ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 5 सितंबर 2021

लाफिंग क्लब (लघुकथा )






शादी के बारह साल बाद भी मोहन के कोई बच्चा नहीं था। घरवाले सब दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे थे।जब वो छुट्टी में पहाड़ जा रहा था तो मैंने कहा मीना को यहाँ ले आओ इलाज करवाते हैं।तो गाँव जाने पर मेरे कहने से अपनी बीबी मीना को भी ले आया साथ। 

सालों बाद दोनों साथ-साथ रहते बहुत खुश थे।किचिन में काम करते समय धीरे- धीरे पहाड़ी गीत गाते रहते।मैं किसी काम से किचिन में जाती तो उनका  मीठा सा पहाड़ी गान सुन कर दबे पाँव मुस्कुरा कर वापिस लौट आती।

एक दिन सुबह- सुबह सिम्बा को घुमाने ले जाते समय मोहन, मीना को भी साथ ले गया। दिसम्बर की सर्द कोहरे से भरे मैदान से मीना ने देखा पास के पार्क में कुछ धुँधली सी आकृतियाँ जोर-जोर से हँस रही हैं।

-हैं ये कौन हैं ?

- ये भूत हैं जैसे हमारे पहाड़ों में होते हैं वैसे ही। 

मोहन को मजाक सूझा।मीना ताबड़तोड़ भागी, सीधे घर आकर साँस ली।आकर मुझसे जिक्र कर रही थी तो मुझे बहुत जोर से हंसी आ गई।

- अरे यहाँ शहरों में भूत नहीं होते तू डर मत। वो तो लाफिंग- क्लब के लोग थे हंसने की प्रैक्टिस कर रहे थे।

- हैं… वो क्या होता ?

- अरे कैसे बताऊं ? समझ ले एक क्लास होती है जहाँ सब बैठ कर हँसते हैं साथ-साथ।

- हैंऽऽऽऽ सहर में पढ़ाई की तरह हंसना भी सीखना होता ? हमारे पहाड़ में तो मुफ्त में ही हम सारे दिन हंसते।लकड़ियाँ बीनते, जिनावर चराते, खेत जोतते..हरदम हंसते रहते। बताओ यहाँ तो हंसना भी सीखते….! 

वो ताली बजा कर जोर-जोर से पहाड़ी झरने सी उन्मुक्त हंसी हंस रही थी और मैं चुपचाप किचिन से बाहर आ गई।

Usha Kiran

रेखाँकन: उषा


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

पहचान ( लघुकथा)



राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण 

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

विदा दोस्त...!






आज मैंने पीछे दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न 

पीली-पीली दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी मिलने तुमसे

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!

                     — उषा किरण 


रविवार, 22 अगस्त 2021

अपनी- अपनी लड़ाई

 





दो बच्चे मेरे और दोनों जैसे उत्तरी घ्रुव और दक्षिणी ध्रुव।


बेटी नर्सरी में थी तो प्राय: आनन्दिता की सताई हुई बिसूरती हुई घर आती।

-आज आनन्दिता ने थप्पड़ मारा।

-आज  आनन्दिता ने नोचा।

-आज  आनन्दिता ने पेंसिल छीन ली।

-आज  आनन्दिता ने टिफिन खा लिया ।


मेरा दिल डूब-डूब जाता अपनी मासूम राजकुमारी के आँसुओं में। मैं कहती कि उसकी शिकायत मैम से कर दिया करो। पर वो कहती कि-

-मम्मी उसे कोई कुछ नहीं कह सकता मैम भी नहीं, क्योंकि उसकी दादी का ही तो स्कूल है और दादी ही तो प्रिंसिपल हैं। वो सभी बच्चों को मारती है।


वो बेहद मासूमियत से हाथ नचा कर कहती।

मुझे बहुत ही गुस्सा आता कि ये क्या बात है ? बच्ची की शिक्षा की शुरुआत ही एक गलत व्यवस्था और अन्याय सहने से हो रही है।


मैं बेहद टेंशन में आ गई। कई बार स्कूल में जाकर टीचर को शिकायत भी की, परन्तु वो आँखें फैला बेचारगी से एक ही बात दोहरातीं कि,

-क्या करें वो तो प्रिंसिपल की पोती है…!


खैर फिर नर्सरी के बाद एल के जी में दोनों का दूसरे  स्कूल में एडमिशन हुआ।दोनों एक ही रिक्शे से जाती थीं।परन्तु उसकी हाथ चलाने की इतनी आदत थी कि वो रिक्शे में भी दादागिरी करती। सब बच्चों को चाँटे मारती रहती थी। 


एक दिन फिर  बेटी रोते हुए घर आई, क्योंकि गेम्स पीरियड के बाद उसका नया ब्लेजर छीन कर आनन्दिता ने अपना पुराना ब्लेजर उसे दे दिया था। उसने काफी कहा पर वो कहती रही ये ही मेरा है।


यूँ तो मैं रोज रात को सोने से पहले उसे कहानियों में लपेट कर दया, अहिंसा,करुणा, क्षमा, सहनशीलता, देशभक्ति, भगवान पर आस्था, जैसे मानवीय मूल्यों की घुट्टी पिलाती थी, लेकिन मैंने उस दिन उसको बैठा कर वो समझाया जो मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी।मैंने सख्ती से कहा -

-तुम पिटती क्यों रहती हो, तुम्हारे हाथ नहीं हैं क्या? तुम भी मारो उसको पलट कर। और एक हाथ पकड़ कर दूसरे गाल पर लगाना थप्पड़ जोर से। यदि कोई कुछ कहे तो कह देना ये रोज मारती है इसीलिए मारा।डरना मत कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूँगी।


खूब सिखा- पढ़ा कर भेजा। चाह तो यही रही थी कि मैं ही जाकर मसला निबटाऊँ, लेकिन मुझे खुद अपनी जॉब पर जाना होता था। फिर लगा कि मैं कहाँ तक इसको सपोर्ट करूँगी, कब तक दुनिया से बचाऊँगी आखिर में तो इसे अपनी लड़ाई अपने शस्त्रों से खुद ही लड़नी होगी।


दूसरे दिन वो बहुत खुश कूदती- फाँदती आई,

-मम्मा ले आई अपना कोट।पता है आज जब उसने मारा तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर जोर से चाँटा मारा और कहा मेरे हाथ नहीं हैं क्या ? तुम मारोगी तो मैं भी मारूँगी।मम्मी वो एकदम से डर गई। फिर मैंने उसके पापा से भी कहा कि अंकल ये मुझे रोज मारती है और मेरा कोट नहीं दे रही जबकि अन्दर मेरा नाम लिखा है आप देख लीजिए। पता है मम्मी फिर उसके पापा ने उसको डाँटा और एक चाँटा भी मारा और कहा सॉरी बोलो उसे और कोट वापिस करो ...मम्मी बड़ा मजा आया आज!”


मन कुछ कुड़बुड़ाया -गलत शिक्षा नही दे रही हो तुम बच्ची को ? हिंसक होना सिखा रही हो ...तुमको तो ये कहना था न कि, कोई एक चाँटा मारे तो बेटा दूसरा गाल भी आगे कर दो। दुर् कह कर मैंने घुड़की दी और राहत की साँस ली।


वैसे बाद में वे दोनों बहुत अच्छी दोस्त बनीं, आज भी हैं।


उस दिन मेरी बेटी ने मुझसे बेदर्द , असभ्य , अधिकारों का हनन करने वाले समाज के बीच सर्वाइव करने का पहला पाठ पढ़ा। और जाना कि  आप कितनी भी मजबूत या कमजोर जमीन पर क्यों न  खड़े हों लेकिन अपनी लड़ाई आपको  अपने हौसलों से खुद तो लड़नी ही पड़ेगी। बिना लड़े जीत  कोई दूसरा आपको तश्तरी में रख कर भेंट नहीं कर सकता ।


फिर उसके बाद जिंदगी में वो कभी भी, किसी से भी नहीं पिटी।

                                                —उषा किरण 

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

रहमतें



हफ्ते भर पहले आँखों की कैटरेक्ट की लेजर-सर्जरी करवाई। कुल पन्द्रह मिनिट में हो गई। न कट, न इंजेक्शन , न दर्द, न हरी पट्टी, न काला चश्मा । बस आधा घन्टा बैठा कर चैक किया और जाओ घर…भई वाह ! दुनिया कुछ और  ज़्यादा रंगीन व रौशन सी नजर आई।अपनी ही बनाई पेन्टिंग के रंग कितने खुशनुमा लगे।

कई तरह की दवाइयाँ डालने को दीं और कुछ एहतियात रखने को कहा जिसमें डॉक्टर ने ये भी कहा कि पानी से आँखों को बचाने के लिए अभी सिर मत धोना।

आठ नौ दिन हो गए तो बहुत बेचैनी थी। सोचा पार्लर पर जाकर आँख को कवर कर धुलवा ही लेते हैं।खैर खूब सावधानी से तैयारी की - पार्लर का एपॉइंटमेंट, साफ फेस टॉवल, सेनेटाइजर, डबल मास्क से लैस होकर  पहुँचे और जायजा लिया …साफ- सुथराई से सन्तुष्ट होकर हमने आरिफ को समझाया

-देखो भाई हमारी आँख की सर्जरी हुई है, तो पानी न जाए…।खूब- खूब हिदायत देकर सीट पर जम गए। 

आरिफ़ ने कहा मैम बेफिक्र रहें। हम हो गए बेफिक्र और बाईं आँख को फेस टॉवल से कवर करके बैठ गए।आरिफ ने सिर पीछे करके टॉवल लगाया,

अचानक आरिफ़ ने कहा -मैम आपकी लैफ्ट आँख की सर्जरी हुई है न? 

- नहीं राइट की और कहते ही झटका लगा, अरे मगर हम तो लैफ्ट को ढाँप कर बैठे हैं। हमने आरिफ़ को घूर कर देखा झट लैफ्ट को मुक्त किया और राइट को कवर किया और पूछा।

- अरे आरिफ़ तुमने ये क्यों पूछा अचानक ? तुमको कैसे पता चला कि…तो वो हंसने लगा बोला -पता नहीं मैम, बस ऐसे ही पूछ लिया ! 

हमने शीशे में देखा तो आँख को देख कर कुछ भी नहीं लग रहा था कि सर्जरी हुई है।लेकिन हमें आरिफ़ की शक्ल में `उसका’ नूर नजर आया।

खैर, हम हैड वॉश करवा कर आ गए सुरक्षित वापिस। बात छोटी सी है परन्तु ये बात निकल नहीं रही दिल-दिमाग से। आरिफ़ को कैसे इन्ट्यूशन हुआ ? 

ये उसकी छोटी-बड़ी रहमतें ही तो हैं जो हमारे  साथ चलती हैं भेष बदल- बदल कर …गौर करो तो साफ़ दिखाई देती हैं, वर्ना हमारी औकात  बूँद बराबर भी नहीं…फिर मेरे दिल से वही आवाज आती है-


" मैं जिसका जिक्र करती हूँ

   वो मेरी फिक्र करता है …!!🙏🙏

मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दोस्त




ऐ दोस्त

अबके जब आना न

तो ले आना हाथों में

थोड़ा सा बचपन

घर के पीछे बग़ीचे में खोद के

बो देंगे मिल कर

फिर निकल पड़ेंगे हम

हाथों में हाथ लिए

खट्टे मीठे गोले की

चुस्की की चुस्की लेते

करते बारिशों में छपाछप

मैं भाग कर ले आउंगी

समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़

तुम बना लेना चाय तब तक

अदरक  इलायची वाली

अपनी फीकी पर मेरी

थोड़ी ज़्यादा मीठी

और तीखी सी चटनी

कच्ची आमी की

फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा

सीधा कर देना और

रस्सी डाल उस पर मैं

बना दूंगी मस्त झूला

बढ़ाएँगे ऊँची पींगें

छू लेंगे भीगे आकाश को

साबुन के बुलबुले बनाएँ

तितली के पीछे भागें

जंगलों में फिर से भटक जाएँ

नदियों में नहाएँ

चलो न ऐ दोस्त

हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!

                        — उषा किरण 

चित्र ; Pinterest से साभार

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कहानी - अनकही

                                               —अनकही—

शेष आगे…..

नताशा 

 " कहाँ हो यार ? “एयरपोर्ट से बाहर निकल गाड़ी में बैठते ही मनीष का फ़ोन आ गया।

" गाड़ी में हूँ, आ रही हूँ !” मैंने थकी सी आवाज़ में कहा ।
“ अरे यार जल्दी आओ तुम ...सब गड़बड़ हो रही है ...एक तो किचिन का नल टपक रहा है ...रमाबाई आई नहीं कल से ...ओमपाल के दाँत में दर्द है कुछ काम हो नहीं रहा उससे और तुम्हारे साहबजादे के कल से एग्ज़ाम हैं, एक हंगामा उन्होंने मचाया हुआ है !” मनीष बुरी तरह बौखलाए हुए थे।
मुझे हँसी आ गई " ओफ् बताया न रास्ते में हूँ... बन्द करो अपना ये तब्सरा, कुछ नहीं होता तुमसे। कभी कोई भी डॉक्टर से शादी न करे ...आ रही हूँ कोई परी तो नहीं जो उड़ कर आ जाऊँ !”
" अरे यार परी ही हो तुम मेरी ...कैसे मैनेज करती हो ये सब जादू की छड़ी से ? नहीं यार आई मीन इट।” मनीष की आवाज़ स्नेहसिक्त हो उठी।
गाड़ी की सीट पर पीछे सिर टिका कर, आँखें बन्द कर लीं। वैसे तो मेरे मन में कहीं सुकून था, कि मैं शेखर को बता सकी अपनी मजबूरी...पर सच तो ये था कि बहुत कुछ छुपा ले गई थी। कैसे बताया जा सकता था पूरा सच ?
घर पहुँचते ही मनीष क्लीनिक से उठ कर आए बाँहों में कस कर, माथे पर प्यार किया।अलमारियों की चाबियाँ देते चेहरा ध्यान से देखते बोले " अरे ठीक तो हो न बीबी, चेहरा बहुत उतर रहा है तुम्हारा ....कहीं बी.पी.लो तो नहीं हो गया फिर ?”
" अरे, सब ठीक है, सफ़र की थकान है, आराम करूँगी ,कॉफ़ी पिऊँगी तो ठीक हो जाऊँगी।” 
" अच्छा सुनो रात को आठ बजे की मेरी सिंगापुर की फ़्लाइट है, कॉन्फ़्रेंस में जाना है दो दिन के लिए ,तो पैकिंग कर देना प्लीज़!” कह कर मनीष क्लीनिक में चले गए।
बालों को जूड़े में कस, किचिन की तरफ़ गई। वाक़ई पाँच दिन में ही घर की वो हालत हो गई थी, जैसे तूफ़ान गुज़रा हो कोई।फ़्रैश होकर कॉफी पीकर मोर्चा संभाला।
रमाबाई की ख़बर ली, हड़काया कि" कह कर गई थी कि नहीं, मेरे पीछे नागा मत करना!” ओमपाल के लिए मनीष से कह डेंटिस्ट से अपॉइन्टमेन्ट लिया, पेन किलर दी उसे। फिर वेदान्त की समस्याएँ सुनीं, थोड़ी सी ललुआ-पुतुआ की ।प्लम्बर को फ़ोन किया। शेफाली को कॉल कर उसकी सुनी, कि जॉब का पहला दिन कैसा रहा ? जल्दी से डिनर तैयार करवाया और मनीष के लिए भी डिनर पैक किया। वो फ़्लाइट में भी घर का ही खाना प्रिफर करते हैं। फिर उनका सूटकेस पैक किया।
सब काम करते ,निबटाते बुरी तरह थक गई। मनीष ने साथ एयरपोर्ट तक चलने को कहा, तो थके होने पर भी मना नहीं कर पाई। जानती थी मिस कर रहे होंगे, तो चली गई ।
लौट कर, चेंज कर, कॉफ़ी ले बैड पर पीछे कुशन लगा पसर गई। कोई-कोई दिन कितना अजीब होता है न...जैसे ज़िंदगी को ज़िद आ गई हो कि आज की तारीख के कैनवास पर सारे रंग लगाने ही हैं मुझे। पर्स खोल कर बुक निकाली ही थी कि अचानक सरसराती एक स्लिप गिर गई उठा कर पढ़ा-
"मुसाफिर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी 
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी !!”
ज़रूर ये शेखर ने रखी होगी जब मैं टॉयलेट गई थी ,'हे भगवान कितने फ़िल्मी है अब भी ‘ सोच कर मुस्कुरा पड़ी।
जब भी मैं तनु के घर जाती और यदि शेखर घर होते, तो रेडियो पर कोई ग़ज़ल तेज़ आवाज़ में लगा देते।इधर-उधर कर किसी ओट से देखते। बैडमिंटन खेलती तनु के साथ, तो खिड़की पर परछाइयाँ मँडराती देखती।
किताब बन्द कर आँखें मूँद लेट गई ।मन फिर यादों की परछाइयों के पीछे भागने लगा ...पता नहीं क्यों कुछ परछाइयाँ उम्र भर पीछा नहीं छोड़तीं ?
उस दिन कॉलेज से ही तनु उसे अपने घर ले गई, दोनों को साथ मिल कर प्रॉजेक्ट बनाना था ।आँगन पार करते देखा बरामदे में तनु की भाभी रो रही थीं तनु की मम्मी और उनके पिताजी बातें कर रहे थे ।हम दोनों तनु के रूम में आ गए ।
" मैं आती हूँ “तनु चेंज करने अंदर चली गई ।
" अरे पाँचवाँ महिना चल रहा है कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करेंगे आप और हम ? हाजीपुर में तो कोई अच्छा डॉक्टर भी तो नहीं होगा निरा क़स्बा है वो ।” तल्ख़ी से तनु की मम्मी बोलीं ,उन लोगों की बातों की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही थीं।
“ मैं गाड़ी लेकर आया हूँ बहन जी, आप परेशान न हों आराम से जाएगी, हम पूरा ध्यान रखेंगे। इसकी माँ का आख़िरी वक़्त है, इसी में प्राण अटके हैं। मैं इसको मिलवा कर जल्दी ही छोड़ जाऊँगा। सबसे छोटी है, तो अपनी माँ की ज़्यादा लाड़ली है !“ वे रुआँसे से गिड़गिड़ा रहे थे। 
" मम्मी जी मैं ध्यान रखूँगी अपना, प्लीज़ जाने दीजिए !”भाभी भी गिड़गिड़ा रही थीं।
" अरे कैसे फ़िक्र न करें बताओ...पहलौटी में कुछ गड़बड़ हो गई तो सारी उम्र तरसते रहेंगे बच्चे का मुँह देखने को ,कई बार देखा है, पहले बच्चे में गड़बड़ हुई, ख़राबी आ गई तो फिर हुए ही नहीं। चलो ज़िद छोड़ो बहू, खाना खिलाओ अपने पिताजी को और रवाना करो टाइम से पहुँच जाएँगे!” कई बार कहने पर भी आँटी टस से मस नहीं हुईं।
हार कर वे बोले " अच्छा दामाद जी से पूछ लीजिए एक बार।” 
" अरे उससे क्या पूछना ? बच्चा है वो अभी और भाई हमारे यहाँ बच्चे बड़ों के बीच नहीं बोलते !” थोड़ी देर बाद मैंने खिड़की से भाभी के पापा को बिना भाभी को लिए ही जाते देखा।भाभी उनको गाड़ी तक छोड़ कर आँखें पल्लू से पोंछती अंदर आ गईं और कोई भी उनको विदा करने दरवाज़े तक भी नहीं गया। मुझे ये देख बहुत हैरानी हुई, मन करुणा से भीग गया ।
तनु ने बताया कि तीसरे ही दिन भाभी की माँ चल बसीं। मैंने पूछा "अरे, भाभी तो मिल लीं न उनसे ?”
" अरे नहीं वो निरा क़स्बा है, मम्मी बहुत केयर करती हैं भाभी की...मम्मी ने तो बाद में भी नहीं भेजा रोने -पीटने में कहीं तबियत ख़राब हो जाती!”
फिर ख़ूब चहक कर कहने लगी "पता है हमारे घर में पहला बेबी होगा! यू नो, आयम वैरी इक्साइटेड....मैं तो चाहती हूँ बेटी ही हो…मैं न ख़ूब सजाऊँगी फिर उसे !”
वो बोल रही थी और मेरा मन कहीं और भटक रहा था ।शालू दीदी की सास का चंडी रूप ,लाचार से पापा-मम्मी और विवश रोती हुई दीदी का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था ।
कुछ दिन बाद तनु के पापा का ट्राँस्फर कानपुर हो गया, तो वो लोग कानपुर शिफ़्ट हो गए ।इधर दीदी ने आखिर एक दिन ज़लालत से तंग आकर ख़ुद को और अपने साथ हम सबको भी लपटों के हवाले कर दिया। पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर ही गए। दोनों बिस्तर से लग गए। पापा एक्यूट डिप्रेशन में चले गए।मैं मन ही मन बहुत नाराज़ थी दीदी से ... पढ़ी लिखी थीं तलाक़ ले लेतीं...इतना बड़ा क़दम उठाते ज़रा नहीं सोचा पापा-मम्मी के बारे में ?
जब वो जा रही थीं तब मैंने कई बार रोका "दीदी मत जाओ कोई जॉब कर लेना या और आगे पढ़ लेना “ पर हमेशा की तरह यही कहती गईं कि"एक बार और चांस देकर देखती हूँ शायद…! काश रुक जातीं वो ।
हम ठीक से केस भी नहीं लड़ पाए। भैया अकेला क्या-क्या करता? उन लोगों ने पुलिस को पैसा भर कर और अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर एक्सीडेंट सिद्ध कर दिया और हम सब तड़प कर रह गए। पूरा परिवार गहरे सदमे में डूब गया।
इसी बीच मनीष की मम्मी को जब पता चला तो भागी-भागी आईं ।वो अपने बड़े बेटे के पास लंदन में थीं।मैं आँटी से लिपट कर बहुत रोई ।उन्होंने सब संभाल लिया। वो सुबह से रात तक हमारे ही घर रहतीं।अंकल भी प्राय: शतरंज बग़ल में दबाए आ जाते और पापा को भी ज़बर्दस्ती बैठा लेते खेलने के लिए। अंकल ने समझा बुझा कर हौसला बँधा कर भैया को भी हॉस्टल भेजा।
साल भर बाद एक दिन आँटी ने बहुत प्यार और सम्मान से मेरा हाथ माँगा ।मम्मी ने अकेले में मुझसे पूछा " बेटा बीना ने मनीष के लिए तुम्हारा रिश्ता माँगा है ,मैंने हाँ नहीं की है।”
" माँ हाँ कर दो “ मैंने खूब सोच -समझ कर एक दिन मम्मी से कहा ।
" देख ले बेटा तू कहे तो मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? मैं जानती हूँ कि तुम और शेखर....” मैंने बीच में ही टोक कर कहा।
" नहीं ऐसा कुछ नहीं है, जैसा आप सोच रही हैं ...आप हाँ कर दो मम्मी ...मैं यहीं रहूँगी इलाहाबाद में, आपके और पापा के पास...मैं आपसे दूर नहीं रह सकती !” मैं मम्मी से लिपट कर रोती रही।
पर दिमाग से लिए फ़ैसलों को यदि दिल इतनी आसानी से मान लेता तो बात ही क्या थी? दिल पूरी तरह से बग़ावत पर उतर आया था। दूसरे ही दिन मैं तेज़ बुखार में तप रही थी। मन का ताप, तन पर पूरी तरह से तारी था। पन्द्रह दिन तक मनीष रोज़ मुझे दो बार देखने आते । मेरे माथे पर पट्टियाँ रखते,पापा-मम्मी के साथ चाय पीते, स्वास्थ्य पर,राजनीति पर चर्चा करते ,हँसी -मज़ाक़ करते ,चुटकुले सुनाते।
पापा के ब्लड-प्रेशर और मम्मी की बिगड़ी शुगर की बागडोर उन्होंने संभाल ली थी तो मेरी बागडोर साधनी क्या मुश्किल थी फिर ? पापा-मम्मी के चेहरे की रंगत बदलने लगी और घर फिर से चहकने लगा।पन्द्रह दिन तप कर,जल कर मैं भी ठीक हो गई, उठ गई कमर कस 
कर ।
अपने फ़ैसले पर कभी भी अफ़सोस नहीं हुआ मुझे ज़िंदगी में ...पर कभी-कभी मन कचोटता था। तनु कहती "भैया कितने डिप्रेशन में हैं नताशा , कितने दुखी हैं, तू सोच नहीं सकती ...वो अंदर ही अंदर घुटते हैं, तूने ऐसा क्यों किया…थोड़ा सा तो इंतज़ार किया होता।” 
मैं क्या कहती बस चुप रह जाती। पूरी सच्चाई कभी नहीं कह सकी ।कैसे बताती, कि तुम्हारी मम्मी का वो रूप, तुम्हारी भाभी व उनके पिता की विवशता, गिड़गिड़ाना देख कर मैं जब उनकी जगह ख़ुद को और पापा को रख कर देखती तो मेरी रुह काँप जाती। बड़ी मुश्किल से पापा-मम्मी ने फिर से जीना सीखा था, मैं अपने हाथों फिर से उन्हें उसी आग में झोंकने का रिस्क नहीं ले सकती थी..."बस कुछ सच्चाइयाँ यूँ ही दफ़्न हो जाती हैं “ मैं बुदबुदाई।
उस दिन ,उस वक्त मेरा शेखर के घर पर होना, तनु की भाभी और आँटी के बीच की सब बातें सुनना, सब कुछ अपनी आँखों से देखना ,जैसे इत्तेफाक नहीं था ...ये ईश्वर का इशारा था, जैसे सोच समझ कर रची कोई साज़िश।
शादी के बाद शेखर कहाँ हैं ,कैसे हैं कभी नहीं पूछ सकी तनु से, और ना ही कभी तनु उनका कोई ज़िक्र करती थी, जबकि हम आज तक भी दोस्त हैं, दुनियाँ- जहान की बातें करते हैं।
लॉन की तरफ़ से दरवाज़े पर कुछ आहट सी हुई जैसे किसी ने दस्तक दी हो ।
"कौन ?”  मैंने कहा, पर कोई जवाब न पाकर खिड़की से बाहर झाँका ,कोई नहीं था। सोचा, शायद बिल्ली रही होगी। पूर्णिमा की चाँदनी छिटकी देख शॉल लेकर बाहर लॉन में निकल आई ।
अपनी ही ख़ामोशियों में लिपटी सर्द रात कोहरे की चादर ओढ़े बेसुध पड़ी थी। कोहरे की बूँदें, पत्तों से सरक कर काँपते सूखे पत्तों पर टप-टप गिर, रह-रह कर सन्नाटा तोड़ रही थीं ।
मदालस सा पूर्ण चाँद, पूर्णिमा की मादक चाँदनी,हल्के से कोहरे की धुँध ,मधुकामनी और रात की रानी की भीनी-भीनी सी महक, सब मिल कर जैसे कोई जादू सा रच रहे थे। उन सर्द ख़ामोशियों में अपनी ख़ामोशियाँ घोलती मैं न जाने कब तक सुन्न खड़ी रही, जैसे किसी ने मेरे पैर जकड़ लिए थे। चाह कर भी अंदर नहीं जा पा रही थी। जाने क्या हो गया था मुझे ...स्तब्ध खड़ी थी।
कुछ था जो मुझे छूकर हौले से गुज़र रहा था जैसे कोई ख़ुशबू हौले से  मेरे गालों को छूकर निकल गई ...अवश ,सम्मोहित सी मैं वहीं कुर्सी पर बैठ गई। पता नहीं कब तक बेसुध सी बैठी रही।
अचानक होश आया, तो सारा बदन सर्दी से काँप रहा था। शॉल से ख़ुद को कस कर लपेटती, अंदर आकर रज़ाई में दुबक गई।
याद आया कल कितने सारे काम हैं। चैस्टर को वैक्सीनेशन के लिए डॉक्टर के पास भेजना है, आर.ओ .की सर्विस करानी है, कुछ नई सीजनल पौध माली से मंगानी हैं ...सोचते-सोचते पता नहीं कब नींद ने आ घेरा।
दूसरा दिन भी बेहद व्यस्त था। सब निबटा कर, दोपहर बैडरूम में गई।मोबाइल चार्ज होने के लिए लगाया हुआ था, निकाल कर मैसेज चैक किए। तनु का मैसेज फ़्लैश किया ..."भैया नहीं रहे, कल रात दस बजे ....हार्ट अटैक।”
"कल रात .....” मैं बेसुध सी बुदबुदाई ..हाथ से मोबाइल छिटक कर गिर गया...स्क्रीन चटक कर सुन्न हो गई !!
          
                                                             - इति-
                                                   


खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...