ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

यादों के गलियारों से

 


बचपन में ख़ुशमिज़ाज बच्ची तो कभी नहीं थे…घुन्नी कहा जा सकता था…पर मजाल कोई कह कर तो देखता ,फिर तो सारे दिन रोते…फैल मचाते।

याद है …जब नौ - दस बरस के होंगे मुन्नी जिज्जी,हमारी फुफेरी बहन बड़े चाव से हम भाई- बहनों को अपने गाँव ले गईं …खूब आम के बाग थे, हवेलीनुमा बड़ा सा घर आंगन, खूब सारे लोग…और बीच आँगन में ठसकदार उनकी मोटी सी सास खटिया पर बैठी पंखा झलते हुए सबको निर्देश दे रही थीं । 

खूब प्लानिंग हुई कि नदी पर जाकर पहले नहाएंगे, फिर गाँव का फेरा लेंगे, फिर आलू की कचौड़ी के साथ आम खाए जाएंगे। जिज्जी के पाँच बच्चे और उनकी देवरानी के चार…सब हम लोगों के आगे- पीछे खुशी व उत्साह से भागे फिर रहे थे। 

तभी कयामत हो गई…हम किचिन की जगह टॉयलेट में गल्ती से घुस गए। ख़ुशमिज़ाज जिज्जी के तो वैसे ही हर समय दाँत बाहर ही रहते थे, वो बड़ी जोर से ही- ही करके हंस दीं और उनके साथ पला भर बच्चे भी हंस पडे़…हम घक्क…इतनी बेइज्जती ! भाग कर कमरे में जाकर  बैड पर उल्टे लेट कर  रोने लगे और ज़िद पकड़ ली घर जाना है। सारा घर मना कर थक गया …जिज्जी, जीजाजी ने बहुत मनाया चलो बाग घूम कर आते हैं, नदी में नहाते हैं पर मजाल जो तकिए से मुँह बाहर निकाला हो …न खाया कुछ न पिया । जिज्जी की सास लगातार जिज्जी को डाँट रही थीं कि-

"ऐसी कैसी है हंसी तुम्हारी …हर समय खी-खी…बेचारी बच्ची…!” 

दूसरे दिन बहुत भारी मन से जीजाजी हम लोगों को वापिस छोड़ आए। बड़ी बहन ने जितना हो सकता था खूब दाँत किटकिटाए…सालों उनका कोप - भाजन बनना पड़ा, पीठ पर घूँसा भी पड़ा…खुद को भी खुद ने बहुत लताड़ा। 

जिज्जी के गाँव फिर कभी जाना नहीं हुआ । जो कान्ड कर आए थे फिर शर्म के कारण हिम्मत ही नहीं पड़ी दुबारा जाने की । सुना है जिज्जी की सास ने हमको सालों याद किया और हम उनको बहुत भाए…कमाल है ? 

ऐसा नहीं था कि खुद रुकना नहीं चाहते थे , पर जिद रुपी शैतान ने बचपन में हमेशा हमारे मन पर कब्जा किया …जकड़ कर रखा। जैसे - जैसे बड़े  हुए अपने मन के अड़ियल घोड़े की लगाम कसी, उस पर क़ब्ज़ा किया और कई बार मन की न सुन कर जीवन में बहुत कुछ खोया…हार दोनों  तरह से हमारी  ही…!

खैर अब तो बहुत ही सयाने हो गए हैं…कोई शक ????? 😂



गुरुवार, 9 जनवरी 2025

'The Scream’





 एक ऐसा शहर जिसमें पूरा बाजार तो सजा है पर एक भी इंसान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है, ना हि कोई आवाज है। मैं अपनी बड़ी बहन का हाथ पकड़कर उन रास्तों से गुजर रही हूँ, सहसा दूर से किसी के भागते कदमों की आहट आती सुनाई देती है। मुड़कर देखती हूँ तो कोई शख्स हमारी ओर तेजी से दौड़ कर आता दिखाई देता है। हम दोनों भी अनायास डरकर भागने लगते हैं और मैं शहर के बाहरी गेट के बाहर गाड़ी के पास खड़े अपने ड्राइवर को जोर-जोर से आवाज लगाने लगती हूँ…वह आदमी पास आता है, और पास…मैं आँखें बन्द कर लेती हूँ, वह भागता हुआ गेट के बाहर चला जाता है…झटके से मेरी आँखें खुल गईं । उफ्…दोपहर की झपकी लेते न जाने किन दहशतों के गलियारों से गुजर गई…


न जाने क्यों तुरन्त मेरे जेहन में नार्वे के  आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch की पेंटिंग चीख The Scream  उससे जुड़ गई। इसीतरह जीवन के कई भाव, कई दृश्य व कई घटनाएं प्राय: मुझे किसी न किसी पेंटिंग से मानसिक व भावनात्मक रूप से अनायास जोड़ देते हैं…


नार्वेजियन आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch एक शापित कलाकार…जिसने मृत्यु की दहशत में जीवन गुजारा और उसको अपने रंगों व रेखाओं में ताउम्र ढाल कर उन भावनाओं को ही अमर कर गया। एक कलाकार के ही अख़्तियार में होता है किसी याद, भावना, अहसास, व्यक्ति या घटना को चित्र में ढाल कर अमर कर देना…


एडवर्ड मंख नॉर्वे में जन्मे अभिव्यन्जनावादी चित्रकार हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति, The Scream विश्व कला की सबसे प्रतिष्ठित पेंटिंग में से एक है। 20वीं सदी के उत्तरार्ध में, उन्होंने जर्मन अभिव्यक्तिवाद और उसके बाद के कला रूपों में एक महान भूमिका निभाई; खास तौर पर इसलिए क्योंकि उनके द्वारा बनाए गए कई कामों में गहरी मानसिक पीड़ा दिखाई देती थी।


मूलतः 'द स्क्रीम’ आत्मकथात्मक पेंटिंग है, जो Munch के वास्तविक अनुभव पर आधारित  रचना है। मंख ने याद किया कि वह सूर्यास्त के समय टहलने के लिए बाहर गये थे जब अचानक डूबते सूरज की रोशनी ने बादलों को खूनी लाल  कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि "प्रकृति के माध्यम से एक अनंत चीख गुजर रही है", …प्रकृति के साथ मिलकर कलाकार ने अपने अन्दर की डर व दहशत भरी चीख को कैनवास पर साकार कर अमर कर दिया। प्रकृति केवल वह ही नहीं है जो आंखों से दिखाई देती है, इसमें आत्मा के आंतरिक चित्र भी सम्मिलित होते हैं। सम्भवतः यह आवाज़ उस समय सुनी गई होगी जब उनका  दिमाग असामान्य अवस्था में था, तभी Munch ने इस चित्र को एक अलग शैली में प्रस्तुत किया।


20वीं सदी की शुरुआत में  उनकी इस पेंटिंग्स को आधुनिक आध्यात्मिक पीड़ा के प्रतीक के रूप में देखा गया।


मंख का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो बीमारियाँ झेल रहा था। जब वे पाँच साल के थे, तब उसकी माँ की तपेदिक से मृत्यु हो गई, जब वह 14 साल के थे, तब उनकी सबसे बड़ी बहन की मृत्यु हो गई, दोनों ही क्षय रोग से पीड़ित थे। इसके बाद मंख के पिता और भाई की भी मृत्यु हो गई जब वे अभी भी छोटे ही थे, कि एक और बहन मानसिक बीमारी से पीड़ित हो गई । "बीमारी, पागलपन और मृत्यु," जैसा कि उन्होंने कहा, "वे काले स्वर्गदूत थे जो मेरे पालने पर नज़र रखते थे और मेरे पूरे जीवन में मेरे साथ थे।"


माँ की मृत्यु के बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता ने किया। एडवर्ड के पिता मानसिक बीमारी से पीड़ित थे और इसने उनके और उनके भाई-बहनों के पालन-पोषण पर भी बुरा प्रभाव डाला। उनके पिता ने उन्हें गहरे डर के साए में पाला, यही कारण है कि एडवर्ड मंख के काम में एक गहरा अवसाद का स्वर दिखाई देता है।

छोटी उम्र में ही मंख को चित्रकारी में रुचि थी, जबकि उन्हें बहुत कम औपचारिक प्रशिक्षण मिला। 


1917th में न्यूयार्क प्रवास के दौरान मुझे आधुनिक कला संग्रहालय, ( MoMA ) में कुछ समय के लिए खास पहरेदारी में बतौर मेहमान आई इस पेंटिंग को सामने से देखने का मौका मिला और जब आप पेंटिंग के आमने-सामने  होते हैं, तो आप हर छोटी-छोटी बात पर ध्यान देने लगते हैं, जैसे कि हर एक ब्रशस्ट्रोक, चित्रकार द्वारा इस्तेमाल किए गए रंगों के अलग-अलग शेड्स, रेखाएं…आप कलाकृति की आँखों में आँखें डाल संवाद स्थापित कर सकते हैं…उससे ज़्यादा आत्मीयता स्थापित कर पाते हैं। शायद उसी का परिणाम है कि इस पेंटिंग से मेरे अपने भय व दहशत के पलों व भावों के तार कहीं गहरे तक जुड़ गए….!!


- उषा किरण 



गुरुवार, 2 जनवरी 2025

लघुकथा

                       


 'वैश्विक लघुकथा पीयूष’ में दो लघुकथाएं छपी हैं। धन्यवाद ओम प्रकाश गुप्ता जी…आप भी पढ़ कर अपनी राय दीजिए-

                                  पितृदोष 

                                    ~~~~

"हैलो सुगन्धा, बात सुन…कल न ग्यारह बजे तक आ जाना और सुन लन्च भी यहीं मेरे साथ करना है !”

"कल क्या है ? एनिवर्सरी तो तुम्हारी फरवरी में है न, फिर किसका बर्थडे….?”

"अरे नहीं …कल पितृदोष के निवारण का अनुष्ठान है।”

"पितृदोष…?”

"हाँ रे, क्या बताऊँ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा आजकल। सुबोध का प्रमोशन हर बार रुक जाता है, अनन्या का इस बार भी सी पी एम टी में रह गया, ऊपर से आए दिन कोई न कोई बीमार रहता है। हार कर मम्मी के कहने पर सदरवाले पंडित जी को जन्मपत्री दिखाई थी, तो उन्होंने बताया कि पितृदोष है हम दोनों की पत्री में …जब तक उपाय नहीं होगा तब तक सुख-समृद्धि नहीं आएगी घर में।”

" ओह…अच्छा, ठीक है…आ जाऊंगी ।”

दूसरे दिन ऑफिस से हाफ डे की छुट्टी लेकर जैसे ही चित्रा के घर पहुंची तो बाहर से ही विशाल कोठी की सजावट देख दिल ख़ुश हो गया। गेंदे और अशोक के पत्तों के बन्दरवार, रंगों व फूलों की रंगोली, धीमे- धीमे बजता गायत्री मन्त्र और  अगर- धूप की अलौकिक सुगन्ध ने मन मोह लिया। रसोई से पकवानों की मनमोहक सुगन्ध घर के बाहर तक आ रही थी। अन्दर पीले वस्त्रों में सज्जित  दो पंडित पूजा की भव्य तैयारियों में  व्यस्त थे।प्रफुल्लित चित्रा भाग-भागकर उनको जरूरत का सामान लाकर दे रही थी।

"ये लीजिए पंडित जी आपने कहा था नाग का जोड़ा  बनवाने को…!” उसने एक छोटी मखमली लाल डिब्बी पंडित जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, जिसमें नगीने जड़ा , सुन्दर सा सोने का नाग का जोड़ा रखा था।

"आ गईं तुम …बैठो- बैठो बस पूजा शुरु होने ही वाली है…अरे बबली, जरा  आँटी के लिए ठंडाई लाना …” चित्रा ने आगे बढ़ कर स्नेह से मेरे हाथ थाम लिए।

बबली कुल्हड़ में बादाम केसर की  ठंडाई लेकर आई।मेरा गला सूख रहा था। ठंडाई और ए. सी. से राहत पाकर मैंने अनन्या से कहा-"अनन्या बेटे बाथरूम कहाँ है?

"जी आँटी…यहाँ तो बाथरूम की सफाई चल रही है आप ऊपर वाले बाथरूम में चलिए मेरे साथ” अनन्या मुझे अपने साथ ऊपर ले गई। 

जीने के सामने ही एक छोटे से घुटे हुए  कमरे में कोई कमजोर से वृद्ध पुरानी, मैली सी धोती पहने बैड पर बैठे थे। ऊपरी तन पर कुछ नहीं था। गर्मी के कारण बनियान उतार कर पास ही रखी थी। छत पर पुराना सा पंखा खटर- खटर चल रहा था,  जिसमें से आवाज ज्यादा, हवा कम ही आ रही थी।जून की तपती गर्मी से बेहाल लाल चेहरा, टपकता हुआ पसीना…। 

उनकी उजाड़ बेनूर, फटी- फटी ,दयनीय सी आँखें मेरे  चेहरे पर जम गईं, मानो भीड़ में खोया बच्चा मुझसे  अपना पता पूछ रहा हो। 

स्टूल पर रखा अपना खाली गिलास काँपते हाथों से आगे कर  सूखे मुंह से धीमी  आवाज में कहा "पानी…!”

"जी बाबाजी अभी लाई…आँटी वो उधर लेफ्ट में बाथरूम है …मैं जरा पानी लेकर अभी आई।”

उन बेनूर, बेचैन आँखों की तपिश मुझसे झेली नहीं गई…मैं आगे बढ़ गई। नीचे से पितृदोष-निवारणार्थ अनुष्ठान के पावन मन्त्रों की आवाजें तेज-तेज आने लगी थीं…।

                                    **

                                पहचान 

                               ~~~~~                              

राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण          




                         

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

बुरी औरतों…!!



बुरी औरतों…
तुम वाकई बुरी हो

तुम जो यह सोचती हो 
तुमने बुरा हश्र किया उनका
तो उससे कहीं ज्यादा 
नादानी से, पहले अपना किया
ना जाने कब बराबरी की होड़ में 
तराजू के दूसरे पलड़े पर 
खुद ही जा बैठीं…

क्या तुम जानती  हो 
अनगिनत अन्याय, पीड़ा, 
अनाचार, अत्याचार सहे 
तब कहीं तनिक से साये मिले
कुछ ही राहत,आशा भरे पल 
अभी गुजरे ही थे और तुम्हें 
अपने लोभ, कपट की कुल्हाड़ी 
खुद अपनी ही जड़ों पर चलानी थी…?

याद रखना…
गुनहगार हो उन मासूमों की 
जिनकी माँओं ने तड़प कर 
चुन लिया फाँसी का फंदा
जो कर दी गईं जीतेजी
लपटों के हवाले
या जिन्होंने एड़ियाँ रगड़ 
लानत भरी ज़िंदगी 
रहमतों के साए तले गुजारी…

गुनहगार हो तुम उन अनगिनत 
असहाय, छटपटाती 
बेघर हुई पीड़ाओं की
भीगा आँचल थाम काँपते 
कलपते रहे नन्हे नौनिहाल
छटपटाते रहे बाप-माई 
हर सावन करेजा मसोसता 
सूनी आँख राह तकता रहा भाई…

जाने कितने मासूम दिल सहम कर 
दरक गए होंगे
अरमानों के जनाजे पर कुछ फूल
और सज गए होंगे
दफन कर दिए होंगे संजोए सपने सारे
कर दिए होंगे धरती या नदी के हवाले…

जानती हूँ…
जुल्म तो नहीं रुकेगा अब भी
लेकिन जब भी कोई 
चीख छटपटाएगी
अदालत का दरवाजा खड़काएगी
खड़ी हो जाएंगी दस उँगलियाँ 
तुरन्त…तंज कसे जाएंगे
तिरियाचरित्र का ताना सुना
संदेह की नजर से देखी जाएंगी
सारी दी गई गालियाँ फिर से 
दोहराई जाएंगी…

देवी बनना मंज़ूर नहीं था, न सही
दया, ममता, संस्कार, नैतिकता 
सबकी ठेकेदार तुम नहीं 
मंजूर है…न सही…
लेकिन कुछ तो इंसानियत रखतीं 
कम से कम आदमखोर तो न बनतीं…

देखो जरा…
कैसी मुश्किल घड़ी है
तुम्हारे ही कारण औरत आज 
कटार लिए कटघरे के उस पार
स्वयम् अपनी प्रतिवादी बनकर खड़ी है

तुम्हारा गुनाह अक्षम्य है, 
आधी आबादी की आवाज को तुमने
कमजोर करने का गुनाह किया है
सदियों से चले प्रयासों पर
कुठाराघात किया है…

याद रखना…
आने वाली नस्लें तुम पे उंगली उठाएँगी 
आँखों में आँखें डाल सौ सवाल करेंगी
अपने हाथों जो लिख दिया उनका नसीब
क्या कभी उसका तुम दे सकोगी हिसाब…?

तो…बुरी औरतों सुन लो 
सजा चाहें जो भी हो 
माफी की हक़दार तो तुम भी 
क़तई नहीं हो…!!

- उषाकिरण 🍁
- 18 दिस. 24




सोमवार, 25 नवंबर 2024

कैंसर में जागरूकता जरूरी….



आजकल एक पोस्ट बहुत वायरल हो रही है कि प्राकृतिक चिकित्सा से फोर्थ स्टेज का कैंसर ठीक हो गया। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानती हूँ जिन्होंने अपना एलोपैथी इलाज बीच में छोड़कर आयुर्वेदिक या नेचुरोपैथी अपनाया और नहीं बच सके। मेरी राय है कि कैंसर पेशेंट को पहले किसी अच्छे डॉक्टर से पूरा इलाज सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडिएशन वगैरह जो वो बताएं वह करवाना चाहिए, तब बाद में इसके बारे में सोचें। यहाँ मैं अपने उपन्यास का कुछ अंश प्रस्तुत कर रही हूँ-

"……हॉस्पिटल में बड़े - बड़े पोस्टर लगे थे ,जिनमें लिखा था कि कैंसर - पेशेन्ट कैंसर से ज्यादा कैंसर में विज़िटर्स के द्वारा दिए गए इन्फैक्शन से मरते हैं और इलाज छोड़ कर ऑल्टरनेट थैरेपी या झाड़- फूँक करवाने से मरते हैं ।तो कभी भी बीच में इलाज नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि हर दूसरा आदमी ऐसे में कोई न कोई अचूक नुस्ख़ा या वैद्य ,हकीम ,गंडा- ताबीज या तान्त्रिक की खबर लिए आपको मिलता है।

प्राय: हम किसी परिचित के कैंसर से पीड़ित होने की खबर मिलते ही उससे कभी भी, अचानक मिलने चले जाते हैं ,ये कदापि उचित नहीं है ।उनको मैसेज या कॉल कर कहना चाहिए -

" किसी भी मदद की जरूरत हो तो बताइएगा हम आपको असुविधा न हो इसलिए मिलने नहीं आ रहे हैं ! तन, मन, धन से तुम्हारे पीछे खड़े हैं दोस्त ,बस जब जरूरत हो तो हमें आवाज जरूर देना भूलना नहीं !”

यदि मिलने जा भी रहे हैं तो पूछ कर जाएं! चप्पल जूते बाहर उतार कर जाएं और यदि फ्लू ,वायरल या कोई बीमारी है तो भी न जाएं वर्ना लो इम्यूनिटी के कारण आप उसे इन्फैक्शन देकर मुसीबत में डाल देंगे ।

मैंने सुना है कि कभी भी कीमोथेरेपी के साथ या बाद में आयुर्वेदिक दवाएं भस्म आदि कदापि नही लेनी चाहिए वर्ना बहुत भयंकर परिणाम होते हैं ।डॉक्टर से सलाह किए बिना कोई भी दवाएं नहीं लेनी चाहिए….।”

                           — दर्द का चंदन

                                उषा किरण

मैं प्राकृतिक चिकित्सा की विरोधी नहीं हूँ, खुद भी डीटॉक्स के लिए बीच- बीच में जाती रहती हूँ, लेकिन कैंसर जैसी भीषण बीमारी के लिए इस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। मैंने भी पूरा इलाज करवाया फिर बाद में नेचुरोपेथी को और प्राणायाम को अपनाया।इलाज समाप्त होने के बाद पंचकर्म, योगा , प्राणायाम व प्राकृतिक चिकित्सा अवश्य ही लाभ देती है इसमें सन्देह नहीं लेकिन आप इसके भरोसे इलाज छोड़ने का रिस्क कदापि न लें।

टाटा मेमोरियल अस्पताल के पूर्व और वर्तमान के मिलाकर कुल 262 कैंसर विशेषज्ञों द्वारा हस्ताक्षरित बयान में कहा गया है कि-

"एक पूर्व क्रिकेटर का अपनी पत्नी के स्तन कैंसर के इलाज का वर्णन करने वाला एक वीडियो सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रसारित हो रहा है। वीडियो के कुछ हिस्सों में बताया गया है कि 'डेयरी उत्पाद और चीनी न खाकर कैंसर सेल्स को भूखा रखना', हल्दी और नीम का सेवन करने से उनके 'लाइलाज' कैंसर को ठीक करने में मदद मिली। इन बयानों के समर्थन में कोई उच्च गुणवत्ता वाला सबूत नहीं है, ”डॉक्टरों ने लिखा।

“हालांकि इनमें से कुछ उत्पादों पर शोध जारी है, लेकिन कैंसर-विरोधी एजेंटों के रूप में उनके उपयोग की सिफारिश करने के लिए वर्तमान में कोई प्रमाणिक ​​​​डेटा उपलब्ध नहीं है। 

डॉक्टर ने कहा कि हल्दी और नीम से उन्होंने कैंसर को मात नहीं दी बल्कि सर्जरी और कीमोथेरेपी करवाई, जिसके कारण वह इस रोग से मुक्त हुईं। उन्होंने कहा कि हम आमजन से अनुरोध करते हैं कि यदि किसी में कैंसर के कोई लक्षण हों तो चिकित्सक या कैंसर विशेषज्ञ से सलाह लें। पत्र में कहा गया है, "अगर कैंसर का जल्दी पता चल जाए तो इसका इलाज संभव है और कैंसर के सिद्ध उपचारों में सर्जरी, विकिरण चिकित्सा और कीमोथेरेपी शामिल हैं।"


मंगलवार, 19 नवंबर 2024

खुशकिस्मत औरतें

 



ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें

जो जन्म देकर पाली गईं

अफीम चटा कर या गर्भ में ही

मार नहीं दी गईं,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पढ़ाई गईं

माँ- बाप की मेहरबानी से,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो ब्याही गईं

खूँटे की गैया सी,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो माँ बनीं पति के बच्चों की,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जिन्हें घर- द्वार सौंपे गये

पति के नाम वाली तख्ती के,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पर्स टाँग ऑफिस गईं

पति की मेहरबानी से..!


जमाना बदल गया है

बढ़ रही हैं औरतें 

कर रही हैं तरक्की

देख रही हैं बाहरी दुनिया

ले रही हैं साँस खुली हवा में 

खुली हवा...खुला आकाश...!

क्या वाकई ?

कौन सा आकाश ?

जहाँ पगलाए घूम रहे हैं

जहरीली हवा में 

दृष्टि से ही नोच खाने वाले

घात लगाए गिद्ध-कौए !


कन्धे पर झूलता वो पर्स

जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं

ऊँची एड़ी पर

वो निकलती है घर से

बेटी के बुखार और

बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता

पति की झुँझलाहट कि

नहीं दिखती कटरीना सी

मोटी होती जा रही हो...!

सास की शिकायतों 

और तानों का पुलिन्दा

फिर चल दी महारानी

बन-ठन के...!


ऑफिस में बॉस की हिदायत

टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए

चेहरे पे मुस्कान चिपकाइए मोहतरमा

शॉपिंग की लम्बी लिस्ट

जीरा खत्म,नमक खत्म, तेल भी

कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी

लौट कर क्या पकेगा किचिन में 

घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर

कल टेस्ट है मुन्ना का...

सोच को ठेलती ट्रेन में पस्त सी 

ऊँघती रहती है !


ख़ुशक़िस्मत औरतें

महिनों के आखिर में लौटती हैं 

रुपयों की गड्डी लेकर

उनकी सेलरी

पासबुक, चैकबुक

सब लॉक हो जाती हैं

पति की सुरक्षित अलमारियों में !


खुश हैं बेवकूफ औरतें

सही ही तो है

कमाने की अकल तो है

पर कहाँ है उनमें

खरचने की तमीज !


पति गढ़वा  तो देते हैं 

कभी कोई जेवर

ला तो देते हैं

बनारसी साड़ी

जन्मदिवस पर 

लाते तो हैं केक

गाते हैं ताली बजा कर

हैप्पी बर्थडे टू यू

मगन हैं औरतें

निहाल हैं 

भागोंवाली  हैं 

वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!


सुन रही हैं दस-दस कानों से

ये अहसान क्या कम है कि

परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं

उनके चरणों में पड़ी हैं 

पाली जा रही हैं

नौकरी पर जा रही हैं 

पर्स टांग कर 

लिपिस्टिक लगा कर

वर्ना तो किसी गाँव में

ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर

फूँक रही होतीं चूल्हा

अपनी दादी, नानी 

या माँ की तरह...!


बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं 

ख़ुशक़िस्मत औरतें कि...

सबको खिला कर

चूल्हा ठंडा कर

माँ या दादी की तरह

आँगन में अमरूद की 

सब्ज छाँव में बैठ

दो जून की इत्मिनान की रोटी भी

अब नहीं रही उसके हिस्से !


घड़ी की सुइयों संग 

पैरों में चक्कर बाँध 

सुबह से रात तक भागती

क्या वाकई आज भी

ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??

                         उषा किरण -

फोटो: गूगल से साभार

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

तेरी रज़ा

 

कुछ छूट गए 

कुछ रूठ गए

संग चलते-चलते बिछड़ गए


छूटे हाथ भले ही हों

दूरी से मन कब छूटा है 

कुछ तो है जो भीतर-भीतर

चुपके से, छन्न से टूटा है


साजिश ये रची  तुम्हारी है

सब जानती हूँ मनमानी है

सबसे साथ छुड़ा साँवरे

संग रखने की तैयारी है


हो तेरी ही अभिलाषा पूरी 

रूठे मनाने की कहाँ अब

जरा भी हिम्मत है बाकी 

सच कहूँ तो अब बस

गठरी बाँधने की तैयारी है

अब सफर ही कितना बाकी है


वे हों न हों अब साथ मेरे

न ही सही वे पास मेरे

हर दुआ में हृदय बसे 

वे मेरे दुलारे प्यारे सभी

वे न सुनें, वे ना दीखें

पर उन पर मेरी ममता के 

सब्ज़ साए तो तारी हैं…


थका ये तन औ मन भी है

तपती धरती औ अम्बर है

टूटे धागों को जोड़ने की 

हिम्मत न हौसला बाकी है


न मेरे किए कुछ होता है

न मेरे चाहे से होना है

न कुछ औक़ात हमारी है

ना कुछ सामर्थ्य ही बाकी है

जो हुआ सब उसकी मर्ज़ी 

जो होगा सब उसकी मर्ज़ी 

रे मन फिर क्यूँ  तड़पता है

मन ही मन में क्यूँ रोता है


संभालो अपनी माया तुम

ले लो वापिस सब छद्म-बन्ध

अब मुक्त करो है यही अरज

ना बाँधना फिर फेरों का बन्ध


हो तेरी इच्छा पूर्ण प्रभु

तेरी ही रज़ा अब मेरी रज़ा 

जो रूठ गए या बिछड़ गए

खुद से न करना दूर कभी

बस पकड़े रहना हाथ सदा

संग-साथ ही रहना उनके प्रभु…!!!


                        — उषा किरण 🍁

फोटो; गूगल से साभार 

दुआ की ताकत

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