ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 29 अगस्त 2022

वटवृ़क्ष

                   

                          


                      कैसे थक कर हार जाऊँ

                           उम्मीदों से बँधा

                     मन्नतों के धागों से लिपटा

                             वटवृक्ष हूँ मैं…!!


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-उषा किरण

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-08-2022) को   "जय-जय गणपतिदेव"   (चर्चा अंक 4538)   पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. आपका हार्दिक आभार 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. सच कहा दी कैसे हार जाऊं अभी।
    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं

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