ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 29 सितंबर 2021

हर घर कुछ कहता है





मुझे बचपन से ही लगता है कि जिस तरह इंसान की व अन्य जीव- जन्तुओं की रूह होती है उसी प्रकार हर मकान की और पेड़ -पौधों की भी अपनी रुह होती है। उसमें रहने वाले प्रणियों के साथ-साथ वो भी साँस लेते हैं और न सिर्फ़ सांस लेते हैं, अपितु उनके सुख-दुख के मौसम उन पर से भी होकर गुजरते हैं।


मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।उनमें भी प्राण- प्रतिष्ठा हो जाती है। सालों हमारे साथ रहते मकानों का वजूद हमारी साँसों पर टिका रहता है।वे हमारी साँसों से ही साँस लेते हैं ,उनकी और हमारी प्राणवायु एक हो जाती है।हमारे सुख-दुख में साथ हंसते रोते हैं। मकान ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, भी हमारे सगे-संबंधी से हो जाते हैं। हम जब उनको छोड़ कर चले जाते हैं, तो वे श्रीहीन हो जैसे निष्प्राण हो जाते हैं ।


दरअसल ताताजी( अपने पापा को हम ताताजी कहते थे ) का जॉब ट्रान्फरेबल था, तो दो- तीन साल में ट्रान्सफर हो जाता था। नए शहर में नए सिरे से डेरा जमाना होता। हम लोगों ने  इस कारण बहुत से शहर देखे।भाँति-भाँति की संस्कृतियों से परिचय हुआ।अनेक प्रकार की बोलियाँ,खानपान, पहनावा व स्वभाव देखने को मिलते रहे। हर शहर के खाने व पानी का स्वाद तो अलग होता ही है, हर शहर की अपनी रूह ,अपना अलग ही रंग व मिजाज भी होता है।


शहर ही क्यों हर घर का भी अपना अलग मिजाज, अपनी अलग खुशबू  भी मुझे महसूस  होती थी। इतना ही नहीं मुझे लगता है कि हर घर की भी अपनी एक रुह होती है। जब  भी ट्रान्सफर के बाद किसी नए शहर में, किसी नए मकान में डेरा जमाया तो वो उखड़ा सा, उजाड़ और उदास सा मिला। धीरे-धीरे हम उसके और वो हमारा हो जाता। कुछ ही  महिनों में वो मकान घर में तब्दील हो हमारा हमनवाज़ बन चहक उठता। लेकिन एक दो साल बाद अगले ट्रान्सफर पर सारा सामान ट्रक में लद जाने के बाद दुबारा उजाड़, उदास हुए मकान को डबडबाई आँखों से देख उससे   विदा लेते, हम गले मिल मूक रुदन रोते।सालों बाद भी मुझे बचपन से लेकर अब तक रहे हर घर की याद हमेशा को पीछे छूट गए किसी  दोस्त की तरह ही सताती है। हर घर से मेरा एक नए रंग का रिश्ता बना।


किसी घर के बाहर लगे गुलमोहर व अमलतास की सुर्ख- जर्द छाँव, किसी का बड़ा सा आंगन और कोने पर लगे अमरूद, अनार, किसी के आँगन में अमरूद पर छींके में बंधे लटकते कद्दू , किसी आँगन में आम से लदी झुकीं डालियाँ,किसी के पीछे से जाती रेलगाड़ियों की छुक-छुक , बरसों याद आती रहीं। इलाहाबाद व बनारस का गंगा घाट, नैनीताल,अल्मोड़ा की बारिशें,पहाड़िएं व झील, लखनऊ के हज़रतगंज की चाट व कुल्फी, मैनपुरी का कपूरकंद, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ा, भी खूब याद आते।


 ताताजी का ट्रान्सफर होने पर फिर नया शहर ,नया मकान ,नया स्कूल।सब कुछ अजनबी सा लगता। लोग तो अजनबी लगते ही, यहाँ तक कि दुकानें, पार्क, सड़कें, पेड़-पौधे भी अपरिचित से लगते।  हर बार शहर ही नहीं सहेलियाँ व स्कूल भी छूट जाते। नई सहेलियाँ बनाने में  वक्त लगता। जब तक नए शहर में कुछ मन लगना शुरु होता कि दुबारा ट्रान्सफर का ऑर्डर आ जाता। इस सबसे मेरा बहुत दिल टूटता। हर समय रोना सा आता रहता।शायद इसी वजह से बचपन से ही मन के किसी कोने में वैराग्य का पौधा स्वयम् ही पनप गया था।


मुझे याद आता है कि कई घरों से कोई भूत या चुड़ैल का किस्सा भी जुड़ा रहता था। जो कि वहाँ पिछले वाले साहब के साथ काम कर चुके कर्मचारी लोग अम्माँ को बहुत धीरे से फुसफुसा कर सुनाते थे, लेकिन सबसे पहले मेरे ही कान सुनते उनको।उनमें से कुछ भूत तो वहीं सोते छूट गए पर कुछ मेरे सपनों में जब- तब घुसपैठ करते सालों तक हमारा खून सुखाते, रात में अमरूद के पेड़ पर तो कभी पीपल के पेड़ पर लटक कर दाढ़ी हिला-हिला कर हंसते हमें डराते रहे।


पीलीभीत की हाजी जी की बहुत विशाल कोठी के आधे भाग को उन्होंने हमें किराए पर दिया हुआ था।बाकी आधे में वे स्वयम् तीन बीबियों और बच्चों के साथ रहते थे। बढ़ी बीबी का काम था घर का मैनेजमेन्ट देखना, दूसरे नम्बर की हर वक्त हाँडी और रोटियाँ पकाती रसोई में ही घुसी रहतीं और तीसरी सबसे छोटी मशीन पर कपड़े सिलती रहती थीं। कभी बहुत सम्पन्न रहे हाजी जी की माली हालात कुछ ठीक नहीं थे अब। दोनों घरों के बीच की दीवार में एक दरवाजा था जिसकी कुंडी दिन में हमेशा खुली रहती थी और हमारी अम्माँ व हाजी जी की बीबियाँ काम के बीच में मौका देख दरवाजे पर ही खड़े-खड़े खूब बतरस का आनन्द लेतीं।


प्राय: पहले दो घरों के आंगन के बीच की दीवार कॉमन होती थी और उसमें एक दरवाजा होता था जिसका खुलना व बन्द होना दोनों घरों के मालिकों के आपसी संबंधों पर निर्भर रहता था। अम्माँ खूब मजे लेकर सुनाती थीं कि`ललितपुर में श्रीवास्तव साहब का और हमारा बीच का दरवाजा खुला ही रहता था तो तुम छोटी सी थीं उनकी रसोई से एक छोटा लोटा लाकर हमेशा अपने घर के बरतनों में रख देती थीं। जब ट्रान्सफर हुआ तो उन्होंने भरे मन से चलते समय वो लोटा तुमको ही दे दिया।’


जहाँ भी ट्रान्सफर होकर हम लोग जाते हफ्ते भर में ही अम्माँ की आस-पड़ोस में आन्टी लोगों से अटूट दोस्ती हो जाती।कभी डोंगों की अदला-बदली होती तो कभी चीनी, नमक, दही का जामन या कोई दवाई के आदान-प्रदान के लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ लगाते रहते। कभी साथ में बड़िएं, अचार बन रहे हैं, तो कभी चिप्स-पापड़, कभी जवे बन रहे हैं तो कभी स्वेटर के डिजाइन सीखे जा रहे हैं। दीवाली, होली पर हमारे यहाँ से मिठाइयाँ, गुझियाँ हाजी जी के यहाँ पहुँचते तो ईद पर हाजी जी की तरफ से कोई उनका कारिन्दा सीधे हलवाई के यहाँ से गर्मागर्म कचौड़ी, सब्जी, रबड़ी व मिठाइयों का टोकरा सिर पर रखे लिए चला आता।रामप्यारी मौसी के हाथ की सब्जी और तन्दूर में लगाई रोटियाँ हमें बहुत पसन्द थीं तो वे एक कटोरी सब्जी और दो तन्दूर की रोटियाँ जब- तब हमारे लिए लिए चली आती थीं।


ट्रान्सफर होने पर मोहल्ले के लोगों की भीड़ लग जाती और नम आँखों से, भरे गलों से हम लोगों की मार्मिक विदाई होती इसका श्रेय अम्माँ की व्यवहारकुशलता व अपनत्वपूर्ण व स्नेहसिक्त व्यवहार को ही जाता था।


पीलीभीत में पुराने साहब लोगों के साथ काम कर चुके मोहर ने एक बार बताया-"अब का बताएं बहू जी हम सुने जौन कमरा मा आप लोग सोवत हैं उसी के आले में पीर साहब का वास रहिन। हम पिछली वाली बहूरानी को कहत सुने।” हम आस-पास ही खेल रहे थे, सुनते ही हमारे प्राण कन्ठ तक आ गए लगा बस आज की रात हमारी ही गर्दन पीर साहब नापने वाले हैं ।


अम्माँ ने हाजी जी की बड़ी बेगम से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि " हा बीबी, जब हम उसमें रहते थे तो हमने उसे पीर साहब का आला बनाया था, डर की कोई बात नहीं, वो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे बस आप कोई ऐसी- वैसी चीज मत रखिएगा उसमें !” अम्माँ ने बताया कि हम तो बस चाबियों के गुच्छे रखते हैं तो उन्होंने कहा कि" ठीक है कोई बात नहीं।”


ऐसे ही बलिया वाले घर के एक कमरे में चुड़ैल की सूचना मोहन से मिली, तो मथुरा वाले घर के स्टोर में किसी भूत के वास की भी चर्चा हुई। लेकिन हमारी अम्माँ और ताताजी ने कभी भी उन बातों को गम्भीरता से नहीं लिया बस अफवाह मान कर उड़ा दिया, लेकिन हम बच्चों के सपनों में उनका तान्डव जारी रहता और हमारा  खून ही सूखता रहता था।


इसी तरह शादी के बाद हम सालों जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसकी कई स्मृतियों में बन्दरों की घटनाओं की भी कई स्मृतियाँ हैं। जब बन्दरों का अटैक होता तो कई दिनों तक लगातार झुंड के झुंड आते ही चले जाते थे। जिस साल शादी हुई तब इन्वर्टर, जैनरेटर तो होते नहीं थे तो लाइट जाने पर तिमंजले की छत पर ही जाकर सो जाते थे। एक दिन मैं तो सुबह ही उठ कर नीचे आ गई। थोड़ी देर बाद देखा कि बराबर की छत पर बन्दर बैठा तकिया फाड़ कर कूद- कूद कर सड़क पर रुई उड़ा रहा है और सड़क चलते लोग देख कर हंस रहे हैं। उसकी हरकतों पर हमें भी हंसी आ गई।हमने सोचा कि सिंह साहब अभी ऊपर ही सो रहे हैं कहीं बन्दर काट न ले तो  जाकर जगा दें। ऊपर गए तो देखा उनके सिर के नीचे से तकिया गायब है। हमारी हंसी गायब हो गई ,समझ आया वो हमारे ही तकिए की धज्जिएं बिखेर रहा था।


एक दिन कमरे की खिड़की खुली रह गयी तो जैसे ही मैं कमरे में घुसी तो धक् से रह गई कमरे का एक भी सामान ठिकाने पर नहीं थी। कुशन फटे पड़े थे, एलबम की चिंदियाँ उड़ रही थीं कई कैसेट की रीलों के गुच्छे परस्पर गुँथे पड़े थे कुछ कपिराज के गले में हार सी शोभा पा रहे थे।और दो कपि युगल हमारे नर्म गद्दों पर रजाई सिर से ओढ़ कर कूद रहे थे।हमारी चीख सुन कर दाँत निकाल खौं- खौं करके खिड़की से कूद बाहर भाग गए और जाते- जाते भी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी हमारी रिस्टवॉच भी ले गये।


ऐसे ही कभी बच्चों के मुँह से बोतल छीन के ले गये तो कभी चश्मा या कपड़े, कभी फ्रिज से छिली रखी पाँच किलो मटर के दाने का पैकिट ले जाकर पूरी सड़क पर बिखेर दिए, कभी आम की दावत उड़ाई। तीनों कमरों के बीच में दो बड़ी- बड़ी खुली छतें थीं तो बन्दरों का खूब आतंक रहता था। मेरा भी सारा डर निकल गया। कई बार हम एकदम आमने- सामने टकरा जाते थे, पर मैं दृढ़ता से स्थिर खड़ी रह कर उसकी आँखों में टकटकी लगा कर देखती रहती। पापा का बताया ये फॉर्मूला बहुत काम आता था और उल्टा बन्दर ही डर कर भाग जाते थे।


एयर गन और कई डंडों का इंतजाम हम हमेशा रखते थे।प्राय: एयर गन देखते ही बन्दर तेजी से डर कर भाग जाते थे। लेकिन हमें इस बात की बेहद हैरानी है कि हर मोहल्ले के बन्दरों का  मानसिक बल भी अलग ही होती है। जब हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हुए तो वहाँ के बन्दरों पर एयर गन का जरा भी असर नहीं होता था। हम कन्धे से लगा कर एक आँख बन्द कर चाहें कितनी ही नेचुरल पोज़ीशन साधें पर मजाल है जो किसी बन्दर पर जरा भी फर्क पड़ता हो आराम से पूँछ हिलाते सामने से टहलते निकल जाते और हम हैरान दाँत किटकिटा कर रह जाते।


मुझे याद है ताताजी के गुजर जाने के कुछ दिनों बाद,भैया की परेशानी में जब हम चारों भाई-बहन पापा का बनवाया मकान बेचने के लिए मैनपुरी गए और सुनसान घर का ताला खोल कर जब अन्दर प्रवेश किया तो हमारे अन्तस में भी सन्नाटा पसर गया ...कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझे एक ही बात की हैरानी हो रही थी और मैं भरे गले से बार-बार यही बुदबुदा रही थी कि,`ये घर सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया...जो घर इतना विशाल था, इतना रौशन था, हर समय जगमग करता था उसमें अब भरी दोपहर में भी इतना अँधेरा कैसे भर गया ?’ मेरे आँसू थम ही नहीं रहे थे।


 घर वालों के बिना वो हमारा  घर एकदम अनाथ, उजाड़ और बेनूर सा लग रहा था।उजड़े पड़े इसी आँगन में कभी, कैसी चहल-पहल भरी होती थी। अम्माँ के महकते ममतामयी आँचल के साथ  इसी चहकते आँगन का भी मानो इतना विस्तार बढ़ जाता था कि ओर-छोर ही नजर नहीं आता था। हम सब जब जाते तो अपनी थकान और परेशानियों को भूल, सुकून में डूब कर गुम ही हो जाते।


रिटायरमेंट से पहले ही गाँव पास होने के कारण ताताजी ने मैनपुरी में बहुत प्यार से कोठी बनवाई , जिसका नक्शा भी खुद ही बनाया था और रिटायरमेंट के बाद वहीं रहने लगे थे। 


इसी आँगन में जब अम्माँ अपना पोर्टेबल चूल्हा रख कर पीढ़े पर बैठ बड़ी सी कढ़ाई में गाजर का हलुआ घोंटती, साग, मक्का की रोटी, कढ़ी, दही बड़े, बिरियानी, कोरमा वगैरह प्रसन्नता से दमकते मुख से पकाती थीं, तो हम और हमारे बच्चे उनके चारों तरफ चहकते-लहकते चक्कर काटते रहते।


ताताजी भी बीच- बीच में आकर हमारी हा-हा,ठी-ठी और बतकही के बीच शामिल हो जाते।अपने शिकार के और जंगलों के किस्से सुनाते, तो कभी विद्यार्थी जीवन की शैतानियाँ सुनाते। मुझे प्राय: छेड़ते- "देखो ये इतनी तनख़्वाह ले रही है, बच्चों को बेवकूफ बनाने की, अरे पेंटिंग भी कोई पढ़ाने का सब्जेक्ट है ?” 


हम लोगों के आने से पहले ही ताताजी पपीते, शरीफे, आम, चीकू तोड़ कर पेपर में लपेट कर कनस्तर में रख कर पकने रख देते थे और हम लोगों को बहुत प्यार से निकाल कर खिलाते थे।


खाने पीने का न कोई टाइम रहता, न ही सीमा। भरे पेट पर भी पकौड़ी बन जातीं, तो कभी भर गिलास काँजी के बड़े या भर गिलास मट्ठा लेकर हम सब खाने-पीने बैठ जाते। कभी ठंडाई पिसती, तो कभी चाट बन रही होती।अचानक कपूरकन्द की या जलेबी की फरमाइश पर मोहन साइकिल ले बाजार भागता। कितना ही खा-पी लें लेकिन पेट और मन ही नही भरता था हमारा। बाद में झींकते कि "हाय राम कितना वेट बढ़ गया।” 


लौटते समय अम्माँ के हाथ की प्यार भरी सौगातें-अचार,पापड़, मुरब्बे ,बड़िएं, लड्डू ,मठरी ,गुझियाँ, बेसन के सेब वगैरह हमारे साथ बंधे होते।मौसम के अनुसार अम्माँ हम लोगों के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह बना कर रखती थीं। 


इसी उदास, उजाड़ आँगन की तब कैसी शोभा होती थी। बाहर के बरामदे के साइड में सुगन्धित गुलाबी फूलों से लदी बेल व घनी मधुमालती के सघन, सुगन्धित कुंज से आच्छादित बरामदे की सीढ़ियों के पास का कोना हम बहनों की सबसे मनपसन्द जगह थी। तरह- तरह की चिड़ियों की मनमोहक चहचहाहट सुनती मैं वहीं भीनी-भीनी सुगन्धित शीतल छाँव में सीढ़ियों पर बैठी शिवानी या अमृता प्रीतम का कोई उपन्यास और काँजी, चाय या फेट कर बनाई खूब झागदार कॉफी का मग लेकर घंटों बैठी रहती।


 सुबह लॉन की हरी घास के कोने में हरसिंगार के नीचे ओस से भीगे श्वेत-केसरिया फूलों की सुगन्धित, शीतल चादर सी बिछ जाती। मैं रोज सुबह उठ कर वहाँ जाकर लेट जाती। फूल-पत्तों से छन कर आती सुबह की सुनहरी किरणें चेहरे पर अठखेलियाँ करतीं।ओस-भीगे फूल जैसे तन-मन का सारा सन्ताप व थकन हर कर तुष्टि से भर देते और मैं गुनगुनाती हुई बहुत देर तक अलसाई सी वहीं पड़ी रहती। अम्माँ को जोर से चिल्ला कर कहती "अम्माँ हमारी चाय यहीं भिजवा दो !”

ताताजी भी प्राय: पास में कुर्सी डाल कर पेपर लेकर बैठ जाते।


कभी कोई पेन्टिंग बना कर, तो कभी कुम्हार के यहाँ से मिट्टी मंगवा कर मैं कोई मूर्ति गढ़ती, पुआल-उपलों में पका कर, कलर करके घर में सजा आती। ताताजी, अम्माँ बहुत खुश होते। आने-जाने वालों को मगन होकर आर्टिस्ट बिटिया के करतब दिखाते।


वही घर-आँगन था, वही पेड़-लताएं ...पर आज श्रीहीन, स्तब्ध खड़े थे मानो सब।अब न हमें रंग-बिरंगे फल-फूल नजर आ रहे थे और न ही वे पेड़ों पर चहकते ,फुदकते रंग- बिरंगे सुग्गा,पंछी। हम सबकी आँखें बरस रही थीं।उस उजड़े, सूने आँगन में स्तब्ध-अवाक खड़े हमें अपने अनाथ हो जाने का अहसास पहली बार इतनी शिद्दत से मर्माहत कर रहा था।


उसके नए मालिक को चाबियों के साथ उस घर की धड़कनें सौंपते, मन ही मन अपने प्राणप्रिय उस घर से माफी माँगी, जिसकी एक-एक ईंट ताताजी ने बहुत प्यार से रखी थी।मन पर बहुत भारी बोझ लेकर हम लोगों ने अपने घर से अन्तिम विदा ली।गाड़ी में बैठ, घर पर प्यार भरी अन्तिम दृष्टि डाल मैंने आँखें मूँद प्रार्थना की कि नए मालिकों का होकर मेरा घर फिर से हरा-भरा हो खिलखिला उठे और खूब शुभ हो नए मालिकों के लिए ये हमारा सपनों का घर।


 घर की भी आत्मा होती है ये मैंने दो बार महसूस किया है।एक तो मैनपुरी के मकान को बेचने के बाद जब वहाँ आँगन में खड़ी थी तब और दूसरी बार तब, जब हम लोगों ने अपने ससुराल का पुश्तैनी मकान खाली कर ताला लगाया।


अम्माँ व बाबूजी के गुजर जाने के बाद, समय के साथ जब परिवार बढ़ा तो जगह की कमी व सौ साल पुराने मकान की जर्जर हालत देख कर अपनी सुविधानुसार तीनों भाई सालों साथ रहने के बाद अपने-अपने अलग घर बनवा कर  उनमें शिफ्ट हो गए। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ ये देख कर कि हमारा वो पुश्तैनी मकान साल भर में ही ढहने की स्थिति में आ गया। आज भी जब सपना कोई देखती हूँ तो उसकी बैकग्राउंड में वही पुश्तैनी मकान दिखाई देता है जबकि बीस- इक्कीस साल पहले ही उसे छोडकर हम दो और मकानों में शिफ्ट हो चुके है।हम लोगों को अहसास होता है कि उस घर में पितरों के आशीष भी हमारे साथ थे। दो पीढ़ियों की पढाई-लिखाई, कैरियर व कई शादी- ब्याह वहीं से सम्पन्न हुए। खानदान के कई और बच्चे भी हमारे घर में रह कर पढ़ लिख कर ऊँची उड़ानों पर निकले। दूर-दराज के रिश्तेदारों की जाने कितनी लड़कियों को अपनी कोई साड़ी पहना कर तैयार करके दिखाने की ज़िम्मेदारी भी खूब निभाई हमने


रिटायरमेंट से दो साल पहले ही जब हमने बीस सालों से रह रहे मकान को खाली किया तो प्यार से बनाए अपने सपनों के घर में जाने की बेहद ख़ुशी तो थी लेकिन बाहर से दीवार को पार  कर आँगन में लम्बी - लम्बी बाहें फैलाए आमों से लदे ,अपने प्रिय आम के पेड़ से गले लग विदा ली तो आँखें नम हो गईं। मेरे जाने कितने सुख- दुख का साक्षी रहा वो। कॉलेज आते-जाते प्राय: मैं उसके गले लग जाती। जिंदगी में न जाने कितने पेड़- पौधे आए लेकिन उसके साथ किन्हीं कारणों से मैं एक विशेष रिश्ता महसूस करती थी, जैसे सुख-दुख का साथी …अभिन्न मित्र !


#विदा_दोस्त...!!


आज मैंने पीछे, दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न…

पावन-पीत दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी  तुमसे मिलने

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!


                     — उषा किरण

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत सुन्दर बहुत बहुत सराहनीय

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  2. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2021) को चर्चा मंच         "जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा"    (चर्चा अंक-4204)     पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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    1. मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने का बहुत आभार!

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  3. बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
    जीवन यादों का पिटारा बन जाता है, जिसमें से वक़्त-बेवक़्त यादें एक-एक कर बाहर निकलकर मन को आंदोलित कर जाती हैं

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  4. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  5. बहुत सुन्दर लिखा है. मकान जब घर बन जाता है तो घर और उससे जुडी सभी चीज़ों में रूह समा जाती है. हवा भी अपनी-अपनी-सी लगती है.

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  6. उषा जी , परिवेर्तन का दौर है | हर इंसान मकान और सामान बड़ी तेजी से बदल रहा है | ना जाने क्यों पुश्तैनी मकानों में कोई रहना ही नहीं चाहता | गाँव में जाती हूँ तो स्तब्ध रह जाती हूँ | भागने की धुन में गाँव के गाँव खाली हो गये | मकान खूब हैं अब --पर उनमें रहने वाले लोग नहीं हैं | आपका लेख आँखें नम कर गया |मैं भी ऐसी बातें सोचती रहती हूँ | एक कसक के साथ यादें अक्सर पुराने मकानों के रूप में सपनों से झाँकने लगती है | आभार और शुभकामनाएं भावपूर्ण लेख के लिए |

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