ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 2 मई 2022

वसीयत

 



निकलूँ जब अन्तिम यात्रा पर 

तब मेरे सिरहाने सहेज देना 

कुछ रंग शोख तितली से और 

कुछ बुझे-बुझे राख से 

कुछ ब्रश, कुछ स्याही और 

कुछ कलम भी

थोड़े से खाली पन्ने और

कुछ बर्फ से सफेद 

कोरे कैनवास भी

और हाँ…कुछ सुर-ताल 

और कुछ गीत भी

हो सकता है मन कभी 

बहुत ज़्यादा सील जाए 

तो रख देना साथ मुट्ठी भर धूप 

और ताप से मन तप जाए कहीं तो 

रख देना कुछ मलय समीर

और कुछ बारिशें भी…!

ताकि अनजान देश के 

अनजान सफर में 

उमड़ने लगें जब भावों के बादल 

या फिर जब मन करना हो खाली

तब कूक सकूँ कोयल संग 

ढल सकूँ कैनवास पर तब

सुन्दर- सुगन्धित फूल बन या

कोरे पन्नों में कविता बन कर…!

जैसे धरती पर बिछ जाते हैं

फूल हरसिंगार के

चमकते हैं जुगनू

झिलमिलाते हैं सितारे

मचलती हैं लहरें

मैं भी बिछ जाऊँगी तप्त धरती पर 

एक दिन तब सतरंगी किरण या

शीतल ओस बनके…!!!


                        — उषा किरण

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

बहरे

 

सीट मिलते ही शुभदा आराम से बैठ गई।डॉक्टर ने पन्द्रह दिन बाद की डिलीवरी डेट दे दी थी। शुभदा छह महिने की मैटरनिटी लीव की एप्लिकेशन देकर कॉलेज से वापिस घर लौट  रही थी।डॉक्टर ने  उसे रैस्ट की सख्त हिदायत दी थी।

ग़ाज़ियाबाद बस स्टॉप पर बस के रुकते ही एक बहुत बूढ़ी माई लाठी के सहारे चढ़ी लेकिन एक भी सीट खाली न देख निराश होकर अपने डंडे और बस की रॉड पकड़ कर जैसे- तैसे खड़ी होने की कोशिश में झुकी पीठ सीधी करती, झकोले खाती बेहाल हो रही थी। शुभदा ने सब तरफ देखा । कई युवक आसपास बैठे थे उसे लगा कि उसकी हालत देखकर कोई तो सीट दे ही देगा।

जब पन्द्रह मिनिट तक भी किसी ने सीट नहीं दी तो उससे नहीं रहा गया। उसने उठ कर उनसे अपनीसीट पर बैठने का आग्रह किया। वो बेचारी उसका पेट और हालत देख कर बोलीं-

"ऐ बिटिया तू तो खुद ही बेहाल है…रहे दे!”

"मैं ठीक हूँ आप बैठ जाओ !” 

कह कर शुभदा ने ज़बर्दस्ती उनको अपनी सीट पर बैठा दिया और खुद खड़ी हो गई, लेकिन बढ़े पेट के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। पर्स से न्यूज-पेपर निकाल कर उसे बिछा नीचे बस के फर्श पर ही बैठ गई।पास खड़े दो किन्नर जो सब देख रहे थे सहसा उनमें से एक ताली बजाकर  जोर-जोर से बोलने लगी-" आय हाय आग लगे ऐसी मर्दानगी और मुई इनकी जवानियों को न बूढ़ी का लिहाज न पेटवाली का। बेचारी बच्ची जमीन पर ही लोट गई।बैठे हैं सारे टाँग चौड़ा कर…शरम नहीं आती…मर जाओ सालों सब चुल्लू भर पानी में …!”

बड़बड़ातीं हुई वह शुभदा के पास आ, उसके सिर पर हाथ रख कर बोली-

"जुग-जुग जियो बेटी, जैसी भोली, प्यारी सूरत है वैसी ही सीरत भी दी मालिक ने तुझे ! भगवान चाँद सा मुन्ना दे…ले बेटी ये रख ले, अनारो का आसीस है तिजोरी में रख देना…हम हिजड़े तुम सबसे हमेशा लेते ही हैं, पर देते कभी-कभी ही हैं , खूब फलेगी हमारी दुआ तुझे !”

हकबकाई सी शुभदा के हाथ पर बीस रुपये का सिक्का और कुछ दाने चावल के रख कर किन्नर  ताली बजाते, दुआ देते, बस वालों की लानत- मलामत करते हुए बस से उतर गए। 

बस में सन्नाटा था। कुछ नौजवान मोबाइल में चेहरा घुसाए तो कुछ असम्पृक्त भाव से बहरे बने खिड़की से बाहर देखते यथावत् बैठे रहे।

                                            — उषा किरण

मंगलवार, 22 मार्च 2022

जब फागुन रंग झमकते थे



बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।

प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 

हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 

छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।

रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और बाकी सहेलियों से मिलने निकल जाते। 

रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो’ गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार यही कहते।

गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आते। साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।

पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज कर सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' लला सन्त’ आ रहे हैं ।

पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते, परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था। उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा, जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।

अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बेटी और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको और सबसे खूब पाती भी थीं। 

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -"हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कछु खबाती-पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी ! का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !”  अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 

एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं - "ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्नर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुँक जाता , हम छनछनाते-बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं `अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।’

             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।

गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा, कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।ताऊ जी के हुक्के से सबकी नजर बचा कर दो-चार सुट्टे भी मार लेते। उसकी गुड़गुड़ाहट से पेट में हिलोर उठती तो बहुत मजा आता। कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 

बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने ,मानती कहाँ थीं !”

गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज़ें वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 

सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता,  जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते, जल देकर परिक्रमा करते और लोटे में आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं, होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए। परन्तु कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा छुपता- छुपाता आधी रात ही होली में लपट दिखा देता। बस सारे गाँव में तहलका मच जाता। लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,धोती , पजामे संभालते ,आँखे मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लपड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ , अरे ददा रे काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’ गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।

दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ अबै नाय…कढाई से दूर...!’

पर हम लोग दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।

गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती, गले में ढोल लटका गाते बजाते। गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ परन्तु क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।

दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ। हम सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा भाँग से भी ज्यादा चढ़ता है।रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।

कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे । पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी वहाँ जाने का विशेष आकर्षण होती थी। जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।

मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे। मामा जी रंग, गुलाल की व्यवस्था खूब मन से करते थे और एक दिन पहले टेसू के फूलों को उबाल कर केवड़ा मिला कर बड़े- बड़े देगों में सुगन्धित, पीला-  सुनहरा रंग तैयार करते हुए हम लोगों को टेसू के पानी के औषधीय गुण भी बताते। 

हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल-बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे और इनाम माँगते थे। पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी ।हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?

आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं। अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-गमकते थे। लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें, वो आशीषों भरे हाथ, वो खान- पान का वैभव, वो नाच-गानों संग मस्ती, उमंग…सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे। सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

रीपोस्ट


                                  —उषा किरण

गुरुवार, 17 मार्च 2022

श्रीलंका यात्रा संस्मरण



कोरोना के चलते हम लोग दो साल से बेटे-बहू  से नहीं मिल सके थे फिर अपनी तीन महिने की पोती मीरा से मिलने की भी मन में तीव्र उत्कंठा थी, तो जनवरी के अन्त में हम लोग सिंगापुर गए। कड़ाके की ठंड से वहाँ पहुँच कर और बच्चों से मिल कर बहुत  राहत महसूस की।

कुछ दिन बाद सिंगापुर आवास के दौरान ही बच्चों ने श्रीलंका घूमने का प्रोग्राम बनाया।

श्रीलंका पहुँच कर हम लोग एयरपोर्ट से पहले कोलम्बो में " Shangri la” होटल में एक रात रुके।ये वही होटल है जहाँ पर 2019 में टैररिस्ट अटैक हुआ था। उसके गलियारों से और सुरक्षा की जाँच- प्रक्रिया से गुजरते हुए उस अटैक को स्मरण कर रीढ़ में सुरसुरी सी महसूस हो रही थी।रूम की खिड़की से सामने ही बेहद खूबसूरत नीला- नीला`हम्बनटोटा पोर्ट’( Hambantota  Port ) दिखाई दे रहा था।

श्रीलंका भ्रमण के लिए हमने Galle( गाले) में रहना निश्चित किया था अत: दूसरे दिन ब्रेकफास्ट के बाद हम लोग टैक्सी से गाले के लिए निकल गए। गाले जाने के दो मार्ग हैं , हमने नव- निर्मित हाईवे चुना।एक तो ये मार्ग दूसरे से कुछ छोटा था और बेहद मनोरम था।सारे रास्ते छोटी- छोटी पहाड़ियों, चाय-बागान व केले, सुपारी, काली मिर्च, दालचीनी, इलायची, सुपारी के लम्बे झूमते पेडों के हरे- भरे रास्तों से गुजरते मन प्रफुल्लित हो गया।

गाले में बेटे ने " समुद्र हाउस” व "कोगला लेक हाउस “ दो विला बुक किये थे। कुछ दिन कोगला लेक हाउस में रह कर हम बाकी दिन समुद्र- हाउस में रहे। जिसकी  सबसे बढ़िया बात थी कि पिछला गेट खोलते ही हम सीधे बीच पर होते थे।और खाते, आराम करते सामने रूम से भी  समुद्र देख सकते थे, मानो समुद्र की गोद में ही जा बैठे हों। वहाँ के इंटीरियर में डच प्रभाव दिखाई देता था। दोनों ही विला में चार- पाँच केयर- टेकर थे जो सारी व्यवस्था चुस्त- दुरुस्त रखते थे।खाना भी वहाँ जो कुक थे वे बहुत बढिया बनाते थे। रोज ही बदल-बदल कर दाल,कई तरह के पुलाव व बिरियानी, तरह- तरह की डिशेज, बैंगन, प्याज, कटहल की सब्ज़ियाँ बनाते जो बहुत अपनी सी लगतीं। इसके अतिरिक्त कई तरह के सलाद, इडियप्पम, स्टिंग हॉपर (अप्पम ), कई तरह के डेजर्ट , पापड़ व सलाद होते थे और सबसे मजेदार लगता था फरवरी के मौसम में आम खाने का लुत्फ, जो कि देखने में भद्दे पर बहुत टेस्टी थे। इसीलिए भारतीय खाने को हमने जरा भी मिस नहीं किया।

इस समय वहाँ पर लाइट की काफी समस्या थी ।रोज तीन- चार घंटों के लिए लाइट चली जाती थी अत: जैनरेटर की व्यवस्था करनी पड़ी क्योंकि वहाँ का तापमान इस समय कुछ गर्म था।

श्रीलंका इकॉनॉमी क्राइसिस से जूझ रहा है। पहले 2004 में आई सुनामी के कहर से यहाँ काफ़ी नुक़सान हुआ और अब कोविड संकट से तो सारा विश्व ही पीड़ित है तो श्रीलंका भी आर्थिक-संकट से गुजर रहा है। वैसे भी वहाँ की अर्थ- व्यवस्था टूरिज़्म पर काफी आधारित है। जिस समय हम लोग वहाँ पर थे तब समुद्र-तट पर व सड़कों पर काफी विदेशी , अधिकांशत:  यूरोपियन दिखाई देते थे। वे लोग प्राय: स्कूटर या टुकटुक  पूरे दिन के लिए किराए पर लेकर सारे दिन इधर से उधर  घूमते रहते थे। परन्तु 24 फरवरी को रूस- यूक्रेन का युद्ध शुरु होते ही अचानक यूरोपियन टूरिस्ट की संख्या प्रतिदिन घटने लगी।

पहली नजर में श्रीलंका के निवासी प्राय: सीधे- सादे ही लगे। वहाँ आम बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी, तमिल व सिंघली भाषा का प्रयोग किया जाता है।बातचीत से पता लगा कि वहाँ क़ानून व्यवस्था भी चुस्त- दुरुस्त है और महिलाओं के प्रति होने वाले  अपराधों की संख्या भी काफी कम है।

हमारे आवास के पास ही "सी टर्टल फार्म एन्ड हैचरी, हबराडुआ “ एक संरक्षण केन्द्र था। जिसका उद्देश्य कछुओं को संरक्षित करना है, जो 1986 में स्थापित किया गया था।यहाँ पर अब तक हजारों समुद्री कछुओं को बचाया गया है और जख्मी कछुओं की देखरेख की गई है।श्रीलंका एक ऐसी जगह है जो समुद्री कछुओं के लिए काफी अनुकूल है। 

कई कछुए समुद्र से बाहर निकल कर तट की रेत पर घोंसला खोद कर  उसमें अंडे देकर , उनको पुन: रेत से ढंक कर वापिस समुद्र में लौट जाते हैं, जिनमें से कई नष्ट हो जाते हैं। कुछ को कुत्ते या समुद्री जीव या इंसान  खा जाते हैं, जिसके कारण बहुत मात्रा में अंडे देने पर भी मात्र कुछ ही कछुए सर्वाइव कर पाते हैं । श्रीलंका में कई हैचरी हैं जो उनके संरक्षण का काम करती हैं। हैचरी में काम करने वाले व्यक्ति समुद्र के किनारे से उन अंडों को लाकर केज में रखी रेत में दबा देते हैं और जब बच्चे निकलते हैं तो उनको पानी के टैंक में रख देते हैं।जब वे संभल जाते हैं तो उनको शाम के वक्त समुद्र में छोड़ दिया जाता है। कुछ इच्छुक लोग पैसे देकर अपने हाथों से बहुत खुशी-खुशी उनको समुद्र में छोड़ते  हैं। इसके अतिरिक्त मछली के लिए डाले गए जाल में उलझ कर तथा अन्य कारणों से भी जो कछुए जख्मी हो जाते हैं और जो कछुए इन कार्यकर्ताओं को उपलब्ध हो जाते हैं तो उनको लाकर भी हैचरी में रख कर उनका इलाज व पालन-पोषण किया जाता है ।हमने देखा  एक कछुए का एक पैर कटा हुआ था व एक केज में वे कछुए थे जो प्लास्टिक खा गए थे अत: वे पानी में नीचे नहीं जा पा रहे  थे ऊपर ही तैर रहे थे, वे बहुत कष्ट में थे , उनका इलाज किया जा रहा था। कछुओं के संरक्षण के लिए यह एक सराहनीय प्रयास है।

वहाँ पर बन्दर अलग तरह के दिखाई देते हैं, कुछ- कुछ लंगूर जैसे।उनके कान चपटे, काले तथा पूँछ बहुत लम्बी होती है।

18वीं सदी में डच लोग यहाँ पर रहे थे। आज भी पुर्तगाली और डच लोगों द्वारा बनाया किला सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है जिसे विश्व धरोहर घोषित किया गया है। हम लोग भी " गाले फोर्ट “ देखने गए, जिस पर पुर्तगाली, डच एवम् ब्रिटिश स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट  दिखाई दिया।फोर्ट में बने लाइट हाउस, घंटाघर आदि भी देखे।किले की चौड़ी दीवार से समुद्र देखने का अपना ही आनन्द  था। गाले किला के अन्दर की गलियों की भूल भुलैया आश्चर्यचकित व आल्हादित कर  रही थीं। वर्तमान समय में यहां पर रेस्टोरेन्ट , कपड़े, आभूषण, स्मारिका की खूबसूरत दूकानों से भरा हुआ है जो कि वहाँ आने वाले पर्यटकों को विशेष आकर्षित करता है।

गाले में विशेष रूप से मिरीसा  बीच, उनावातुना  बीच , विजया बीच अपनी विविधतापूर्ण सुन्दरता के कारण पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहते हैं। उनावातुना बीच अपनी सफ़ेद रेत के लिए प्रसिद्ध हैं। इस शांति प्रिय स्थान पर पिकनिक मनाने के लिए भी पर्यटक आते हैं। इसके अलावा इस तट पर रंगीन मछली और कछुए देखने को मिलते हैं हम लोग प्राय: शाम को किसी न किसी बीच पर कुछ घन्टे बिताते और सूर्यास्त देख कर वापिस लौटते। समुद्र के किनारे खड़े होकर सूर्यास्त- दर्शन का अपना अलग ही आनन्द है। समुद्र के पास जाकर कभी तो मेरा मन बहुत वाचाल हो जाता है, भावों व विचारों की अनवरत धाराएं प्रवाहित होने लगती हैं और कभी मन एकदम मौन होकर  शान्त व विचारशून्य हो डुबकी लगा जाता है… कभी समुद्र की विशालता के आगे अपनी क्षुद्रता का भान होता है तो कभी लगता है जैसे समुद्र मेरे ही अन्दर प्रवाहित हो रहा है…समुद्र मुझे एक गहन आध्यात्मिक सा आभास व सुकून देता है।पैरों को छूकर लौट जाती लहरें तन-मन का ताप हर स्फूर्ति से भर जाती हैं।

एक दिन सुबह- सुबह हम लोग "हैंडुनुगोडा टी स्टेट” घूमने के लिए  गए। श्रीलंका के ऐतिहासिक गाले किले और समुद्रतटीय शहर मिरिसा के बीच हैंडुनुगोडा है, जो एक चाय बागान और संग्रहालय है जो अपनी वर्जिन व्हाइट टी  के लिए प्रसिद्ध है।जिसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ चाय माना जाता है। 200 एकड़ में फैले इस बागान में रबर, दालचीनी और नारियल के पेड़ भी उगाये जाते हैं।इस चाय के बागान एवम् स्पाइस- गार्डन में हम गाइड के साथ घूमे।तथा तरह- तरह की टी जैसे-व्हाइट टी , ग्रीन टी, ब्लैक टी, सिनामोन टी, जिंजर टी आदि को केक के पीस के साथ टेस्ट किया। वर्जिन व्हाइट टी का रेट तो लगभग चाँदी की कीमत के बराबर था। माना जाता है कि व्हाइट टी स्वास्थ्यप्रद प्रकार की चाय में से एक है, क्योंकि यह एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती है तथा कैफीन की मात्रा काफी कम होती है। निर्माण व पैकिंग की प्रक्रिया के समय इसके टेस्ट की नजाकत व शुद्धता को बनाए रखने के लिए मानव हाथों से अछूता रखा जाता है ।

लगभग दो हफ्ते श्रीलंका में रह कर हम लोगों ने वापसी के लिए इस बार समुद्र के साथ- साथ चलने वाले दूसरे मार्ग को चुना। वह मार्ग भी बहुत ही सुन्दर था। रास्ते में रुक- रुक कर हम हिक्काडुआ बीच, बैंटोटा बीच ,मास्क- म्यूजियम, देखते और फ़ोटोग्राफ़ी करते हुए वापिस कोलम्बो पहुँचे। लन्च के बाद कुछ देर आराम किया फिर घूमने निकल गए। हम कहीं भी घूमने जाएं जब तक वहाँ के म्यूज़ियम व आर्ट- गैलरी न घूमें हमारी यात्रा अधूरी रहती है तो कोलम्बो की भी एक-दो आर्ट- गैलरी देखीं। टैक्सी ड्राइवर ने हमको एक जगह चाय पीने के लिए विशेष आग्रह किया। वाकई दालचीनी व इलायची डली मीठी सी, बहुत ही स्वादिष्ट गर्म चाय का एक बड़ा सा कप पीकर सारी थकान दूर हो गई।  

बेशक ये कोई तीर्थ- यात्रा नहीं थी परन्तु लंका- प्रवास के समय पूरे समय मन में और ध्यान में सीता माँ , श्रीराम , लक्ष्मण, व हनुमान जी विराजमान थे।  उनका स्मरण निरन्तर बना रहा। आँखों के समक्ष लहराते समुद्र की लहरें थीं तो मन में सुकून और आस्था की धारा अनवरत प्रवाहित हो रही थी। आँखें बन्द कर, हाथ जोड़ प्रणाम कर, श्रीलंका का समुद्र, बीचेज व हरियाली व बच्चों के साथ बिताए हुए सुखद पलों को मन में बसाए हुए दूसरी सुबह वापसी के लिए हम एयरपोर्ट के लिए निकल














बुधवार, 9 मार्च 2022

यूँ भी



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं

किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...

दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?

कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो

स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

#अन्तर्राष्ट्रीयमहिलादिवस


पेंटिंग; सुप्रसिद्ध आर्टिस्ट प्रणाम सिंह की वॉल से साभार

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

कविता

 






दरिया नहीं कोई

जो तुझमें समा जाऊँगी 

रे सागर, 

तिरे सीने पे अपने 

कदमों के निशाँ

छोड़ जाऊँगी…!!


                   — उषा किरण 




बुधवार, 29 सितंबर 2021

हर घर कुछ कहता है





मुझे बचपन से ही लगता है कि जिस तरह इंसान की व अन्य जीव- जन्तुओं की रूह होती है उसी प्रकार हर मकान की और पेड़ -पौधों की भी अपनी रुह होती है। उसमें रहने वाले प्रणियों के साथ-साथ वो भी साँस लेते हैं और न सिर्फ़ सांस लेते हैं, अपितु उनके सुख-दुख के मौसम उन पर से भी होकर गुजरते हैं।


मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।उनमें भी प्राण- प्रतिष्ठा हो जाती है। सालों हमारे साथ रहते मकानों का वजूद हमारी साँसों पर टिका रहता है।वे हमारी साँसों से ही साँस लेते हैं ,उनकी और हमारी प्राणवायु एक हो जाती है।हमारे सुख-दुख में साथ हंसते रोते हैं। मकान ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, भी हमारे सगे-संबंधी से हो जाते हैं। हम जब उनको छोड़ कर चले जाते हैं, तो वे श्रीहीन हो जैसे निष्प्राण हो जाते हैं ।


दरअसल ताताजी( अपने पापा को हम ताताजी कहते थे ) का जॉब ट्रान्फरेबल था, तो दो- तीन साल में ट्रान्सफर हो जाता था। नए शहर में नए सिरे से डेरा जमाना होता। हम लोगों ने  इस कारण बहुत से शहर देखे।भाँति-भाँति की संस्कृतियों से परिचय हुआ।अनेक प्रकार की बोलियाँ,खानपान, पहनावा व स्वभाव देखने को मिलते रहे। हर शहर के खाने व पानी का स्वाद तो अलग होता ही है, हर शहर की अपनी रूह ,अपना अलग ही रंग व मिजाज भी होता है।


शहर ही क्यों हर घर का भी अपना अलग मिजाज, अपनी अलग खुशबू  भी मुझे महसूस  होती थी। इतना ही नहीं मुझे लगता है कि हर घर की भी अपनी एक रुह होती है। जब  भी ट्रान्सफर के बाद किसी नए शहर में, किसी नए मकान में डेरा जमाया तो वो उखड़ा सा, उजाड़ और उदास सा मिला। धीरे-धीरे हम उसके और वो हमारा हो जाता। कुछ ही  महिनों में वो मकान घर में तब्दील हो हमारा हमनवाज़ बन चहक उठता। लेकिन एक दो साल बाद अगले ट्रान्सफर पर सारा सामान ट्रक में लद जाने के बाद दुबारा उजाड़, उदास हुए मकान को डबडबाई आँखों से देख उससे   विदा लेते, हम गले मिल मूक रुदन रोते।सालों बाद भी मुझे बचपन से लेकर अब तक रहे हर घर की याद हमेशा को पीछे छूट गए किसी  दोस्त की तरह ही सताती है। हर घर से मेरा एक नए रंग का रिश्ता बना।


किसी घर के बाहर लगे गुलमोहर व अमलतास की सुर्ख- जर्द छाँव, किसी का बड़ा सा आंगन और कोने पर लगे अमरूद, अनार, किसी के आँगन में अमरूद पर छींके में बंधे लटकते कद्दू , किसी आँगन में आम से लदी झुकीं डालियाँ,किसी के पीछे से जाती रेलगाड़ियों की छुक-छुक , बरसों याद आती रहीं। इलाहाबाद व बनारस का गंगा घाट, नैनीताल,अल्मोड़ा की बारिशें,पहाड़िएं व झील, लखनऊ के हज़रतगंज की चाट व कुल्फी, मैनपुरी का कपूरकंद, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ा, भी खूब याद आते।


 ताताजी का ट्रान्सफर होने पर फिर नया शहर ,नया मकान ,नया स्कूल।सब कुछ अजनबी सा लगता। लोग तो अजनबी लगते ही, यहाँ तक कि दुकानें, पार्क, सड़कें, पेड़-पौधे भी अपरिचित से लगते।  हर बार शहर ही नहीं सहेलियाँ व स्कूल भी छूट जाते। नई सहेलियाँ बनाने में  वक्त लगता। जब तक नए शहर में कुछ मन लगना शुरु होता कि दुबारा ट्रान्सफर का ऑर्डर आ जाता। इस सबसे मेरा बहुत दिल टूटता। हर समय रोना सा आता रहता।शायद इसी वजह से बचपन से ही मन के किसी कोने में वैराग्य का पौधा स्वयम् ही पनप गया था।


मुझे याद आता है कि कई घरों से कोई भूत या चुड़ैल का किस्सा भी जुड़ा रहता था। जो कि वहाँ पिछले वाले साहब के साथ काम कर चुके कर्मचारी लोग अम्माँ को बहुत धीरे से फुसफुसा कर सुनाते थे, लेकिन सबसे पहले मेरे ही कान सुनते उनको।उनमें से कुछ भूत तो वहीं सोते छूट गए पर कुछ मेरे सपनों में जब- तब घुसपैठ करते सालों तक हमारा खून सुखाते, रात में अमरूद के पेड़ पर तो कभी पीपल के पेड़ पर लटक कर दाढ़ी हिला-हिला कर हंसते हमें डराते रहे।


पीलीभीत की हाजी जी की बहुत विशाल कोठी के आधे भाग को उन्होंने हमें किराए पर दिया हुआ था।बाकी आधे में वे स्वयम् तीन बीबियों और बच्चों के साथ रहते थे। बढ़ी बीबी का काम था घर का मैनेजमेन्ट देखना, दूसरे नम्बर की हर वक्त हाँडी और रोटियाँ पकाती रसोई में ही घुसी रहतीं और तीसरी सबसे छोटी मशीन पर कपड़े सिलती रहती थीं। कभी बहुत सम्पन्न रहे हाजी जी की माली हालात कुछ ठीक नहीं थे अब। दोनों घरों के बीच की दीवार में एक दरवाजा था जिसकी कुंडी दिन में हमेशा खुली रहती थी और हमारी अम्माँ व हाजी जी की बीबियाँ काम के बीच में मौका देख दरवाजे पर ही खड़े-खड़े खूब बतरस का आनन्द लेतीं।


प्राय: पहले दो घरों के आंगन के बीच की दीवार कॉमन होती थी और उसमें एक दरवाजा होता था जिसका खुलना व बन्द होना दोनों घरों के मालिकों के आपसी संबंधों पर निर्भर रहता था। अम्माँ खूब मजे लेकर सुनाती थीं कि`ललितपुर में श्रीवास्तव साहब का और हमारा बीच का दरवाजा खुला ही रहता था तो तुम छोटी सी थीं उनकी रसोई से एक छोटा लोटा लाकर हमेशा अपने घर के बरतनों में रख देती थीं। जब ट्रान्सफर हुआ तो उन्होंने भरे मन से चलते समय वो लोटा तुमको ही दे दिया।’


जहाँ भी ट्रान्सफर होकर हम लोग जाते हफ्ते भर में ही अम्माँ की आस-पड़ोस में आन्टी लोगों से अटूट दोस्ती हो जाती।कभी डोंगों की अदला-बदली होती तो कभी चीनी, नमक, दही का जामन या कोई दवाई के आदान-प्रदान के लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ लगाते रहते। कभी साथ में बड़िएं, अचार बन रहे हैं, तो कभी चिप्स-पापड़, कभी जवे बन रहे हैं तो कभी स्वेटर के डिजाइन सीखे जा रहे हैं। दीवाली, होली पर हमारे यहाँ से मिठाइयाँ, गुझियाँ हाजी जी के यहाँ पहुँचते तो ईद पर हाजी जी की तरफ से कोई उनका कारिन्दा सीधे हलवाई के यहाँ से गर्मागर्म कचौड़ी, सब्जी, रबड़ी व मिठाइयों का टोकरा सिर पर रखे लिए चला आता।रामप्यारी मौसी के हाथ की सब्जी और तन्दूर में लगाई रोटियाँ हमें बहुत पसन्द थीं तो वे एक कटोरी सब्जी और दो तन्दूर की रोटियाँ जब- तब हमारे लिए लिए चली आती थीं।


ट्रान्सफर होने पर मोहल्ले के लोगों की भीड़ लग जाती और नम आँखों से, भरे गलों से हम लोगों की मार्मिक विदाई होती इसका श्रेय अम्माँ की व्यवहारकुशलता व अपनत्वपूर्ण व स्नेहसिक्त व्यवहार को ही जाता था।


पीलीभीत में पुराने साहब लोगों के साथ काम कर चुके मोहर ने एक बार बताया-"अब का बताएं बहू जी हम सुने जौन कमरा मा आप लोग सोवत हैं उसी के आले में पीर साहब का वास रहिन। हम पिछली वाली बहूरानी को कहत सुने।” हम आस-पास ही खेल रहे थे, सुनते ही हमारे प्राण कन्ठ तक आ गए लगा बस आज की रात हमारी ही गर्दन पीर साहब नापने वाले हैं ।


अम्माँ ने हाजी जी की बड़ी बेगम से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि " हा बीबी, जब हम उसमें रहते थे तो हमने उसे पीर साहब का आला बनाया था, डर की कोई बात नहीं, वो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे बस आप कोई ऐसी- वैसी चीज मत रखिएगा उसमें !” अम्माँ ने बताया कि हम तो बस चाबियों के गुच्छे रखते हैं तो उन्होंने कहा कि" ठीक है कोई बात नहीं।”


ऐसे ही बलिया वाले घर के एक कमरे में चुड़ैल की सूचना मोहन से मिली, तो मथुरा वाले घर के स्टोर में किसी भूत के वास की भी चर्चा हुई। लेकिन हमारी अम्माँ और ताताजी ने कभी भी उन बातों को गम्भीरता से नहीं लिया बस अफवाह मान कर उड़ा दिया, लेकिन हम बच्चों के सपनों में उनका तान्डव जारी रहता और हमारा  खून ही सूखता रहता था।


इसी तरह शादी के बाद हम सालों जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसकी कई स्मृतियों में बन्दरों की घटनाओं की भी कई स्मृतियाँ हैं। जब बन्दरों का अटैक होता तो कई दिनों तक लगातार झुंड के झुंड आते ही चले जाते थे। जिस साल शादी हुई तब इन्वर्टर, जैनरेटर तो होते नहीं थे तो लाइट जाने पर तिमंजले की छत पर ही जाकर सो जाते थे। एक दिन मैं तो सुबह ही उठ कर नीचे आ गई। थोड़ी देर बाद देखा कि बराबर की छत पर बन्दर बैठा तकिया फाड़ कर कूद- कूद कर सड़क पर रुई उड़ा रहा है और सड़क चलते लोग देख कर हंस रहे हैं। उसकी हरकतों पर हमें भी हंसी आ गई।हमने सोचा कि सिंह साहब अभी ऊपर ही सो रहे हैं कहीं बन्दर काट न ले तो  जाकर जगा दें। ऊपर गए तो देखा उनके सिर के नीचे से तकिया गायब है। हमारी हंसी गायब हो गई ,समझ आया वो हमारे ही तकिए की धज्जिएं बिखेर रहा था।


एक दिन कमरे की खिड़की खुली रह गयी तो जैसे ही मैं कमरे में घुसी तो धक् से रह गई कमरे का एक भी सामान ठिकाने पर नहीं थी। कुशन फटे पड़े थे, एलबम की चिंदियाँ उड़ रही थीं कई कैसेट की रीलों के गुच्छे परस्पर गुँथे पड़े थे कुछ कपिराज के गले में हार सी शोभा पा रहे थे।और दो कपि युगल हमारे नर्म गद्दों पर रजाई सिर से ओढ़ कर कूद रहे थे।हमारी चीख सुन कर दाँत निकाल खौं- खौं करके खिड़की से कूद बाहर भाग गए और जाते- जाते भी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी हमारी रिस्टवॉच भी ले गये।


ऐसे ही कभी बच्चों के मुँह से बोतल छीन के ले गये तो कभी चश्मा या कपड़े, कभी फ्रिज से छिली रखी पाँच किलो मटर के दाने का पैकिट ले जाकर पूरी सड़क पर बिखेर दिए, कभी आम की दावत उड़ाई। तीनों कमरों के बीच में दो बड़ी- बड़ी खुली छतें थीं तो बन्दरों का खूब आतंक रहता था। मेरा भी सारा डर निकल गया। कई बार हम एकदम आमने- सामने टकरा जाते थे, पर मैं दृढ़ता से स्थिर खड़ी रह कर उसकी आँखों में टकटकी लगा कर देखती रहती। पापा का बताया ये फॉर्मूला बहुत काम आता था और उल्टा बन्दर ही डर कर भाग जाते थे।


एयर गन और कई डंडों का इंतजाम हम हमेशा रखते थे।प्राय: एयर गन देखते ही बन्दर तेजी से डर कर भाग जाते थे। लेकिन हमें इस बात की बेहद हैरानी है कि हर मोहल्ले के बन्दरों का  मानसिक बल भी अलग ही होती है। जब हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हुए तो वहाँ के बन्दरों पर एयर गन का जरा भी असर नहीं होता था। हम कन्धे से लगा कर एक आँख बन्द कर चाहें कितनी ही नेचुरल पोज़ीशन साधें पर मजाल है जो किसी बन्दर पर जरा भी फर्क पड़ता हो आराम से पूँछ हिलाते सामने से टहलते निकल जाते और हम हैरान दाँत किटकिटा कर रह जाते।


मुझे याद है ताताजी के गुजर जाने के कुछ दिनों बाद,भैया की परेशानी में जब हम चारों भाई-बहन पापा का बनवाया मकान बेचने के लिए मैनपुरी गए और सुनसान घर का ताला खोल कर जब अन्दर प्रवेश किया तो हमारे अन्तस में भी सन्नाटा पसर गया ...कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझे एक ही बात की हैरानी हो रही थी और मैं भरे गले से बार-बार यही बुदबुदा रही थी कि,`ये घर सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया...जो घर इतना विशाल था, इतना रौशन था, हर समय जगमग करता था उसमें अब भरी दोपहर में भी इतना अँधेरा कैसे भर गया ?’ मेरे आँसू थम ही नहीं रहे थे।


 घर वालों के बिना वो हमारा  घर एकदम अनाथ, उजाड़ और बेनूर सा लग रहा था।उजड़े पड़े इसी आँगन में कभी, कैसी चहल-पहल भरी होती थी। अम्माँ के महकते ममतामयी आँचल के साथ  इसी चहकते आँगन का भी मानो इतना विस्तार बढ़ जाता था कि ओर-छोर ही नजर नहीं आता था। हम सब जब जाते तो अपनी थकान और परेशानियों को भूल, सुकून में डूब कर गुम ही हो जाते।


रिटायरमेंट से पहले ही गाँव पास होने के कारण ताताजी ने मैनपुरी में बहुत प्यार से कोठी बनवाई , जिसका नक्शा भी खुद ही बनाया था और रिटायरमेंट के बाद वहीं रहने लगे थे। 


इसी आँगन में जब अम्माँ अपना पोर्टेबल चूल्हा रख कर पीढ़े पर बैठ बड़ी सी कढ़ाई में गाजर का हलुआ घोंटती, साग, मक्का की रोटी, कढ़ी, दही बड़े, बिरियानी, कोरमा वगैरह प्रसन्नता से दमकते मुख से पकाती थीं, तो हम और हमारे बच्चे उनके चारों तरफ चहकते-लहकते चक्कर काटते रहते।


ताताजी भी बीच- बीच में आकर हमारी हा-हा,ठी-ठी और बतकही के बीच शामिल हो जाते।अपने शिकार के और जंगलों के किस्से सुनाते, तो कभी विद्यार्थी जीवन की शैतानियाँ सुनाते। मुझे प्राय: छेड़ते- "देखो ये इतनी तनख़्वाह ले रही है, बच्चों को बेवकूफ बनाने की, अरे पेंटिंग भी कोई पढ़ाने का सब्जेक्ट है ?” 


हम लोगों के आने से पहले ही ताताजी पपीते, शरीफे, आम, चीकू तोड़ कर पेपर में लपेट कर कनस्तर में रख कर पकने रख देते थे और हम लोगों को बहुत प्यार से निकाल कर खिलाते थे।


खाने पीने का न कोई टाइम रहता, न ही सीमा। भरे पेट पर भी पकौड़ी बन जातीं, तो कभी भर गिलास काँजी के बड़े या भर गिलास मट्ठा लेकर हम सब खाने-पीने बैठ जाते। कभी ठंडाई पिसती, तो कभी चाट बन रही होती।अचानक कपूरकन्द की या जलेबी की फरमाइश पर मोहन साइकिल ले बाजार भागता। कितना ही खा-पी लें लेकिन पेट और मन ही नही भरता था हमारा। बाद में झींकते कि "हाय राम कितना वेट बढ़ गया।” 


लौटते समय अम्माँ के हाथ की प्यार भरी सौगातें-अचार,पापड़, मुरब्बे ,बड़िएं, लड्डू ,मठरी ,गुझियाँ, बेसन के सेब वगैरह हमारे साथ बंधे होते।मौसम के अनुसार अम्माँ हम लोगों के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह बना कर रखती थीं। 


इसी उदास, उजाड़ आँगन की तब कैसी शोभा होती थी। बाहर के बरामदे के साइड में सुगन्धित गुलाबी फूलों से लदी बेल व घनी मधुमालती के सघन, सुगन्धित कुंज से आच्छादित बरामदे की सीढ़ियों के पास का कोना हम बहनों की सबसे मनपसन्द जगह थी। तरह- तरह की चिड़ियों की मनमोहक चहचहाहट सुनती मैं वहीं भीनी-भीनी सुगन्धित शीतल छाँव में सीढ़ियों पर बैठी शिवानी या अमृता प्रीतम का कोई उपन्यास और काँजी, चाय या फेट कर बनाई खूब झागदार कॉफी का मग लेकर घंटों बैठी रहती।


 सुबह लॉन की हरी घास के कोने में हरसिंगार के नीचे ओस से भीगे श्वेत-केसरिया फूलों की सुगन्धित, शीतल चादर सी बिछ जाती। मैं रोज सुबह उठ कर वहाँ जाकर लेट जाती। फूल-पत्तों से छन कर आती सुबह की सुनहरी किरणें चेहरे पर अठखेलियाँ करतीं।ओस-भीगे फूल जैसे तन-मन का सारा सन्ताप व थकन हर कर तुष्टि से भर देते और मैं गुनगुनाती हुई बहुत देर तक अलसाई सी वहीं पड़ी रहती। अम्माँ को जोर से चिल्ला कर कहती "अम्माँ हमारी चाय यहीं भिजवा दो !”

ताताजी भी प्राय: पास में कुर्सी डाल कर पेपर लेकर बैठ जाते।


कभी कोई पेन्टिंग बना कर, तो कभी कुम्हार के यहाँ से मिट्टी मंगवा कर मैं कोई मूर्ति गढ़ती, पुआल-उपलों में पका कर, कलर करके घर में सजा आती। ताताजी, अम्माँ बहुत खुश होते। आने-जाने वालों को मगन होकर आर्टिस्ट बिटिया के करतब दिखाते।


वही घर-आँगन था, वही पेड़-लताएं ...पर आज श्रीहीन, स्तब्ध खड़े थे मानो सब।अब न हमें रंग-बिरंगे फल-फूल नजर आ रहे थे और न ही वे पेड़ों पर चहकते ,फुदकते रंग- बिरंगे सुग्गा,पंछी। हम सबकी आँखें बरस रही थीं।उस उजड़े, सूने आँगन में स्तब्ध-अवाक खड़े हमें अपने अनाथ हो जाने का अहसास पहली बार इतनी शिद्दत से मर्माहत कर रहा था।


उसके नए मालिक को चाबियों के साथ उस घर की धड़कनें सौंपते, मन ही मन अपने प्राणप्रिय उस घर से माफी माँगी, जिसकी एक-एक ईंट ताताजी ने बहुत प्यार से रखी थी।मन पर बहुत भारी बोझ लेकर हम लोगों ने अपने घर से अन्तिम विदा ली।गाड़ी में बैठ, घर पर प्यार भरी अन्तिम दृष्टि डाल मैंने आँखें मूँद प्रार्थना की कि नए मालिकों का होकर मेरा घर फिर से हरा-भरा हो खिलखिला उठे और खूब शुभ हो नए मालिकों के लिए ये हमारा सपनों का घर।


 घर की भी आत्मा होती है ये मैंने दो बार महसूस किया है।एक तो मैनपुरी के मकान को बेचने के बाद जब वहाँ आँगन में खड़ी थी तब और दूसरी बार तब, जब हम लोगों ने अपने ससुराल का पुश्तैनी मकान खाली कर ताला लगाया।


अम्माँ व बाबूजी के गुजर जाने के बाद, समय के साथ जब परिवार बढ़ा तो जगह की कमी व सौ साल पुराने मकान की जर्जर हालत देख कर अपनी सुविधानुसार तीनों भाई सालों साथ रहने के बाद अपने-अपने अलग घर बनवा कर  उनमें शिफ्ट हो गए। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ ये देख कर कि हमारा वो पुश्तैनी मकान साल भर में ही ढहने की स्थिति में आ गया। आज भी जब सपना कोई देखती हूँ तो उसकी बैकग्राउंड में वही पुश्तैनी मकान दिखाई देता है जबकि बीस- इक्कीस साल पहले ही उसे छोडकर हम दो और मकानों में शिफ्ट हो चुके है।हम लोगों को अहसास होता है कि उस घर में पितरों के आशीष भी हमारे साथ थे। दो पीढ़ियों की पढाई-लिखाई, कैरियर व कई शादी- ब्याह वहीं से सम्पन्न हुए। खानदान के कई और बच्चे भी हमारे घर में रह कर पढ़ लिख कर ऊँची उड़ानों पर निकले। दूर-दराज के रिश्तेदारों की जाने कितनी लड़कियों को अपनी कोई साड़ी पहना कर तैयार करके दिखाने की ज़िम्मेदारी भी खूब निभाई हमने


रिटायरमेंट से दो साल पहले ही जब हमने बीस सालों से रह रहे मकान को खाली किया तो प्यार से बनाए अपने सपनों के घर में जाने की बेहद ख़ुशी तो थी लेकिन बाहर से दीवार को पार  कर आँगन में लम्बी - लम्बी बाहें फैलाए आमों से लदे ,अपने प्रिय आम के पेड़ से गले लग विदा ली तो आँखें नम हो गईं। मेरे जाने कितने सुख- दुख का साक्षी रहा वो। कॉलेज आते-जाते प्राय: मैं उसके गले लग जाती। जिंदगी में न जाने कितने पेड़- पौधे आए लेकिन उसके साथ किन्हीं कारणों से मैं एक विशेष रिश्ता महसूस करती थी, जैसे सुख-दुख का साथी …अभिन्न मित्र !


#विदा_दोस्त...!!


आज मैंने पीछे, दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न…

पावन-पीत दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी  तुमसे मिलने

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!


                     — उषा किरण

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...