ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 20 सितंबर 2025

यूँ गुज़री है अब तलक, आत्मकथा



 प्रिय सीमा जी🌺

   'यूँ गुज़री है अब तलक ‘ पढ़कर अभी समाप्त की है। मन इतना अभिभूत व आन्दोलित है कि कह नहीं सकती। बहुत सालों बाद किसी किताब ने मुझे ऐसा जकड़ा कि 307 पेज लगातार दो दिन तक सब कुछ भूल कर एक साँस में पढ़ गई।सोचिए मैं इतना खो गई कि परिवार का एक-एक रोटी का संघर्ष पढ़ते-पढ़ते ज़ोर की भूख लगी तो शाम को पाँच बजे ही दो पूड़ी सब्जी बनाकर खाने बैठ गई। 

किसी के व्यक्तित्व के बारे में पढ कर या सुनकर हम जजमेन्टल हो जाते हैं , परन्तु सच तो सौ पर्दों में छिपा  होता है। यह आत्मकथा एक दस्तावेज़ है आपके साधनापूर्ण जीवन का, आपकी सच्चाई का , एक सम्वेदनशील, क्रिएटिव, स्वाभिमानी , जुझारू व्यक्तित्व के संघर्ष की आग में तपकर धीरे-धीरे आध्यात्मिक पथ की साधिका के रूप में रूपान्तरित हो जाने का। करुणा व प्रेम को अपना कर स्वयं बुद्ध हो जाने का। जहाँ न कोई चाह बाकी रहे न लोभ, न क्रोध है न घृणा, न ईर्ष्या है और न हि प्रतिशोध। कुछ है तो बस करुणा , क्षमा और प्रेम। जो न ऊंच- नीच देखता है और न हि हानि लाभ। जो भी, जैसा सामने आया सहजता से सिर माथे लिया और चल पड़ीं। जो नहीं मिला या किसी ने छीन लिया तो उसे भी सहजता से , बिना झगड़ा- झंझट सब त्याग कर आगे बढ़ गईं, आसान नहीं है ऐसा सबके लिए कर पाना। 

ओमपुरी जी ने आपके साथ जैसा छल किया उसके बाद भी उनके दुःख की साथी बनीं, उनके प्रेम का तिरस्कार कभी नही किया, भले ही बदले में तमाम मुसीबतें व तोहमतें झेलती रहीं । हमेशा उनके मासूम कलाकार मन को समझा व सम्मान किया। किसी के सामने न शिकायत की न ही अपनी कैफ़ियत पेश की। किसी सामान्य स्त्री के लिए यह कर पाना असम्भव है। 

लोग कहते होंगे आपको मूर्ख तो कहते रहें आपकी अन्तर्रात्मा तो करुणा व प्रेम की रोशनी से सराबोर रही।सच तो ये है कि मुझे भी कई बार लगा कि आप क्यों नहीं सब बंधन को एक झटके से तोड़ देती हैं । बाद में समझ आता है कि ये गहरी आत्मा से किया प्रेम था , 'मैत्री ‘थी। जहाँ मैं तुम का भेद नहीं रह जाता। बहुत अभागे रहे वे , जिन्होंने इस अमूल्य निधि को पाकर बेकद्री से ठुकराया और फिर ताउम्र तरसते रहे। जिस अजन्मे अपने शिशु को ही अपमानित व  लाँछित किया  फिर अन्तिम साँस तक  पुत्र व पत्नि के प्यार व सम्मान को तरसते हुए ही प्राण त्यागे, यही प्रारब्ध  है जो इस जन्म में या अगले जन्म में भोगना ही पड़ता है….पर ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वे फिर नहीं आते…!’

ये आत्मकथा लिखकर आपने प्रतिपक्ष के सारे दावों व कुटिल चालों  को एक पल में नेस्तनाबूत कर दिया और सच्चाई की रोशनी में अपने दाग़ों को धोकर आलोकित प्रकाश में अपनी जगह बनाकर अपनी गरिमा को  मजबूती से स्थापित किया है। ये एक बहुत मार्मिक श्रद्धांजलि भी है अपने माता-पिता व पुरी साहब व अन्य के प्रति। ये पुस्तक हर उस व्यक्ति के प्रति आभार भी है जो दो कदम भी साथ चला। साथ ही जिनके प्रति कुछ भी अप्रिय हुआ उनसे क्षमायाचना भी है। कुल मिलाकर आपने खुद को उलीच कर खाली किया है। 

यह पुस्तक उन सभी लोगों को तो जरूर ही पढ़नी चाहिए जो बड़े मजे से प्रेमिल पत्नि या पति के होते हुए भी इधर-उधर पोखरों  में डुबकियाँ मारना अपना अधिकार मानते है। वे पुरुष जो अनेक औरतों के प्रति लोलुप रहकर , काम- वासना के वशीभूत होकर अपनी प्रेयसी या पत्नि को अपमानित करते है, लेकिन जब किसी के जालिम फन्दे में फंस जाते हैं तब छटपटाते हैं, उसी वापिस ममतामयी ठंडी छाँव के लिए…पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

पुरी साहब के बारे में जो कुछ न्यूज में पढ़ा व सुना था उससे उनके प्रति जुगुप्सा हो गई थी। अब आपको पढ़कर उनके प्रति वाकई दया व करुणा का भाव उपजता है।इस जगत में हम मानव शरीर लेकर आए हैं कुछ सबक लेने के लिए, आत्मोन्नति के लिए , लेकिन मोह- माया, राग- विराग, मन व इन्द्रियों के झिलमिल कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध में , तामसिक निद्रा में लीन अपना गन्तव्य भूल जाते हैं । जो ईश्वर के प्रिय हैं, जो पिछली साधना करके आए हैं परमात्मा उनको फिर कुछ न कुछ ठोकर देकर जगाए रखते हैं । 

सीमा जी, आपने अब प्रकृति की छाँव तले बुद्ध की शरण में ध्यान, करुणा व शान्ति का मार्ग चुना है। मन की वही बचपन वाली अबोध अवस्था को जी रही हैं यह बहुत शुभ संकेत है।जी चाह रहा है और बहुत कुछ लिखूँ परन्तु मन इतना भरा हुआ है कि अभी पढ़े हुए को मनन करना चाहता है।

विभा रानी का बहुत शुक्रिया। उनके यूट्यूब चैनल 'बोले विभा’ पर उनकी वीडियो देखी जिसमें वे डाकू माधोसिंह वाला प्रकरण पढ़ रही थीं तो उत्सुकतावश इतनी अच्छी किताब मंगवा कर पढ़ी ।आपकी अब जितनी मिलेंगी वे मूवी यूट्यूब पर देखूँगी । मेरी आदत है रियल लाइफ का हो या कहानी क़िस्सों का,  हर किरदार को डूब कर पढ़ती हूँ ।

इतनी सुन्दर प्रेरणादायी किताब लिखने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।मेरी दुआ है आप पर अब कोई मुसीबत कभी न आए। आप इसी तरह निरन्तर साधना पथ पर चलकर परमात्मा को प्राप्त करें…आमीन…धन्यवाद!!

- उषा किरण 🌿

सोमवार, 8 सितंबर 2025

मन बैरागी…🍁


तन की गणना में मत बाँधो मन को…

बेशक वह ताउम्र उंगली थाम

साथ चलता हो, लेकिन सच तो यह है

कि वह अजन्मा, जाने कितनी बार

मरता है और फिर-फिर जन्म लेता है

तुम्हारी ही निस्तब्ध गहराइयों से…!


सत्तर के पड़ाव पर भी

मन सात का हो सकता है,

या सत्रह का, सत्ताइस का—

या किसी और अनकहे अंक पर

अड़ा हो जिद्दी बच्चे सा…


क्या पता कब सहसा उंगली छुड़ा

गहरी डुबकी मारने के बाद

अबकी बाहर आना ही न चाहता हो—

बैठा हो कहीं भीतर के कुहासों में,

कुंडली मार,  धूनी रमाए,

नागा साधु सा नग्न, उन्मुक्त…!


हैरान-परेशान, कब से बैठी हूँ मैं भी

बाहरी मुंडेर पर इंतज़ार में

आए, पहने ये फुँदने वाले

रंग-बिरंगे झालरदार झबले,

लगाए कोई मनपसंद मुखौटा

और चल पड़े उँगली थाम

हाट में हठीला बच्चा बनकर…


उधर आकाश में चाँद राहु से घिरकर रोया

धुला…निखरा और फिर मुस्कराते हुए

ओट से झाँकने लगा है…!


पर क्या करें…इस मन बैरागी को अब

कोई भी गेंद लुभाती नहीं

मेरा नन्हा बच्चा ज़रा बड़ा हो गया है,

भीड़ में आने से अब कतराने लगा है…!!!


— उषा किरण🌿

फोटो: गूगल से साभार 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

रज्जो

                  


 जगत में जैसे किरदारों में विविधता होती है वैसे ही प्यार के भी रंग इतने अनोखे , अबूझ होते हैं  कि शख्स ही कई बार नफरत और प्यार के बीच के अन्तराल को खुद ही नहीं समझ पाता। रज्जो के अनोखे प्यार की दास्तान के लिए पाखी के अगस्त अंक में प्रकाशित यह कहानी  'रज्जो ‘ …पढ़िये और बताइए कि आपको कैसी लगी? 


: और एक बात…रज्जो की भाषा के लिए मैं पहले ही माफी माँगती हूँ  😊🙏

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                            रज्जो

 ​मैंने अभी मुश्किल से दो ही पेशेन्ट देखे होंगे कि अन्दर से रज्जो और बीना के लड़ने की आवाजें आने लगीं। सोच रही थी कि सामने बैठे पेशेन्ट को देखने के बाद अन्दर जाकर देखूँगी कि क्या मामला है? शहर में फ्लू के कहर के चलते बच्चे भी चपेट में आ रहे थे, जिसके कारण क्लीनिक पर काफ़ी भीड़ थी। 

तभी तान्या का कॉल आ गया। वो आधी नींद आधे गुस्से में भरी झुँझला कर चीख  रही थी-"ममा ये कहाँ-कहाँ से जाहिलों की फ़ौज इकट्ठा कर रखी है आपने? कितना शोर मचा रखा है, सोने भी नहीं दे रहे…रोको जल्दीईईईईईई…”

"एक मिनिट…” सामने बैठे  पेशेन्ट से कह कर जल्दी से  कुर्सी पीछे खिसका  गुस्से से भरी अन्दर गई तो देखा रज्जो और बीना में घमासान मचा हुआ है। दोनों गाली-गलौज के साथ-साथ  एक दूसरे से हाथापाई कर रही थीं। 

"अरे ये क्या शोर मचा रखा है तुम लोगों ने? बाहर पेशेन्ट बैठे हैं और अन्दर बेबी सो रही है, एग्ज़ाम दे कर आई है, कई रातों की जगी है और तुम लोगों ने ये गंवारपना मचा रखा है, बिल्कुल शर्म नहीं आती न दोनों को?  क्या आफत आ गई आखिर?”

मैंने  दबी पर कड़क आवाज में डाँट कर दोनों को अलग किया। 

"डागदर दीदी आप ही देखो इस कुलटा को, हमें देख कर मुँह टेढ़ा करके हंस री और कै रई ओहो चरित्तर तो देखो सती सावितरी का!” आज करवाचौथ है तो इसीलिए रज्जो ने भर-भर हाथ लाल चूड़ी पहन रखी थीं, मेंहदी, चौड़ी सी मांग में पाव भर सिंदूर, नई पायल, बिछुए पहने थे, सुर्ख़ आलता भी लगा रखा था और नई चटक नारंगी धोती पहने छनक रही थी। उसी को देख कर बीना उसकी हंसी उड़ा रही थी। 

मन ही मन उसकी सज्जा पर मुझे भी हंसी आ गई पर मैंने होंठ दबा लिए। गलत तो बीना भी नहीं थी। कल की ही तो बात है ड्राइवर मनोज भागता आया था "मैडम-मैडम रज्जो फिर मार रही है डुकरे को।” 

मैं जल्दी से आउट हाउस में गईं तो देखा बंसी बिस्तर पर हाथों से सिर पकड़े बैठा था और रज्जो उसे दोनों हाथों से दबादब  कूट रही थी। 

"अरे, रज्जो पागल हो गई है क्या? पता नहीं बीमार है वो,जान लेगी क्या उसकी?” मैंने  जोर से फटकार लगाई। रज्जो ने हाथ तो रोक दिये पर अब गालियों  पर उतारू थी -" मुंहझौंसा…मरा…हरामखोर कहीं से पीकर आया है  दीदी …और उस साली कुतिया बीना से हंसी ठट्ठा कर रिया था..मरती भी तो नहीं रंडी साली …ये भी डोरे डाले है उसपे।”

"रज्जो…ख़बरदार जो गाली निकाली मुँह से …निकल जाओ दोनों के दोनों अभी। जब देखो आए दिन तमाशा होता रहता है तुम्हारा…रज्जो सामान बाँधो तुरन्त और निकलो यहाँ से …बहुत तमाशाा हो चुका, अब बस…मनोज सुबह ही इन्हें इनके गाँव छोड़ कर आओ!” 

गुस्से से  जैसे ही मैं जाने को पलटी, तभी रज्जो पल्लू में मुँह छिपा जोर-जोर से विलाप करने लगी। "ओ री मैया…. मो अनाथ को कौन है आपेके बगैर डागदर दीदी, हम तो कतई मर जावेंगे…!” और बस मेरा दिल पिघल जाता उसकी नौटंकियों पर। सच में बीमार पति को लेकर कहाँ जाएगी बेचारी? दोनों के परिवार में भी कोई नज़दीकी नहीं है अब। 

 बच्चे और सुबोध भी कई बार ग़ुस्सा होते कि "इस जाहिल को निकालो घर से। कितना फसाद मचाती रहती है।”

महिने में दो तीन बार तो रज्जो की ये नौटंकी चलती ही रहती। मैं जब रोज-रोज के बाइयों के नाटक से दुखी हो चुकी थी, तभी ड्राइवर मनोज ही दोनों को अपने गाँव से दस साल पहले साथ लिवा लाया था। मनोज को उन पर बहुत भरोसा था और पन्द्रह साल से गाड़ी चला रहे मनोज पर मेरा। 

बंसी रिक्शा चलाता था, लेकिन दमे का मरीज होने के कारण अब रिक्शा चलाना उसके बस का नहीं था। मनोज के कहने पर मैंने  दोनों को आउट हाउस  में रख लिया था। रज्जो ने घर का काम संभाला और बन्सी ने गार्डन का और बाजार से सब्जी-सौदा लाने का काम अच्छी तरह से संभाल लिया था। रज्जो और बंसी की मनोज से अच्छी बनती थी, तो मिलजुल कर मार्केट व घर का सब काम तीनों संभाल लेते। मुझे भी सुकून मिला। 

 रज्जो वैसे बंसी से पन्द्रह साल छोटी थी इसीलिए उसे डुकरा बोलती थी। उसे देख कर घर के सभी और लोग भी डुकरा ही बोलने लगे थे, सिवाय मेरे और सुबोध के। 

दोनों के रोज के झगड़ों ने मेरी नाक में दम कर रखा था। रज्जो का पारा हर समय सातवें आसमान पर रहता। बात-बेबात उसे गाली देती, पीट देती, "मेरे हरामखोर बाप को पैसे देकर, शराब पिला कर पटा लिया मुए ने, वर्ना तो मेरी जूती बराबर भी न था मरा। करमजला पन्द्रह साल बड़ा है मुझसे डागदर दीदी…!” फिर एक लम्बी उसाँस भरती उठ जाती " सब किस्मत का खेला है…वर्ना कहाँ मैं और कहाँ ये? गाँव के सारे जवान छोरे मेरी कोठरी का चक्कर काटे करे हे। कम से कम बीस पच्चीस की तो मेरे बाप-भाई ने मिल के कुटम्मस की थी दीदी। गाँव के लौंडे मुझे हेमामानिली कैते थे, पर जाने कहाँ से आके ये मरा बूढ़ा, काला कौआ मोए चोंच में दबाए ले उड़ा…!”

रज्जो ने आते ही घर का सारा काम बड़ी कुशलता से संभाल कर मेरा  दिल जीत लिया था। उसके रहते मैं घर-गृहस्थी से निश्चिंत रहती। इसीलिए मैं उसकी बदतमीज़ी बर्दाश्त कर रही थी। जानती थी कि उस जैसी सुघड़, साफ-सुथरी, होशियार, ईमानदार और कोई कामवाली बाई दूसरी मिलनी मुश्किल है। 

हर तरह के खाने बनाने में जवाब नहीं था उसका। कैसी भी, कोई भी डिश हो वो चखकर एकदम वैसी ही बना देती और अब तो यूट्यूब चलाना भी  सीख लिया था तो वहाँ से सीखकर भी कुछ न कुछ बनाती रहती। तान्या को कुछ नया खाने का मन हो तो वो भी उसे वीडियो भेज देती और वो बड़े मनोयोग से थोड़ा अपना भी दिमाग लगा कर बढ़िया-बढिया सूप, सलाद, स्नैक्स, मिष्ठान्न बना कर सजा कर सर्व कर  देती। 

कपड़े धोने और झाड़ू पोंछे के लिए बीना आती थी बाकी सारा काम व रसोई  रज्जो के हवाले था। 

किस बच्चे को नाश्ते में ऑमलेट टोस्ट चाहिए किसको गार्लिक ब्रैड या पोहा उसे याद रहता। डागदर दीदी लन्च में मोटा अनाज खाती हैं तो भैया को प्रोटीन वाला खाना चाहिए, ट्यूज डे नॉनवेज नहीं पकेगा तो साहेब को नाश्ते में जूस और खाने में प्लेट भरके सलाद और नाश्ते में फल जरूरी चाहिए, डागदर  दीदी बिना दही के लन्च नहीं खातीं। इसीलिए कभी खत्म हो जाए तो तुरन्त मनोज  को मार्केट दौड़ा कर  मंगवा लेती। 

 तीज-त्योहारों की तैयारी हफ्ते भर पहले ही पूरी हो जाती। होली पर कहाँ से, कितना मावा आएगा, किस दिन गुझिया बनेंगी? दीवाली पर दिए, खील-बताशे, कब, कितने, कहाँ से मंगवाने हैं? कब पर्दे, सोफा ड्राईक्लीन करवाना है, कौन सा कपड़ा धुलेगा और कौन सा ड्राईक्लीनिंग के लिए जाएगा, उसे सब पता रहता। 

तान्या, आर्यन हॉस्टल से सूटकेस भर मैले कपड़े लाते तो अगले ही दिन धोकर, प्रैस करवा सूटकेस में जमा देती। ऐसे  सारे कामों को बहुत मुस्तैदी से करती, जिसकी वजह से मैं निश्चिंत होकर अपनी डॉक्टरी कर पा रही थी। 

 बेशक शहर की जानी-मानी मशहूर पीडियाटीशियन डॉक्टर राधिका का शहर में अपना ही रुतवा होगा, लेकिन रज्जो की नाटकबाजी के आगे सब फेल थे, मैं भी अब  हार मान चुकी थी। 

 

वैसे तो बंसी से जनम का बैर था रज्जो का लेकिन कोई कामवाली, सब्जीवाली, धोबिन या लेडी पेशेन्ट से मजाल है जो बंसी बात कर ले, तो पगला जाती। मारपीट पर उतारू हो जाती। चप्पल,बर्तन जो हाथ आता, उसी से उसकी धुनाई शुरु कर देती। खासकर बीना की तो परछाई भी नहीं पड़ने देती थी बंसी पर। हमारे सामने तो बंसी चुप लगा जाता लेकिन अपने कमरे में कई बार शेर हो जाता…तब खूब बजती दोनों की। 

उनके झगड़ों को सुलटाते देख सुबोध हंसकर जब कहते "सुनो, तुम न एक रैफरी वाली सीटी ले लो राधिका, बस क्लीनिक से ही बजाती रहा करो!” तब बुरी तरह चिढ़ जाती मैं " एक तो मेरा दिमाग खा रखा है इन सबने, तुमसे तो कुछ होता नहीं। आज इसे निकाल भी दूँ तो तुम ढूँढ पाओगे दूसरी या संभाल लोगे किचिन, घर-गृहस्थी…जबकि तुम्हारे और बच्चों के खाने-पीने के ही इतने नखरे हैं…?”

 व्हाइटवॉश के समय घर का सारा स्टाफ़ सफाई और सामान लगाने में लगा था। रज्जो की गिद्ध-दृष्टि रसोई से काम करते भी खिड़की से बंसी पर ही लगी रहती। यदा-कदा बंसी और बीना काम करते-करते  टकरा जाते या कोई काम से संबंधित भी बात कहते, तो रज्जो जहाँ भी होती वहाँ से ही चील सी झपटती

 " ज़्यादा नैन मटक्का मति न करै बीना, ससुरी अपने खसम ने तो छोड़ दी अब दूसरों के पे डोरे डाल री तू…खूब जानूं!” 

उसकी इस बदहवासी का मनोज और बाकी सब  खूब मजे लेते। झूठी अफ़वाहें फैलाते और पिटता बेचारा बंसी। मैंने कई बार समझाया कि "गाली-गलौज न किया कर और हाथ न उठाया कर, दमें का रोगी है किसी दिन दम निकल जाएगा!” लेकिन उस पर कुछ असर नहीं होता। इसीलिए बीना उसकी करवाचौथ पर किए साज-शृँगार का सती सावितरी कह कर मजाक उड़ा रही थी। 

रज्जो के कोई बच्चा नहीं हुआ। मैंने उसका बहुत इलाज करवाया, परन्तु कोई फ़ायदा नहीं। रज्जो हताश हो आँखों में आँसू भर कहती "दीदी हमारे भाग में ही न है बाल-बच्चों का सुख…रहे दो और कित्ता इलाज कराओगी आप भी?”

 

इधर कोरोना महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। सब जगह हाहाकार मच गया। मनोज भी किसी तरह अपने गाँव चला गया। जाते समय मैंने कहा "लॉकडाउन खुलने के बाद ही आना मनोज, बच्चों का और अपना ध्यान रखना। चिन्ता मत करना… कोई परेशानी हो तो बताना…” कह कर दो महिने की तनख़्वाह एडवांस में दी,  तो हाथ जोड़कर रो पड़ा। 

 

 घर-घर में कामवाली बाइयों के न आने से महिलाओं पर अचानक काम का बोझ आ पड़ा। शुक्र है कि रज्जो और बंसी के चलते मुझे घर के काम की कोई परेशानी नहीं हुई। 

लॉकडाउन लगने से मैने भी क्लीनिक बन्द कर दिया। सारे दिन फोन पर ही मरीजों का हालचाल पूछ कर या वीडियोकॉल के ज़रिए बच्चों को देखकर दवाइयाँ बता देती थी। लोग फीस ऑनलाइन जमा करने को कहते तो मैं "अभी रहने दीजिए…” कह कर मना कर देती। 

तान्या और आर्यन  भी हॉस्टल से घर आ गए थे। सुबोध का ऑफिस भी घर से ही ऑनलाइन चल रहा था। घर के चारों सदस्य चार कमरों में सारे दिन कम्प्यूटर के सामने बैठे रहते और रज्जो सबके कमरों में चाय-नाश्ता, फल, जूस, काढ़ा बिना अनखनाए पहुँचाती रहती। लेकिन मेरा  सख्त ऑर्डर था कि लन्च व डिनर सब एक साथ डायटिंग टेबिल पर ही करेंगे। बीना के न आने से रज्जो पर काम का बोझ बढ़ गया था तो सब किचिन में और टेबिल लगाने, समेटने में उसकी मदद करते, अपने कपड़े खुद प्रैस करते। 

अजीब नजारा रहता, सुबोध शर्ट, टाई, चश्मा लगा ऊपर से चिकने चुपड़े होकर ऑफिस की मीटिंग में जब बिजी होते तो प्राय: नीचे लोअर और बाथरूम स्लीपर में होते। 

 मैं भी प्राय: सलवार या लोअर पर ही साड़ी लपेट लैपटॉप पर पेशेन्ट निबटाती। तान्या और आर्यन की क्लास के बच्चे तो अपनी अजीबोग़रीब भेषभूषा में ही ऑनलाइन क्लास में उपस्थित रहते। प्राय: कुछ खाना-पीना भी चलता रहता। एक दिन आर्यन की टीचर ने कस कर सबकी डाँट लगाई "ये क्या तमाशा बना रखा है तुम सबने? लगता है बैड से ही  सीधे क्लास में चले आए हो…कम से कम ब्रश करके मुँह तो धो लिया करो!” सारे बच्चे ढीठ होकर एक-दूसरे की तरफ़ उंगली से इशारा करके हंसने लगे तो टीचर ने और कस कर डाँट लगाई। 

 

हम  सभी एक दूसरे की हुलिया पर खूब हंसते और चुपके-चुपके फोटो खींच कर इधर-उधर फ़ॉरवर्ड करते। 

 तान्या और आर्यन कभी-कभी ताश, लूडो, बैडमिंटन खेलते, लेकिन हर बात पर  सारे दिन उनकी भी नोंक-झोंक चलती रहती। सारे दिन`देखो मम्मी…देखो मम्मी…’ से मैं झुंझला जाती। 

कमाल तो ये भी हुआ कि रज्जो से बुरी तरह चिढ़ने वाली तान्या  की अचानक से रज्जो से बहुत दोस्ती हो गई। तान्या नई-नई रेसिपी  यूट्यूब से ढूँढ कर लाती और फिर तान्या के निर्देशन में रज्जो बड़ी लगन से बनाती। जलेबी, गुलाबजामुन, तरह-तरह के केक, कुकीज और न जाने कौन-कौन सी रेसिपी ट्राई की गईं उस दौरान। 

घर का हर सदस्य टी वी से चिपका रहता। न्यूज पर आँखें टिकी रहतीं। मज़दूरों का रेलमपेल शहरों से गाँवों की ओर पलायन, दुनिया भर से लोगों की धड़ाधड़ मरने की खबरों में लाशों के ढेर देख-देख कर रूह काँप जाती। हर शख्स दहशत में था। कब किसकी बारी आ जाए कुछ पता नहीं। 

हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सिलेंडर व दवाइयों की कालाबाज़ारी, बैड की छीना-झपटी जैसी घटनाओं से मानवता पर से विश्वास उठ जाता, लेकिन कई लोग देवदूत बनकर जान हथेली पर रख जिस तरह लोगों की मदद के लिए सामने आए उसने यह विश्वास बनाए रखा कि -`इंसानियत अभी जिंदा है!’

सबकुछ सहम-सहम कर ठीक ही चल रहा था, लेकिन कोरोना की चपेट से मैं और मेरा परिवार भी नहीं बच सका। खुद को और बाकी सबको तो घर पर ही कोरेन्टाइन किया। दवाइयों के साथ-साथ काढ़े और भाप का दौर भी चलता रहता। सब एक दूसरे को संभाल रहे थे, हौसला दे रहे थे। रज्जो पर क्योंकि कोरोना का असर काफी हल्का था तो मना करने पर भी वो सबकी सेवा में यथासंभव तब भी  तत्पर रहती। 

लेकिन बंसी के लन्ग्स वीक होने के कारण उसकी हालत ज़्यादा खराब थी इसलिए उसको हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा। जब उसे एम्बुलेंस लेने आई तो बंसी रोने लगा। रज्जो खिड़की से ही उसे डाँट रही थी "ओ बावले,अपनी डागदर दीदी के होते कुछ नहीं हो सकता …ठीक हो जाएगा…काहे कूँ छोकरियों की माफिक रोता है रे…?”

रज्जो का विश्वास कायम रखता बंसी लम्बी सी मुस्कान सहित सही-सलामत वापिस लौट आया। रज्जो रानी बड़ी धमक से सेवा-टहल करतीं-

-"ओए महाराजा काट के दे गई, तब भी मूँ में नहीं चला सेब? बाप दादों ने भी खाए थे कभी, जो नखरा दिखाता…?”

-"पड़ा-पड़ा टी वी देखे है, टैम पे दवा नईं खा सकता मुए!”

-ओए शहजादे रौब न चला, जिन्दा रे के कोई अहसान न कर रा मुझपे।”

उसकी जली-कटी सुनकर मैं कई बार झुंझला जाती " कैसा तो दिल है रज्जो तेरा? बेचारा मरता बचा है पर तेरी जुबान और अकड़ को लगाम ही नहीं, दो मीठे बोल सुन कर तो मरते आदमी  में भी प्राण आ जाते हैं और एक तू है कि…!” 

परन्तु कमाल की बात तो ये थी कि जबसे बंसी हॉस्पिटल से लौटा था तबसे बड़ा ही खुश रहता था। रज्जो कुछ भी चिड़चिड़ाती, बड़बड़ाती, किटकिटाती वह दाँत चियार कर हंस पड़ता। 

बड़ी मुश्किल से कोरोना का प्रकोप शान्त होते-होते वापिस जिंदगी पटरी पर आ गई। मनोज भी गाँव से सही-सलामत वापिस आ गया। 

बंसी बच तो गया लेकिन उसकी सेहत दिनोंदिन ख़राब होती जा रही थी। एक साल बाद ही उसे सीवियर निमोनिया हुआ। मैंने इलाज में और भागदौड़ में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन आखिर में बंसी ज़िंदगी की लड़ाई हार गया। पाँचवें  दिन हॉस्पिटल में उसने आख़िरी साँस ली। 

एम्बुलेंस से जब उसकी बॉडी बाहर बरामदे में लाकर लिटाई गई और रोते हुए बीना ने स्तब्ध रज्जो को पकड़ कर उसके पास बैठाया, तो वो बिना रोए-धोए उसको चुपचाप देखती बैठी रही। मेरे इशारा करने पर बीना उसे जोर से चिपटा कर रोने लगी, लेकिन रज्जो न हिली न डुली, बस पथराई सी बैठी रही। 

मैं अन्दर आकर क्रिमेशन की तैयारियों के लिए फोन पर बात कर ही रही थी कि बीना जोर से चीखी, "रज्जो…रज्जो…!’’

 मैं जल्दी से बाहर भागी। देखा रज्जो जमीन पर पड़ी थी और बीना रो-रोकर उसे हिला रही थी। 

भागकर स्टैथेस्कोप  से चैक किया हैरान-परेशान होकर जल्दी से दोनों हाथों से सी पी आर दिया, बीना उसकी हथेलियों को हाथों से मलने लगी,परन्तु कुछ फ़ायदा नहीं…रज्जो जा चुकी थी बंसी के पीछे-पीछे। 

रज्जो ने मरने के बाद भी बंसी का पीछा नहीं छोड़ा, जरूर धमकाती जा रही होगी 

"ए रुक जा मुए…मैं भी आती…!!”

—उषा किरण🍁

बुधवार, 20 अगस्त 2025

नचिकेता



नींद नहीं आती जबतब

बेचैनी में तकिया दूसरी दिशा में रख पैर दक्षिणदिशा में कर लेती हूँ 

और पल भर में गहरी नींद सो जाती हूँ


माँ कहती थीं-दक्षिण में पैर करके नहीं सोते

यमराज की दिशा है

पर मेरी नीदों के मन में  तो मानो कोई नचिकेता समा गया है 

बारबार वहीं का पता पूँछता

उधर ही चल पड़ना चाहता है


मैं भी गई थी यम-देहरी तक,

जहाँ मृत्यु खामोश खड़ी थी।

कैसी दुस्तर गाँठें थीं 

जो ढीली पड़ी नहीं 

प्रश्नों की पोटली खुलीं नहीं..,


तो फिर

लौट आई हूँ खाली हाथ

जवाब भी छूट गए

जैसे आधी अधूरी धुन

खामोश हवा में बिखर जाए


पैरों की झनझनाहट अकुलाती है

मन की गाँठें सिर पटकती हैं 

नचिकेता …नचिकेता

तुम सा तो मन नहीं 

दृढ़ता भी नहीं… जिद भी नहीं


कहते हैं कि

यदि बनी रहे प्यासतो एक दिन

पानी भी मिल ही जाता है 

बस प्यास को सहेजे रखना होगा,

और अपना कुआँ

स्वयं ही खोदना होगा


हाँजानती हूँ

किसी एक का प्रश्न

सबका प्रश्न तो हो सकता है,

परन्तु उत्तरहर किसी को

स्वयं अपना खोजना होगा।


अपना नचिकेता स्वयं

आप ही बनना होगा…!!

—उषा किरण 


फोटो; गूगल से साभार 

सोमवार, 18 अगस्त 2025

कृष्णमयी

 



हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम,

तुम्हारी भक्ति के बावजूद—

मैंने चुना,

त्रिभंगीलाल कृष्ण होना…!


विनम्रता, त्याग, सहिष्णुता

ममता,सम्मान और प्यार 

सब मेरे भीतर समाहित थे

सहज ही, परन्तु 

मन संन्यासी सहित 

असम्भव था बिना शस्त्र,

न्याय, व्यवस्था और सम्मान की रक्षा करना…


तब कान में पाँचजन्य फूँका मेरे कृष्णा ने-

"….धम्यार्द्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते!!”


और मैंने चुना अर्जुन होना

शस्त्र उठाना

अपनी धारा के विरुद्ध बहना…

और बहती धारा में खुद को छोड़ दिया—

फिर असंभव कुछ भी नहीं रहा


तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारे लिए होता कब है ?


जाने कितनों की तलवार बनना होता है,

जाने कितनों की ढाल बनकर 

कुरुक्षेत्र में उतरना पड़ता है…

जाने कितनों की जुबान बनना पड़ता है…


जानती हूँ-

राम बनना आसान नहीं।

राम केवल कमंडलधारी वनवासी नहीं थे

एक न एक युद्ध वे भी लड़ते रहे,

फिर भी सौम्य,

संतुलित,

मर्यादित बने रहे…


मेरे लिए हर बार मुश्किल था राम होना

मेरे जीवन में कैकेयी के लिए 

मैं खुद थी कैकेयी, 

मन्थरा के लिए मन्थरा, 

रावण के लिए रावण, 

मरीचि के लिए मरीचि

दुर्योधन के लिए दुर्योधन…!


छल का जवाब छल से

झूठ का झूठ से

तलवार का तलवार से 

कपट का कपट से


ईर्ष्या- द्वेष के वन फ़र्लांग 

कभी दुर्धर्ष रास्ते तो कभी 

सूक्ष्म पगडंडियाँ अपनाईं 

और इस तरह 

कुरुक्षेत्र में अपनी भूमिका 

बाखूबी निभाई।


तो बताओ भला-

तुम नहीं तो दूसरा कौन?


तुम थे न मेरे साथ कृष्णा

हर पल, हर साँस में समाहित

मेरा हाथ थामे

मेरे रथ की बागडोर थामे

मेरे गुरु, मेरे सखा, मेरे खेवनहार…


अब इस अंतिम पड़ाव पर भी 

साथ ही रहना

वैसे जानती हूँ, कि आज भी तुम

दोनों बाँहें फैलाकर हो,

खुद में समेट लेने को आतुर—


“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज”

ॐश्रीकृष्णःशरणं मम🙏🌼

-उषा किरण 




शनिवार, 16 अगस्त 2025

ॐ श्रीकृष्णः शरणं मम



 सबसे गहरे घाव दिए

उन सजाओं ने—

जो बिन अपराध, बेधड़क

हमारे नाम दर्ज कर दी गईं।


किए अपराधों की सज़ाएँ

सह भी लीं, रो भी लीं…

पर जो बेकसूर भुगतीं,

अवाक कर गईं,

उनका क्या…


नतशिर हूँ…

स्तब्ध, निश्शब्द, आहत !


तोहमतों का कोई उत्तर नहीं 

कहा उससे जाता है जो सुनना चाहे,

सुना उसे जाता है जो कहना चाहे…

बस बेकल सा कोलाहल है

इसलिए सारे कपाट

लो आज बन्द कर दिए…!


काँच पर पत्थरों से आई तरेड़ें

कभी शिकायत कहाँ लिखती हैं!

बस मौन में डूबकर

मौन हो जाना ही चुनती हैं।


नफ़रतों की आरी की

किरकिराहट नहीं सही जाती,

थकाता है शोर।


हे मुरारी! जानती हूँ—

ये चोटें भी तुम्हारी थीं,

हमें अपने और निकट लाने को।

तुम ही रचते हो लीला,

तुम ही हो कारण।


तो सारे उपालम्भ, अपमान, तोहमतें

थाल में सजाकर

तुम्हें अर्पित कर दीं

पुष्प, पात, अर्घ्य बनाकर।


कान्हा…

अब सम्भाल लो, मुक्त करो।

जन्मदिन तुम्हारा मुबारक हमें।


ॐ श्रीकृष्णः शरणं मम 🙏🌼

- उषा किरण 🌱🍃

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

आजादी

 


"अरे रे गाड़ी रोको…रोको !”

"क्यों ?” गाड़ी चलाते शेखर ने पूछा

"गोलगप्पे खाने हैं।”

"इस सड़क पर कितनी धूल- मिट्टी उड़ रही है , छि: गंदी चाट…!”

"अच्छा ? पर पिछले महिने जब विभा दीदी  आई थी तब तुम यहीं खिलाने लाए थे न उनको, तब ये साफ थे ?”

"तुमसे तो हर बात में बहस करवा लो बस।”शेखर ने गाड़ी चलाते हुए कहा।

पूजा चुप होकर बैठ गई परन्तु घर आने पर पूजा ने शेखर से चाबी लेकर गाड़ी स्टार्ट की।

"अरे…अब कहाँ?”

"अभी आई जरा…”, कह कर चली गई।

आधे घन्टे बाद शेखर ने देखा डायनिंग टेबिल पर बैठी पूजा मजे ले लेकर गोलगप्पे खा रही है। हैरानी से उसे खाते देख शेखर चुपचाप बैडरूम में चला गया। पूजा के चेहरे पर मुस्कान थी, आज उसको जरा  ग़ुस्सा नहीं आया…घर में शाँति थी…!!

          —उषा किरण 

फाँस


अनुभा बाहर से लगातार साइकिल की घंटी बजा रही थी`अरे थम जरा, आ रही हूँ !’
'रूक, ये दही खाकर जा…प्रवेश पत्र ले लिया न ?’
`हाँ माँ ले लिया, बाय’ लपड़- झपड़ भागती शैलजा ने जल्दी से साइकिल निकाली और दोनों ने सरपट दौड़ाई। रास्ते में शायद कोई एक्सीडेंट होने की वजह से रोड ब्लॉक कर दी गई थी, अत: लम्बे रूट से जाने के कारण दोनों जब तक कॉलेज पहुँचीं तब तक सात बज कर पाँच मिनिट हो चुके थे। सब बच्चों को पेपर मिल चुके थे और तन्मय होकर लिखने में लगे थे । अनुभा ने कॉपी की एन्ट्री भरनी शुरु की ही  थी कि टीचर ने कहा -
"भई मैंने सात  बजने में पाँच मिनिट पर पेपर दिया है आपको, तो दस बजने में पाँच मिनिट पर कॉपी ले ली जाएगी, सब घड़ी मिला लें!’
धड़कते दिल से शैलजा ने लिखने की स्पीड बढ़ाई`ओह दस मिनिट तो बिना बात कम हो गए।’
दस बजने पर पाँच मिनिट पर कॉपी छीन ली गई। शैलजा को रोना आने लगा उसका एक क्वेश्चन रह गया था, जबकि उसे सब आता था लेकिन बाकी लोगों से उसे दस मिनिट कम मिले थे। बुझे मन से बाहर आई तो अनुभा भी रुआँसी खड़ी मिली। 
`कैसा हुआ पेपर ?’
`ज्यादा अच्छा नहीं !’ उसका चेहरा भी उतरा हुआ था। दोनों शैलजा के घर पहुँचीं तो शैलजा उसे खींच कर जबर्दस्ती घर ले गई-'चाय पीकर जाना !’
तभी शैलजा के पापा भी ड्यूटी से आ गए।वे भी उसी कॉलेज में इंगलिश के प्रॉफेसर थे।'बेटा कैसा हुआ पेपर?’
'पापा एक क्वेश्चन छूट गया’ उसने सारी बात बताई।
'किसकी ड्यूटी थी ?’
'हिस्ट्री वाले सरस सर और हिन्दी वाली अनुपमा मैम की!’
शैलजा के पापा तेज गुस्से में दोनों टीचर्स को गाली बकने लगे`बताओ सालों को  पाँच मिनिट पहले पेपर बाँटने की क्या तुक थी ? इसकी शिकायत की जाएगी प्रिंसिपल से, बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ है ये तो सरासर…!’ 
बहुत देर तक वे बड़बड़ाते रहे।
अनुभा सिर झुका कर चुपचाप चाय के सिप लेती रही। आज उसके कमरे में अनुभा के पापा की  ही ड्यूटी थी जो पूरे तीन घन्टे लगातार जोर-जोर से दूसरे टीचर के साथ राजनीतिक बहस कर रहे थे, बच्चों पर चीख रहे थे-
'ए लड़के सामने देख’
`अबे दो झापड़ दूँगा अभी’
`ए मोटू, कॉपी छीन लूँ तेरी’
`ए लड़की सीधी बैठ’
`अबे राजेश दो कप चाय बिस्कुट ला दे जरा!’
`नो चीटिंग…..’
उनके मचाए शोर व पूरे समय हा-हा, ही- ही करने के कारण वो लिखने पर जरा भी ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकी थी, परिणामतः सब कुछ आने पर भी वो आज पेपर ठीक से नहीं लिख सकी।
अनुभा मन ही मन  सोच रही थी, और इनकी शिकायत कौन, किससे करेगा ?
      — उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार 

किस ओर


अल्पना हाथ मुँह मटका कर अनुराधा को खूब खरी-खोटी और भरपूर ताने सुना, भन्ना कर, जहर उगल, पैर पटकती वापिस लौट गईं।शिप्रा ने बीच में बोलने की कोशिश की लेकिन अनुराधा ने इशारे से उसे  रोक दिया।

चाची के जाने के बाद शिप्रा फट पड़ी-

`मम्मी, क्यों सुनती हो आप सबकी इतनी बकवास? आपकी कोई गल्ती भी नहीं है, वो छोटी हैं आपसे और वो कितना कुछ बेबात सुना गईं ? आपको डाँट देना चाहिए था कस के…मतलब ही क्यों रखना ऐसे बत्तमीज लोगों से?’ शिप्रा का गुस्से से गला रुँध गया।

`अरे बेटा कैसी बात कर रही हो तुम ? अपनों को छोड़ा जाता है क्या ? देखो, दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक वो, जो समझदार होते हैं, सबको निभाते हैं, दूसरे वे मूर्ख, जिनको सब निभाते हैं…अब ये हमारे हाथ में है कि हम खुद को किस ओर रखते हैं !’

माँ शान्त-भाव से उठ कर चली गईं और शिप्रा सोचती रही कि, माँ कितनी बड़ी बात सूक्तियों में यूँ ही कह जाती हैं।

               — उषा किरण

बुधवार, 6 अगस्त 2025

दिल तो पागल है



 आपका बॉस ‘मन’ है या ‘दिमाग’?

ये तो आप जानते ही हैं कि दिल, गुर्दे और दिमाग की तरह “मन” हमारे शरीर का कोई अंग नहीं है। दिल न सोच सकता है, न अनुभव कर सकता है — वह तो बस एक मांसपेशी है, एक पम्प।

“मन” असल में विचारों का निरंतर प्रवाह है — एक चलायमान धारा, जो कभी ठहरती नहीं। फिर भी हम अक्सर दिल को ही “मन” मान बैठते हैं, और उसे ही अपनी भावनाओं का केंद्र बना लेते हैं। शास्त्रों में वृत्तियों के निरन्तर प्रवाह को ही मन कहा है।

हममें से अधिकतर लोग मन की ही सुनते हैं — और कई लोग तो उम्रभर मन के हाथ का खिलौना बने रहते हैं।

कुछ लोगों के जीवन में मन (अर्थात् दिल) बॉस होता है, और कुछ के जीवन में दिमाग। समझदार लोग दिल और दिमाग दोनों का संतुलन बनाए रखते हैं।

इस संतुलन में हमारे संस्कार, माहौल और परवरिश की अहम भूमिका होती है। हमारे अंदर IQ (बौद्धिक बुद्धिमत्ता) और EQ (भावनात्मक बुद्धिमत्ता) का अनुपात यही तय करता है कि हम किसके इशारे पर चलते हैं — दिल या दिमाग के।

आपने देखा होगा — कई युवा भावनाओं में बहकर प्यार में घर से भाग जाते हैं, अपराध कर बैठते हैं, हत्या तक कर देते हैं।

दरअसल, वे मन के जाल में उलझ जाते हैं। मन उन्हें सुख का लालच देता है, भावनाओं में डुबो देता है — और वे सोच नहीं पाते कि इसका परिणाम क्या होगा।

मन तो क्षणिक होता है — आज इसे कुछ अच्छा लगता है, कल वही चीज़ उबाऊ लगने लगती है।

इसलिए जरूरी है कि अंतिम निर्णय “दिमाग” ले — मन नहीं।

अपने जीवन का बॉस “बुद्धि” को बनाइए, “मन” माने दिल को नहीं — क्योंकि दिल तो…

दिलतोपागलहै ❤️

रविवार, 27 जुलाई 2025

तो अभी…!!


 

यदि तुमको मुझे कुछ कहना है 
तो कह लो अभी
जो भी नफरत, प्यार या लड़ाई 
लानत- मलामत चाहते हो 
तो कह डालो, कर डालो 
सब कुछ
जो भी शिकायतें हैं
दिल में मत रखो
सुना दो मुझे जो चाहो

कुछ चाहिए मुझसे तो
वह भी तुम अब कह ही दो…
क्योंकि 
कल का क्या भरोसा
रहूँ ना रहूँ 
ये नाव किस पल घाट छोड़ दे
कौन जाने….

अलविदा कहने के बाद
और किसी की तो पता नहीं 
परन्तु
मैं तो वापिस नहीं ही आने वाली
बता रही हूँ अभी 
फिर न कहना बताया नहीँ …!!

—उषा किरण 🍃

चित्र: गूगल से साभार




यूँ गुज़री है अब तलक, आत्मकथा

 प्रिय सीमा जी🌺    'यूँ गुज़री है अब तलक ‘ पढ़कर अभी समाप्त की है। मन इतना अभिभूत व आन्दोलित है कि कह नहीं सकती। बहुत सालों बाद किसी कि...