ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 17 अगस्त 2022

तुम कौन


 हटो तुम सब, यदि नहीं भाता मेरा तरीका तुमको, मत सिखाओ मुझे-

ये करो, ये न करो

ऐसे बोलो, ऐसा न बोलो

वहाँ जाओ, यहाँ मत जाओ

ये देखो, वो मत देखो

इससे बोलो, उससे मत बोलो

ये खाओ, वो न खाओ

से पहनो , ये न पहनो

ये लिखो, ये न लिखो

शऊर नहीं…ये क्या बेहूदगी

उम्र का लिहाज़ नहीं, बड़ी बन रहीं 

मुँह लटका है, जाने क्या गम है

जाने किस ख़ुशी में , उड़ी जा रहीं

बाल तो देखो, सफेदी आ गईं 

बुद्धि न आई...!

हाँ तो नहीं आई, क्या करें तो ?

ये मेरी जिंदगी, तुम कौन ?

सबकी पुड़िया बना रखो न अपनी जेब में

और हटो एक तरफ, आने दो जरा

कुछ ताजी हवा , कुछ खुशबू

सतरंगी किरणें, कुछ उजास

भरने दो लम्बी साँस…!

चन्द दिन, कुछ पंख ओस से भीगे  

ये जो हैं न मेरी मुट्ठी में

जी लेने दो, उड़ने दो मुझे

अब उन्मुक्त....!!

             —उषा किरण 


10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार 18 अगस्त, 2022 को    "हे मनमोहन देश में, फिर से लो अवतार"  (चर्चा अंक-4525)
       
    पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    जवाब देंहटाएं
  2. तुम कौन ? ख्वामखाह 😆😆😆 हवा आन दे 😆😆😆

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! बहुत बढ़िया सृजन आदरणीय दी।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...