रजनीगंधा
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- निर्देशक : बासु चटर्जी
- पटकथा: बासु चटर्जी
- कहानी: मनु भंडारी; 'यही सच है’ कहानी पर आधारित
- मुख्य कलाकार: विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर, दिनेश ठाकुर
- छायांकन: के. के. महाजन
- संगीत: सलिल चौधरी
- गीत के बोल: योगेश
- पुरस्कार : सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक( पुरुष) के लिए मुकेश को राष्ट्रीय पुरस्कार
- 1975 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ क्रिटिक अवार्ड
बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म रजनीगंधा की रिलीज़ को 50 साल पूरे हो गए हैं। बासु चटर्जी को कुछ हटकर फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है।उनकी फ़िल्मों का विषय प्राय: भारतीय मध्यम वर्ग ही होता था। सन् 1974 में बनी मसाला फ़िल्मों की तड़क-भड़क से परे, एक सीधी-सादी मिडिल क्लास लड़की की सर्वथा अनछुए विषय को चित्रित करती फ़िल्म`रजनीगंधा’ सुप्रसिद्ध लेखिका मन्नु भंडारी की कहानी`यही सच है’ पर आधारित है।इस मनोवैज्ञानिक प्रेम कहानी पर बनी इस फ़िल्म में बासु चटर्जी ने सर्वथा दो नवीन कलाकारों अमोल पालेकर व विद्या सिन्हा को लेकर यह फ़िल्म बनाई थी।
70 के दशक में हिंदी सिनेमा का मिडिल क्लास की तरफ़ लौटना सुखद था, क्योंकि इस दौर में फ़िल्में आम मानव के मानस व ज़िंदगी से ज़्यादा जुड़ीं। जितनी खूबसूरत मनु भंडारी की ' यही सच है’ कहानी थी उतना ही लाजवाब बासु चटर्जी ने इस फ़िल्म का निर्माण किया है।कथानक में कुछ परिवर्तन व्यावहारिक दृष्टि से उन्होंने किए हैं, परन्तु उससे मूल कहानी का सौंदर्य कहीं भी नष्ट नहीं होता है।यह फ़िल्म इतनी सादगी से बनी है कि सीधे दर्शकों के दिल में उतर जाती है।
यह फ़िल्म बन तो गई लेकिन इसे कोई डिस्ट्रीब्यूटर न मिलने के कारण छह महिनों तक डिब्बे में बन्द पड़ी रही। फिर ताराचन्द बड़जात्या ने इसको ख़रीद कर रिलीज़ किया।पहले तो यह कुछ ख़ास नही चली परन्तु बाद में सिल्वर जुबली हिट रही और फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ क्रिटिक्स फिल्म का अवार्ड मिला।
यह फ़िल्म अपने समय से आगे की बात कहती है। फ़िल्म की कहानी दो पुरुषों के प्रेम के मध्य नायिका दीपा की डाँवाडोल मन:स्थिति को दर्शाती है। एक पुरुष का दो प्रेमिकाओं या पत्नियों के बीच की उलझन, खटपट या चयन को लेकर कई फ़िल्में बनी हैं परन्तु हमारी संस्कृति में एक स्त्री का दो पुरुषों को एक साथ प्रेम करना जैसे सम्वेदनशील विषय पर फ़िल्म बनाने का साहस बासु चटर्जी जैसे प्रयोगधर्मी व मंजे हुए निर्देशक के लिए ही संभव था। नायिका प्रधान इस फ़िल्म में एक स्त्री की इस उलझी हुई मानसिकता को पहली बार मनोवैज्ञानिक तरीक़े से फ़िल्माया गया है; जहाँ नायिका पूर्व प्रेमी को सहसा पाकर कभी सोचती है कि `सत्रह साल की उम्र में किया प्यार निरा बचपना होता है’, तो कभी सोचती है कि `पहला प्यार ही सच्चा प्यार है’।कई बार हम खुद को ही नहीं पढ़ पाते और हमारा मन व बुद्धि, भावना व व्यावहारिकता के मध्य या वर्तमान व अतीत के बीच डोलता रहता है। फ़िल्म में विद्या सिन्हा ने इस उलझन को उम्दा अभिनय से जीवंत कर दिया है।
दीपा मनोविज्ञान में एम.ए. के बाद रिसर्च कर रही है।संजय ( अमोल पालेकर) से प्यार करती है जो बहुत सीधा- सादा, मस्त स्वभाव का भला सा इंसान है।दोनों भविष्य में शादी की योजना बना रहे हैं, लेकिन संजय अपने प्रमोशन को लेकर ऑफिस की राजनीति से हर समय परेशान रहता है और दीपा को पूर्ण समय व ध्यान न देकर, अपनी धुन में उसकी उपेक्षा कर जाता है; जिसके कारण वह प्राय: उदास हो जाती है। स्त्री जिससे प्रेम करती है, चाहती है कि उसका प्रेमी भी उसको वरीयता दे। अपना पूरा समय, सुरक्षा व प्यार का इज़हार करे।यह वह समय था जब स्त्री मात्र पुरुष की अनुगामिनी न रह कर अपनी अस्मिता व भावनाओं के प्रति भी जागरूक हो गई थी।
इसी बीच दीपा जॉब के इंटरव्यू के लिए मुंबई जाती है, जहाँ उसका पूर्व प्रेमी नवीन मिलता है, जो उसकी हर तरह से मदद करता है वह दीपा को खूब समय व ध्यान देता है। उसकी प्रत्येक ज़रूरत के लिए सजग रहकर प्रयासरत रहता है। उसमें महानगर वाली स्मार्टनेस है, दीपा उसके स्टाइल व व्यवहार से प्रभावित होकर पुन: नवीन की तरफ़ खिंचने लगती है। उसका मन प्रतीक्षारत है कि नवीन पुन: उससे अपने प्रेम का इज़हार करे, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं कहता जिससे प्रतीत हो कि वह भी पुन: खोए हुए प्रेम में वापिस लौटना चाहता है।दिल्ली से लौटते समय नवीन से बिछड़ते हुए दीपा के मन का अनुराग व तड़प उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता है।
दीपा के मन में वर्तमान प्रेमी व पूर्व प्रेमी को लेकर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। इसी उलझन में वह खुदको तर्क देती है कि 'पहला प्यार ही सच्चा प्यार होता है’ और दिल्ली लौटते हुए फ़ैसला कर लेती है कि वह नवीन को ही चुनेगी। संजय कुछ दिनों के लिए कहीं शहर से बाहर गया है। वह नवीन को पत्र लिखकर अपने प्यार का इज़हार करती है और व्याकुल होकर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करती है।लेकिन उत्तर में नवीन के पत्र में मात्र चार पंक्तियों में जॉब लगने की बधाई पढ़कर वह निराशा में डूब कर सोचती है कि `क्या यह उसका मात्र भ्रम था, नवीन के मन में क्या उसके लिए कोई कोमल अनुभूति नहीं है?’, उसका स्वाभिमान आहत होता है। वह हाथ में पत्र थामे स्तब्ध सी खड़ी हुई है, इसी बीच संजय खिले हुए रजनीगंधा के फूलों के साथ प्रसन्नता व उत्साह से आकर अपने प्रमोशन की सूचना देता है तो उसकी निश्चल हंसी देख दीपा के मन में उसके लिए पुनः प्रेम का संचार होता है, वह दौड़कर उसको गले से लगा लेती है।
प्रेम के कई रूप हैं। प्रेम की उलझी गुत्थियों पर न जाने कितना साहित्य रचा गया और अनगिनत फ़िल्में भी बनी हैं । मनु भंडारी की इस कहानी में भी प्रेम के अनोखे रूप को दर्शाया गया है।दो में से एक प्रेमी को चुनने का द्वन्द्व जिस तरह दर्शाया गया है वह अद्भुत है।इसी कहानी पर बनी यह फ़िल्म एक सवाल छोड़ जाती है कि क्या यह संभव है कि कोई एक साथ, एक ही समय में दो व्यक्तियों के साथ प्रेम कर सकता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो यदाकदा उठता रहा है।
फ़िल्म के प्रारंभ में ही दीपा सपना देखती है कि वह ट्रेन से जा रही है और सहसा उतर जाती है, स्टेशन पर कोई नज़र नहीं आने पर डरकर पुन: ट्रेन के पीछे भागती है और गिर जाती है। ट्रेन से उसे देखकर लोग हंस रहे हैं।वह प्राय: यह सपना भी देखती है कि वह चलती टैक्सी से गिर गई है।यह दृश्य बासु चटर्जी ने दीपा के मनोवैज्ञानिक पहलू को ध्यान में रखकर बहुत सोच समझकर समझदारी से जोड़ा है। ये सपने उसके अवचेतन में व्याप्त असुरक्षा की भावना को दर्शाते हैं।
दीपा अपने करियर को लेकर बहुत सजग है।वह अपने जीवन में सैटिल हो जाना चाहती है। संजय की लापरवाही के कारण उसकी प्रतीक्षा में बेचैन होने पर झुँझलाकर सोचती है कि मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।वह नौकरी हेतु इंटरव्यू देने मुंबई भी जाती है। परन्तु अन्त में वह पत्र में नवीन की तटस्थ प्रतिक्रिया से आहत होकर निश्चय करता है कि 'मुझे मुंबई नहीं जाना है।’ वह जीवन-यात्रा में नौकरी व नवीन जैसे प्रेमी की अपेक्षा संजय जैसे साथी को चुनती है क्योंकि प्राय: लड़किएं अपने पति व प्रेमी में मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा चाहती हैं।
आज से पचास वर्ष पूर्व सत्तर के दशक में दर्शक या पाठक की मानसिकता को ध्यान में रखकर आदर्श पारंपरिक भारतीय स्त्री की छवि के अनुरूप ही अन्त दिखाया है। लेकिन यदि आज के सन्दर्भ में देखा जाए तो शायद आज की दीपा नौकरी को वरीयता देती। लेकिन फिर भी फ़िल्मकार के साहस की सराहना करनी होगी कि उन्होंने उस दौर में ऐसे बोल्ड विषय को चुना।
मन्नु भंडारी की कहानी कानपुर व कोलकाता इन दो शहरों में डायरी शैली में लिखी गई है। जबकि फ़िल्म में इन शहरों की जगह दिल्ली व मुंबई कर दिया है, निशीथ का नाम बदल कर भी नवीन कर दिया है।फ़िल्म में दीपा की सखी के व्यक्तित्व में भी मुंबई शहर के हिसाब से परिवर्तन किया गया है।कहानी की इरा की तुलना में फ़िल्म की इरा ज्यादा खुले ख़्यालों की है। वह कामकाजी है, बच्चे के पक्ष में नहीं है जबकि मन्नू भंडारी की इरा एक बच्चे की माँ व घरेलू स्त्री है। बासु चटर्जी ने उसके माध्यम से महानगरीय सोच व संस्कृति का स्त्री के जीवन में पड़ते दबाव को दिखाया है।
नवीन विज्ञापन फ़िल्में बनाता है।उसके जीवन में मॉडलिंग की दुनियाँ का ग्लैमर व आधुनिक संस्कृति की चमक- दमक की छाप है, जिससे भी दीपा उसकी तरफ़ आकर्षित होती है।लेकिन
बाद में जब नवीन उसके प्रेम का प्रतिकार न देकर उपेक्षा करता है तो वह संजय को चुनती है।
साहित्यिक कृति पर जब कोई फ़िल्म बनती है तो मूल कृति से सदा उसको तुलना के तराज़ू में तौला जाता है।हालाँकि मूल कहानी से फ़िल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं क्योंकि दोनों अलग-अलग विधा हैं। सिनेमा में आम दर्शकों की रुचि व मनोरंजन का भी ध्यान रखना होता है। यह बदलाव उचित ही प्रतीत होता है; उससे कहानी की मूल सम्वेदना पर प्रभाव नहीं पड़ा है।
अमोल पालेकर की यह प्रथम हिन्दी फ़िल्म थी।अपने किरदार की मासूमियत व सादगी को उन्होंने बहुत अच्छी तरह निभाया है। वे अपने प्रमोशन पर फ़ोकस्ड और ईमानदार मगर लापरवाह प्रेमी की भूमिका में खूब जमे हैं। वहीं विद्या सिन्हा की भी यह प्रथम फ़िल्म होने पर भी मध्यमवर्गीय लड़की के उदासी, हर्ष, प्रेम, अन्तर्द्वन्द्व आदि भावों को बहुत सहजता से निभाया है। उनकी सादगी व चेहरे की मोहकता बाँध लेती है।ख़ासकर तब, जब वे उदास होती हैं तो चेहरे पर लावण्य निखर आता है। कहीं- कहीं संवाद अदायगी में उनकी हड़बड़ाहट दिखाई देती है ,जैसे जब वे संजय से फ़ोन पर बात करती हैं। यह कहीं निर्देशन की कमी है, अभिनय में कमी नहीं है।और भी कहीं- कहीं मामूली सी निर्देशन की कमियाँ नज़र आती हैं, जैसे अमोल पालेकर का डार्क पिंक शर्ट व दिनेश ठाकुर का चटक औरेंज शर्ट को कई दृश्यों में कई बार पहनना, जो कि उनकी पर्सनालिटी से मैच भी नहीं खाती हैं। एक दो दृश्य में विद्या सिन्हा की साड़ी के नीचे से बिना मैच का पेटिकोट का दिखाई देना अखरता है, परन्तु इतनी सारी खूबियों के बीच उनकी अवहेलना की जा सकती है। दिनेश ठाकुर भी लगातार सिगरेट फूंकते, गॉगल्स लगाए, चुस्ती भरे हाव-भाव से अपने रोल के हिसाब से सही अभिनय कर गए हैं।
फ़िल्म में मात्र दो ही गाने हैं। लता मंगेशकर द्वारा गाया-
`रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन में…’ इस गाने के बोल व धुन दोनों ही बहुत सुन्दर हैं। यह गीत दीपा के मन में महकते प्रेम के भावों को बहुत सुन्दर तरीक़े से अभिव्यक्त करता है। मुकेश द्वारा गाया दूसरा गीत-
`कई बार यूँ भी देखा है,ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है, अनजानी प्यास के पीछे,
अनजानी आस के पीछे मन दौड़ने लगता है…’
यह पूरा गीत नायिका के मन की डाँवाडोल स्थिति को बाखूबी दर्शाता है। दीपा, नवीन के साथ टैक्सी में जा रही है और पार्श्व में यह गीत बजता है। कभी वह मन में संजय को याद करती है तो कभी अतीत में नवीन के साथ बिताए पलों को याद करती है। दीपा का आँचल नवीन के हाथ को छू रहा है और उसकी खोई- खोई आँखें उसके मन की उलझन को बयाँ कर रही हैं।
`…जानूँ ना, जानूँ ना, उलझन ये जानूँ ना
सुलझाऊँ कैसे, कुछ समझ न पाऊँ
किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ…’
योगेश के लिखे दोनों ही गीत फ़िल्म की कहानी का एक अनिवार्य अंग प्रतीत होते हैं। म्यूज़िक सलिल चौधरी का है।इस गाने के लिए मुकेश को वर्ष 1974 के सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
पूरी फ़िल्म में कभी खिलते तो कभी मुरझाते, दीपा के मन में पलते प्रेम के प्रतीक रजनीगंधा के फूलों की सुगन्ध छाई रहती है।कहीं अव्यक्त रूप से कहानी कहती है कि एक साथ दो लोगों को चाहना वैसे ही है जैसे एक साथ दो फूलों की सुगन्ध व सौंदर्य को चाहना।
मुझे ध्यान है कि इस फ़िल्म के बाद रजनीगंधा के फूलों के प्रति लड़कियों का आकर्षण बहुत बढ़ गया था।सालों बाद भी यह फ़िल्म दर्शकों के मन में रजनीगंधा की सुगन्ध के रूप में छाई रही।
— —उषा किरण
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