ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

रिटायरमेंट के साइड इफ़ेक्ट



#रिटायरमेन्ट_के_साइड_इफैक्ट

लेट निशाचर सोने वाले
हम लेट सवेरे उठते
जाने कैसे छै बजे बस
आज सवेरे उठ गए
सोचा चलो बहुत हुआ 
अब सूर्योदय दर्शन कर लें !

हरी चाय का कप ले हम
फौरन छत के ऊपर पहुँचे
इधर- उधर देखा लेकिन
सूर्यदेव कहीं न दिखते
आँख बन्द कर नाक दबा 
अनुलोम- विलोम करते
तब`इनकी’ओर हम पलटे
थे ये बेहद हैरान -परेशाँ
आज सुबह-सुबह ही कैसे
ये कयामत ऊपर आयी 
राम ही जाने आज सूरज 
जाने किधर से निकले भाई ?

अकड़ के पूछा इनसे हमने
कहाँ है सूरज साढ़े छै हैं
देखो अब तक गैरहाजिर हैं
एक आँख से देख हमें तब
ये धीरे से कुछ बुदबुदाए
`पॉल्यूशन के कारण भाई’
हैं ! ये भी कोई बहाना है
पॉल्यूशन से बोलो कोई
गायब  कैसे हो सकता है
साढ़े छह तक भी कोई 
इस तरह पड़ा सोता है?

दोनों आँखें बन्द किए फिर
झट चुप्पी इनने साधी
जल्दी जल्दी छत पर हमने  
दो चार फिरकियाँ काटीं
इतने में मुँह लाल किए
प्राची  से आँखें मलते
दिखे वे धीरे - धीरे आते !

ये भी कोई वक्त भला है
जब सारी दुनिया जागे
और तब तुम भरी दुपहरी
अब धीरे- धीरे आते ?
देख हमारी शकल सलोनी
वे जल्दी- जल्दी भागे
दस मिनिट में ठीक हमारे
सिर ऊपर आ विराजे !

अरे भई,पहले देर से उठते 
फिर जल्दी- जल्दी भगते
सारी छत पर धूप बिखेरी
अब जल्दी क्या है इतनी
अब तुम ही भला बताओ
हम वॉक कैसे कर पाएं
कुछ तो ढंग की बात करो
क्यूँ चाल बेढंगी चलते !

नाक उठा सूरज से जब
यूँ  हमको भिड़ते देखा
झट बीच में कूद पड़े ये
सूरज पे दिखाते ममता
अरे नाहक इतनी जल्दी
उठ कर क्यों ऊपर  आईं 
कुछ देर और सो लेतीं
सुबह- सुबह क्यों तुमने
इतनी तकलीफ़ उठाई 
सूर्योदय का तो रोज
बस यही वक्त है भाई !

जब उठ ही गईं तो आओ 
मिल कर प्राणायाम करें
देखो तितली भंवरे चिडिएं
कैसा मीठा गुनगुन गान करें 
हम नाक दबा बैठे बेशक थे
पर आँख हमारी ऊपर थी 
अनुशासन-पाठ पढ़ाने की
बस आज हमने ठानी थी !

कल से वक्त पर आना तुम 
वर्ना अनुपस्थिति लगाएंगे
ठीक सुबह के पाँच बजे तुम
सूर्योदय कल से लाओगे!’
हमने आँख निकाली जमकर
उनने धीरे से मुँडिया हिलाई
इनने हमसे चोरी छुप कर 
उसे एक आँख दबाई !

अगली सुबह उठे आठ पर
हड़बड़ कर छत पर भागे
अटेंडेंस का ले रजिस्टर 
छत के ऊपर जा बिराजे
जाकर पूछा सख्ती से
तुम कितने बजे थे जागे
अरे,ठीक पाँच बजे थे
जब ये आए भागे-भागे 
बोले धीरे से पति हमारे
उधर सूरज बगलें झाँके !

चलो तुम आ जाओ नीचे
हम चाय बनाने जाते हैं
रिटायरमेन्ट के बाद अब
ज़िम्मेदारी हम पर भारी है
सूरज-चाँद जगें समय पर
और समय पर जा सोएँ
दसों दिशाएं चौबस्त रहें
नदिएं व सागर ठीक बहें !

कल से तुमको इन सब पर 
करनी निगरानी जारी है
हम ही दोनों पर अब देखो
बस ज़िम्मेदारी भारी है !
बिल्कुल सही कहा मैडम
ऐसा ही होगा बस अब
कपालभाती थोड़ा कर
पीछे-पीछे आते  हम !

आँख तरेर घूरा तब हमने
अबके थी इनकी बारी 
बूढ़े हो गए तुम फिर भी
कपालभाती न कर पाते
पेट अंदर साँस हो बाहर
स्वामी रामदेव बतलाते
बेवकूफ न हमको समझो 
हम भी हैं चतुर -सयाने 

और खूब बिगाड़ो तुम इनको  
सब कारिस्तानी तुम्हारी है
इतने भोले तुम न बनो
सब हरकत मनमानी है
पहले तुमने बिगाड़े बच्चे
अब चाँद सूरज की बारी है...!’

                                  — उषा किरण




                                  


मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

तो सुनो...!


 पार्क, स्टेशन, सड़क हो 

या बाजार

ये जो तुम हर जगह मुझसे 

बीस कदम आगे चलते हो न

नाक की सीध में एकदम

सीना तान कर

सतर कन्धे

हथेली पर सूरज उगाए

और सोचते हो कि 

आगे हो मुझसे...?


गलत सोचते हो तुम

बिल्कुल गलत

मैं और बीस कदम 

अपनी मर्जी से पीछे होकर

कहीं छिप जाऊँ अगर

तो क्या हो 

सोचा है कभी ?


अपनी हथेलियों में ये जो तुम

सूरज की दिपदिपाहट लिए

दर्प से घूमते हो ,

तुम्हारे आँगन में ओस से भीगे

चाँदनी में नहाए महकते 

प्रार्थनारत ये हरसिंगार ,

पिंजड़े में चहकती मैना,

द्वारे चटकते गुलमोहर

और अमलतास की धमक

नाते-रिश्तों की सरगोशियाँ 

ये महफिलों और

उत्सवों की रौनकें 

आंगन में सजे इन्द्रधनुष 

खान - पान के वैभव

और सुकून की नीदें ...

ये सब भी छिप जाएंगी 

उसी पल !


लम्बे डग भरते

तुम जो ये सोचते हो न कि

तुमने मुझे पीछे छोड़ा हुआ है 

तो सुनो -

गलतफहमी है तुम्हारी 

सच तो ये है कि 

पीछे तुमने नहीं छोड़ा 

बल्कि...

मैंने ही अपने माथे का सूरज

तुम्हारी हथेली में रोप

तुमको आगे किया हुआ है ...!!

                                — उषा किरण 

फोटो : प्रणान सिंह की वॉल से साभार

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

चिट्ठी

 



चलो  चिट्ठी लिखते हैं
तुम मुझे लिखना
मैं तुमको लिखूँगी
अत्र कुशलम् तत्रास्तु
से शुरू करेंगे
और अन्त में 
बड़ों को प्रणाम
छोटों को प्यार लिखेंगे
और बीच में 
ढ़ेरों सतरंगी रंग भरेंगे
फिर प्यार से 
होठों पर टिका 
जीभ से नमी दे
लिफ़ाफ़ा बन्द कर
उस पर तेरा नाम और
डायरी में ढूँढ कर 
पता लिखेंगे 
फिर चौखट पर टिक 
कई दिनों तक 
बेसब्री से 
जवाब का इंतजार करेंगे
और इस तरह 
कई दिन तक हम
एक दूसरे के 
खयालों की खुशबू में
भीगे रहेंगे...!!
                             - उषा किरण 


सोमवार, 7 सितंबर 2020

#तस्मै_ श्री_ गुरुवे_नम: ( अन्तिम भाग)🌸🌼🌸🌼☘️🌿

                 

मथुरा में पाँच साल पापा की पोस्टिंग रही ।बी. ए. में किशोरी रमण कॉलेज में एडमिशन लेकर बहुत सुखद अहसास हुआ डिग्री कॉलेज का स्वतन्त्र माहौल बहुत माफ़िक़ आया।कभी भी आने-जाने की व क्लास  से बन्क मारने की स्वतन्त्रता  बहुत सुकून देती थी।वहाँ की कैंटीन जैसे समोसे हमने कहीं नहीं खाए।मैं , मन्जु और बृजलता खाली पीरियड में समोसे खाते थे !

कॉलेज की बाउन्ड्री नीची थी और खाली पीरियड नें लड़किएं ग्राउंड में चहकती रहती थीं । कॉलेज के बाहर साइकिलों पर लड़के मंडराते रहते थे । वाइस प्रिंसिपल लीला मैडम बहुत कड़क पर्सनैलिटी थीं , हमेशा सिर के ऊपर बीच में गुलाब का फूल लगातीं थीं ,वो लड़कों को हड़काती रहती थीं । कॉलेज की व्हाइट यूनिफ़ॉर्म थी तो लड़के बाउन्ड्री की वॉल पर बड़ा- बड़ा 'विधवा-आश्रम’ लिख जाते थे।डॉ० सरोजनी मैडम प्रंसिपिल थीं उनका सब्जैक्ट हिन्दी था , वो प्राय: कभी भी  शौकिया महादेवी वर्मा पढ़ाने आ जाती थीं और पढ़ाते- पढ़ाते बड़ी रोमान्टिक हो जाती थीं ।हम सब खूब एक दूसरे को इशारे करते और मजे लेते ।लीला-मैडम,कुसुम सिंह मैडम,निर्मल मैडम आदि सभी की स्मृतियाँ आज भी सजीव हैं।मेरे भाग्य से उसी साल वहाँ पर ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग खुल गया था जिसकी क्लास में मेरा सबसे ज़्यादा मन लगता था।बहुत जल्दी ही कुसुम सिंह मैडम की फेवरिट स्टुडेंट हो गई।वहाँ की सभी टीचर्स को नमन🙏 

मैं एम. ए. पेन्टिग से ही करना चाहती थी लेकिन वहाँ इसमें एम.ए.न होने के कारण मैंने अपनी फ्रैंड बृजलता के साथ संस्कृत में फ़ॉर्म भर दिया।कॉलेज में कैजुअल क्लासेज़ की व्यवस्था के तहत तीन टीचर्स की नियुक्ति की गई थी कुल पाँच बच्चे थे हम।ख़ूब मन लगता था क्लास में क्योंकि जहाँ भी ज़बर्दस्ती का क़ैद जैसा अनुशासन हो वहाँ दम घुटता था और यहाँ संस्कृत साहित्य और फिलॉस्फी की  क्लास में जो पेड़ों के नीचे  खुले में होती थीं आनन्द आता था ।वेद व भारतीय दर्शन की क्लास श्रद्धेय वनमाली शास्त्री जी लेते थे जिन पर मेरी अगाध श्रद्धा थी ।हालाँकि वे कभी भी स्कूल नहीं गए पर प्रकान्ड पन्डित थे।वे सचमुच में योगी ही थे।उन्होंने इतनी अच्छी तरह से गूढ़ ग्रन्थों को समझाया जो आज तक याद है।

एम. ए. फ़ाइनल में वे क्लास होनी बन्द हो गईं और मेरी फ्रैंड ने बृन्दावन में एडमिशन ले लिया पर मेरा बस से डेली सफर करने का मन नहीं था तो हमने शास्त्री जी से अनुरोध किया कि वो हमें घर पर पढ़ा दिया करें और उन्होंने स्वीकार कर लिया वे हमें रोज़ पढ़ाने आते थे हमने ऑप्शनल पेपर में फिलॉस्फी भरा था ।आचार्य जी का औरा इतना दिव्य था कि उनके पास बैठ कर पढ़ने में अलौकिक अनुभूति होती थी।जब पापा उनकी फ़ीस का लिफ़ाफ़ा पकड़वाते तो वे बेहद अपराध- बोध से भर जाते थे अत: जैसे ही पापा लिफाफा देने आते हम उठ कर चले जाते थे।

एग्ज़ाम को बस चार दिन रह गए थे और मीमांसा की किताब बाक़ी थी हमें बहुत घबराहट हो रही थी कई बार पढ़ने की कोशिश का पर समझ नहीं आ रहा था कुछ ! आचार्य जी ने कहा टेन्शन मत लो सब हो जाएगा।दो दिन पहले उन्होंने कहा कि आज मीमांसा कराएँगे तुम किताब बन्द कर रख दो और बस ध्यान से सुनती रहो।वो बोलते रहे हम सुनते रहे ।पूरी किताब पर डेढ़ घन्टे का लेक्चर देकर कहा कि बस एक बार पढ़ लेना और जो सुना- समझा है अपने विवेक से लिख आना ! हमने ऐसा ही किया !

बी.आर.कॉलेज ,आगरा में सेन्टर था तो पेपर वाले दिन सुबह ही आगरे के लिए निकल जाते थे ।फिलॉस्फी का पेपर बहुत अच्छा आया था लेकिन चार ही प्रश्न का उत्तर लिख पाए और घन्टी बज गई हमारी सासें रुक गई मानो...पर धड़ाधड़ लिखते रहे ! सब बच्चे चले गए कॉपी जमा करके ! एक टीचर भी चले गए पर दूसरे चुपचाप कुर्सी पर बैठे रहे न उन्होंने हमसे कॉपी माँगी न हमने दी ! हम बार- बार डर के उनको देख रहे थे वो गॉगल्स लगाए मुँह में पान दबाए शान्ति से बाहर देखते बैठे हमें किसी देवदूत से कम नहीं लग रहे थे ! पूरे बीस मिनिट एक्स्ट्रा लेकर हमने आन्सर पूरा लिखा कॉपी देकर सर को बार- बार थैंक्यू बोला वो मुस्कुरा कर कॉपी समेट कर चले गए ! 

जिंदगी भर उन अनजान टीचर को नहीं भूल सकी ! उस पेपर में दोनों सालों के सभी पेपर्स से सबसे ज्यादा मार्क्स आए ! उनसे मैंने सीखा कि टीचर का सम्वेदना- पूर्ण व्यवहार स्टुडेंट के मन में अगाध श्रद्धा व उदारता के प्रति आस्था के बीज बो देता है ।पूरी जॉब के समय एग्जाम की ड्यूटी में मैंने कभी भी स्टुडेंट से टाइम पूरा होने पर कॉपी नहीं छीनी अपितु उनके रिक्वेस्ट करने पर उन अनजान टीचर को याद कर कुछ टाइम एक्स्ट्रा भी दे देती थी और स्टुडेंट के प्रति सहृदय भी रहती थी।तो नमन आचार्य जी को और उन अनजान टीचर को और उनकी सम्वेदना को भी , 🙏

पापा का ट्रान्सफर फिर ग़ाज़ियाबाद हो गया और वहाँ पर एम एम एच कॉलेज में मैंने एम ए ,ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग में एडमिशन ले लिया और मेरा बरसों का सपना पूरा हुआ।मैं और मेरी फ्रैंड लता घन्टों लाइब्रेरी में नोट्स बनाते थे।और के. डी. पान्डे सर को चैक करने के लिए देते थे तो सर चैक कर लौटाते समय नोट्स की तारीफ़ करते थे कुछ लड़कों ने हमसे एक दिन नोट्स माँगे हमने मना कर दिया तो चिढ़ कर एक दिन ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिया "उषा किरण इज माई फ्रैंड” ।हम अपनी फ्रैंड्स के साथ बातों में मस्त थे तो नहीं ध्यान दिया ।

पान्डे सर ने क्लास में आते ही देखा और बोले अरे ये किसने लिखा है और ब्लैक बोर्ड साफ़ कर दिया ।हमने जैसे ही पढ़ा मारे ग़ुस्से और अपमान से हमारा मुँह लाल हो गया और हम रुआँसे होकर नीचे मुँह करके बैठ गए। आज से बयालीस साल पहले लड़के और लड़कियों की दोस्ती को अच्छा नहीं समझा जाता था।

सर ने हमें देखा तो बोले कि "अरे तुम क्यों परेशान हो रही हो कोई दोस्ती करना चाहता होगा कह नहीं पाया तो लिख दिया ।”

फिर कहा "तुम इतना क्या सोच रही हो देखना एक दिन तुम किसी ऊँची कुर्सी पर बैठी होगी और ये सब### लगे होंगे कहीं लाइन में !”

फ़ाइनल में हमारी शादी हो गई हमने बहुत कहा कि एम. ए. के बाद करेंगे लेकिन लड़का मिल चुका था और पापा चाहते थे कि रिटायरमेण्ट से पहले ही शादी कर दें तो हो गई शादी और हमने आर.जी.कॉलेज,मेरठ में ही एडमिशन ले लिया जहाँ शुरु में स्टुडेन्ट और टीचर्स ने हमें एकदम ही नकार दिया।न टीचर को हमारा काम पसन्द आ रहा था न ही कोई फ्रैंड थी । एम. एम. एच.कॉलेज में हम क्लास के बेस्ट स्टुडेंट थे ,कहानी और कविता भी छपती थीं तो क्लास में व टीचर्स में अलग प्रतिष्ठा थी , रुतबा था और यहाँ हमें कौड़ियों के भाव तोला जा रहा था ।हमने पढ़ाई के कारण हनीमून पर जाने के लिए भी मना कर दिया था ।टीचर्स की अवहेलना और तिरस्कार से आत्मविश्वास कीं धज्जियाँ उड़ गईं ...डिप्रेशन में आने लगे ...हर समय रोना आता था ।ऊपर से क्लास में हम अकेले मैरिड थे तो एक अलग ही प्रजाति के नजर आते थे ।नई शादी , बड़ी सी जॉइन्ट फैमिली और कॉलेज का स्ट्रैस बहुत अधिक था।तब मेरे हस्बैंड मुझे अपने दोस्त मेरठ कॉलेज के पेन्टिंग के प्रोफ़ेसर डॉ. आर. ए. अग्रवाल सर के पास ले गए जिन्होंने थ्योरी में मेरी मदद की।पूरे परिवार से बहुत अपनापन व प्यार मिल भाभी जी का सरल व प्यार भरी आत्मीयता सुकून देती थी तो बच्चे भी खूब घुल- मिल गए।

प्रैक्टिकल के लिए मेरठ कॉलेज के प्रोफ़ेसर  डॉ.दिनेश शर्मा सर और उनकी पत्नी डॉ. सुधा शर्मा मैडम जो आर. जी कॉलेज में ही प्रोफ़ेसर थीं उनसे भी उनका परिचय था तो उनके पास ले गए ।वो लोग ट्यूशन नहीं करते थे पर रिक्वेस्ट करने पर हमें पेन्टिंग सिखाने के लिए राज़ी हो गए ।हम उनके घर पर जाकर पेंटिंग सीखने लगे और बहुत जल्दी ही बच्चों से और उन लोगों से आत्मीयता हो गई। उन लोगों से न सिर्फ़ पेंटिंग सीखी और बहुत कुछ सीखा ।सुधा दीदी से अचार बनाने के व कुछ किचिन के टिप्स भी मिले और पूरे परिवार का स्नेह मिला । मेरठ में दो आत्मीय परिवारों सेघुलना -मिलना ,आना- जाना हुआ जो आज भी क़ायम है कॉलेज में भी कुछ दोस्त बन गईं और मन लगने लगा।पेन्टिंग में एम. ए. करते जिन गुरुजनों ने मदद की सभी को सादर नमन ।🙏

एम. ए. करते ही आर.जी .कॉलेज में ही ट्यूटर की पोस्ट पर हमारा सिलेक्शन हो गया और हमने टीचिंग की शुरुआत की।राका मैडम, सविता नाग मैडम, सुधा मैडम,सावित्री मैडम ,मृदुला मैडम,सुषमा मैडम के साथ स्टाफ़ रूम में साथ चेयर शेयर करते कितनी ख़ुशी मिलती थी बता नहीं सकते ।सभी टीचर्स का प्यार व आत्मीयता भरे व्यवहार के कारण खोया हुआ आत्मविश्वास दुगना होकर वापिस आया ।

सभी से भरपूर स्नेह व मार्गदर्शन मिला और आगे जाकर परस्पर मित्रवत् सम्बन्ध विकसित हुए।सबिता नाग मैडम ने "कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन “ की स्थापना की तब उनके साथ कई शहरों में प्रदर्शनी लगाईं और कई वर्कशॉप अटैंड कीं ! हम कभी सुस्त पड़ते तो वे प्रोत्साहित कर पेन्टिंग बनवा लेती थीं ।डॉ. आर ए अग्रवाल सर के साथ पी-एच .डी .की और फिर मोदीनगर में जी डी एम पी जी कॉलेज नया खुला था उसमें परमानेन्ट जॉब लग गयाऔर उस कॉलेज की प्रथम टीचर बनने का सौभाग्य मिला !

एक बार मेरठ कॉलेज में सेमिनार अटैंड करने गई तो डॉ. आर ए अग्रवाल सर ने बातों ही बातों में कहा एक दिन आपको यहाँ आकर हैड की कुर्सी सम्भालनी है देखिएगा मैं आपको ही चार्ज सौंपूँगा। सत्रह साल बाद मेरा ट्रान्सफर मेरठ कॉलेज में हो गया और तीन साल बाद अग्रवाल सर ने मुझे जब चार्ज सौंपा तो वो ही बात याद दिलाई कि देखिए मैंने पहले ही कह दिया था कि एक दिन हैड का चार्ज आपको ही सौंपूँगा ! पान्डे सर एक बार प्रैक्टिकल के एग्जामिनर  बन कर डिपार्टमेन्ट आए तो बोले -

“मुझे बहुत गर्व है तुम पर जहाँ का मैं स्टुडेन्ट था आज तुम वहाँ कि हैंड ऑफ दि डिपार्टमेंट हो !” उन्होंने उस दिन क्लास में जो उद्घोषणा की थी वो भी याद दिलाई और बधाई दी। आज सर नहीं हैं पर मैं उनको मन ही मन श्रद्धांजलि देती हूँ ।

मैं चार्ज लेते ही बहुत बीमार रही पूरे वर्ष भर इलाज चला तब डॉ आर ए अग्रवाल सर ने रिटायर होने के बाद भी कई दिन चलने वाले हर प्रैक्टिकल में आकर मदद की और हमेशा  हर समस्या का निराकरण किया। डॉ सुधा मैडम व डॉ दिनेश सर कुछ साल बाद अमेरिका चले गए थे पर जब भी इंडिया आते हैं मैं अब भी उनसे बहुत कुछ सीखती हूँ वाक़ई वे बहुत अच्छे आर्टिस्ट हैं।

इस साल रिटायर हो गई ।पुरानी यादों के साथ अपने सभी गुरुजनों को ये मेरी भावान्जलि है ,! सच में मुझे मेरे गुरुओं का आशीर्वाद बहुत फला है !

तो सभी गुरुजनों को मेरा धन्यवाद !

धन्यवाद मेरे जीवन को दिशा देने के लिए!

धन्यवाद मेरे सपनों को पूरा करने में मेरी मदद करने के लिए !

और मुझे मान-सम्मान पूर्ण जीवन यापन में मदद करने के लिए धन्यवाद और नमन !🙏

और अन्त में मेरे उन सभी आध्यात्मिक गुरुओं विशेषत:पूज्य स्वामी शंकरानन्द जी और पूज्य स्वामी सुबोधानन्द जी को मेरा नमन जिन्होंने अज्ञान से ज्ञान की तरफ़ ले जाने वाली राह दिखाई ...!

                             गुरु बिन ज्ञान न उपजै,

                             गुरु बिन मिलै न मोष।

                             गुरु बिन लखै न सत्य को,

                             गुरु बिन मिटे न दोष॥

               सभी गुरुओं के चरणों में मेरा सादर नमन 🌼🌸🌼🌸🌼🌸🌼🌸🙏                           














                                                                                                                              


शनिवार, 5 सितंबर 2020

#तस्मै_श्री_गुरुवे_नम:🌸🌼🌺☘️🌿


"गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।

गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।”

आज इस मुकाम पर आकर जब पलट कर देखती हूँ तो अपने गुरुओं के प्रति मन श्रद्धावनत हो जाता है। हर इंसान के जीवन में उसके गुरुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती ही है । हम अपने आदर्श गुरुजनों का अनुकरण करते हैं तो कभी उनका प्रोत्साहन हमें जीवन में कुछ बनने को प्रेरित करता है।

हमारी पीढ़ी की गुरुजनों पर जैसी श्रद्धा थी उतनी तो आज नहीं देखने को मिलती लेकिन फिर भी आज भी कई शिष्य हैं जो गुरुओं का बहुत सम्मान करते हैं , अपना आदर्श मानते हैं और परम्परा का निर्वहन करते हैं !मेरे जीवन में ऐसे अनेक शिष्य आए हैं !

यदि अपने गुरुजनों को याद करूं तो  पीलीभीत में घर पर ट्यूशन पढ़ाने आती थीं जो सफेद साड़ी में बेहद सौम्य टीचर जी उनकी याद आती है ...जिनके साथ हम दोनों बहनें एक बार माँ के साथ ‘अनपढ़ ‘ फिल्म देखने गए थे । मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी खूब रोई देख कर । घर आकर टीचर जी ने समझाया कि पढ़- लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना क्यों जरूरी है । 

उस फिल्म में अनपढ़ माला सिन्हा की दुर्गति देख समझ आया पढ़ाई क्यों जरूरी है वर्ना उससे पहले तो लगता था बस पेरेन्ट्स और टीचर हमारे दुश्मन ही हैं और टॉर्चर करने के लिए ही ये पढ़ाई-लिखाई होती है । छोटी क्लास में तो स्कूल बहुत रो-धो कर ही जाते थे।कभी पेट दर्द का बहाना कभी उल्टी का ।कई बार तो जोर- जोर से रो धोकर इतना ड्रामा खड़ा कर देते कि लोग छतों से देखने आ जाते तो लगता अब तो बहुत बेइज्जती होगी अगर चले गए तो पर उठा कर रिक्शे में लाद दिए जाते थे ! कई बार रिक्शे के आते ही खुद को टॉयलेट में बन्द कर लेते थे ।ताता(पापा) के ऑफिस जाने पर अम्माँ कहतीं 

"अरे उषा आ जाओ गए तुम्हारे ताताजी निकल आओ” तब निकलते और बस फिर पूरा दिन आजाद हम और हमारी मस्ती !परन्तु इसके बाद निश्चय किया कि अब मक्कारी नहीं करेंगे मन लगा कर पढ़ेंगे।

पीलीभीत में कक्षा छै: में पढ़ते थे तब डाँस के मास्टर साहब आते थे कत्थक सिखाने और हम माँ के कहने पर ता थेई थेई तत ...करते पर जरा भी एन्जॉय नहीं करते थे क्योंकि वो टाइम कॉलोनी के बच्चों के साथ मिल कर ऊधम मचाने और खेलने का होता था ,जिसमें कुछ टाइम की कटौती हो जाती थी तो हम दोनों बहनें मिल कर मास्टर साहब को छकाने की नई- नई योजनाएं बनाते रहते थे।आज इस उम्र में न जाने क्यों मन घुँघरू बाँध फिर से ता थेई थेई तत...करने को मचलता है ।

हमारे डाँस का प्रोग्राम स्कूल में करवाने के लिए प्रिंसिपल से परमीशन लेकर मास्टर साहब ने खूब जम कर प्रैक्टिस करवायी पर जैसे ही हम अपनी कत्थक की पिंक ड्रेस पहन घुँघरू बाँध धड़कते दिल से स्टेज पर आए तो पता नहीं किस बात पर वाइस प्रिंसिपल और मास्टर साहब में झगड़ा शुरु हो गया और हम चुपचाप स्टेज से नीचे उतर आए अब तो याद नहीं कारण झगड़े का क्या था पर मास्टर जी ने जम कर झगड़ा किया था मैडम से ...नमन है मास्टर साहब की सादगी और लगन को🙏


पीलीभीत के स्कूल में ही मैडम थीं कोकिला देवी जिनकी बहुत सी मट्ठे व नीबू अचार की मजेदार चटपटी यादें हैं पर रहने देती हूँ उनको शेयर नहीं करती...नमन उनको भी 🙏

उसके बाद बलिया में आठवीं क्लास में जो मास्टर साहब घर ट्यूशन पढ़ाने आते थे वो इतने गंभीर थे कि डर के मारे साँस साधे पढ़ते रहते थे । एक दिन फ़ाइनल एग्ज़ाम से दो दिन पहले मनोज कुमार की फिल्म ' उपकार ‘आई थी वो देखने चले गए । साढ़े नौ बजे तक लौट कर आए तो पापा ने फुसफुसा कर बताया कि -

"तुम्हारे मास्टर साहब ढ़ाई घंटे से बैठे तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं हमने कहा कि देर हो जाएगी आने में पर वो बोले कोई बात नहीं हम इंतजार करेंगे !”

हमें काटो तो खून नहीं ! लगा भाग जाएं घर से, कुछ कर लें ...हाय- हाय ये क्या कर दिया हमने ...सोचा था हमें न पाकर चले जाएंगे पर अब क्या करें? हमारा मन हाहाकार कर रहा था । 'मेरे देश की धरती उगले , उगले हीरे मोती...’ का सारा नशा काफूर हो चुका था! काँपते से गए तो मास्टर साहब ने मोटे चश्मे से देखा और कहा -

"देख ली पिक्चर ?”

"जी” हम काँपते गले से मिमियाए ।

"परसों तो पेपर है आपका...तो कोई नहीं ,आपका होम-वर्क ये है कि इतने कीमती तीन घन्टे में क्या देखा और क्या -क्या कीमती शिक्षा मिली विस्तार से लिखिए !”

और मास्टर साहब चले गए हम खूब रोए और माँ से लड़े कि तुमने हमें मना क्यों नहीं किया ...तो जिन्होंने बिना सजा दिए बहुत बड़ा सबक दे दिया ...नमन उन गुरु को भी 🙏

आठवीं क्लास में पापा का बीच सैशन ट्रान्सफर हो गया तो हमें और बहन को गाँव में कुछ महिनों को भेजा गया और वहीं एडमीशन करवा दिया गया।ताऊ जी कॉलेज मैनेजमेन्ट कमेटी में थे तो व्यवस्था की गई कि जो किताबें चेंज हुई हैं मास्साब उनको ही अलग से पढ़ा दिया करेंगे ।वहाँ शहर से आने के कारण बहुत रुतबा था अपना।एक दिन जब पानी पीकर लौटे तो देखा हमारी बड़ी बहन जी क्लास में खड़े होकर सबको बता रही थीं कि प्रेशर कुकर क्या होता है और बच्चे व मास्साब सब मुँह खोले सुन रहे थे क्योंकि कुकर तब नया- नया ही चला था !

गाँव का वह चार पाँच महिनों का शिक्षा- प्रवास बेहद मस्ती भरा रहा। कोई अनुशासन नहीं ,खूब मस्ती की हमने जी भर कर ! खेतों व बाग में सखियों की टोली संग डोलना , पेड़ पर चढ़ कर आम और जामुन तोड़ना...गुड़ियों के ब्याह रचाना, बिलउओं में ताई जी संग जाना और खूब नाचना-गाना ...ढेरों यादें हैं वहाँ की मस्ती की । वहाँ स्कूल में टाट पट्टी पर बैठते थे, कपड़े में किताबें बाँध कर ले जाते थे । लड़कों की इतनी बुरी तरह से पिटाई होती कि कई डंडियाँ टूट जातीं ...वो पिटते और बिलबिला कर चीखते ,रोते  और लड़किएं चुपके- चुपके मुँह छिपा कर मुस्कुरातीं पर हम काँपते और रोते रहते।

यूँ तो गाँव के हर आँगन में सपरी ( अमरूद) का पेड़ था पर 'कट्टी- बुआ’ के आँगन की सपरी के लिए व्याकुल होकर हर बच्चा पत्थर मार कर भाग जाता था क्योंकि वो फिर गाली बकती थीं ! और बिट्टा- बुआ को छेड़ने और गाली खाने के लिए नाक पर उंगली फिराना ही काफी होता था ! लेकिन हम इन उत्पातों से दूर ही रहते थे !

वहाँ के अमीन मास्साब यूँ तो रिश्ते में हमारे बब्बा लगते थे पर हमें बहुत बुरे लगते  थे पीछे पड़े रहते हमारे -

" काए कल्लू की बहू की मूँछ इतनी बड़ी और बिल्लू की बहू की पूँछ इत्ती लम्बी ,बस जे ही करने आईं तुम सहर से इहाँ , हैं कभी फुरसत मिले बिलउए से तो तनिक किताब भी खोल लिया करो बिटिया ...!”

कभी भी हमारे बस्ते में से कलमी अमिया निकाल लेते और चपरासी को बुला कर देते कि -"जाओ घर पर दे आओ मुंसाइन को कहियो बढिया चटनी बट लें हरी मिच्चा पुदीना डाल के !” हम कसमसा कर रह जाते ....उनको भी नमन🙏

फिर बुलन्दशहर में टैन्थ में घर पर म्यूजिक सिखाने आते थे श्री परमानन्द शर्मा मास्टर जी उनका विशेष स्नेह मिला वो दिल्ली से गोद में रख कर हमारे लिए तानपुरा लेकर आए थे । हम अपने गायन से जितने निराश रहते उनको हम पर उतना ही विश्वास था । उनके फेवरिट स्टुडेंट रहे !उनकी दिव्य स्मृतियों को सादर नमन🙏

एक  कजिन टैन्थ में ड्रॉइंग में फेल हो गई तो पापा ने सतारा से अपने पास बुला लिया ।उसको ड्रॉइंग टीचर सिखाने आते थे हमारे पास ड्राँइंग नहीं थी पर हम पूरे टाइम बैठ कर देखते रहते थे । एक दिन मास्टर साहब ने कहा कि कुछ बना कर लाओ हमने एक ड्राइंग बना कर दिखाई वो बहुत खुश हुए पापा को बुला कर कहा "मैं इसको भी सिखाउंगा इसका हाथ बहुत अच्छा है बेशक आप पैसे मत देना।” 

फिर हम भी सीखने लगे और इलैवेन्थ में हमने भी ड्राइंग ले ली जो बहुत मुश्किल से मिली सास्टर साहब के कहने पर माँ ने प्रिंसिपल को गारन्टी दी कि हमारे एग्जाम में सबसे ज्यादा नम्बर आएंगे ! पहले तो मैडम बहुत नाराज हुईं पर बाद में हम उनके फेवरिट स्टुडेंट हो गए ,इस तरह हमारे अंदर पेंटिंग की जड़ों को ढूँढ कर तराशने वाले श्रद्धेय अश्विनी शर्मा मास्टर साहब को नमन जिनके कारण लगभग चालीस साल तक ड्राइंग की टीचर रही और जीवन में यश, धन, आत्मविश्वास आत्मसम्मान व परम सन्तुष्टि प्राप्त कर सकी !🙏

ट्वैल्थ में थी तब पापा का ट्रान्सफर मथुरा हो गया और वहाँ हमारे होश उड़ गए । कई किताबें बदल गईं जैसे संस्कृत और हिन्दी की किताबें यहां दूसरी पढ़ाई जाती थीं और आधी किताब इलैवेन्थ में पढ़ा दी गई थी बाकी आधी ट्वैल्थ में पढ़ाई जा रही थीं हमें समझ नहीं आ रहा था क्या करें ? हमने जाकर मैडम से बात की तो उन्होंने कहा कि यहाँ वाली ही पढो़ पीछे का खाली पीरियड में आकर पढ़ लिया करो । 

अब समस्या म्यूजिक की आई क्योंकि क्लास में रागों की बंदिश दूसरी सिखाई जा रही थीं जबकि हमने दूसरी तैयार की हुई थीं ...खैर मास्टर साहब हमारा अलग से सुनते थे । उनका एक संगीत स्कूल था तो शाम को वहाँ जाकर सीखते थे ! शाम को तानपुरा लेकर प्रैक्टिस करते तो बाहर गली के उजड्ड बच्चे जोर - जोर से चिल्लाते 'सारे गधे पानी पी गए ‘😂 बाहर किसी सहायक को डंडा लेकर बैठाते तब प्रैक्टिस कर पाते थे ।वो संगीत मास्टर साहब ब्लाइन्ड थे पर बहुत मेहनत व पेशेन्स से सिखाते थे...उनको भी नमन🙏 

क्रमश:

सोमवार, 27 जुलाई 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 

                                                           
 ताना-बाना
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 


न जीवन मरता है
न सत्य
न झूठ
ना ही कल्पनाओं का संसार ...
पर समाप्ति की एक मुहर लगानी होती है, तभी तो एक नई सुबह का आगाज़ होता है, कुछ नया सोचा और लिखा जाता है ...
अनुभवों का एक और बाना ।
"हर बार गिरकर उठी हूँ
खुद का हाथ पकड़ पुचकारा
सराहा,समझाया..."
यूँ ही चलना होता है और तभी ज़िन्दगी साथ होती है और कुछ कहने की स्थिति बनती है ।
और तभी खुद में सिमटकर, खुद को जीते हुए कहती है मन की स्वामिनी
"इनदिनों बहुत बिगड़ गई हूँ मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच
खेलने लग जाती हूँ कैंडी क्रश
...
बचपन मे सीखे कत्थक के स्टेप्स
आदी की चॉकलेट कुतर लेती हूँ"
...
चल रही हूँ बस अपने हिसाब से ।
ज़रूरी है मन, कभी कभी आसपास से,खुद के लिए बेपरवाह हो जाना, पुरवइया बन जाना,या बेमौसम की बारिश की शक्ल ले लेना - बिगड़ा कहो या बिंदास ।
हमेशा नफ़ासत अच्छी नहीं, थोड़ी मस्ती भी ज़रूरी है -
जीवन का पुलोवर बनाते हुए कवयित्री ने शोख़ी से कहा,
"क्यों जी
कई बार से देख रही
ये हर करवाचौथ जो तुम
कहीं बाहर जाते हो ... चक्कर क्या है
कहीं और कोई चाँद तो नहीं ?"
प्रत्युत्तर में भी शरारतें ना हों तो पूजा का अर्थ ही क्या !😊

क्रमशः

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 














ताना-बाना 
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 








पूरी ज़िन्दगी रामायण
महाभारत की कथा जैसी होती है
समय का दृष्टिकोण
हर पात्र
हर स्थिति-परिस्थिति की व्याख्या
अपनी मनःस्थिति की आंच पर
अलग अलग ढंग से करता है ...
- रश्मि प्रभा
ताना-बाना एक व्याख्या है पल पल जिये एहसासों की, नज़र से गुजरते पात्रों की, शब्दों की, स्त्री पुरुष की,प्रकृति की, सप्तपदी की,मातृत्व की, तूफान के आसार की, मानसिक चक्रव्यूह की, अदृश्य शक्ति की ....
"क्या होगा कल बच्चों का ?
....
वही जो होना है"
यह जवाब झंझावात में वही देता है, जिसकी पतवार पर प्रभु की हथेलियों के निशान होते हैं, मृत्यु के खौफ़ से जो लड़ बैठता है ।
अब इसे जीने का सलीका कह लो, या अपनी आत्मा से मौन साक्षात्कार ।
तभी तो
"अंजुरी में संजोकर तुमसे
ढेरों प्रश्न पूछती हूँ"
और प्रत्युत्तर में तुम्हें
"निरुत्तर
निःशब्द ही देखना चाहती हूँ !"
प्रश्न तो अम्मा के लिए भी रहे, खुद अपने लिए, पर - अम्मा के होने का,अपनी परछाई के होने का एहसास मात्र सुरक्षा कवच सा रहा ...
"कभी लड़ नहीं पाई तुमसे
क्योंकि तुम्हारी ही परछाई थी मैं अम्मा ...
नहीं लड़ पाती मैं
आज भी
ख़ुद अपनी परछाई से
समेट लेती हूँ ख़ुद को
बस एक संभ्रांत चुप्पी में"
एक ख़ामोशी में जाने कितनी नदियों,सागर,महासागर की उद्विग्नता होती है ... समझा है क्या किसी ने, जो बोलकर अपना अस्तित्व खो दूँ !!!

क्रमशः

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...