ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

पब्लिक टॉयलेट की समस्या—



सबके फायदे की बात हो तो मैं लिखने से गुरेज़ नहीं करती, चाहे विषय थोड़ा संकोच वाला ही क्यों न हो, क्योंकि यह समस्या हर यात्रा करने वाली महिला की है।

सफ़र के दौरान—रेल, फ्लाइट, मॉल, ऑफिस, कहीं भी—पब्लिक टॉयलेट की साफ़-सफ़ाई सबसे बड़ी चुनौती बन जाती है। इस वजह से हम महिलाएं अक्सर जितना हो सके खुद को रोकती रहती हैं, लेकिन अंत में इस्तेमाल तो करना ही पड़ता है। और फिर बार–बार UTI जैसी समस्याएँ होना आम बात है।

विदेशों में यह परेशानी कम दिखती है।

वहाँ लोग अनुशासन में रहते हैं—सीट साफ़ रखकर निकलते हैं, लाइन में बुज़ुर्ग महिलाओं या बच्चों को आगे जाने देते हैं, और बिना सफाई कर्मचारी के भी शौचालय व्यवस्थित रहते हैं।

काश हमारे यहाँ भी ऐसा ही हो!

मुझे सबसे ज़्यादा दिक्कत उन महिलाओं से होती है जो सीट पर न बैठकर फर्श गंदा कर देती हैं।

और पुरुषों से, जो पब्लिक टॉयलेट ही नहीं, कई बार फ़्लाइट और घरों में भी सीट को गंदा छोड़ जाते हैं—यह भूलकर कि दूसरे को उसी सीट पर बैठना होगा। वास्तव में दोनों काम बैठकर ही होने चाहिए, पर इसे कौन समझाए! थोड़ा-सा सेंस खुद भी होना चाहिए।

उधर पानी की सप्लाई भी कई जगह ठीक न होने से सफ़ाई की स्थिति और खराब हो जाती है।

मैं यात्रा बहुत करती हूँ, इसलिए हमेशा किसी समाधान की तलाश में रही।पिछले दिनों दो बहुत काम की चीज़ें मिलीं—और सोचा कि आप सबके साथ भी साझा करूँ।

👉 Disposable Pee Buddy

👉 Disposable Toilet Seat Covers

दोनों अमेज़ॉन पर आसानी से मिल जाते हैं।

सफ़र में इन्हें और कुछ wet wipes साथ रख लें तो टॉयलेट इस्तेमाल करना कहीं ज्यादा सुरक्षित और आसान हो जाता है।संकोच छोड़कर अपनी सेहत को प्राथमिकता दें—UTI और इन्फ़ेक्शन से बचाव बेहद ज़रूरी है।

और याद रखें सबसे जरूरी है, टॉयलेट को तमीज से इस्तेमाल करने के बाद दूसरों को भी इस्तेमाल करना है तो सफाई का ध्यान रखें, वैट वाइप साथ लेकर जाएं और सीट को साफ करके ओर फ्लश करके ही बाहर निकलें।

अगर यह जानकारी किसी एक महिला तक भी राहत पहुँचाए, तो मेरा लिखना सफल हुआ।

—उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

मेरे अवॉर्ड्स…



1979 में शादी के बाद आर जी कॉलेज में ही एम ए फाइनल इयर में एडमीशन लेकर , वर्ष 1980, एम ए कम्पलीट करते ही, नई- नई टेम्परेरी टीचर बनी उसी आर जी पी जी कॉलेज में।स्टुडेंट्स और मेरी उम्र में मुश्किल से एक दो साल का ही फर्क था। मुझे याद है अपनी पहली एम ए की क्लास में ' यूरोपियन हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न आर्ट ‘ पढ़ाते हुए मैं थरथरा रही थी। अपनी नर्वसनेस को छुपाने के लिए स्टुडेंट से कहा खिड़की बन्द कर दो बहुत ठंडी हवा है😊

पचासवां स्थापना दिवस था, सभी डिपार्टमेंट को कल्चरल प्रोग्राम वाली शाम को कुछ प्रोग्राम देने थे। हमारे डिपार्टमेंट से तीन प्रोग्राम दिए गए। दो मैंने तैयार करवाए पहला एक नाटक था, दूसरा स्टेज पर आठ फ़ीट बड़े हार्ड बोर्ड पर बच्चों से काँगड़ा पेंटिंग बनवा कर , फिगर वाली जगह कटवाकर वहां पीछे स्टूडेंट्स को पेंटिंग जैसा ही मेकअप करके , बच्चों से साड़ियों के लहंगे बनवाए, पेंटिंग के अनुसार जेवर भी बनवाकर तैयार किया। पेंटिंग के पीछे स्टूल वगैरह रखकर उन पर खड़ा किया। पीछे से बोर्ड को कई लड़कियों ने छिपकर थामा , साथ में कमेंट्री, सितार की धुन, रंग बिरंगी लाइट्स का फोकस बारी- बारी से सब पर…अद्भुत समाँ बंध गया। प्रोग्राम के बाद तालियों के शोर और फर्स्ट प्राइज़ मिलने से सब थकान दूर हो गई और महिने भर की मेहनत सफल हुई। नाटक की कैटेगरी में भी पहला प्राइज़ हमारे नाटक "बहू की विदाई “( शायद यही नाम था) को मिला।

उन दिनों मेरी पहली चार महिने की प्रेगनेंसी थी। उल्टियों के मारे हालत खराब थी। शाम तक पैर सूज जाते थे। बेहद कमजोरी थी। अकल तो थी नहीं बस ये सुना था कि एबॉर्शन भी करवा सकते हैं, तो  डॉक्टर के पास अकेली जाकर कहा आप एबॉर्शन कर दो मुझे अभी करियर बनाना है, पी- एच. डी. करनी है। डॉक्टर अमृत फूल मेरे घटते वजन और सेहत को लेकर परेशान थीं । उन्होंने बहुत प्यार से समझाया और डाँटा भी तो अपनी बेवक़ूफ़ी समझ आ गयी कि यह कोई खेल नहीं है बच्चों का, परिणाम घातक हो सकते हैं।समझाया कि बेशक उल्टी हो जाए पर खाती रहना वर्ना एडमिट करना पड़ेगा।

प्रोग्राम की तैयारी करवाते व क्लास लेते समय चुपके से टॉयलेट में जाकर वॉमिट करती और मुंह में टॉफी या इलायची डाल फिर काम में जुट जाती। पेट में कुछ रुकता - पचता ही नहीं था, खाया- पिया सब निकल जाता। जूस पर जिंदा थी। बेहद कमजोरी थी पर कुछ करने का, कुछ बनने का जुनून था। वे मेरी जिंदगी के सबसे तकलीफ भरे दिनों में से थे।किसी की चमक- दमक देखकर कौन अनुमान लगा सकता है कि वहां तक पहुँचने का रास्ता कितना कंटकपूर्ण था।

कष्ट के दिनों में किए गए सद्व्यवहार या दुर्व्यवहार को मैं चाह कर भी कभी भुला नहीं सकी। पता नहीं कैसे लोग किसी के कठिन वक्त में इतने निर्मम हो सकते हैं। जो मन होता है सुना देते हैं ।किसी की मेहनत पर अपना ठप्पा लगा देते हैं ।पर कुछ लोगों की ममता को भी नहीं भूलती। सुधा शर्मा मैम , दिनेश शर्मा सर के घर जाती कभी तो वे लोग खाना खाए बिना आने नहीं देते थे सुधा मैम की बात पर हंसी आती जब वे लाड़ से कहतीं, “तुमको तो बॉम्बे जाना था फ़िल्मों में…!” 

सावित्री गैडी मैम इशारे से बुलाकर कान में कहतीं, “उषा रेवड़ी मूंगफली लाई हूँ, लोहड़ी की…क्लास के बाद स्टाफ रूम में आ जाना…” जिनकी कभी स्टुडेंट थीं उनके साथ स्टाफरूम में बराबर कुर्सी पर बैठने का, साथ चाय पीने का, उनका मित्रतापूर्ण व्यवहार बड़ा सुख व संतोष देता था।

लोगों में अवॉर्ड्स और पुरस्कार पाने की होड़ जब देखती हूँ तो मन में हंसती हूँ।अपनी चालीस साल की जॉब को अच्छी तरह से निभा सकी। बहुत सम्मान और स्टुडेंट्स का प्यार पाया। अपने पढ़ाए बच्चों को अच्छी जगह सैटल्ड हुआ , अच्छा आर्टिस्ट बने देखती हूँ तो परम सन्तोष होता है। बच्चों की परवरिश पति , परिवार के सहयोग व ईश्वर कृपा से सन्तोषजनक रूप से पूरी कर सकी। उनके प्रति भी कर्तव्य पूरे कर मुक्त हुई। और असाध्य भीषण बीमारी को आस्था व विश्वास की उंगली थाम पार कर सकी , तो लगता है जैसे दुनियां के सारे अवॉर्ड्स मैंने जीत लिए हैं…सोते समय एक गहरी सन्तोष की साँस लेकर सोचती हूँ ….और क्या चाहिए ? 

बस ईश्वर का ध्यान आखिरी साँस तक न छूटे यही कामना शेष है🙏

— कभी-कभी फोटो गैलरी स्क्रॉल करते किसी फोटो पर उँगलियाँ थम जाती हैं और यादों की रील खुल जाती है…वर्ना जिंदगी और कुछ भी नहीं , तेरी मेरी कहानी है….!!!

—- उषा किरण 



गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

एक पूरी होती प्रेम कहानी ….



 जो बीत गई सो बात गई-

धर्मेंद्र अनन्त- यात्रा पर जा चुके हैं। 

हेमा से शादी सही या गलत …इसकी अदालत सोशल मीडिया पर आजतक जारी है।

हेमा व धर्मेंद्र कभी मेरे फ़ेवरेट स्टार नहीं रहे। बहुत लाउड एक्टिंग मुझे पसन्द ही नहीँ । लेकिन उनकी सत्यकाम, अनुपमा, मीरा, दुल्हन, किनारा, खुशबू जैसी कुछ फिल्में पसंद हैं ।स्क्रीन पर उनकी जोड़ी बहुत जमती थी।

शादीशुदा आदमी से शादी करने के पक्ष में मैं कभी नहीँ रही। लेकिन प्यार में कौन क्या चुनता है यह बहुत निजि फैसला है। कोई एकाकी जीवन चुनता है, तो कोई सारी कीमत चुका कर दूसरी पत्नि बनना। प्रेम के विभिन्न रूप हैं तो फैसले भी अलग- अलग तो होंगे ही।

सुरैया ने नानी से हार मानकर अंगूठी समुद्र में फेंक दी और सारी उम्र देवानंद की यादों के सहारे एकाकी जीवन बिताया, देवानन्द कल्पना कार्तिक का हाथ थाम आगे बढ़गए। नन्दा, आशा पारिख, ने अविवाहित रहना चुना।नरगिस ने भी थक कर  सुनील दत्त का हाथ खाम लिया। नीना गुप्ता ने अविवाहित माँ बनना चुना तो गुरुदत्त ने प्रेम से मिले तनाव व कलह के चलते जीवन समाप्त कर लिया और हेमा मालिनी सहित लम्बी लिस्ट है जिन्होंने दूसरी पत्नि बनना चुना…।

शादीशुदा आदमी से शादी कर दूसरी पत्नि बनकर ताउम्र सामाजिक लाँछना सहना आसान नहीँ है, एक दिन अपनी संतान भी प्रश्न पूछ सकती है।

हेमामालिनी के भी पेरेन्ट्स धर्मेंद्र से शादी नहीँ चाहते थे, उन्होंने बहुत विरोध किया। हेमा संजीव कुमार से शादी के लिए तैयार थीं पर संजीव की बेहूदी माँग कि वे शादी के बाद काम नहीँ करेंगी के कारण हेमा ने मना कर दिया, अच्छा ही किया वर्ना बेहतरीन डाँसर व अभिनेत्री रसोई में बाकी उम्र चमचा चलाती बिताती। जितेन्द्र के साथ विवाह के लिए भी बाद में मान गई थीं पर जितेंद्र को दिलोजान से चाहने वाली शोभा और धर्मेंद्र की जिद के चलते जितेंद्र की दुल्हन होते- होते रह गईं।

नियति शायद तय करती है कि कौन किसका साथी होगा। पच्चीस फिल्मों में साथ काम करते, दसियों बार कैमरे के सामने प्रेम करते- करते हेमा धर्मेंद्र एक- दूसरे से प्यार करने लगे तो सहज ही हो सकता है।उन्होंने सारे विरोध , तिरस्कार व लाँछना सहकर विवाह किया। प्रकाश कौर  ने भी चाहें जैसे पर बहुत गरिमा के साथ स्वीकार कर लिया।मैं हेमामालिनी की इस बात की बहुत प्रशंसक हूँ कि वे पारिवारिक रस्साकशी में न पड़कर निरन्तर कला की साधना, आदि में सक्रिय रहकर अपने व्यक्तित्व को निखारती रहीं और आर्थिक रूप से भी सुदृढ़ रहीं।

हेमा मालिनी जब मीरा की नृत्य नाटिका में या मीरा फिल्म में मीरा के प्रेम की पीड़ा में गाती हैं …"ए री मैं तो प्रेम दीवानी…” तो कहीं मीरा की पीड़ा को आत्मसात् कर लेती हैं । प्यार का साथ चुनकर भी उन्होंने पीड़ा कम नहीं सही, पर कोई शिकायत नहीं , धर्मेंद्र पर हक का कोई दबाव न देकर हर हाल में सन्तुष्ट रहीं और बेटियों की परवरिश , नृत्य साधना, एक्टिंग , राजनीति में खुदको व्यस्त रखा। इसी कारण उनकी खूबसूरती दिनोंदिन निखरती ही गई। क्रिएटिविटी के कारण सुन्दरता में गरिमा का शहद मिलता रहा। खुद धर्मेंद्र ने कई बार इंटरव्यू में कहा कि हेमा को इस रिश्ते के कारण कई बार बहुत दुःख सहना पड़ा है।

वो कहानी अब पूरी हो चुकी। हेमा मालिनी का व्यक्तित्व बहुत गरिमापूर्ण है , अच्छा है हम अब सही गलत की अदालतें लगााना बन्द करें। बहुत बुरा लगता है जब ए आई से रोती- बिलखती, हाथ जोड़ती , दीन हीन हेमा मालिनी की और बीमार धर्मेंद्र की रील्स दिखाई देती हैं ।देओल परिवार ने अन्त्येष्टि चुपचाप करके अच्छा किया वर्ना जाने क्या-क्या देखने को मिलता।मीडिया तो दो सौतों की मानसिक व काल्पनिक कुश्ती दिखाने से बाज नहीँ आती।

अच्छा हो कि हम अब फालतू बकवास छोड़ , धर्मेंद्र की पुरानी फिल्में देखकर उनको सच्ची श्रद्धांजलि दें।

— उषा किरण 

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

मेरे चश्मे से- अभिमान

            


                               * अभिमान *                                             

ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अभिमान

                                                        …………

ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अन्तरदेश पत्रिका में प्रकाशित, मार्च 2023




गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

ताना बाना : पुस्तक समीक्षा- ताना बाना

ताना बाना : पुस्तक समीक्षा- ताना बाना: मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -   ~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~ जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ल...

शनिवार, 20 सितंबर 2025

यूँ गुज़री है अब तलक, आत्मकथा



 प्रिय सीमा जी🌺

   'यूँ गुज़री है अब तलक ‘ पढ़कर अभी समाप्त की है। मन इतना अभिभूत व आन्दोलित है कि कह नहीं सकती। बहुत सालों बाद किसी किताब ने मुझे ऐसा जकड़ा कि 307 पेज लगातार दो दिन तक सब कुछ भूल कर एक साँस में पढ़ गई।सोचिए मैं इतना खो गई कि परिवार का एक-एक रोटी का संघर्ष पढ़ते-पढ़ते ज़ोर की भूख लगी तो शाम को पाँच बजे ही दो पूड़ी सब्जी बनाकर खाने बैठ गई। 

किसी के व्यक्तित्व के बारे में पढ कर या सुनकर हम जजमेन्टल हो जाते हैं , परन्तु सच तो सौ पर्दों में छिपा  होता है। यह आत्मकथा एक दस्तावेज़ है आपके साधनापूर्ण जीवन का, आपकी सच्चाई का , एक सम्वेदनशील, क्रिएटिव, स्वाभिमानी , जुझारू व्यक्तित्व के संघर्ष की आग में तपकर धीरे-धीरे आध्यात्मिक पथ की साधिका के रूप में रूपान्तरित हो जाने का। करुणा व प्रेम को अपना कर स्वयं बुद्ध हो जाने का। जहाँ न कोई चाह बाकी रहे न लोभ, न क्रोध है न घृणा, न ईर्ष्या है और न हि प्रतिशोध। कुछ है तो बस करुणा , क्षमा और प्रेम। जो न ऊंच- नीच देखता है और न हि हानि लाभ। जो भी, जैसा सामने आया सहजता से सिर माथे लिया और चल पड़ीं। जो नहीं मिला या किसी ने छीन लिया तो उसे भी सहजता से , बिना झगड़ा- झंझट सब त्याग कर आगे बढ़ गईं, आसान नहीं है ऐसा सबके लिए कर पाना। 

ओमपुरी जी ने आपके साथ जैसा छल किया उसके बाद भी उनके दुःख की साथी बनीं, उनके प्रेम का तिरस्कार कभी नही किया, भले ही बदले में तमाम मुसीबतें व तोहमतें झेलती रहीं । हमेशा उनके मासूम कलाकार मन को समझा व सम्मान किया। किसी के सामने न शिकायत की न ही अपनी कैफ़ियत पेश की। किसी सामान्य स्त्री के लिए यह कर पाना असम्भव है। 

लोग कहते होंगे आपको मूर्ख तो कहते रहें आपकी अन्तर्रात्मा तो करुणा व प्रेम की रोशनी से सराबोर रही।सच तो ये है कि मुझे भी कई बार लगा कि आप क्यों नहीं सब बंधन को एक झटके से तोड़ देती हैं । बाद में समझ आता है कि ये गहरी आत्मा से किया प्रेम था , 'मैत्री ‘थी। जहाँ मैं तुम का भेद नहीं रह जाता। बहुत अभागे रहे वे , जिन्होंने इस अमूल्य निधि को पाकर बेकद्री से ठुकराया और फिर ताउम्र तरसते रहे। जिस अजन्मे अपने शिशु को ही अपमानित व  लाँछित किया  फिर अन्तिम साँस तक  पुत्र व पत्नि के प्यार व सम्मान को तरसते हुए ही प्राण त्यागे, यही प्रारब्ध  है जो इस जन्म में या अगले जन्म में भोगना ही पड़ता है….पर ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वे फिर नहीं आते…!’

ये आत्मकथा लिखकर आपने प्रतिपक्ष के सारे दावों व कुटिल चालों  को एक पल में नेस्तनाबूत कर दिया और सच्चाई की रोशनी में अपने दाग़ों को धोकर आलोकित प्रकाश में अपनी जगह बनाकर अपनी गरिमा को  मजबूती से स्थापित किया है। ये एक बहुत मार्मिक श्रद्धांजलि भी है अपने माता-पिता व पुरी साहब व अन्य के प्रति। ये पुस्तक हर उस व्यक्ति के प्रति आभार भी है जो दो कदम भी साथ चला। साथ ही जिनके प्रति कुछ भी अप्रिय हुआ उनसे क्षमायाचना भी है। कुल मिलाकर आपने खुद को उलीच कर खाली किया है। 

यह पुस्तक उन सभी लोगों को तो जरूर ही पढ़नी चाहिए जो बड़े मजे से प्रेमिल पत्नि या पति के होते हुए भी इधर-उधर पोखरों  में डुबकियाँ मारना अपना अधिकार मानते है। वे पुरुष जो अनेक औरतों के प्रति लोलुप रहकर , काम- वासना के वशीभूत होकर अपनी प्रेयसी या पत्नि को अपमानित करते है, लेकिन जब किसी के जालिम फन्दे में फंस जाते हैं तब छटपटाते हैं, उसी वापिस ममतामयी ठंडी छाँव के लिए…पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

पुरी साहब के बारे में जो कुछ न्यूज में पढ़ा व सुना था उससे उनके प्रति जुगुप्सा हो गई थी। अब आपको पढ़कर उनके प्रति वाकई दया व करुणा का भाव उपजता है।इस जगत में हम मानव शरीर लेकर आए हैं कुछ सबक लेने के लिए, आत्मोन्नति के लिए , लेकिन मोह- माया, राग- विराग, मन व इन्द्रियों के झिलमिल कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध में , तामसिक निद्रा में लीन अपना गन्तव्य भूल जाते हैं । जो ईश्वर के प्रिय हैं, जो पिछली साधना करके आए हैं परमात्मा उनको फिर कुछ न कुछ ठोकर देकर जगाए रखते हैं । 

सीमा जी, आपने अब प्रकृति की छाँव तले बुद्ध की शरण में ध्यान, करुणा व शान्ति का मार्ग चुना है। मन की वही बचपन वाली अबोध अवस्था को जी रही हैं यह बहुत शुभ संकेत है।जी चाह रहा है और बहुत कुछ लिखूँ परन्तु मन इतना भरा हुआ है कि अभी पढ़े हुए को मनन करना चाहता है।

विभा रानी का बहुत शुक्रिया। उनके यूट्यूब चैनल 'बोले विभा’ पर उनकी वीडियो देखी जिसमें वे डाकू माधोसिंह वाला प्रकरण पढ़ रही थीं तो उत्सुकतावश इतनी अच्छी किताब मंगवा कर पढ़ी ।आपकी अब जितनी मिलेंगी वे मूवी यूट्यूब पर देखूँगी । मेरी आदत है रियल लाइफ का हो या कहानी क़िस्सों का,  हर किरदार को डूब कर पढ़ती हूँ ।

इतनी सुन्दर प्रेरणादायी किताब लिखने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।मेरी दुआ है आप पर अब कोई मुसीबत कभी न आए। आप इसी तरह निरन्तर साधना पथ पर चलकर परमात्मा को प्राप्त करें…आमीन…धन्यवाद!!

- उषा किरण 🌿

सोमवार, 8 सितंबर 2025

मन बैरागी…🍁


तन की गणना में मत बाँधो मन को…

बेशक वह ताउम्र उंगली थाम

साथ चलता हो, लेकिन सच तो यह है

कि वह अजन्मा, जाने कितनी बार

मरता है और फिर-फिर जन्म लेता है

तुम्हारी ही निस्तब्ध गहराइयों से…!


सत्तर के पड़ाव पर भी

मन सात का हो सकता है,

या सत्रह का, सत्ताइस का—

या किसी और अनकहे अंक पर

अड़ा हो जिद्दी बच्चे सा…


क्या पता कब सहसा उंगली छुड़ा

गहरी डुबकी मारने के बाद

अबकी बाहर आना ही न चाहता हो—

बैठा हो कहीं भीतर के कुहासों में,

कुंडली मार,  धूनी रमाए,

नागा साधु सा नग्न, उन्मुक्त…!


हैरान-परेशान, कब से बैठी हूँ मैं भी

बाहरी मुंडेर पर इंतज़ार में

आए, पहने ये फुँदने वाले

रंग-बिरंगे झालरदार झबले,

लगाए कोई मनपसंद मुखौटा

और चल पड़े उँगली थाम

हाट में हठीला बच्चा बनकर…


उधर आकाश में चाँद राहु से घिरकर रोया

धुला…निखरा और फिर मुस्कराते हुए

ओट से झाँकने लगा है…!


पर क्या करें…इस मन बैरागी को अब

कोई भी गेंद लुभाती नहीं

मेरा नन्हा बच्चा ज़रा बड़ा हो गया है,

भीड़ में आने से अब कतराने लगा है…!!!


— उषा किरण🌿

फोटो: गूगल से साभार 

कुछ इस तरह

 जिन संबंधों को हम भावनाओं के रेशमी तन्तुओं से बुनते हैं, प्यार की सुगन्ध डालते हैं, दिल के क़रीब रखते हैं, वे ही संबंध कभी-कभी जरा सी ठेस स...