ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 14 अगस्त 2022

वसीयत

 



     अगस्त पन्द्रह, उन्नीस सौ सैंतालिस 

        उस रात भी चाँद सोया नहीं था

           चाँद ! जब तुम कल आना 

                तो चाँदनी में नहाए

              ओस का  श्रृंगार किए

              बर्फानी रंग के ढेर सारे

                 आसमानी फूल भी

                 साथ में लेते आना

          मुझे नमन करना है शहीदों को

       मुझे नमन करना है उन योगियों को

          नींद से बोझिल मुँदी पलकों में

                सारी रात भटका किए

                     सपनों के हिरन-

                      हाँफता सूरज

                       कराहती नदी

                    टुकड़ा- टुकड़ा चाँद

                       काला आसमाँ

                    सिर पर कफन बाँधे

                        जुनूनी हौसले

                   गोलियों से भरी राहें

                      खून से रंगे सीने…

                    घबड़ा कर उठ बैठी

                       नतशिर बैठी हूँ 

                     नम आँखों से देखा

           पसीजी हथेलियों में एक वसीयत थी

                         वतन के नाम-

          "जो खून से है सींचा, वो चमन बचा के        

                          रखना…!”

                                          — उषा किरण 

रविवार, 7 अगस्त 2022

दोस्त

 



ऐ दोस्त

अबके जब आना न

तो ले आना हाथों में

थोड़ा सा बचपन

घर के पीछे बग़ीचे में खोद के

बो देंगे मिल कर

फिर निकल पड़ेंगे हम

हाथों में हाथ लिए

खट्टे मीठे गोले की

चुस्की की चुस्की लेते

करते बारिशों में छपाछप

मैं भाग कर ले आउंगी

समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़

तुम बना लेना चाय तब तक

अदरक  इलायची वाली

अपनी फीकी पर मेरी

थोड़ी ज़्यादा मीठी

और तीखी सी चटनी

कच्ची आमी की

फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा

सीधा कर देना और

रस्सी डाल उस पर मैं

बना दूंगी मस्त झूला

बढ़ाएँगे ऊँची पींगें

छू लेंगे भीगे आकाश को

साबुन के बुलबुले बनाएँ

तितली के पीछे भागें

जंगलों में फिर से भटक जाएँ

नदियों में नहाएँ

चलो न ऐ दोस्त

हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!

                     — उषा किरण

( रीपोस्ट)

रविवार, 31 जुलाई 2022

लड़की की फोटो

 



स्थान- 1978, ग़ाज़ियाबाद 

एम.एम.एच. कॉलेज से ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग में एम.ए. की पढ़ाई कर रही लड़की की शादी की बातें शुरु हो चुकी हैं। तो सबसे पहले तो एक फोटो की दरकार है लड़की की, वो भी स्टूडियो में मेकअप करके बनारसी साड़ी पहन कर और स्टैंड  पर हाथ रख कर पोज बनाते हुए ।सही अनुपात में हंसते हुए। एकदम सही अनुपात से…मतलब न थोड़ा सा भी ज्यादा कि बेशर्म लगे और न ही इतना कम जो घुन्नी लगे। लेकिन अब सवाल ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बाँधे कौन ? 

किसी तरह माँ ने कहा -

'एक फोटो खिंचवा लो।’

'क्या जरूरत है ?’

'अरे सब लड़किएं खिंचवाती हैं न।’

'हाँ, तो ….पर किसलिए?’

'शादी के लिए भेजनी होती है न।’

'तो हैं तो इतनी सारी,  कोई सी भी भेज दो।’

'एक भी ढ़ंग की नहीं,और अकेले तो एक भी नहीं है।’

'जैसी शकल होगी वैसी ही तो आएगी और ग्रुप वाली फोटो पर टिक लगा कर भेज दो।जिसे पसन्द आ जाए करे वर्ना न करे।अहसान नहीं करेगा हम पर  शादी करके कोई।’

`ओफ् हो! तुमसे तो बात करना ही बेकार है…’

माँ झुँझला कर बड़बड़ाते हुए उठ गईं ।

खैर फिर एक फैमिली ग्रुप फोटोग्राफ में से गाँधी नगर चौराहे वाले चौधरी फ़ोटो स्टूडियो से लड़की का फोटो निकलवाया गया और लड़के वालों के यहाँ भेजना शुरु किया गया। जवाबों के सिलसिले शुरु-

`लड़की पसन्द है’

`पसन्द नहीं लड़के को’

`पसन्द है...पर दहेज कितना देंगे चौहान साहब?’

`लड़की की भाभी को पसन्द नहीं।’

कहीं लड़के वाले को लड़की नहीं पसन्द तो कहीं पापा को लड़का या घर नहीं पसन्द ।

आखिरकार एक महापुरुष को  फोटो पसन्द और पापा को लड़का पसन्द ...अब लड़का और घरवाले लड़की देखेंगे।पापा को घर बुला कर बेटियों को नुमाइश लगा कर दिखाना कतई नहीं पसन्द ।

तो आगरे मामाजी के घर जाने का प्रोग्राम बनाया गया।साथ में दिखाने लायक सादी सी  साड़ी ब्लाउज भी माँ ने चुपके से सूटकेस में दबा ली। 

कल सब `कभी-कभी’ मूवी देखने जाएंगे ।लड़की खुश ! ये लम्बू हीरो एक्टिंग अच्छी करता है ..टाइटिल सॉन्ग बहुत पसन्द है तो सब समझते हुए भी मामी के कहने पर बिना चूँ चपड़ किए साड़ी पहन ली। कोई मेकअप नहीं। 

`रानी बेटी एक बिन्दी छोटी सी लगा लेतीं।’ मामी ने धीरे से कहा। 

`नहीं! ‘ सपाट मना कर चप्पल फटकारती चल दी साथ। अम्माँ, मामा जी, मामी जी , मामी की बेटी और छोटी बहन भी साथ गए बाकी सब घर पर ।

सिनेमा हॉल के बाहर ही `अचानक’ मामाजी के कोई दोस्त की फैमिली के दस- बारह लोग मिले...बड़ी खुशी हुई...बड़ी खुशी हुई के बाद लड़की का परिचय -ये हैं हमारी बहन की बेटी`जलफुकड़ी देवी’😜 लड़की ने जितना रूखा- सूखा, सड़ा सा मुँह बना सकती थी बनाया।

खैर लड़की ने झूम कर मूवी देखी जम कर हंसी , जम कर रोई। कभी -कभी मेरे दिल में खयाल आता है गाने पर धीमे -धीमे सुर मिलाया। खूब डकारें लेकर , हंस- हंस कर ठंडा कोला पिया।खूब मजा लेकर मूवी देखी।

लौटते समय फिर हॉल के बाहर सब साथ मिले तो मामाजी के दोस्त के खानदान ने पुन: पुन: लड़की को ऊपर से नीचे तक खूब आँखें फाड़-फाड़ कर घूर कर देखा । बच्चे बिना बात शरमाए जा रहे थे, शायद कल्पनाओं में लड़की को मामी या चाची बना देखने की कल्पना करके। पर लड़की आज जरा नहीं बिदकी। मूवी के खुमार में सब माफ...घूर लो जितना घूरना हो बेशरमों। मन ही मन सोच रही थी इस लम्बू की फिल्म देखने के बदले तो चाहें रोज देख लें लड़के वाले...चूँ तक नहीं करेगी।

`लड़की का रंग जरा दबा है गोरा नहीं है !’ हफ्ते भर बाद लड़के वालों का रिएक्शन आया।लड़की को जरा बुरा नहीं लगा ।ठीक है पहले से देख कर रिजेक्ट कर दिया वर्ना बिना देखे हो जाती शादी तो सारी उम्र लड़का कौए की तरह ठोंगे मारता। तब तो बड़ी वाली बेइज्जती हो जाती। एक महिने बाद दूसरी खबर...स्कूटर की डिमान्ड है यदि देंगे तो शादी हो जाएगी। उस समय लड़कों की दहेज की औकात बस स्कूटर तक ही थी या मोटरसाइकिल तक की। गाड़ी तो किसी- किसी के ही बाप पर होती थी। अब जैसी बात नहीं थी कि हमारा ड्राइवर भी अपनी लड़की की शादी में गाड़ी दे रहा है ।

पापा स्कूटर देने को तैयार हैं ।

जीजाजी और भैया से बात कर रहे हैं। रोकना के लिए जाना है। पर लड़की का खून खौल रहा है। पहले रिजेक्ट करने पर बेइज्जती नहीं लगी पर अब ये तो सरासर बेइज्जती है। वो घायल शेरनी सी आँगन के चक्कर लगा रही है।

अकेले में माँ को घेर लिया-

`क्यूँ अम्माँ ये स्कूटर ले कर डॉक्टर साहब को हम गोरे लगने लगेंगे क्या ? रहेंगे तो हम तब भी  काले ही न?’

`अरे ये तो लड़के वाले पहले कहते ही हैं जरा भाव बढ़ाने के लिए। वर्ना तुम कोई काली थोड़े ही हो, शक्ल तो वहीदा रहमान से मिलती है तुम्हारी।’ अम्माँ ने लिपाई- पुताई की। 

`हमें नहीं चाहिए किसी से गोरे-काले होने का सर्टिफिकेट बताए देते हैं। हम नहीं करने वाले शादी इस डॉक्टर के बच्चे से।’

लड़की गुस्से से फनफनाई। 

`सारे दिन किताबों में घुसी रहती हो …किताबी भाषा ही बोलती हो …तुमको शादी करनी है नहीं, बस बहाने ढूँढती रहती हो…!’अम्माँ को गुस्सा आ गया।

`हाँ तो बढ़ाएं न अपने भाव अपने घर बैठ कर ...अब तो हमारा भाव बढ़ गया...कह दो नहीं करनी उस फकीर से शादी।डॉक्टर, कलैक्टर ही क्यूँ हमें खुद पर भरोसा है मेहनत से सब हासिल कर सकते हैं हम !’

लड़की की भुनभुन और अम्माँ की बड़बड़ कि- `भगवान जाने कहाँ निभेंगी ये नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं…!’ सुगबुगाहट पापा के पास पहुँची। पापा ने कहा -

`हाँ ठीक तो कह रही है वो ...!’ बात खत्म !

खैर ...और लड़के देखे जाने लगे । रिश्तेदारों के फोन खटखटाए गए । चिट्ठियाँ लिखी गईं । पेपर में एड दिया गया।आखिर एक और जगह फोटो पसन्द आई लड़की की। सुना आई ए एस है लेकिन एक लाख कैश की डिमान्ड है।उस जमाने में शायद लाख की वैल्यू आज के करोड़ के बराबर तो होती ही होगी।

पापा को कलैक्टर दामाद का बड़ा लालच पकड़े था । जुगाड़ सोच ही रहे थे कि गाँव की कुछ जमीन बेच देंगे या लोन ले लेंगे ।भनक पाते ही लड़की फिर सिरे से उखड़ गई-

`भिखारी-कलैक्टर, भिखारी-कलैक्टर…’ कह कर खूब मुट्ठियाँ हवा में लहराईं। छोटी बहन और भाई व अम्माँ के सामने।

पापा तक बात गई तो बोले-

` वो कह तो सही रही है वैसे वो !’ 

तो वो बात भी गई। लड़की को सुकून मिला वो मस्त है फिर से अपनी पेन्टिंग, लेखन, म्यूजिक और ढेरों और शौक में। आसमानों में उड़ती फिरती है जमीन पर पैर ही नहीं रखती।सारे दिन लॉन में , धूप में ईजल लगा कर म्यूजिक सुनते हुए पेन्टिंग करती है या संतरे , मूँगफली खाते हुए पढ़ती रहती है। बराबर वाले घर से अग्रवाल आन्टी टोकती हैं-

` अरे लड़की सारे दिन धूप में बैठ कर काली हो जाएगी छाँव में बैठा कर।’

लडकी मुस्कुरा देती है बस।

कुछ दिन शान्ति में बीते ही थे कि एक और धमाका हुआ। गाँव से नउआ काका आए हैं बिटिया के लिए रिश्ता लेकर। पापा उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं रखते। खूब खा पीकर नउआ काका फूटते हैं कि-

` सौ बीघा जमीन है, ट्रैक्टर है, दो भैंस हैं और लड़का बी ए में पढ़ रहो है , देखन में बिल्कुल रामजी जैसो सुन्दर है। लड़की को खाएबे  पिएबे की कौनो दिक़्क़त नहीं आनी है ।’ 

लड़की अपने कमरे में पढ़ रही थी बातें उसके कानों में भी पड़ रही थीं। सुन कर हंस-हंस कर लोट-पोट हो गई। अम्माँ का तो मारे गुस्से के बुरा हाल था वो पीछे से बड़बड़ाती रहीं पर पापा के सामने वो हमारी तरह तबड़- तबड़ नहीं करती थीं।खैर नउआ काका को दे लेकर समझा कर विदा किया गया।

उसके बाद लड़की ने अम्माँ से खूब मस्ती की। वो जितना नउआ काका को खरी-खोटी कहतीं लड़की उतनी ही मस्ती करती। `अम्माँ हम सोच रहे हैं भैंस का दूध निकालने की कोचिंग ले लें।और बस अम्माँ शुरु हो जातीं !’

खैर फिर अम्माँ की बुआ की बहू के भाई के दोस्त की बहन ने एक प्रोफ़ेसर लड़का बताया। राजपूतों में अच्छी रसूख वाला प्रतिष्ठित परिवार है। पर पापा कुछ अनमने से हो गए।उनका मन है कि पहले दामाद की तरह इंजीनियर हो या डॉक्टर या ऑफ़िसर ।पर लड़की की अम्माँ ने बहुत समझाया कि वो जॉब करना चाहती है तो प्रॉफेसर ऐतराज नहीं करेगा इंजीनियर के तो प्राय: ट्रान्सफर होते रहते हैं वो नहीं करवाएगा जॉब।पापा मान तो गए पर बहुत बुझे मन से गए हैं लड़का देखने।

पापा बहुत खुश हैं लौट कर कि पहली बार ऐसा हुआ कि किसी लड़के वाले ने दहेज की माँग नहीं की बल्कि क्या डिमान्ड है पूछने पर कहा कि-

` सिर्फ़ आपकी बेटी और कुछ नहीं चाहिए । आपके जैसे प्रतिष्ठित परिवार में रिश्ता जोड़ कर हमें खुशी होगी।’ 

पापा बता रहे थे अम्माँ को कि सभी का व्यवहार बहुत सम्मान से भरा था।सभ्य, सौम्य, विनम्र लोग।

लड़की ने सुना तो आँख नम हो गईं। 

न डॉक्टर, न कलैक्टर, न ही इंजीनियर...

बस यही तो चाहिए था पापा का सम्मान ! 

बाकी जो किस्मत को मंजूर...!

( रीपोस्ट)

बुधवार, 20 जुलाई 2022

यादों की पोटली से

 


कहानी सुनाना भी एक कला है और इस विद्या में हम बचपन में बहुत निपुण थे। एक बार हम और  अम्माँ 1977 में ग़ाज़ियाबाद में एक मूवी देख कर आए 

"यही है ज़िंदगी “।

हमें संजीव कुमार की एक्टिंग बहुत पसन्द थी बेशक संजीव कुमार खुद पसन्द नहीं थे।इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान में लड़ाई होती है ,जब वो पूजा में रखे पैसों को पत्नि से छिपा कर चोरी कर लेते है। कृष्ण भगवान उनका  हाथ पकड़ लेते हैं कि ये तो मेरे पैसे हैं तुम नहीं ले जा सकते। दोनों में बहस होती है और अन्तत: संजीव कुमार कहते है कि यदि मेरे पास खूब पैसा हो तो मैं जीवन की सारी ख़ुशियाँ खरीद सकता हूँ। भगवान मुस्कुरा कर कहते हैंकि तुमको पूरा विश्वास है कि तुम पैसों से सारी ख़ुशियाँ खरीद सकते हो ? अभी देखो तुम्हारा परिवार कितना खुशहाल है सब प्रेम से रहते हो ( उस जमाने में कई फ़िल्मों में दिखाई देता था कि ख़ुशियाँ व पैसा साथ नहीं रह सकते )।

पर वह बहस करते हैं तो भगवान कहते हैं कि ठीक है मैं तुमको खूब अमीर बना देता हूँ और फिर हम और तुम बाद में फिर बात करेंगे।

सहसा संजीव कुमार बहुत रईस हो जाते हैं और धीरे- धीरे बच्चे बिगड़ जाते हैं। घर की सुख- शान्ति, सेहत सब समाप्त हो जाती है। जहाँ पहले सारा परिवार एक थाली में प्यार से रूखी- सूखी प्रेम से खाते थे अब टेबिल व्यन्जनों से भरी है पर किसी के पास खाने का वक्त नहीं है।संजीव कुमार की पत्नि बनी सीमा देव बहुत  व्यथित होती हैं। फिर संजीव कुमार पछताते हैं, दुखी होते हैं और अन्त में सब कुछ छोड़कर कहीं शायद आश्रम में पत्नि के साथ चले जाते हैं

इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान के मध्य हुई नोंक- झोंक बहुत  मजेदार थी जो बीच-बीच में चलती रहती थी। कृष्ण भगवान मुस्कुरा कर कभी भी टपक जाते हैं और कटाक्ष करते हैं ।संजीव कुमार एग्रेसिव होकर कृष्ण भगवान से खूब ऐंठ कर जवाब देते हैं।

तो हमने घर आकर भैया और छोटी बहन नीरू को डायलॉग व एक्टिंग सहित पूरी कहानी खूब मजे लेकर सुनाई। हमें कहानी सुनाने का खूब शौक भी तब तक था ही। भैया को सुन कर बहुत मजेदार लगी। 

"चल नीरू हम भी देख कर आते हैं “ कह कर वो और नीरू तुरन्त उसी दिन पास में चौधरी थियेटर में वो मूवी देखने चले गए।

तीन घन्टे बाद जब वो आए तो हमने लपक कर पूछा कैसी लगी ? भैया झुँझला कर बोला-

" खाक लगी…कुछ भी छोड़ा था तुमने बताने से जो देखने में मजा आता।सारे डायलॉग्स तक तो पता थे… ये तक तो पता था कि डायनिंग टेबिल पर क्या- क्या डिश सर्व हुई थीं!” 

वो दोनों पैर पटकते अन्दर चले गए और हम खड़े सिर खुजा रहे थे कि हमारी क्या गल्ती थी ।

                            —उषा किरण 


रविवार, 10 जुलाई 2022

खुशकिस्मत औरतें




ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें

जो जन्म देकर पाली गईं

अफीम चटा कर या गर्भ में ही

मार नहीं दी गईं

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पढ़ाई गईं

माँबाप की मेहरबानी से

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो ब्याही गईं

खूँटे की गैया सी

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो माँ बनीं पति के बच्चों की

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जिन्हें सौंपे गये घरद्वार

पति के नाम वाली तख्ती के

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पर्स टाँग ऑफिस गईं

पति की मेहरबानी से..!


जमाना बदल गया है

बढ़ रही हैं औरतें 

कर रही हैं तरक्की

देख रही हैं बाहरी दुनिया

ले रही हैं साँस खुली हवा में 

खुली हवा...खुला आकाश...!

क्या वाकई ?

कौन सा आकाश ?

जहाँ पगलाए घूम रहे हैं

जहरीली हवा में 

दृष्टि से ही नोच खाने वाले

घात लगाए गिद्ध - कौए !


कन्धे पर झूलता वो पर्स

जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं

ऊँची एड़ी पर साध कर

वो निकलती है घर से

बेटी के बुखार की चिन्ता 

बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता

पति की झुँझलाहटकि

नहीं दिखती कटरीना सी

मोटी होती जा रही हो

सास की शिकायतों 

और तानों का पुलिन्दा

फिर चल दी महारानी

बन-ठन के...!


ऑफिस में बॉस की हिदायत

टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए

चेहरे पर मुस्कान चिपकाइए मैडम

शॉपिंग की लम्बी लिस्ट

जीरा खत्म,नमकतेल भी

कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी

लौट कर क्या पकेगा किचिन में 

घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर

कल  है टिंकू का टैस्ट

सोच को ठेलती बस में पस्त सी 

झपक जाती है पल भर को !


ख़ुशक़िस्मत औरतें

महिनों के आखिर में लौटती हैं 

रुपयों की गड्डी लेकर

उनकी सेलरी

पासबुकचैकबुक

सब लॉक हो जाती हैं

अक्लमन्द पति की 

सुरक्षित अलमारियों में !


खुश हैं बेवकूफ औरतें

सही ही तो है

कमाने की अकल तो है

पर कहाँ है उनमें

खरचने की तमीज !


पति गढ़वा  तो देते हैं 

कभी कोई जेवर

ला तो देते हैं

कोई बनारसी साड़ी

जन्मदिवस पर 

लाते तो हैं केक

गाते हैं ताली बजा कर

हैप्पी बर्थडे टू यू

मगन हैं औरतें

निहाल हैं 

भागोंवाली  हैं 

वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!


सुन रही हैं दस-दस कानों से

ये अहसान क्या कम है कि

परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं

उनके चरणों में पड़ी हैं 

पाली जा रही हैं

नौकरी पर जा रही हैं 

पर्स टांग कर 

लिपिस्टिक लगा कर

वर्ना तो किसी गाँव में

ढेरों सिंदूरचूड़ी पहन कर

फूँक रही होतीं चूल्हा

अपनी दादीनानी 

या माँ की तरह...!


बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं 

ख़ुशक़िस्मत औरतें कि

सबको खिला कर

चूल्हा ठंडा कर

माँ या दादी की तरह

आँगन में अमरूद की 

सब्जशीतल छाँव में बैठ

दो जून की इत्मिनान की रोटी भी

अब नहीं रही उसके नसीब में…!


घड़ी की सुइयों संग 

पैरों में चक्कर बाँध 

सुबह से रात तक भागती

क्या वाकई आज भी

ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??


                         उषा किरण -



शनिवार, 2 जुलाई 2022

आधी रोटी



शादी की कई रस्मों में से एक मनभावन रस्म है पग फेरों की।नवब्याहता बेटी शादी के बाद जब पहली बार सजी- धजी दामाद संग मायके आती है तो कुछ अलग ही उल्लास व उछाह मन में व घर भर में छा जाता है।

लॉन में दिसम्बर की  सुनहरी सी धूप में बेटी मनिका और दामाद शेखर बीनबैग में अधलेटे से आराम से चाय पीते बातों में मशगूल थे।चेहरों पर खुशी के साथ थकान भी थी। दबके और पोत की कढाई वाली गुलाबी साड़ी में मनिका का गोरा गुलाबी रंग- रूप खूब दमक रहा था।सिंदूर, बिंदी, मेंहदी , चूड़े से सजी और खुले कमर से नीचे तक लहराते लम्बे बालों में वह कितनी सुन्दर लग रही थी। शेखर की सौम्य व सुन्दर छवि पर तो सुधा पहले ही दिन से  मुग्ध हो गई थी। राम- सीता सी बेटी- दामाद की जोड़ी को निहारती, निहाल सुधा के मन में निरन्तर प्रार्थना चल रही थी…प्रभु बुरी नजर से बचाना मेरे बच्चों को…हे प्रभु, कहीं मेरी ही नजर न लग जाए। मौका देख कर नजर उतार दूँगी , फिर मनिका चाहें कितना ही चिड़चिड़ करे।सोच कर उनसे नजर हटा ली।

मनिका का कल सुबह ही फोन आ गया था।

"मम्मा, हम लोग बाली जाने से पहले एक दिन के लिए आपके पास आ रहे हैं ! बस हल्का ही खाना बनवाना अरहर की दाल,चावल, चटनी, कढ़ी,सूखे आलू की भुजिया वाला….कई दिन से भारी खाना चल रहा है…मन ऊब गया है !”

शादी हंसी- खुशी निबट गई थी। नरेन्द्र के चेहरे पर भी पिता वाली खुशी और सन्तुष्टि खिल रही थी। बच्चों के साथ मिल कर शादी में आए मेहमानों, उनकी बातों, खाने-पीने व सजावट वगैरह पर खूब चर्चा व हंसी- मजाक चल रहा था। क्योंकि दिल्ली से ही शादी हुई थी तो दोनों बच्चों ने ही सारा इंतजाम किया था। शेखर ने हंस कर सुधा को छेड़ा ।

" देखा मम्मी हम दोनों ने कितना अच्छा इंतजाम किया था और मैंने नाक नहीं पकड़ने दी आपको…वैसे कोशिश तो बहुत की आपने !”

" हाँ, आप ही जीते, मैं हारी !” सुधा हंस दी।

"पापा हमने सोचा आप लोगों से मिलते हुए जाएं। परसों हम लोग बाली के लिए निकल रहे हैं। लौट कर फिर आप लोगों से मिलने आएंगे एक दो दिन के लिए… अभी तो हम लोगों की छुट्टियाँ ही चल रही हैं !” शेखर ने कहा।

" बेटा, बहुत अच्छा किया, तुम लोगों ने….!” नरेन्द्र ने खुश होकर कहा।

" अब खाना लगवा दूँ…भूख लगी होगी ? उठते हुए सुधा ने कहा।

"वाह, मम्मी खाना देखते ही सच बहुत जोर से भूख लगने लगी है !” अपनी  प्लेट में सब्जी  परोसते  मनिका खुशी से चहकी। 

" वाह…सच मम्मी खाना बहुत अच्छा बना है !”शेखर ने भी खाते- खाते कहा।

रामू  एक-एक गर्म करारी रोटी सेंक कर, घी लगा कर ला रहा था। मनिका और  शेखर की प्लेटों में अभी रोटी बाकी थी परन्तु सुधा और नरेन्द्र की प्लेटों में रोटी खत्म हो गई थी ।जैसे ही रामू एक रोटी सेंक कर लाया तो नरेन्द्र ने हाथ बढ़ा कर रोटी लेकर दो टुकड़े करके आधी सुधा की प्लेट में और आधी अपनी प्लेट में रख ली। खाना खाते-खाते शेखर ने ये नोटिस किया और चुपचाप खाते रहे।

अगली सुबह वे दोनों नाश्ते के बाद दिल्ली के लिए निकल लिए। बाली से रोज उनका एक बार फोन आता रहता था।दोनों निरन्तर फोटो भेजते रहते। मनिका चहक कर कहती।

"पापा, मम्मा आप लोगों को भी यहाँ का एक ट्रिप जरूर लगाना चाहिए, बाली बहुत ही सुन्दर है ,सच में !”

आज पन्द्रह दिन बाद बाली से लौटे हैं दोनों। मनिका ने सबके लाए गिफ्ट खोल कर दिखाए। नरेन्द्र और शेखर बातों में खूब व्यस्त हैं ।बातों के बीच खाना-पीना भी चल रहा है। मनिका व शेखर दोनों की प्लेट में एक साथ रोटी खत्म होते ही रामू जल्दी से एक गर्म  रोटी लेकर आया और शेखर की तरफ़ बढ़ाईं। शेखर ने हाथ बढ़ा कर रोटी के दो टुकड़े करके आघी- आधी अपनी और मनिका की प्लेट में रखीं और नरेन्द्र की तरफ देख कर मीठी सी अर्थभरी मुस्कान मुस्कुरा दिए।

 सुधा और नरेन्द्र ने  भी  एक दूसरे की तरफ देखा…सहसा  उनके चेहरों पर भी एक सन्तुष्टि भरी मुस्कान तैर गई ।

                                      — उषा किरण

गुरुवार, 30 जून 2022

आसमान होते हैं पिता

 



बेटियों का आसमान होते हैं पिता 

और जमीन भी 

उनका मान 

और सम्मान भी

पिता की हथेलियों पर 

नन्हा पग रखतीं

माँ की उंगली थाम जब 

रखती है पहला कदम

तो उस एक पग में 

जैसे नाप लेना चाहती है 

सारा संसार


जिंदगी की लम्बी डगर में

बेटियों को 

कहाँ नसीब होती है 

ताउम्र पिता की छाँव 

पर चाहें जहाँ भी रहें 

उनका सिर टिका रहता है

पिता के ही सीने पर 


पिता के आँगन की 

एक मुट्ठी धूप-छाँव ले जाकर

रोपती हैं फिर बड़े चाव से 

नए आँगन में 

बेला, गुलाब, चंपा

अमलतास और गुलमोहर

संग बिखेरती हैं 

मीठा सा मधुमास 


सावन में नीम पर झूला डाल

बढा़ती हैं लम्बी पींगें

और ताउम्र गाती रहती हैं


"सावन आया कि अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री ...”!!!

              —उषा किरण


#हर दिवस पितृदिवस 🙏

#फोटो: गूगल से साभार 

(रीपोस्ट)

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