ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

छोटी देवी


 अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ेंगे तो मुझे खुशी होगी 😊_________________


छोटी  देवी 

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सुबह से घर में चहल- पहल है । आज अम्माँ जी के एकादशी का उद्यापन है । पंडित जी आँगन में पूजा की तैयारियों में व्यस्त हैं ।अम्माँ जी भी पास कुर्सी पर बैठी निगरानी कर रही हैं ।

अम्माँ जी ने ठाकुर जी की सेवा ले रखी है। वे ठाकुर जी की दिन- रात सेवा में लगी बुरी तरह थक जाती हैं पर उनका श्रंगार, भोजन, स्नान इत्यादि सब अपने ही हाथ से करती हैं । सारे दिन उनका हाथ में माला पर जाप चलता ही रहता है। 

एक दिन चित्रांगदा से बोलीं- “बहू सोच रही हूँ एकादशी का उद्यापन कर ही  दूँ, न जाने कब गोपाल जी अपने पास बुला लें ।” 

आज उसी अनुष्ठान की तैयारी चल रही है।

" अरी बहू गंगाजल नहीं है, जरा पूजा से उठा लाइयो !” गंगाजल लाने गई चित्रांगदा ने पूजा के कमरे से ही शोर सा सुना। अम्माँ जी गुस्से से चिल्ला रही थीं और पंडित जी का भी ऊँचा स्वर सुनाई दे रहा था।

" हे राम इतनी सी देर में क्या गड़बड़ हो गई…” बड़बड़ाती - हड़बड़ाती हुई चित्रांगदा नीचे भागी। 

जाकर क्या देखती है कि रीना किचिन में खाना बनाने  में व्यस्त थी, इसी बीच न जाने कब  किचिन से निकल कर घुटने चलती हुई उसकी साल भर की बेटी भोग वाले डिब्बे से लड्डू निकाल कर, सारे उपद्रव से बेख़बर गाल भर- भर कर खूब मजे से, हिल- हिल कर लड्डू खाती हुई किलक रही है और अम्माँ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका है । 

पंडित जी भी भ्रष्ट- भ्रष्ट कह कर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।रीना रसोई से भाग कर आई और आटा लगे हाथों से  शर्मिंदा सी नतशिर खड़ी हो गई।अम्माँ जी उसे बुरी तरह से डाँटने लगीं।

चित्रांगदा ने लपक कर बच्ची को गोद में उठा लिया और हंस कर बोली " अरे पंडित जी देखिए तो  ये वही साक्षात देवी मैया तो  हैं, जिनके आप कंजकों में पाँव पूजते हैं। ठाकुर जी से पहले भोली मैया ने भोग लगा लिया तो  क्या हो गया! कुछ नहीं होता, बच्चा है !”

" शैतान कहीं की” बच्चे के गाल पर हंसते हुए एक हल्की सी चपत लगा कर , खिसियाई, नत- शिर खड़ी रीना का  हाथ पकड़कर चित्रांगदा वहाँ से ले गई।

                                  —उषा किरण 

अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी यह लघुकथा दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

तीन तेरह



तीन मेरे तेरे तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तेरा तेरा

तेरा तेरा 

तेरा तेरा

तेरा

तेरा

तेरा 

तेरा 

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा….🌸🌼

                    —उषा किरण

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

दौड़



सुनो,

तुम मुझसे जैसे चाहो वैसे 

जब चाहो तब और जहाँ चाहो वहाँ 

आगे जा सकते हो 

तुमको जरा भी ज़रूरत नहीं कि

तुम मुझे कोहनी से  पीछे धकेलो या कि

धक्का मार कर या टंगड़ी अड़ा कर 

गिराओ या ताबड़तोड़ आगे भागो 

या अपने नुकीले नाखूनों से

मेरा मुँह नोचने की कोशिश करो या 

जहरीले पंजों से मेरी परछाइयों की ही

जड़ों को खोदने की कोशिश करो


तुमको ये सब करने की 

बिल्कुल ज़रूरत ही नहीं 

क्योंकि मैं तुमको बता दूँ कि 

मैं तो तुम्हारी अंधी दौड़ में 

कभी शामिल थी ही नहीं 

मैं हूँ ही नहीं तुममें से कोई एक नम्बर 

मुझे चाहिए नहीं तुम्हारा वो

चमकीला सतरंगी निस्सीम वितान

तुम्हारी जयकारों से गूँजता जहान

वेगवती आँधियाँ, तूफानी आवेग

आँखों, मनों में दहकती द्रोह-ज्वालाएं,दंभ


तुम हटो यहाँ से , 

मुझे कोसने काटने में 

अपना वक्त बर्बाद न करो वर्ना देखो

वे जो पीछे हैं आज, कल आगे बढ़ जाएंगे

तुमसे भी बहुत और आगे

पैरों में तूफान और साँसों में आँधियाँ भरे

वे दौड़े आ  रहे हैं…तुम भी भागो…


सुनो, मुझसे तो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा या 

विवाद होना ही नहीं चाहिए 

बिल्कुल भी नहीं 

मैं तो एक कोने में खड़ी हूँ कबसे

दौड़ने वाले बहुत आगे निकल गए 

दूर बुलंदी पर फहरा रही हैं पताकाएँ 

गा रही हैं उनका  यशगान ….जय हो 


मैं भी खुश हूँ बहुत सन्तुष्ट 

अपनी बनाई  इक छोटी सी धरती और 

छतरी भर आकाश से

साँसें चलने भर हवाएं और 

दो घूँट पानी  भी हैं पल्लू में 

आँखें बन्द कर सुन रही हूँ 

अपने अन्तर्मन में बजता सुकून भरा नाद

इससे ज्यादा सुन नहीं सकती

सह नहीं सकती वर्ना मेरे माथे की शिराओं में  

बहने लगता है लावा और

तलवों से निकलने लगती हैं ज्वालाएं


बहती नदी से एक दिन चुराया था जो

हथेलियों में थामा वो  फूल

कभी का मुरझा कर झर चुका…

बस चन्द बीज बाकी हैं 

देखूँ,रोप दूँ इनको भी  कहीं, 

किसी शीतल सी ठौर…

तो फिर चलूँ  मैं भी …!!

                               —उषा किरण🌼🍃

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2023

लघुकथा

अहा ! ज़िंदगी, मासिक पत्रिका में सितम्बर, 23 अंक में मेरी लघुकथा `टेढ़ी उंगली’ प्रकाशित हुई है। अहा ! ज़िंदगी पत्रि​का दैनिक भास्कर ऐप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।आप भी पढ़िए-


                       ~  टेढ़ी उंगली ~

"बात सुनो,  किचिन में कूलर लगवा दो, बहुत गर्मी लगती है!” दूसरी मंजिल पर खुली छत पर बनी और तीन तरफ़ से खुली होने पर सीधी धूप आने के कारण मई- जून में भट्टी सी तपती थी रसोई।ऊपर से बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं तो उनकी नित नई फरमाइश अलग से । आज ये बनाओ मम्मी , कल वो बनाओ। परेशान होकर शुभा ने आज फिर राघव से कहा।

"अरे कहीं देखा है किचिन में कूलर ? फिर कूलर की हवा गैस पर लगेगी कि नहीं?”राघव ने लापरवाही से कहा।

"हाँ देखा है , खूब देखा है, कूलर क्या ए. सी. भी देखा है। और खिड़की में थोड़ा सा तिरछा करके लगा देंगे…अरे वो सब मेरा सिरदर्द है, मैं मैनेज कर लूँगी न…तुम बस आज छोटा कूलर लेकर आओ। कबसे कह रही हूँ तुम सुनते क्यों नहीं हो ? तुमको खाना बनाना पड़े तो पता चले। बना- बनाया मिल जाता है, तो तुमको क्या पड़ी है….!” 

बहुत देर तक शुभा झुँझला कर छनछनाती रही लेकिन राघव न्यूज पेपर में सिर घुसाए तटस्थ भाव से अनसुना कर बैठे रहे। 

आज शुभा का गुस्सा चरम पर था। चेहरा गर्मी और क्रोध से लाल भभूका हो रहा था। ऐसे काम नहीं चलेगा कुछ करना पड़ेगा । मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराई।

कुकर गैस पर चढ़ा कर राघव से बोली " देखो दो सीटी आ जाएं तो गैस बन्द कर देना मैं नहाने जा रही हूँ ।” बाथरूम में जाकर चुपचाप सीटी आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दो सीटी आईं राघव के रसोई में जाते ही दबे पाँव शुभा ने दौड़ कर रसोई का दरवाजा बन्द करके बाहर से कुँडी लगा दी।

"अरे रे…ये क्या कर रही हो ? खोलो दरवाजा”

" शर्मा जी जरा दस मिनिट तो देखो खड़े होकर, मैं नहा कर आती हूँ , तब तक कश्मीर के मजे लो ।” राघव का गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया। बेतरह गर्मी से बेहाल होकर चीख- पुकार मचाने लगे। 

ऊपर के कमरे में पढ़ रही पूजा पापा की आवाज़ सुनकर दौड़ी आई और किचिन का दरवाजा खोला। बौखलाए से राघव बड़बड़ाते हुए कमरे में कूलर के सामने भागे। माँ की हरकत सुनकर हंस कर पूजा बोली "हा-हा …पापा बिना बात क्यों पंगा लेते हो मम्मी से, सीधी तरह से मान क्यों नहीं लेते उनकी बात !”

शाम को किचिन में गुनगुनाते हुए शुभा कूलर की ठंडी बयार में मुस्कुराते हुए बड़े मन से डोसा बना रही थी।

                                    — उषा किरण🌸🍃




सोमवार, 14 अगस्त 2023

रॉकी और रानी…. मेरे चश्मे से


हाँ जी, देख ली आखिर…! 

न-न करते भी बेटी ने टिकिट थमा कर गाड़ी से हॉल तक छोड़ दिया तो जाना ही पड़ा।सोचा चलो कोई नहीं करन जौहर की मूवी स्पाइसी तो होती ही हैं तो मनोरंजन तो होगा ही।मैं तो कहती हूँ कि आप भी देख आइए…पूछिए क्यों ?

तो भई एक तो मुझे ये मूवी लुभावनी लगी, जैसा कि डर था कि बोर हो जाऊंगी वो बिलकुल नहीं हुई, कहानी ने बाँधे रखा और भरपूर मनोरंजन किया।आलिया बहुत प्यारी लगी है उसकी साड़ियाँ देखने लायक हैं शबाना की भी। रणवीर भी क्यूट लगा है।सबकी एक्टिंग भी बढ़िया है। पुराने गानों को एक ताजगी से पिरोया गया है, खास कर "अभी न जाओ छोड़कर….” गाने का पूरी मूवी में बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है…वगैरह- वगैरह ।

खैर, ये सब तो जो है सो तो है ही। परन्तु सबसे बड़ी वजह है कि  ये कहानी जो एक संदेश छोड़ती है वो बहुत जरूरी बात है।घर- परिवार किसी एक की जागीर नहीं होती उस पर सभी सदस्यों का बराबर हक है। सबके कर्तव्य हैं तो अधिकार व सम्मान भी सबके हैं ।

ठीक है भई माना कि, घर में बुजुर्गों का सम्मान जरूरी है परन्तु इतना भी नहीं कि बाकी सबकी साँसें घुट जाएं, उनकी अस्मिता को कुचल दिया जाय। परम्परा जरूरी हैं बेशक, पर उनका आधुनिकीकरण होना भी उतना ही  जरूरी है। नए जमाने में नई पीढ़ी को सुनना ज़रूरी है। उनके विचार व सुझावों का भी सम्मान होना चाहिए, वे नए युग को पुरानी आँखों से बेहतर तरीके से देख व समझ पाएंगे।

घर की बेटी के मोटापे के आगे उसकी प्रतिभा को कोई स्थान नहीं। जैसे- तैसे किसी से भी ब्याहने को आकुल हैं सब। घर का बेटा कड़क, रौबदार माँ का  फरमाबदार बेटा तो है पर वो ये भूल गया कि  वो किसी का पति, बाप का बेटा, बच्चों का बाप भी है। उनके प्रति भी उसके कुछ फ़र्ज़ हैं । बरगद की सशक्त छाँव में जैसे बाकी पौधे ग्रो नहीं करते वैसे ही कड़क दादी की छाँव में बाकी सब सदस्य बोदे हो गए। बहू और पोती रात में चुपके से रसोई में छिप कर गाती हैं, अपने अरमान पूरे करती हैं और डिप्रेशन में  अनाप शनाप केक वगैरह खा-खाकर वजन बढ़ाती हैं, जो बेहद मनोवैज्ञानिक है। ऐसे में होने वाली बहू की बेबाक राय पहले तो किसी को हज़म नहीं होतीं । उसके क्रांतिकारी प्रोग्रेसिव विचार घर में तूफ़ान ला देते हैं । घर की नींव हिला देते हैं और भूचाल ला देते हैं , परन्तु बाद में सबको शीशा दिखाती हैं।सही है, बेटे के ही नहीं बहू या होने वाली बहू के भी अच्छे सुझावों का स्वागत होना चाहिए ।

क्या हुआ यदि जीवन साथी के संस्कार अलग हैं, तो क्या हुआ यदि होने वाला पति लड़की से शिक्षा, योग्यता वगैरह हर बात में कमतर है लेकिन वो लड़की से प्यार बेपनाह करता है और लड़की के पेरेन्ट्स के सम्मान को अपने पेरेन्ट्स के सम्मान से कम नहीं होने देता। खुद को बदलने के लिए बिना किसी ईगो को बीच में लाए प्रस्तुत है। लड़की की कही हर बात का सम्मान करता है। ये छोटी- छोटी बातें दिल चुरा लेती हैं । रानी के पिता को सम्मान दिलाने के लिए उनके साथ देवी पंडाल में रॉकी का डाँस करने का सीन भी दिल जीत  लेता है। सिर्फ़ लड़की का ही फ़र्ज़ नहीं होता कि वो खुद को बदले, एडजस्ट करे ये फर्ज लड़के का भी उतना ही होता है। दोनों के पेरेन्ट्स का सम्मान बराबरी का होना चाहिए, ये बहुत जरूरी बात सुनाई देती है।

धर्मेंद्र और शबाना की लव स्टोरी भी बहुत ख़ूबसूरती से दिखाई है। कभी-कभी बिना प्यार और सद्भावना के पूरी ज़िंदगी का साथ इंसान को कम पड़ जाता है और कभी मात्र चार दिन का प्यार भरा साथ पूरा पड़ जाता है…जीवन में एक ऐसी सुगन्ध भर जाता है कि उसकी आहट होश- हवास गुम होने पर भी सुनाई देती है।

 हमने रॉकी और रानी की प्रेम कहानी बिल्कुल नहीं बताई है। अब भई यदि हमारे चश्मे पे भरोसा हो तो देख लें जाकर उनकी प्रेम कहानी और न हो तो भी कोई बात नहीं….हमें क्या😎

                                                     — उषा किरण 

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुस्तक समीक्षा ( दर्द का चंदन)



दर्द का चंदन 
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आज चर्चा करूंगी, मेरी मित्र, बेहतरीन कवयित्री, कथाकार, उपन्यासकार डॉ उषाकिरण जी के उपन्यास 'दर्द का चंदन' की।

उपन्यास तो प्रकाशन के ठीक बाद ही मंगवा लिया था, पढ़ भी लिया था, लिखने में विलंब हुआ, उषा जी माफ़ करेंगी।

उपन्यास 'दर्द का चंदन' की भूमिका में कथाकार हंसादीप ने शुरुआत में ही लिखा है- 

"ये हौसलों की कथा है,

निराशा पर आशा की,

हताशा पर आस्था की,

पराजय पर विजय की कथा है"

निश्चित रूप से ये उपन्यास, हौसलों की ही कथा है। उपन्यास की नायिका, स्वयं उषा किरण जी हैं। आप सबको बता दूँ, कि उषा जी ने स्वयं ब्रेस्ट कैंसर को मात दी है, लेकिन इस मात देने की प्रक्रिया ने कितनी बार डराया, कितनी बार हिम्मत को तोड़ा, कितनी बार मौत से साक्षात्कार करवाया, ये वही जानती थीं, और अब हम सब जान रहे हैं, उनके इस संस्मरणात्मक उपन्यास के ज़रिए।

उपन्यास बेहद मार्मिक है। जब किसी परिवार में भाई-बहन दोनों ही कैंसर से लड़ रहे हों, तब उस परिवार की मनोदशा हम समझ सकते हैं। उषा जी ने क्रमबद्ध तरीके से भाई की बीमारी को विस्तार दिया है। उपन्यास पढ़ते समय, पाठक का दिल भी उसी तरह दहलता है, जैसे उषा जी और उनके परिवार का दहलता होगा।

उषा जी ने उपन्यास में केवल बीमारी का ज़िक्र नहीं किया है, बल्कि इस बीमारी से कैसे लड़ा जाए, इस बात को भी बहुत बढ़िया तरीके से समझाया है। वे स्वयं जैसा महसूस करती थीं, इस मर्ज़ से पीड़ित हर स्त्री, ठीक वैसा ही महसूस करती होगी, ज़रूरत है तो उषा जी जैसी सकारात्मक सोच की, परिजनों के साथ की, जो मरीज़ को टूटने नहीं देता।

उपन्यास की भाषा भी जगह जगह पर काव्यमयी हो गयी है, जिससे पाठक सहज ही उषा जी के कवि मन की थाह ले सकता है। उपन्यास के हर अंक की शुरुआत, कविता से ही की गई है।

बीमारी जब घेरती है, तब व्यक्ति स्वतः ही आध्यात्म की ओर झुक जाता है। घर वाले भी तरह तरह की मनौतियां मनाने लगते हैं। इलाज के दौरान जिस मानसिक दशा से वे गुज़रीं और जिन धार्मिक स्थलों की उन्होंने यात्रा की, उसका बहुत सजीव वर्णन उषा जी ने किया है।

कीमो के दौरान, अस्पताल में मिलने वाले अन्य कैंसर पेशेंट्स की मनोदशा और उषा जी द्वारा उनके भय को दूर करने के प्रयास बहुत सजीव बन पड़े हैं। चूंकि ये भोगा हुआ यथार्थ है, सो कलम से निकला एक एक शब्द, पाठकों तक पहुंचना ही था।

उपन्यास के अंत में उषा जी लिखती हैं-

"मेरा मकसद, इस कहानी के माध्यम से दया या सहानुभूति अर्जित करना नहीं है, सिर्फ यही सन्देश देना था, कि जन्म मृत्यु तो ईश्वर के हाथ है, परन्तु आस्था और सकारात्मकता ने मुझे शारीरिक व मानसिक बल दिया। यदि हम सजग रहें, तो समय पर अपनी बीमारी स्वयं ही पकड़ सकते हैं।"

इस तथ्यपरक उपन्यास के लिए उषा किरण जी साधुवाद की पात्र हैं। भोगा हुआ कष्ट लिखना, यानी उस कष्ट से दोबारा गुज़रना, लेकिन उषा जी ने ये किया, सामाजिक भलाई के उद्देश्य से। उन्हें हार्दिक बधाई व धन्यवाद।

हिंदी बुक सेंटर से प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत 225 रुपये है। छपाई शानदार है और आवरण पर उषा जी द्वारा बनाई गई पेंटिंग भी बेहतरीन है।

इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें, निराश नहीं होंगे।

प्रकाशक और लेखिका को हार्दिक बधाई।

                            —वन्दना अवस्थी दुबे





पुस्तक समीक्षा- पाँव के पंख

शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-




 शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-


खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...