कह दो अंधियारों से
कहीं और जाकर दें दस्तक
अभी तो दिए में तेल बाकी है
अभी तो लौ मेरी जगमगाती है...!!
मेरी उन आदरणीया पुरखियों की जिंदगी सदा ही फूलों की सेज पर बीती हो ऐसा नहीं है ....बड़े परिवारों के बीच रह कर उनके सामने भी अनेक बार पराजय के, अपमान के , कलह या विपत्ति के पल आए।ऐसा भी नहीं कि जीवन मात्र सुखों की छाँव में ही बीता, ऐसा भी नहीं कि परिवार के हर व्यक्ति का आचरण सदा सम्मानपूर्ण ही रहा। बहू-बेटियों व रिश्तेदारों से मुचैटा भी भरपूर रहा। रोग-शोक भी आए ...ये सब भी खूब झेला और झेल- झेल कर, तप के सोने सी खरी हुईं मजबूत हुईं।
गाँव-देहात में जो ब्याही गईं उनका जीवन तो और भी दुरूह था। पर बात ये है कि बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी ...जिजीविषा की लौ धीमी नहीं पड़ने दी। वे लड़ीं भी, पारिवारिक-राजनीतिक उठा-पटक की शिकार हो कभी हारीं तो कभी विजयी भी हुईं। कभी सही थीं तो कभी गलत भी सिद्ध हुईं बेशक ...लेकिन सलाम है उनको, जो उस सबको लेकर कभी मन से हारी नहीं, अवसाद में नहीं गईं। जो भी रास्ता मिला, वहीं से निकल लीं और अन्तत: उस जंजाल से मुक्त हो खिलखिला पड़ीं।
ऐसी ही एक थीं हम सबकी प्यारी "शरबती बुआ !”
लगभग चार फुट दस इंच की शरबती बुआ अस्सी साल की उम्र में भी किसी षोडशी सी फुर्तीली, किसी अजूबे से कम नहीं थीं।चेहरे पर झुर्रियों के मकड़जाल के मध्य उनकी आँखें गजब की सजगता से भरी जुगनुओं सी चमकती थीं। अपनी शादी वाले दिन से लेकर आखिर तक वो मुझे एक सी ही दिखती थीं।
जब मैं शादी के बाद विदा होकर ससुराल आई तो अनजाना परिवेश , मेहमानों की भीड़ और खास कर भाँति-भाँति की आदरणीया बुढ़ियों की फौज से सहम गई। न जाने कितनी तरह की तो सासें- चचिया सास, मौसिया सास, फुफिया सास...और सबके अजीब- अजीब लाड़, बोलियाँ, उत्सुकता से भरे सवाल ! मैं घबराहट के मारे सबको अन्दर ही अन्दर तोलती रहती।
विदा होकर जब ससुराल पहुँचे तो सासु अम्माँ ने अपने कमरे में लाड़ से बैठाया। हमारा अपना कमरा ऊपर था तो जब भी नीचे होती तो सासु अम्माँ के ही कमरे में हमें बैठाया जाता। सब वहीं नई दुल्हन को देखते, वहीं हमारा खाना- पीना, लाड़- प्यार, पूँछ- ताछ सब चलता।
वापिस घर जाकर छोटी बहन और भैया के साथ मिल कर फिर सासों के खूब नाम रख कर झौंस उतारी "हे राम कितनी तो बुढ़ियें हैं वहाँ और सारी सास ! झाडू वाली ...पान वाली...मोटी वाली...पेटू...बातूनी वाली सास।
अम्माँ ने सुना तो डाँट लगाई "उषा बहुत बुरी बात है ये...ऐसे नहीं कहते। बत्तमीजी नहीं इज़्ज़त से बात करो। बड़ी-बूढ़ी हैं घर की, ये क्या सीखा है तुमने ?” लेकिन छोटी बहन और भैया को बहुत मजा आ रहा था सुन कर।
सफेद सूती धोती का पल्लू लापरवाही से दाँएं कंधे से बाएं कन्धे पर डाल बुआ एक हाथ तेज-तेज हिलाते हुए जब सड़क पर तेजी से फर्राटे भरतीं झपाटे से चलतीं तो एक से एक जवान भी अगल- बगल छिटक कर परे हो जाते।उनका बिना दाँतों का पोपला सा मुंह सिकुड़ कर छोटा सा होकर चेहरे को एक कठोरता का भाव देता था।
बच्चे उनकी ठोड़ी पर हाथ लगा कर कहते- `बुआ आपकी शक्ल मदर टेरेसा से कितनी मिलती है !’तो वे बहुत खुश होकर पोपले मुँह पर पल्लू रख कर हँसने लगतीं।
"अरे बालकों पढ़ी-लिखी होती तो मैं कोई यहाँ थोड़े होती मैं तो इंदिरा गांधी होती ...मेरी बुद्धि बहुत तेज है बावली न हूँ मैं !” आत्ममुग्ध हो वे फिर शुरु हो जातीं कि कब-कब, अच्छे-अच्छों का मुँह अपने वाक्- चातुर्य से बन्द कर दिया उन्होंने। कब किसकी सिट्टी- पिट्टी गुम कर दी।
उनको कभी भी कोई बीमारी नहीं हुई। दिल, गुर्दे, बीपी, शुगर सब दुरुस्त रहे ताउम्र।मुँह में उनके एक भी दाँत नहीं था मसूड़ों से ही रोटी को दाल या सब्जी में भिगो कर खा लेतीं पर नकली दाँत नहीं लगवाए।आँखें भी दुरुस्त थीं ।नब्बे - बयानवे साल तक जीं , पर कभी चश्मा भी नहीं लगाया।
अस्सी साल की उम्र में भी ऊर्जा का अखन्ड स्त्रोत बहता रहता मानो उनके भीतर।कभी भी थकती नहीं थीं।कभी किसी के साथ पराँठे बनवा रही हैं तो कभी किसी बच्चे के सिर में तेल ठोंक रही हैं।कभी बाजार से कुछ खरीद कर ला रही हैं तो कभी हमारी सास के साथ उनके कपड़ों की तह बनवा रही हैं।कभी बच्चों को पार्क ले जा रही हैं तो कभी बाबू जी के सिर में मालिश कर रही हैं ।
पार्क से लौटते समय पता नहीं क्या किस्से-कहानी सुनाती लातीं कि सारे बच्चे हंसते-खिलखिलाते, कूदते- फाँदते बुआ-बुआ करते लौटते।एक बार बेटी ने बताया कि वे रिश्तेदारों के या सड़क पर जा रहे कुछ जोकर टाइप लोगों पर बच्चों को हंसाने के लिए चुटकुले छेड़ती रहती थीं ।
हर इंसान का एक मूल स्वभाव होता है जो कभी भी बहुत नहीं बदलता। हो सकता है परिस्थितियों के कुहासे उनको ढंक लें पर उल्लास की धूप पड़ते ही वही असली रूप चमक उठता है। बुआ मूलत: चुलबुली, शैतान,हंसमुख स्वभाव की थीं। मायके आते ही वे किसी षोडषी सी खिल उठतीं। कभी फूफा के किस्से सुनातीं, तो कभी अपने पिता के जमाने में की गई शैतानियों की पोटली खोल कर बैठ जातीं।अपनी सास के किस्से जब वो एक्टिंग करके सुनातीं तो हम हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते।
`ए बहू जब सादी हुई तो मैं छोटी सी तो थी। तो मेरी सास बोली कि बेटा सिर में बड़ो दर्द है रहो जरा मूड दबा दे। हमने कही आहाँ अभी लो दबाए देते हैं और हमने दबाते-दबाते बहू उनकी चुटिया में झुनझुना बाँध दओ । अब वे जब इधर सिर हिलाएं तो झुनझुना बोले छुन्न, उधर सिर हिलाएं तो बोले छुन्न। हमारी सास ने डंडा उठाया इधर को आ बताऊँ तुझे, मोसे मसखरी करे है। पर मैं कौन हाथ आने वाली बुढ़िया के ...एक छलाँग में बाहर और ये जा वो जा।” एक्टिंग करके उनके सुनाने के ढंग पर घर भर में हंसी की लहर दौड़ जाती।
मौके पर बुआ खिंचाई करने से किसी को नहीं छोड़ती थीं और भतीजे भी उनसे हंसी- मजाक करते मजा लेते ही रहते थे।
शादी- ब्याह में एक से एक गीत और नाच करती बुआ जरा नहीं थकती थीं। सबसे ज्यादा जोश उनमें ही दिखाई देता था। सारी रस्मों को बहुत मन से जोश के साथ करवातीं और बैठी सी आवाज में मौके दस्तूर के मुताबिक़ बन्ना, बन्नी, सोहर आदि लोक-गीत गाती जाती थीं।
मैंने कभी भी उनको सहजता से, शाँति से बैठे नहीं देखा। बैठे-बैठे भी सर्र-फर्र सा कुछ करती रहती थीं। हमेशा या तो किसी से बात कर रही होतीं या चकर-मकर गोल-गोल आँखों से तीक्ष्ण दृष्टि से निरीक्षण करती होतीं।कोई भी अपने को कितना भी तुर्रम खाँ समझे पर बुआ के सामने सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती, बुआ के सामने सब बहू- बेटियों की चाल भी सतर रहती कि न जाने कब, किसको,क्या कह दें।
शरबती बुआ यूँ तो जगत बुआ थीं, परन्तु वो दरअसल मेरे पति की बुआ थीं। जिनकी कम ही उम्र में खूब बड़े ज़मींदार घर में गाँव में ही शादी कर दी गई थी।अपनी शादी के किस्से सुनाना बुआ का मनचाहा शगल था।जब वे अपनी शादी के किस्से किलकते हुए सुनातीं तो उनके चेहरे पर हया, हास्य और वीरता के मिलेजुले आत्ममुग्धता के भाव होते। चेहरे पर हल्की लालिमा आ जाती और हम सब भी मुग्ध होकर सुनते रहते।
शादी के बाद पहले मैं बुआ से बहुत ही काँपती थी, क्योंकि वे ठहरीं मुँहफट...साफ मुँह पर कह देती थीं जो मन में होता और हम थे थोड़े से नाजुकमिजाज। लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि बुआ की जुबान ही सिर्फ़ कड़क है पर दिल तो मक्खन सा नर्म है।और बुआ को अपनी तारीफ़ करवाना बहुत पसन्द है। बुआ के साथ आधा -एक घंटा बैठ कर उनकी बातें सुन लो तो भी वो खुश हो जाती थीं। तो जल्दी ही बुआ को मैंने पटा लिया ।
वैसे तो बुआ को बातें करना ही बहुत पसन्द था लेकिन बुआ का मनपसंद टॉपिक होता था बुआ की शादी की चर्चा।मैं जानबूझ कर जिक्र छेड़ती " तो बुआ शादी में आपने तो फूफा को देखा था न पहले ? और बुआ शुरु हो जातीं-`अरी सादी में मैंने गुलाबी रंग का किमखाब का लहंगा पहना था। इतना सुंदर कि क्या बताऊं बहू । और ऐसे सिर से ओढ़नी लेकर छोटा सा घूँघट निकाला तो मरी मेरी सब सहेलियाँ जल मरीं। ‘ बुआ अपनी सफेद धोती से घूँघट निकाल कर मुँह मटकाती बालिका वधू सी शरमाने लगतीं ।
'अरे बुआ तुम तो बहुत सुंदर लगती होगी अब भी कौन कम हो ? अच्छा बुआ फिर क्या हुआ ?’ मैं रस लेकर पूछती। चाहें कितनी भी बार सुन लो पर बुआ का भावपूर्ण एक्टिंग के साथ सुनाया विवाह- प्रकरण हमेशा बेहद मज़ेदार लगता और जिस दिन भी बुआ वो किस्सा सुनातीं उस सारे दिन वे बेहद खुश रहतीं। उनकी चालढाल और भाव बदले होते।
"अरी बहू मेरी बारात आई तो सोर मच गया शरबती का दूल्हा तो बड़ा ही सुंदर है। हमने पिताजी से कही भई हमें भी दिखाओ पहले, कैसा है दूल्हा? हम तो न करेंगे बिना देखे सादी। बस फिर क्या ...पिताजी ने गोद में उठा कर दरवज्जे पे ले जाकर दिखाया-ले मौड़ी देख ले अपना दूल्हा ! अरी बहू के बताऊं कित्ते सुँदर , कित्ते मलूक तेरे फूफा...जे गोरा रंग, जे ऊंचा माथा, जे ऊँची खड़ी नाक ,जे काजल लगी बड़ी-बड़ी गोटी सी आँखें।ऐसे लगे जैसे कोई राजकुमार !”
बुआ मुग्ध भाव से अतीत में डुबकी मार सुना ही रही थीं कि पास से निकलते मेरे के पति ने सुन लिया और लगे छेड़ने -"अरे बुआ झूठ तो मत बोलो, फूफा तो काले थे नाक भी मोटी थी!’
"चल मरे तू तो पैदा भी न हुआ था तब...आया बड़ा चलके ...कितनो बन रहो है बहुरिया के सामने ...भाग यहाँ से !” वे हंस - हंस कर और छेड़ने लगे।
"अच्छा बुआ देखो मैं तुम्हारा कितना ध्यान रखता हूँ ,कोई नहीं रखता इतना।”
"हाँ सो तो है भैया तू प्यार तो करे है मोकौ!”
"हाँ, और क्या, तभी देखो मैंने कैसी खिन्नी खिलाईं तुमको !”उन्होंने हंस कर कहा।
"ओहो...पाँच साल पहले दस रुपये की खिन्नी खबाईं सो आज तक गा रहो है !”
और बस ये सुर्री छेड़ वहाँ से सरक लिए। क्योंकि कोई अगर छेड़ दे तो बुआ फिर इतनी उतारतीं कि सामने वाला भागता ही नजर आता।
एक दिन हमने पति से पूछा" ये खिन्नी का क्या किस्सा है जो कह कर तुम बुआ को छेड़ते रहते हो!”
तो हंस कर बताया कि "बुआ ने एक बार मंदिर ले चलने को कहा, तो मैं ले गया।रास्ते में कहा बुआ प्रसाद तो ले लो तो सामने खिन्नी बिकती देख बोलीं हाँ ये खिन्नी ले लो।मैंने कहा अरे बुआ खिन्नी कौन प्रसाद में चढ़ाता है ? पर बुआ तो अड़ गईं कि मैं तो खिन्नी ही चढाऊंगी । खैर मैंने ले लीं पर बुआ ने वो मन्दिर जाने से पहले ही रास्ते में सब खा लीं और ख़ाली मन्दिर में हाथ जोड़ कर आ गईं।”
ऐसी ही थीं हमारी बुआ मनमौजी।
सारे बच्चों को भी बुआ बहुत प्रिय थीं । जब भी वो आतीं तो हमारे संयुक्त परिवार के सारे बच्चे खुश हो जाते उनको बत्तख की तरह पंख फैलाते घेर कर जोर- जोर से चिल्लाते -"बुआ पार्क चलेंगे !”
"अरे हाँ-हाँ...ले चलूँगी साम को, तनिक साँस तो ले लूँ !” बुआ लाड़ से पोपले मुँह से हंस कर कहतीं।
रोज शाम को सबको घेर कर पार्क ले जातीं। बुआ को भी बच्चों की तरह पार्क जाना बहुत प्रिय था, क्योंकि उनको बातों का बहुत शौक था। पार्क में वो प्राय: एक दो बुजुर्ग महिलाओं को पकड़ कर खूब रस ले लेकर बतियाती रहतीं और बच्चे खेलते रहते।दो चार घन्टे बाद बतकही से छक कर लौटतीं तो आगे-आगे कूदते उछलते बच्चे और पीछे-पीछे सतर्क तेज-तेज सतर चाल चलती बुआ।
आस-पास के घरों में उनकी एकाध सहेलियाँ भी थीं जिनके पास भी वे कभी- कभी मटरगश्ती को निकल जातीं और बहुत खुश होकर लौटतीं ।
बुआ बाबूजी को बहुत मानती थीं और बाबूजी भी इकलौती बहन का बड़ा लाड़ करते थे। दोनों भाई- बहन घंटो बातें करते रहते।बाबूजी आवाज लगाते बैठक से " अरी शरबती आ जरा सिर में खुर-खुर कर दे !” बुआ दौड़ी- दौड़ी जातीं और उंगलियों से उनके सिर में मालिश करती जातीं और खूब बातें करतीं।बाबूजी को मानो वे अभी भी अस्सी की नहीं अट्ठारह की शरबती लगती थीं और बुआ भी उनको भैया- भैया कहतीं किसी किशोरी लाडली बहन सी बन जातीं।
बाबूजी के आखिरी वक्त जब वे मोहन नगर हॉस्पिटल में एडमिट थे। डायलिसिस चलती थी तब बुआ पूरे वक्त अस्पताल में उनके साथ रहीं। कितना भी मना करो पर वे नहीं मानती थीं। पति मना करते थे कि दो लोगों के सोने की व्यवस्था नहीं है पर वे कैसे भी कष्ट से सो लेतीं पर साथ ही रहीं ।
फूफा की अच्छी-खासी कई गाँवों में ज़मींदारी थी। पर सब बताते हैं कि घर में बुआ की ही चलती थी। फूफा बहुत सम्मान करते थे उनका।ज़्यादा नहीं बोलते थे और निहायत शरीफ थे।एक ही बेटा था जो कुछ ख़ास नहीं पढ़ सका। लेकिन कई बीघों का मालिक होने के कारण जीवन में कोई कमी नहीं हुई। बेटा भी परम मातृ-भक्त था। फूफा को टी बी हो गई और लगभग पचपन साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। बुआ टूट गईं लेकिन हिम्मत नहीं टूटने दी।
सारी खेती-बाड़ी को मजबूती से अपने निर्देशन में बेटे के साथ मिलकर संभाला। साठ साल की उम्र में बेटे की भी मृत्यु से गहरा आघात लगा। बहू, दो पोते उनकी बहुएं व उनके बच्चों के साथ बुआ घर -गृहस्थी में रमी रहीं। बाकी सभी बुआ का बहुत सम्मान करते थे पर छोटा पोता बहुत बत्तमीज और उद्दंड निकला। बुआ लगभग नब्बे साल की हो गई थीं हौसला भी कुछ थक गया था।
एक दिन कुछ झगड़े के बाद नाराज होकर बैग में कपड़े रख कर हम लोगों के पास निकल आईं।हम लोगों से कह-सुन कर मन हल्का किया तो हम लोगों ने कहा आप यहीं रहो हमारे पास।कुछ दिन वे दुखी रहीं फिर जल्दी ही बुआ अपने पुराने स्वरूप में वापिस आ गईं।दो महिने बाद उन्होंने जाने के लिए कहा भी तो हम लोगों ने रोक लिया।
सर्दी आ गई थीं ओर बुआ गर्म कपड़े साथ नहीं लाईं थीं तो घर जाने के लिए फिर कहने लगीं हमने कहा इतनी क्या जल्दी है बुआ और रुको कुछ दिन हमारे पास। हम लोगों का भी मन लगता है।मैं बुआ को बाजार ले गई और उनको कुछ गर्म कपड़े और दो धोती भी दिलवाईं। बुआ बहुत खुश थीं सारे दुकानदारों से बता रही थीं ' अरे बहू है ये हमारी, बहुत प्यार करती है, तो कपड़े दिलवाने लाई है ,बड़े कॉलेज में प्रॉफेसर है ये भी बताना नहीं भूलती थीं।
फिर मैं मिठाई की दुकान पर ले गई। बुआ को मीठा बहुत पसन्द था तो कुछ मिठाई उनकी पसन्द की दिलवाईं और उन्होंने कुछ रेवड़ी भी लीं जिन्हें वो मुँह में डाल कर टॉफी की तरह चूसती रहती थीं । वहाँ भी वही बताया सबको कि "बहू है हमारी...!”
लगभग छह महिने रह कर बहुत रोकने पर भी बुआ चली गईं। कुछ बहुत जरूरी काम है कह कर। जाते-जाते मैंने वादा लिया कि वो काम निबटाते ही वापिस आ जाएंगी।
लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। जाने के आठ ही दिन बाद बुआ को भयंकर डायरिया हुआ और उन्होंने अपने घर-आँगन में आखिरी साँस ली। खबर सुन कर हम सब सन्न रह गए। पता चला आखिरी समय में बुआ ने मुझे ही याद किया था। किसी ने कहा भी कि उनको खबर भेज दो पर तब तक बुआ महाप्रस्थान कर गईं। बुआ के आकस्मिक निधन की खबर ने हम सबको सन्न कर दिया था।
जब मैं बुआ को कपड़े दिलवा रही थी तब मुझे क्या पता था कि ये मैं उनकी आखिरी विदाई की तैयारी कर रही हूँ...बुआ को उन्हीं कपड़ों में आखिरी बार विदा किया गया।
आज जब भी कभी परिवार-जन एकत्रित होते हैं और बुआ को याद करते हैं तो सबके मुँह पर हंसी और प्यार ही होता है और होते हैं उनके बहुत मजेदार किस्से। दुख जीवन में बहुत आए पर बुआ ने अपना आनन्दी स्वभाव नहीं खोया। फूफा व बेटे की बीमारी, उनकी मौत और जीवन में आईं एक भी परेशानी का जिक्र करते मैंने तो उन्हें कभी भी नहीं सुना।उन्होंने हमेशा ख़ुशियाँ ही बाँटीं सबसे। प्यार करना और सबसे प्यार पाने को ही हमेशा तत्पर रहीं।बुआ का गुस्सा भी कम नहीं था, तो पूरी दबंगई से जीवन जिया।
पार्क ले जाने वाली, परियों और राजकुमार व राक्षस की कहानी सुनाने वाली बुआ को बच्चे भी बहुत दिनों तक याद करते रहे.. अज भी करते हैं ।उनसे हमने कहा बुआ तारा बन गईं तो छोटे बच्चे बहुत दिनों तक आसमान में तारों के बीच तारा बनी अपनी प्यारी बुआ को तलाशते रहते ।
जाने के बाद भी बुआ हमारे दिलों में आज भी बसती हैं....नमन हमारी ऐसी प्यारी शरबती को बुआ को 🙏
क्रमश:
.. उषा किरण