ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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सोमवार, 27 अगस्त 2018

राखी





लो बांध लिए बहनों ने
भाइयों की कलाइयों पर
प्यार के ,आशीष के
रंगबिरंगे धागे...
मना कर उत्सव पर्व
लौट गए हैं सब
अपने-अपने घर
रोकी हुई उच्छवास के साथ
हृदय की गहराइयों में संजोई
प्यार,स्नेह के सतरंगी रंगों से रंगी
आशीष के ,दुआओं के
धागों से बुनी...
तारों की छांव में
विशाल गगन तले
खड़ी हूं बांह फैलाए
तुम्हारे असीम भाल पर
लाओ तो
लगा कर तिलक दुलार का
बांध देती हूं मैं भी
राखी अब...
अपनी कलाई बढाओ तो
भैया !!

शनिवार, 18 अगस्त 2018

...ढ़लने लगी सॉंझ

       

एक और अटल जी की कविता जिस पर यह पेंटिंग  बनाई थी एग्जीबीशन के लिए...

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
                                   #अटलबिहारीबाजपेयी

एक बरस बीत गया



2000 में आई फ़ैक्स,दिल्ली  में अटल जी की कविताओं पर “कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन “के तत्वाधान में चित्र कला प्रदर्शनी की थी तब बनाई थी उनकी कविता पर यह पेंटिंग -

एक बरस बीत गया

झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
                             #स्व०अटलबिहारीबाजपेयी

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

नमन




यूँ तो
जाने को ही आता है
हर शख्स यहॉं
पर...
ये कैसा जाना
कि
बसजाना
हर दिल
में .....

-भावपूर्ण श्रद्धांजलि
      नमन
#अटल जी
💐🙏

बुधवार, 8 अगस्त 2018

परिचय


पूंछते हो कौन हूँ मैं
क्या कहूँ
कौन हूँ मैं
शायद...
भगवान का एक
डिफेक्टिव पीस
जिसमें जल,आकाश,हवा
तो बहुत हैं
पर आग और मिट्टी
तो बहुत ही कम...
रंगों की बिसात तो
हर तरफ़ हैं
पर आँकड़ों के हिसाब तो
ग़ायब हैं
उड़ानें बिन पंखों के
भागती हैं रात-दिन
और बचपन से ही
अंदर एक थकी सी बुढ़िया
करती रहती है
खटर-पटर
भीतर ही भीतर धमा- चौकड़ी
एक बच्ची की भी
चलती रहती है आज भी
और जो षोडशी  है
उसके तो पैर ही नहीं टिकते
नए इन्द्रधनुष रचती
नए ख़्वाब बुनती
जाने कहॉं-कहॉं ले जाती है
उड़ा कर मुझे
मुझे तो अपना ख़ुद ही पता नहीं
किसी को पता हो तो बताए
हो सके तो मुझसे
मेरा
परिचय कराए !!
                   -उषा किरण



शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

मुक्ति


आओ सब
वहॉं लगो लाइन में
बही लेकर बैठी हूँ
बड़े जतन से दर्ज किए थे
जो हिसाब-किताब....
किसने कब दंश दिया
किसने की दगा
किसने मारे ताने
सताया किसने
रुलाया किसने
इल्ज़ाम लगाए किसने
किसने दिए उलाहने
संकट की घड़ी...
किसने दिया नहीं साथ
मंगल बेला में बोलो तो
क्यूँ नहीं गाए गीत
जब मन छीजा तो
किसका कंधा नहीं था पास
फाड़ रही हूँ पन्ना-पन्ना...
ये इसका
ये उसका
और
ये तेरा...
आओ...कि ले जाओ सब..
मुक्त हुए तुम
मुक्त हुई मैं
रिक्त करो मेरा मानसरोवर
और सुनो जाते जाते बंद कर जाना
वे दसों दरवाज़े
उड़ने दो मेरे राजहंसों को
अब ...उन्मुक्त...!!

      —उषा किरण 
रेखाँकन; उषा किरण 





सोमवार, 2 जुलाई 2018

कस्तूरी



हरसिंगार
जूही,चंपा,चमेली
रात की रानी
महकती है सारी रात
मेरे आंगन में
या शायद...
तकिए या चादर में ?
नींद से लड़ती
चांद-तारों को डपटती
चांदनी से लिपटती
सारी रात
पलटती रही करवट
अकुला कर उठ बैठी
खुद को सूंघा...
अरे !
यह सुगंध तो झर रही थी...
इसी तन के उपवन से
या शायद
मन के प्रांगण से
या शायद
मेरी ही नाभि से...
कहीं दूर कबीर गा रहे हैं
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी...!!

मंगलवार, 29 मई 2018

जब तक


सुन लो               
जब तक कोई 
आवाज देता है
क्यूँ कि...  
सदाएं  एक वक्त के बाद 
खामोश हो जाती हैं 
और ख़ामोशी .... 
आवाज नहीं देती!!
                  -----उषा किरण 













शनिवार, 26 मई 2018

इन दिनों...

इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच बैठ
खेलने लग जाती हूं घंटो
कैंडी-क्रश
रास्ते में गाड़ी रोक
टिक्की- गोलगप्पों के चटखारे ले
कुल्फी चूसती घर आती हूं
नाक सिकोड़ कहती हूं दाल चावल से
`नहीं भूख नहीं अभी’!
रात के दो बजे तक इयरफोन की आड़ में
सुनती हूं गीत...गजल...कहानियां
भटकती रहती हूं फेसबुक
ब्लॉग या इन्स्टाग्राम की गलियों में
लगभग सारी रात
जब तक एक भी रेशा बाकी है
नींद का पलकों पर
सोती रहती हूं
चादर तान कर लम्बी
आठ...नौ...या दस
कितने भी बजे तक
`हुंह बजते रहें...
रोज ही तो बजते हैं ...’
बाथरूम में बन्द हो घंटों
करती हूं गाने रेकॉर्ड...
अपने मोबाइल पर
कमरा बंद कर याद करती हूं
बचपन में सीखे
कत्थक के स्टैप
और...तलाश जारी है
एक सितार टीचर की
आदि की चॉकलेट कुतर लेती हूं
थोड़ी सी
लड़ता है वो..`नानी गंदी हैं ’
सुबह...दोपहर...रात कभी भी
जब मन हो नहाती हूं
ठाकुर जी झांकते रहते हैं पूजाघर से
स्नान-भोग के इंतजार में
जब मन होता है भाग जाती हूं
बैग उठा कर
दिल्ली...मुरादाबाद...गुड़गांव
या कहीं भी...
मन होता खिलखिलाती हूं
मन होता है रोती हूं
कोई नॉवेल लेकर घंटों
पड़ी रहती हूं औंधे
तकिए पर
या टी०वी० पर देखती हूं लगातार
दो मूवी एक साथ...
सालों साल घड़ी की सुइयों पर सवार
भागी हूं बेतहाशा
पर अब
चल रही हूं मैं
अपनी घड़ी के हिसाब से
सच...
इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं
मैं !!!







बहादुर लड़की


एक नन्हे से पौधे की ओट में
मीलों चली है वो
आसमान पर तपता सूरज
नीचे जलती जमीन
एक पग धरती है
दूसरा उठा लेती
दूसरा धरती है तो
तिलमिला कर
पहला उठा लेती है
पैर छालों से भरे हैं
मन भी...
कुछ छायादार पेड़
दिखते हैं दूर-दूर
मन करता है दौड़ जाए
टिक जाए कुछ देर
या हमेशा को....
फिर देखती है हाथ में पकड़े
उस नन्हे पौधे को
नहीं ! अभी नहीं....
बुदबुदाती है होठों में
अभी चलना ही होगा
दूर क्षितिज के पास
हरियाली की गोद में
रोपना है इसे
सूरज ढलने से पहले...
और...
वो बहादुर बेटी
निरन्तर
चल रही है मीलों
तपती बंजर जमीन पर...!!!
                        ___उषा किरण

मंगलवार, 22 मई 2018

सच कहना !




ए चाँद सच कहना
देखो ,झूठ न बोलना
कल
छिटकी देखी तुम्हारी 

चांदनी से बुनी चूनर 

तारों की पायल

 मैंने भी उठ 

एक दीप जलाया 

मेरा नन्हा सा मन 

हुलसा उठा  

बस तभी से 

गुम हो तुम 

सच कहना 

तुम जल गए न

हाँ चाँद 

जल गए हो तुम !
                          __ उषा किरण 










सोमवार, 14 मई 2018

मुनाफा

विदा के बाद 
समेट रही थी घर, 
दोने, पत्‍तल, कुल्‍हड 
ढोलक, घुंघरू, मंजीरे 
सब ठिकाने पहुंचाए 
सौगातें बांटी 
भाजी सबके साथ बांधी 
फुर्सत से
डायरी उठा 
हिसाब लेकर बैठी 
कितना खर्चा 
कितना आया 
हैरान थी 
घटा कुछ भी नहीं था 
बेटी तो आज भी 
उतनी ही 
अपनी थी 
ब्‍याज में 
एक अपना सा 
बेटा भी
पीछे
मुस्‍कुराता खडा था।

सलीका

घिरे आते तिमिर को उसने
डर कर धूरते कहा
“क्या होगा कल बच्चों का”
उसके कमजोर कांपते हाथों को
अपनी पसीजी हथेली में थाम
सजल नयन मैंने कहा-
“वही... जो होना है 
क्‍या सोचते हो तुम
क्‍या ये तुमसे पलते हैं “!
उंगली उठाकर मैंने अनंत को देखा
फिर, थोडा सा हंसकर कहा
“यह सब पहली बार तो नहीं 
न जाने कितनी नावों में
कितनी बार... “?
उसने आसमानी उंचाइयों को
अदब से देखा
अाश्‍वस्‍त हो मुस्‍कुराया
और इस तरह
सारी उम्र जीने का सलीका तुमसे सीख कर भाई
तुम्‍हें मरने का सलीका 
सिखा रही थी
मैं !!!




मन्नत

एक रोटी बनाऊं 
चांद जितनी बडी 
जिसमें सब भूखों की 
भूख समाए, 
चरखे पर कोई
ऐसा सूत कातूं 
कि सब नंगों का 
तन ढक जाए 
मेरी छत हो 
इतनी विशाल
जो सभी बेसहारों की
गुजर हो जाए 
कुछ ऐसा करो प्रभु 
कि आज
ये सारे सपने 
सच हो जाएं।


एकलव्य

एकलव्‍य 
वे भी थे 
एकलव्‍य ये भी हैं 
फर्क सिर्फ इतना है
वो अंगूठा काट देते थे 
ये अंगूठा
काट लेते हैं।



अहम्

लहर बार-बार आकर 
लडती है, झगडती है 
मैं हूं... मैं हूं... 
पर- 
सागर मौन रहकर 
बस माैन ही रहता है।



सोच का स्वेटर

सोच का स्‍वेटर

बचपन से बुना
बडा बेढब 
इतना बडा 
नहीं किसी काम का 
पर करें क्‍या ?
सोच की सिलाइयों की
आदत है बुनने की
रूकती ही नहीं, बस... 
बुने ही जाती है

राखी




लो बांध लिए बहनों ने
भाइयों की कलाइयों पर
प्यार के ,आशीष के
रंग -बिरंगे धागे...
मना कर उत्सव पर्व
लौट गए हैं सब
अपने-अपने घर
रोकी हुई उच्छवास के साथ
हृदय की गहराइयों में संजोई
प्यार,स्नेह के सतरंगी रंगों से रंगी
आशीष के ,दुआओं के
धागों से बुनी...
तारों की छांव में
विशाल गगन तले
खड़ी हूं बांह फैलाए
तुम्हारे असीम भाल पर
लाओ तो
लगा कर तिलक दुलार का
बांध देती हूं मैं भी
राखी अब...
अपनी कलाई बढाओ तो
भैया !

तुम होते तो




जब भी
अटक गई चलते-चलते
अब ....?
कोई रास्ता
नजर नहीं आता जब
छा जाते हैं बादल
घाटियों में
मन पाखी फड़फड़ाता है
आंखें ढूंढ़ने लगती हैं तुम्हें
चहुं ओर...
ऐसा नहीं कि
खुशियां छूती न हों अब
ऐसा भी नहीं
कि गीत नहीं जीवन में...
पर क्या करूं
वो जो अन्तर्गोह है न
पहुंचती नहीं वहां
कोई एक किरन भी कभी
घना कुहासा छाया है वहां
तुम्हारे जाने के बाद से ही
सारी किरणें जो ले गए तुम
अपनी बंद मुट्ठी में
.........
फूल तो आज भी खिलते हैं
गीत आज भी गूंजते हैं
पहले की तरह
पर तुम होते आज तो
रंग ,राग,सुवास
कुछ और ही होते

रविवार, 13 मई 2018

मॉं

सारे दिन खटपट करतीं 
लस्‍त- पस्‍त हो 
जब झुंझला जातीं 
तब 
तुम कहतीं- 
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी 
कभी कहतीं- 
देखना मर कर भी चैन कहां? 
एक बार तो उठ ही जाऊंगी 
कि चलो
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते
तुम्‍हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्‍यों कि
हम अच्‍छी तरह जानते थे 
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम 
आज... 
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं 
तो कहीं
मन के कोने में छिपी 
आंचल में मुंह दबा 
तुम धीमे-धीमे 
हंसती हो मां!

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...