ताना बाना
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
बुरी औरतों…!!
सोमवार, 25 नवंबर 2024
कैंसर में जागरूकता जरूरी….
आजकल एक पोस्ट बहुत वायरल हो रही है कि प्राकृतिक चिकित्सा से फोर्थ स्टेज का कैंसर ठीक हो गया। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानती हूँ जिन्होंने अपना एलोपैथी इलाज बीच में छोड़कर आयुर्वेदिक या नेचुरोपैथी अपनाया और नहीं बच सके। मेरी राय है कि कैंसर पेशेंट को पहले किसी अच्छे डॉक्टर से पूरा इलाज सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडिएशन वगैरह जो वो बताएं वह करवाना चाहिए, तब बाद में इसके बारे में सोचें। यहाँ मैं अपने उपन्यास का कुछ अंश प्रस्तुत कर रही हूँ-
"……हॉस्पिटल में बड़े - बड़े पोस्टर लगे थे ,जिनमें लिखा था कि कैंसर - पेशेन्ट कैंसर से ज्यादा कैंसर में विज़िटर्स के द्वारा दिए गए इन्फैक्शन से मरते हैं और इलाज छोड़ कर ऑल्टरनेट थैरेपी या झाड़- फूँक करवाने से मरते हैं ।तो कभी भी बीच में इलाज नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि हर दूसरा आदमी ऐसे में कोई न कोई अचूक नुस्ख़ा या वैद्य ,हकीम ,गंडा- ताबीज या तान्त्रिक की खबर लिए आपको मिलता है।
प्राय: हम किसी परिचित के कैंसर से पीड़ित होने की खबर मिलते ही उससे कभी भी, अचानक मिलने चले जाते हैं ,ये कदापि उचित नहीं है ।उनको मैसेज या कॉल कर कहना चाहिए -
" किसी भी मदद की जरूरत हो तो बताइएगा हम आपको असुविधा न हो इसलिए मिलने नहीं आ रहे हैं ! तन, मन, धन से तुम्हारे पीछे खड़े हैं दोस्त ,बस जब जरूरत हो तो हमें आवाज जरूर देना भूलना नहीं !”
यदि मिलने जा भी रहे हैं तो पूछ कर जाएं! चप्पल जूते बाहर उतार कर जाएं और यदि फ्लू ,वायरल या कोई बीमारी है तो भी न जाएं वर्ना लो इम्यूनिटी के कारण आप उसे इन्फैक्शन देकर मुसीबत में डाल देंगे ।
मैंने सुना है कि कभी भी कीमोथेरेपी के साथ या बाद में आयुर्वेदिक दवाएं भस्म आदि कदापि नही लेनी चाहिए वर्ना बहुत भयंकर परिणाम होते हैं ।डॉक्टर से सलाह किए बिना कोई भी दवाएं नहीं लेनी चाहिए….।”
— दर्द का चंदन
उषा किरण
मैं प्राकृतिक चिकित्सा की विरोधी नहीं हूँ, खुद भी डीटॉक्स के लिए बीच- बीच में जाती रहती हूँ, लेकिन कैंसर जैसी भीषण बीमारी के लिए इस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। मैंने भी पूरा इलाज करवाया फिर बाद में नेचुरोपेथी को और प्राणायाम को अपनाया।इलाज समाप्त होने के बाद पंचकर्म, योगा , प्राणायाम व प्राकृतिक चिकित्सा अवश्य ही लाभ देती है इसमें सन्देह नहीं लेकिन आप इसके भरोसे इलाज छोड़ने का रिस्क कदापि न लें।
टाटा मेमोरियल अस्पताल के पूर्व और वर्तमान के मिलाकर कुल 262 कैंसर विशेषज्ञों द्वारा हस्ताक्षरित बयान में कहा गया है कि-
"एक पूर्व क्रिकेटर का अपनी पत्नी के स्तन कैंसर के इलाज का वर्णन करने वाला एक वीडियो सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रसारित हो रहा है। वीडियो के कुछ हिस्सों में बताया गया है कि 'डेयरी उत्पाद और चीनी न खाकर कैंसर सेल्स को भूखा रखना', हल्दी और नीम का सेवन करने से उनके 'लाइलाज' कैंसर को ठीक करने में मदद मिली। इन बयानों के समर्थन में कोई उच्च गुणवत्ता वाला सबूत नहीं है, ”डॉक्टरों ने लिखा।
“हालांकि इनमें से कुछ उत्पादों पर शोध जारी है, लेकिन कैंसर-विरोधी एजेंटों के रूप में उनके उपयोग की सिफारिश करने के लिए वर्तमान में कोई प्रमाणिक डेटा उपलब्ध नहीं है।
डॉक्टर ने कहा कि हल्दी और नीम से उन्होंने कैंसर को मात नहीं दी बल्कि सर्जरी और कीमोथेरेपी करवाई, जिसके कारण वह इस रोग से मुक्त हुईं। उन्होंने कहा कि हम आमजन से अनुरोध करते हैं कि यदि किसी में कैंसर के कोई लक्षण हों तो चिकित्सक या कैंसर विशेषज्ञ से सलाह लें। पत्र में कहा गया है, "अगर कैंसर का जल्दी पता चल जाए तो इसका इलाज संभव है और कैंसर के सिद्ध उपचारों में सर्जरी, विकिरण चिकित्सा और कीमोथेरेपी शामिल हैं।"
मंगलवार, 19 नवंबर 2024
खुशकिस्मत औरतें
ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें
जो जन्म देकर पाली गईं
अफीम चटा कर या गर्भ में ही
मार नहीं दी गईं,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो पढ़ाई गईं
माँ- बाप की मेहरबानी से,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो ब्याही गईं
खूँटे की गैया सी,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो माँ बनीं पति के बच्चों की,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जिन्हें घर- द्वार सौंपे गये
पति के नाम वाली तख्ती के,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो पर्स टाँग ऑफिस गईं
पति की मेहरबानी से..!
जमाना बदल गया है
बढ़ रही हैं औरतें
कर रही हैं तरक्की
देख रही हैं बाहरी दुनिया
ले रही हैं साँस खुली हवा में
खुली हवा...खुला आकाश...!
क्या वाकई ?
कौन सा आकाश ?
जहाँ पगलाए घूम रहे हैं
जहरीली हवा में
दृष्टि से ही नोच खाने वाले
घात लगाए गिद्ध-कौए !
कन्धे पर झूलता वो पर्स
जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं
ऊँची एड़ी पर
वो निकलती है घर से
बेटी के बुखार और
बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता
पति की झुँझलाहट कि
नहीं दिखती कटरीना सी
मोटी होती जा रही हो...!
सास की शिकायतों
और तानों का पुलिन्दा
फिर चल दी महारानी
बन-ठन के...!
ऑफिस में बॉस की हिदायत
टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए
चेहरे पे मुस्कान चिपकाइए मोहतरमा
शॉपिंग की लम्बी लिस्ट
जीरा खत्म,नमक खत्म, तेल भी
कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी
लौट कर क्या पकेगा किचिन में
घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर
कल टेस्ट है मुन्ना का...
सोच को ठेलती ट्रेन में पस्त सी
ऊँघती रहती है !
ख़ुशक़िस्मत औरतें
महिनों के आखिर में लौटती हैं
रुपयों की गड्डी लेकर
उनकी सेलरी
पासबुक, चैकबुक
सब लॉक हो जाती हैं
पति की सुरक्षित अलमारियों में !
खुश हैं बेवकूफ औरतें
सही ही तो है
कमाने की अकल तो है
पर कहाँ है उनमें
खरचने की तमीज !
पति गढ़वा तो देते हैं
कभी कोई जेवर
ला तो देते हैं
बनारसी साड़ी
जन्मदिवस पर
लाते तो हैं केक
गाते हैं ताली बजा कर
हैप्पी बर्थडे टू यू
मगन हैं औरतें
निहाल हैं
भागोंवाली हैं
वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!
सुन रही हैं दस-दस कानों से
ये अहसान क्या कम है कि
परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं
उनके चरणों में पड़ी हैं
पाली जा रही हैं
नौकरी पर जा रही हैं
पर्स टांग कर
लिपिस्टिक लगा कर
वर्ना तो किसी गाँव में
ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर
फूँक रही होतीं चूल्हा
अपनी दादी, नानी
या माँ की तरह...!
बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं
ख़ुशक़िस्मत औरतें कि...
सबको खिला कर
चूल्हा ठंडा कर
माँ या दादी की तरह
आँगन में अमरूद की
सब्ज छाँव में बैठ
दो जून की इत्मिनान की रोटी भी
अब नहीं रही उसके हिस्से !
घड़ी की सुइयों संग
पैरों में चक्कर बाँध
सुबह से रात तक भागती
क्या वाकई आज भी
ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??
उषा किरण -
फोटो: गूगल से साभार
गुरुवार, 14 नवंबर 2024
तेरी रज़ा
कुछ छूट गए
कुछ रूठ गए
संग चलते-चलते बिछड़ गए
छूटे हाथ भले ही हों
दूरी से मन कब छूटा है
कुछ तो है जो भीतर-भीतर
चुपके से, छन्न से टूटा है
साजिश ये रची तुम्हारी है
सब जानती हूँ मनमानी है
सबसे साथ छुड़ा साँवरे
संग रखने की तैयारी है
हो तेरी ही अभिलाषा पूरी
रूठे मनाने की कहाँ अब
जरा भी हिम्मत है बाकी
सच कहूँ तो अब बस
गठरी बाँधने की तैयारी है
अब सफर ही कितना बाकी है
वे हों न हों अब साथ मेरे
न ही सही वे पास मेरे
हर दुआ में हृदय बसे
वे मेरे दुलारे प्यारे सभी
वे न सुनें, वे ना दीखें
पर उन पर मेरी ममता के
सब्ज़ साए तो तारी हैं…
थका ये तन औ मन भी है
तपती धरती औ अम्बर है
टूटे धागों को जोड़ने की
हिम्मत न हौसला बाकी है
न मेरे किए कुछ होता है
न मेरे चाहे से होना है
न कुछ औक़ात हमारी है
ना कुछ सामर्थ्य ही बाकी है
जो हुआ सब उसकी मर्ज़ी
जो होगा सब उसकी मर्ज़ी
रे मन फिर क्यूँ तड़पता है
मन ही मन में क्यूँ रोता है
संभालो अपनी माया तुम
ले लो वापिस सब छद्म-बन्ध
अब मुक्त करो है यही अरज
ना बाँधना फिर फेरों का बन्ध
हो तेरी इच्छा पूर्ण प्रभु
तेरी ही रज़ा अब मेरी रज़ा
जो रूठ गए या बिछड़ गए
खुद से न करना दूर कभी
बस पकड़े रहना हाथ सदा
संग-साथ ही रहना उनके प्रभु…!!!
— उषा किरण 🍁
फोटो; गूगल से साभार
गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024
औरों में कहाँ दम था - चश्मे से
"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था
सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था
हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े
दुश्मन थे हम ही अपने. औरों में कहाँ दम था…”
जिस तरह मेरे लिए किसी किताब को पढ़ने के लिए सबसे पहले प्रेरित करता है उसका कवर और पेपर की क्वालिटी। उसी तरह किसी फिल्म को देखने से पहले उसका टाइटिल व म्यूज़िक का अच्छा होना जरूरी है। अब इस फिल्म का टाइटिल बहुत बाजारू टाइप घटिया लगा हमें और गाना एक भी सुना नहीं था तो पता नहीं था कैसी है, फिर भी देखी तो सिर्फ़ इसलिए कि तब्बू और अजय देवगन दोनों की एक्टिंग कमाल होती है और इसमें साथ थे दोनों, तो ये तो तय था कि टाइम बर्बाद नहीं होगा।तो देखी फिर…और लगा कि इससे बेहतर टाइटिल इसका और क्या होता ?अजय देवगन की आवाज में पूरी नज्म सुनिए, आनन्द आ जाएगा।
एक सम्पूर्ण प्रेम किसे कहते हैं, यदि देखना हो तो देख सकते हैं । ऐसा प्रेम जहाँ सब कुछ खोने के बाद, बिछड़ने के बाद भी जीवन में जो बचा वह सम्पूर्ण प्रेम ही है। जहाँ मीलों दूरी के बाद भी इतनी निकटता है कि विछोह का भी स्पेस नहीं । जहाँ एक का सुखी होना ही दूसरे की सन्तुष्टि है, तो किसी की सन्तुष्टि के लिए ही किसी को सुखी होना है…जहाँ किसी के लिए बर्बाद होने पर भी कोई ग़म नहीं, क्योंकि वह आबाद है….जहाँ कुछ भी न पा सकने पर भी कोई कमी का अहसास नहीं या शायद जहाँ अब कुछ पाना शेष नहीं….तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी तीसरे को सब हासिल होने पर भी ख़ालीपन का अहसास है। खुद को वह असुरक्षित, ठगा हुआ सा महसूस करता है( ठगा हुआ बेशक पर सच के हाथों, छल के हाथों नहीं) प्यार की यही रीत अनोखी है यहाँ पाने और खोने के मीटर पर आप कुछ नहीं नाप सकते ।
कुछ लोगों का मत है कि जिमी को खामखाँ मूवी में डाला गया है।जिम्मी यानि पति के बिना तो यह प्रेम कहानी अधूरी ही रहकर एक आम कहानी बन जाती। वो न होता तो जेल से निकल दोनों शादी करते, गृहस्थी में बंध जाते…स्वाहा, बात खत्म।
लेकिन यहाँ, जहाँ एक ने प्रेम यज्ञ में अपनी ही आहुति भेंट कर दी उसके हाथ बेशक ख़ाली हैं पर वह जानता है कि नायिका पूरी तरह सिर्फ़ उसकी है, दूसरी तरफ़ पति है जिसने उसे हासिल तो किया पर जानता है कि नायिका को पाकर भी उसके हाथ ख़ाली हैं, उसका सर्वांग पहले ही किसी और का हो चुका है, इस प्रेम यज्ञ में उसने भी अपनी आहुति डाली है। पति बहुत अच्छा इंसान है और इसी अच्छाई से बंधी है वह. पति सालों से अपने उस रक़ीब को जेल से छुड़ाने में बिना बताए प्रयासरत है, जिससे खुद इन्सिक्योर है.ये कहानी एक प्रेम- यज्ञ की कहानी है जिसमें तीनों अपनी-अपनी आहुति डाल रहे हैं, वक्त ने रचा है ये हवनकुंड.
नायिका को अपने पति के प्यार पर भी इतना विश्वास है कि वह जानती है कि पति उसे पूर्व प्रेमी के गले लगा हुआ देख रहा है पर वह निर्भय है, क्योंकि कुछ इतना खोने को है नहीं जिसका डर हो, कोई ऐसा सच नहीं जो छिपा हो तो भय कैसा ? और विश्वास का घृत है इस समिधा में मिला हुआ…!
वैसे इसे आप एक मामूली नाटकीय प्रेम कहानी भी कह सकते हैं और देखने पर आएं तो प्रेम- दर्शन का महाकाव्य रचती है यह फिल्म…बात है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर है। मेरा चश्मा है ही विचित्र जाने क्या-क्या तो दिखा देता है, सब कुसूर उसी का है…।
फिल्म का आखिरी दृश्य जब तब्बू अजय देवगन को नीचे गाड़ी तक छोड़ने जाती है इस फिल्म का प्राण है।एक- एक डायलॉग, हरेक भाव अद्भुत है। अजय देवगन की आँखों में राख और चिंगारी एक साथ दिखाई देती हैं। तृप्ति और प्यास एक साथ मचलते हैं। उसकी आवाज में कही गई नज्म…'औरों में कहाँ दम था…’ लगता है हर शब्द से धुआँ उठ रहा है…बार- बार सुनने का मन करता है।
सच कहूँ तो फिल्म देखते समय गाने से ज्यादा कहानी पर ध्यान था, तो गानों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।फिल्म देखने के तुरन्त बाद जब सारे गाने इत्मिनान से सुने तो मन मुग्ध हो गया।सुनिधि और जुबीन नौटियाल की आवाज में गाया गाना बेहद सुन्दर है-
"ऐ दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना
ये आज की शाम संभाल के रख लेना..
मैं तारे-सितारे करूंगा क्या
जो पैरों तले ये जमीन न रही
वजूद मेरा ये तुम ही से तो है
रहा क्या मेरा जो तुम ही न रही
ए आंसू ठहर कभी और छलक लेना
ए दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना…
ये गाना इस फिल्म की आत्मा है जिसे मनोज मुंतज़िर ने बहुत ख़ूबसूरत लिखा है और कम्पोज़ किया है एम.एम. केरावनी ने।सुनिधि की आवाज इस गाने को अलग ही मुकाम पर पहुँचा देती है।
एक और सूफी गाना है-
"किसी रोज बरस जल- थल करदे न और सता ओ साहेब जी,मैं युगों- युगों की तृष्णा हूँ तू मेरी घटा ओ साहेब जी…” इसको सुनते ही लगा बहुत अपनी सी आवाज है पर है कौन…देखा, अरे ये तो वही है अपनी मैथिली ठाकुर ! ये गाना भी जैसे भटकती रूहों को विश्राम देता है।जैसे प्रार्थना करता है कि जन्मजन्मान्तरों से भटकती प्यासी रूहों को अब इतना बरसो कि तृप्त कर दो….
चारों एक्टर की एक्टिंग कमाल की है।
अब कहानी नहीं बताएंगे, आप खुद ही देखिए। हम बता कर आपका क्यों मजा खराब करें। बस एक चीज खटकती रही कि कुछ सीन को पूरा का पूरा बार- बार दोहराना। कुछ फालतू सीन हटा देते तो फिल्म में कसावट आती।वैसे मैं ज्यादा मीनमेख निकालकर मूवी नहीं देखती. जिस नजरिए से बनाई गई बस उसी से देखती हूँ…अपने काम के मोती चुन लेती हूँ…बस!
यदि अजय देवगन, तब्बू की केमिस्ट्री देखनी है, बढ़िया संगीत सुनना है, प्रेम की पराकाष्ठा देखनी है तो देख लीजिए…सुना है कुछ लोगों को पसन्द नहीं आई तो नहीं आई….अब हमने तो अपने चश्मे से जो देखा वो बता दिया, आगे आपकी मर्ज़ी…आप देखें अपने चश्मे से
फिलहाल तो हम रात दिन सुनिधि और मैथिली की आवाजों की चाशनी में डूब रहे हैं…अच्छा संगीत भी ध्यान ही है मेरे लिए।
—उषा किरण
सोमवार, 22 जुलाई 2024
असुर
बहुत मुश्किल था
एकदम नामुमकिन
वैतरणी को पार करना
पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से
उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी
हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!
हताश- निराश हो
मैंने आह्वान किया दैत्यों का
हे असुरों विराजो
थोड़ा सा गरल
थोड़ी दानवता उधार दो मुझे
वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !
वे खुश हुए
तुरन्त आत्मसात किया
अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को
मुझमें उतार दिया
परास्त कर हर बाधा
बहुत आसानी से
पार उतर आई हूँ मैं !
अब...
मुझे आगे की यात्रा पर जाना है
कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:
हे असुरों आओ
जा न सकूँगी आगे
तुम्हारी इन अमानतों सहित
ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त
ये आर - पार चीरती कटार
मुक्त करो इस दानवता से
पर नदारद हैं असुर !
ओह ! नहीं जानती थी
जितना मुमकिन है
असुरों का आना
डेरा डाल देना अन्तस में
उतना ही नामुमकिन है
उनका फिर वापिस जाना
मुक्त कर देना ...!
बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई
हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:
आओ हे असुरों आओ
मुक्त करो
आओ......मुक्त करो मुझे
परन्तु....!
—उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार
रविवार, 7 जुलाई 2024
प्राग ( Prague), चैक रिपब्लिक
'चेक गणराज्य’ की राजधानी, एक सांस्कृतिक शहर है `प्राग’, जो शानदार स्मारकों से सुसज्जित है। प्राग एक समृद्ध इतिहास के साथ मध्य यूरोप का एक राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र रहा है।
यह एक ऐसा देश है जो संगीत और कला के प्रति पूरी तरह समर्पित है।मुझे यह इसलिए भी बहुत पसन्द आया , क्योंकि यहां हर कदम पर कला के दर्शन होते हैं ।इसे बागीचों और उद्यानों का शहर भी कहा जाता है। इसके अलावा यह शहर बीयर के लिए भी मशहूर है। यहां दुनिया की सबसे अच्छी बीयर बनाई जाती है।
हमने पहले ही दिन विन्टेज कार का टूर ले लिया था जिससे हमें शहर के बारे में काफ़ी जानकारी मिल गई थी।हमारी कार जिधर से गुजर रही थी लोग पॉइंट आउट कर रहे थे, वीडियो बना रहे थे ,हमें भी तो मजा आ रहा था।
यहां के पुराने कस्बे व गाँव बेहद ही खूबसूरत हैं। साथ ही प्राग कैसल में भव्य सेन्ट वाइटस कैथेड्रल चर्च , आर्ट गैलरी, संग्रहालय भी देखे । चेक गणराज्य की सबसे लंबी नदी, वल्टावा पर बना चार्ल्स ब्रिज पर घूमने का आनंद भी लिया।ऐतिहासिक 600 साल पुराने चार्ल्स ब्रिज से हमने प्राग किले की जलती लाइट का अभूतपूर्व नजारा देखा। 600 साल पुराने ओल्ड टाउन स्क्वैयर में बेहतरीन ऐतिहासिक स्मारक और इमारतें आज भी संरक्षित हैं । चौक के बीच में धार्मिक सुधारक `जान हुस ‘ ( Jan Hus) की भव्य मूर्ति है। चर्च ऑफ़ अवर लेडी बिफोर टिन ( Church of Our Lady before Tyn) , एस्ट्रोनॉमिकल क्लॉक का जादुई करिश्मा देखा , जहाँ हर घंटे पर कुछ हलचल हो रही थी। ( मैंने इस पर विस्तृत पोस्ट पीछे वाली पोस्ट में लिखा है)। किंस्की पैलेस में नेशनल गैलरी का कला- संग्रहालय देखने का अनुभव भी काफी सुखद रहा।
यूरोप में सबसे सुविधाजनक है जगह- जगह पर साफ-सुथरे टॉयलेट का होना। कई जगह कुछ पेमेन्ट करके आप इस सुविधा का लाभ ले सकते हैं। तो अपनी पॉकेट या पर्स में कुछ सिक्के रखना न भूलें।यहाँ पर कोरूना करेन्सी चलती है परन्तु अधिकांशत: यूरो ही चलता है।
खाने- पीने के लिए साफ- सुथरे रेस्तराँ व कैफे की भरमार है।थाई, मैक्सिकन, चाइनीज, इटैलियन, वियतनामी और इंडियन खाने का भी हमने मजा लिया। इंडियन रेस्तराँ कई थे और वहाँ का खाना अच्छा था। मसाला इंडियन रेस्तराँ, इंडियन बाई नेचर, एकान्त रेस्तराँ आदि।एकान्त रेस्तराँ के बिजनौर वाले भैयाजी ने कॉम्पलीमेन्टरी हम सबको एक- एक कटोरी खीर दी तो मजा आ गया। 😊बाकी हर दिन सुबह- शाम स्वादिष्ट जिलाटो आइस्क्रीम के डिफ्रेंट फ्लेवर खा- खाकर हमारा दो- तीन किलो वेट और बढ़ ही जाना था , इसमें कुछ आश्चर्य नहीं ।जबकि पैदल घूमना खूब होता था।
मौसम तो बहुत मज़ेदार था। सुबह- शाम हल्की ठंड और दोपहर हल्की गर्म हो जाती थीं । कभी-कभी हल्की बारिश, बादल मौसम खुशगवार रखते थे और यात्रा को सुखद बनाए हुए थे और पूरा परिवार जब साथ हो तो घूमने का आनन्द कई गुना बढ़ जाता है।
— उषा किरण
लघुकथा
'वैश्विक लघुकथा पीयूष’ में दो लघुकथाएं छपी हैं। धन्यवाद ओम प्रकाश गुप्ता जी…आप भी पढ़ कर अपनी राय दीजिए- ...