यात्रा
तेज आँधियों में
पता खो गया जिनका
कि काँपते थके कदमों को रोक
हार कर ...कूच कर जाएँ
तुम्हारी महफिलों से
समेट कर
अपने हिस्सों की रौनक़ें...

बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ
बोझ बन गईं जो
कान दो थके कदमों की
उन ख़ामोश आहटों  पर
तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं
और लौट गईं चुपचाप
सुन लो वे सिसकियाँ
जो घुट कर रह गईं गले में ही
सहला दो वे धड़कनें
जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में
काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो
सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...

मत रखो समेट कर बाँट लो
अपने बाहों की नर्मी
और आँचल की हमदर्द हवाओं को
रुई निकालो कानों से
सुन लो वे पुकारें
जो अनसुनी रह गईं
कॉल बैक कर लो
जो मिस हो गईं तुमसे...

वो जो चुप हैं
वो जो गुम हैं
पहचानों उनको
इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़
एक दर्दनाक खबर बन जाए
इससे पहले कि फिर कोई
सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए
इससे पहले कि तुम रोकर कहो -
"मैं था न...”
दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से
गले लगा कर कह दो-
" मैं हूँ न दोस्त !!”

                          — डॉ० उषा किरण

                    

मंगलवार, 9 जून 2020

कविता— काहे री नलिनी.....

काहे री नलिनी.....”
~~~~~~~~~

घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप

बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
ढोते रहे दुखते कन्धों पर
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ

कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से
मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर

पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद

हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद

गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!!
                                       — डॉ. उषा किरण

Dr. Usha Kiran
Size-30”X 30”
Medium - Mixed media on Canvas
TITLE -"Kahe ri Nalini”(काहे री नलिनी)

रविवार, 7 जून 2020

कविती— काहे री नलिनी.....

                                          डॉ. उषा किरण  
                                           पेंटिंग साइज-30”X 30”
                                            मीडियम—मिक्स्ड मीडिया
                                            टाइटिल -"काहे री नलिनी.....”



घिर रहा तिमिर चहुँ ओर
है अवसान समीप

बंजर जमीनों पर
बोते रहे ताउम्र खोखले बीज
बेमानी गठरियाँ पोटलियाँ
ढोते रहे दुखते कन्धों पर

कंकड़ों को उछालते
ढूँढते रहे मानिक मोती
भटकते फिरे प्यासे मृग से ,
 मृगमरीचिकाओं में
तो कभी
स्वाति बूँदों के पीछे
चातक बन भागते रहे
उम्र भर

पुकारते रहे इधर -उधर
जाने किसे-किसे
जाने कहाँ- कहाँ
हर उथली नदी में डुबकी मार
खँगालते रहे अपना चाँद

हताश- निराश खुद से टेक लगा
बैठ गए जरा आँखें मूँद
सहसा उतर आया ठहरा सा
अन्तस के मान सरोवर की
शाँत सतह पर
पारद सा चाँद

गा रहे हैं कबीर
जाने कब से तो
अन्तर्मन के एकतारे पर
"काहे री नलिनी तू कुमिलानी
तेरे ही नाल सरोवर पानी......”!!                
  — डॉ. उषा किरण
                                   


शुक्रवार, 29 मई 2020

स्मृति- -चित्रण ( आँचल की खुशबू)



आँचल की खुशबू —
~~~~~~~~~~~~

"उषा इधर आओ”
“हाँ....क्या ?”
"चलो तुम ये भिंडी काटो”
"हैं भिंडी ...पर क्यों.....मैं क्यों ?”
“मैं क्यों का क्या मतलब ? काटो भिंडी हम कह रहे हैं बस...हर समय किताबों में घुसी रहती हो ये नहीं कि कुछ काम- काज सीखो ।”
"अब ये भिंडी काटने में क्या सीखना होता है भई...ए राजपाल सुनो इधर आओ चलो तुम ये भिंडी काटो...हमें पढ़ना है।”
“अरे राजपाल से हम भी कटवा लेते पर ये भिंडी आज तुम ही काटोगी समझीं “ अब तक अम्माँ को गुस्सा आ चुका था तो हमने चुपचाप बैठ कर फटाफट भिंडी कतरने में ही अपनी खैर समझी।
“ये भिंडी काटी हैं तुमने कोई छोटी कोई बड़ी और बिना देखे काटे जा रही हो जाने कितने कीड़े काट दोगी तुम ?”
“अरे हम कीड़े देखते जा रहे थे पर छोटी बड़ी से क्या फर्क पड़ने वाला है सब्ज़ी पक के सब बराबर ही हो जानी हैं “ हम चिनचिनाए।
“रुको ...देखो जो छोटी होगी वो जल्दी पक जाएगी और जो बड़ी है वो देर से तो जब तक बड़ी पकेगी छोटी भिंडी घुट जाएगी ...समझीं...सिर्फ़ दो चार पेंटिंग बना कर दीवार पर सजा देना ही काफी नहीं होता ,हर काम में कलात्मकता होनी चाहिए ...खाली कविता कहानी से ही जीवन नहीं चलता है !”
उनका लैक्चर शुरु हो चुका था ...बात पूरी हो हम तब तक अपने दड़बे में घुस किताब उठा चुके थे,बात ख़त्म ।
पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई ...आज उस बात के 43 साल बाद भी जब भी ,जितनी बार हमने भिंडी काटी हैं ये भिंडी प्रकरण हमेशा स्मृतियों में भिंडी सा चिपक कर साथ चला आया है।
बस अम्माँ यूँ ही चलती हो तुम साथ मेरे ...अपनी बातों, नसीहतों , मुहावरों और किस्सों से महकती हो मेरे भीतर ...तुम्हारी पीठ से चिपक कर तुम्हारा पल्लू सूँघती थी मैं जब छोटी थी ...क्या पता था अनजाने में ही जीवन भर के लिए वो सुगन्ध अन्तर्तम में बसा रही थी मैं...माँ कभी भी कहीं नहीं

सोमवार, 25 मई 2020

कविता— आचार- संहिता




सुनो !
कब , क्या कहा माँ ने
भूल जाओ अब
वो सारी नसीहतें
वो हिदायतें
लिखो न अब
खुद की आचार संहिता
अपनी कलम से
अपनी स्याही से

और फिर
सौंप देना बेटी को
वो लिखेगी उसके आगे
अपने हिसाब से
मनचाहे रंगों से

आखिर
क्यों ठिठके रहें हम
चौखटों में सिमटे
सोचते रहें कि...
क्या कहा था माँ ने
दादी या नानी ने

हक है हमारा भी
आसमानी कोनों पर
चाँद-सूरज और
उड़ते परिंदों पर
सतरंगे इन्द्रधनुषी रंगों
सनसनाती उन्मुक्त
शीतल बयारों और
इठलाती बदलियों पर

और ...
जहाँ भी होंगी माँ
भले ही वो
उंगली से बरजेंगी
पर चुपके से
आँखों से मुस्कुराएंगी
यकीन मानो
वो भी
सुकून पाएंगी...!!!
                       
                     —उषा किरण
               (रेखाँकन : उषा किरण )

                   
     

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...