ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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सोमवार, 2 मई 2022

वसीयत

 



निकलूँ जब अन्तिम यात्रा पर 

तब मेरे सिरहाने सहेज देना 

कुछ रंग शोख तितली से और 

कुछ बुझे-बुझे राख से 

कुछ ब्रश, कुछ स्याही और 

कुछ कलम भी

थोड़े से खाली पन्ने और

कुछ बर्फ से सफेद 

कोरे कैनवास भी

और हाँ…कुछ सुर-ताल 

और कुछ गीत भी

हो सकता है मन कभी 

बहुत ज़्यादा सील जाए 

तो रख देना साथ मुट्ठी भर धूप 

और ताप से मन तप जाए कहीं तो 

रख देना कुछ मलय समीर

और कुछ बारिशें भी…!

ताकि अनजान देश के 

अनजान सफर में 

उमड़ने लगें जब भावों के बादल 

या फिर जब मन करना हो खाली

तब कूक सकूँ कोयल संग 

ढल सकूँ कैनवास पर तब

सुन्दर- सुगन्धित फूल बन या

कोरे पन्नों में कविता बन कर…!

जैसे धरती पर बिछ जाते हैं

फूल हरसिंगार के

चमकते हैं जुगनू

झिलमिलाते हैं सितारे

मचलती हैं लहरें

मैं भी बिछ जाऊँगी तप्त धरती पर 

एक दिन तब सतरंगी किरण या

शीतल ओस बनके…!!!


                        — उषा किरण

बुधवार, 9 मार्च 2022

यूँ भी



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं

किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...

दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?

कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो

स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

#अन्तर्राष्ट्रीयमहिलादिवस


पेंटिंग; सुप्रसिद्ध आर्टिस्ट प्रणाम सिंह की वॉल से साभार

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

देवदूत




बदहवासियों के आलम में

ई सी जी, इंजैक्शन, ऑक्सीजन…

नीम बेहोशियों, हवासों की गुमशुदगी में

उल्टियाँ, घुटन, बेचैनी, दहशत, लाचारी

हाड़ कंपाती ठिठुरन भरी सुरंग से गुजरती रूह

डॉक्टर की कड़क  नसीहतों के बीच

अचानक आना तुम्हारा और 

किसी फरिश्ते की तरह दो बार सिर सहला जाना…

कोई बात नहीं आप टेंशन न लो…रिलैक्स!

वक्त के साथ बीत चुका है सब

भूल चुकी हूँ दो दिन में ही

दर्द, दहशत, बेदिली, शोर, बदहवासी 

याद रह गई सिर्फ़ वो सम्वेदना

दिल में घुमड़ता

बादल का एक नन्हा सा टुकडा़ और उसकी नमी

जो बार बार मेरी आँखें आज सुबह से नम किए है

डॉक्टर के भेष में कुछ देवदूत चुन कर

भेजते हैं भगवान इंसानों के तन का ताप हरने 

और उनमें से कुछ होते हैं जो 

फरिश्ते बन हाथ के साथ मन को भी थाम लेते हैं 

उस दिन मुझे भी थाम लिया था उसने 

एक देवदूत बन कर…!!


Usha Kiran

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

विदा दोस्त...!






आज मैंने पीछे दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न 

पीली-पीली दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी मिलने तुमसे

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!

                     — उषा किरण 


मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दोस्त




ऐ दोस्त

अबके जब आना न

तो ले आना हाथों में

थोड़ा सा बचपन

घर के पीछे बग़ीचे में खोद के

बो देंगे मिल कर

फिर निकल पड़ेंगे हम

हाथों में हाथ लिए

खट्टे मीठे गोले की

चुस्की की चुस्की लेते

करते बारिशों में छपाछप

मैं भाग कर ले आउंगी

समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़

तुम बना लेना चाय तब तक

अदरक  इलायची वाली

अपनी फीकी पर मेरी

थोड़ी ज़्यादा मीठी

और तीखी सी चटनी

कच्ची आमी की

फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा

सीधा कर देना और

रस्सी डाल उस पर मैं

बना दूंगी मस्त झूला

बढ़ाएँगे ऊँची पींगें

छू लेंगे भीगे आकाश को

साबुन के बुलबुले बनाएँ

तितली के पीछे भागें

जंगलों में फिर से भटक जाएँ

नदियों में नहाएँ

चलो न ऐ दोस्त

हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!

                        — उषा किरण 

चित्र ; Pinterest से साभार

शनिवार, 19 जून 2021

वे कहाँ गुजरते हैं...!!




जो गुजर जाते हैं 

वे तो एक दिन गुजरते हैं

पर जिनके गुजरते हैं

उन पर तो रोज गुजरती है


वे जाते कहाँ हैं

वे तो बस, बस जाते हैं

हमारी यादों में

नीदों में, बातों में

हर छोटी-छोटी चीजों में


वे पलट कर नहीं आते 

पर उनके अक्स पलटते हैं

हमारे बच्चों में

नाती-पोतों  में

उनकी हंसी में

उनकी बातों और आदतों  में


वे याद करते नहीं 

पर वे हमेशा याद आते हैं

हर सुख में, हर दुख में

शादी-ब्याह, रीति-रिवाजों में

तीज त्यौहारों की

चहल-पहल में


वे नहीं देखते पलट कर 

पर हम जरूर पलट कर

एक दिन दिखने लगते हैं 

बिल्कुल उनके जैसे

बच्चे कहते हैं-

एकदम नानी जैसी हो गई हो

या आप हो गए हो बाबा जैसे


जो गुजर जाते हैं

वे कहाँ गुजरते हैं 

गुजरते तो हम हैं 

खुशबुओं से लिपटी

उनकी यादों की गली से

जाने कितनी बार…बार-बार…!!

                   —उषा किरण 🍁🍂🌿🌱

सोमवार, 14 जून 2021

यूँ भी

 



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं

किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...

दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?

कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो

स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

पेंटिंग; सुप्रसिद्ध आर्टिस्ट प्रणाम सिंह की वॉल से साभार 🎨

शुक्रवार, 28 मई 2021

वो सुबह कभी तो आएगी...*




आजकल आसमान में रोशनी कुछ ज्यादा है


हाथ छुड़ाकर हड़बड़ी में

लोग दौड़ कर सितारे बनने की

जाने कैसी होड़ में शामिल हुए जा रहे हैं ?


धरा पर अँधेरा है या है तीखी पीली धूप

नहीं होता आँखें खोलने का साहस

 ही कुछ देखने या पढ़ने का

एक तेज झपाका जोर से पड़ता है

जैसे जोर से गाल पर कोई चाँटा जड़ता है


दुख सिर्फ़ यही नहीं कि वे चले गए

दुख ये भी है कि चार काँधों पर नहीं गए

 मन्त्र थे विलाप चंदनहार

बिना कुछ कहेसुने ऐसे कौन जाता है

विदाई के बिना बोलो तो

यूँ भी भला कोई जाता है 


सन्नाटों का कफन ओढ़े 

निकल जा रहे हैं लोग चुपचाप

मौन हैनदियाँसागरसारी कायनात 

धरती भी मौन है मौत का तांडव जारी है

पीछे हाँफती पसलियों में चीखें घुटती हैं 


ॐशान्ति...विनम्र श्रद्धांजलि लिखते

थरथराती हैं लाचार उँगलियाँ

रुको बसबहुत हुआ...अब और नहीं 

तितर-बितर हुआ...जो टूट-फूट गया

बहुत कुछ सहेजनासमेटना बाकी है 

पर पहले साँसें तो संभल जाएं

जरा तूफान तो थम जाए

जरा होश तो आए


भूल जाओ अब भी

सारा द्वेषईर्ष्या  क्रोध

पुरानी रंजिशें, आरोप-प्रत्यारोप, प्रतिशोध 

तुम्हारी निर्ममता का सही वक्त नहीं ये

हाथ बढ़ा लगा लो सबको गले

हौसला रखो...हौसला दो

दोस्तदुश्मन की लकीरें मिटा दो

पीली धूपों पर शीतल चन्दन के फाहे रखो

अब भी  समझे तो कब समझ पाओगे 

माना कि ये वक्त बहुत निर्मम है तो क्या

इन्सानियत को भूल 

दाँत बाहर निकाल भेड़िये बन जाओगे


हौसले पस्त हैं...सारे सपने कहीं छिप गए हैं

एक दिन सब ऐश्वर्यसम्पदातेरा-मेरा

यहीं तो छूट जाएंगेनिशानियाँ रह जाएंगी

और...हाथ छूट जाएंगे


बस एक ही आशा,एक ही प्रार्थना

अपनों को काँपते कलेजे से भींच

हाथ बाँध,आसमान पर टिकी हैं आँखें

बेसुध से होंठ बुदबुदाते हैं-

सर्वे भवन्तु सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया ...



हौसला रखोआशाओं के दिए जलाए रखो

नफरत के आगे प्रेम को हारने मत देना 

हम सब फिर मुस्कुराएंगे

मिल कर उम्मीदों केप्रेम-गीत गाएंगे

धरा पर भी एक दिन दीवाली होगी

देखना...वो सुबह जल्द ही जरूर आएगी !!


                  — उषा किरण 

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

हे शिव शम्भु...!

 



ये कैसी लीला त्रिपुरारी

ये कैसा ताँडव भोले

भयभीत हैं मन

आज असहाय हर जन

त्रस्त तन- मन !


पड़ी विपदा भारी

है कैसी ये मजबूरी

कोई भी साथ नहीं 

अपनों का काँधा भी

आज नसीब नहीं 


अस्पतालों में बैड नहीं 

मसानों में भी अब

 जगह बची नहीं 

सब हिम्मत हारे

बाँधे हाथ सब अपने

भीगी आँखों से 

मजबूर दूर खड़े निहारें


प्रसन्न हो आशुतोष 

रोको अपना डमरू

रोको अपना नर्तन

बन्द करो त्रिनेत्र

एक-एक साँस को

तड़पते मानव की

लौटा दो साँसें अब


हाँ...मानते हैं

हम हैं अपराधी

अब दया करो, क्षमा करो 

हे महेश्वर भूल हमारी

तुम्हारे ही इष्ट राम का वास्ता 

देती हूँ मैं तुम्हें


बाँधती हूँ आज 

होकर  विकल तुम्हें

रक्षासूत्र से-


"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: 

तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल !!”


                                          —उषा किरण 🙏🙏

                               चित्र; गूगल से साभार

मंगलवार, 23 मार्च 2021

अब बारी तुम्हारी

 

  

  

   

सुनो बेटों-


माना कि वे कुछ आक्रामक हैं

उग्र हैं ...आन्दोलित हैं..

तेवर भी कुछ भारी हैं

नहीं सुनतीं किसी की भी

बस सुनतीं अपने मन की हैं...!


स्वयम् चुनतीं अपनी ही धरती

आकाश, चाँद-सूरज,पथ भी 

नहीं स्वीकार तुम्हें पूजना 

तो  कहाँ  मंजूर देवी कह कर

खुद का पूजा जाना भी ?


उन्मुक्त हो खिलखिलाती 

सजती हैं...गाती हैं

उड़ती हैं मनमाफिक पंख लगा 

स्वच्छन्द हो आज मुस्काती हैं !


पितृसत्तात्मक सोच को यदि

जब लगे चोट कभी तुम्हारी 

जैसे पीढ़ियों से चुप हो

बेटियों ने सहा सदा ही

वैसे ही तुम भी अब

हँस कर सब सह जाना...!


यदि कभी ज्यादती हो

और हम अनदेखा कर जाएं 

जैसे बचपन में

तुम्हें मार पड़ी बहन से 

बिलबिला कर तब तुमने 

मुड़ करके हमको देखा 

और प्रतिशोध लेना चाहा 

"गलत बात ...

लडकियों पर हाथ नहीं उठाते !“

हमने हमेशा तुमको रोका 

तुम रुआँसे हो कहते

"उसको कोई क्यों नहीं कुछ कहता ...!”


उनके पस्त हौसलों को 

पंख देने की

ये हमारी तैयारी थी

कि बहन तुम्हारी कभी न हारे 

सिर न झुके किसी के आगे

तोड़ दे वो हाथ 

जो हाथ  बढ़े उसके आगे...!


सदियों से दबी नानी ने मेरी

खिड़की खोली माँ के लिए

और हमारी माँओं ने

सौ तोहमत झेलीं हमारे लिए

अब एक कदम आगे बढ़ कर

साँकल हमको खोलनी हैं !


सदियों पुरानी सीखों को

वे क्यूँ और सुनें भला...कि-

दबो...सबकी सुनो

झुको...बस झुकती ही रहो

शर्म ही औरत का जेवर

सहना ही औरत का गहना !

पति ही परमेश्वर तुम्हारा

बेशक कितना भी

व्यभिचार, अत्याचार सहो

नोची खसोटी जाओ

एसिड से नहलाई जाओ

पर कभी जुबान मत खोलना

कि...औरत का पाप फूल 

और मर्द का पत्थर सा...?


कई पीढ़ियों का दबा क्षोभ

हो मुखर उभर अब आया है

हो सकता है तुमको

कई बार हार जाना पड़े

कभी कुछ ज्यादती लगे

बेबात कभी झुक जाना पड़े

तो देकर मान हौसलों को 

तुम थोड़ा सा झुक जाना

और थोड़ा कुछ सह जाना...!


अब तुमको है कर्ज चुकाना 

सालों परम्पराओं की जंजीरों में

दम घोंटा है जिन्होंने उन

परम-आदरणीय संबंधों का... !


किचिन में देखा है तुमको जब 

हाथ बंटाते...बर्तन धोते

या बच्चे की नैपी बदलते

मन मेरा फूल सा खिल उठा है

और मस्तक कुछ ऊँचा होकर

आसमान पर टिक गया है !


तो...समझ रहे हो न  बेटों तुम

वक्त करवट बदल रहा है

अब बारी तुम्हारी है....!!

       —उषा किरण 🍁


विश्व कविता दिवस पर 🍀🍂☘️🍃🌿🌱                   

                                  








बुधवार, 17 मार्च 2021

गुप्त- गोदावरी

 


बारीक सी पर गहन

जो पावन धारा बहती अन्तस में ...

गुप्त गोदावरी फेनिल तरंगों में

सबसे छिपा करती निरन्तर समाहित 

सारा कल्मष 

सारा विष

सबका वमन

ध्यानस्थ...मंथर गति से प्रवाहित !

कि अतृप्त प्यास ही हो जाए जब तृप्ति...

कि विष ही बन जाए जब अमृत..

कि दाह ही हो जाए चंदन...

कि अमावस लगे पूर्णमासी ...

कि अन्त में ही हो पूर्णता का भास...

कि फकीराना मस्ती में रमता जोगी मन ही 

समृद्ध हो जाए जब ...

तो और क्या चाहे कोई, किसी से  ?

तो क्यूँ माँगे कोई किसी से भी ?

न चाँद

न सूरज

न आँचल भर सितारे

पूर्णता की उपलब्धता पाकर

खिल कर ...सुवासित हो ...

सामने शाख से छूट कर 

गिरी है अभी जो धूल में

वो मदमस्त शेफाली होना चाहती हूँ...!!

                      — उषा किरण 🍂🍃

सोमवार, 15 मार्च 2021

गुरुवार, 11 मार्च 2021

बताना था न पापा...!





मैं निकल पड़ती जब- तब मुँह उठा

चाँद की सैर पर...

अम्माँ नीचे से सोंटी दिखातीं

उतर नीचे...धरती पर चल

पापा अड़ जाते सामने

नापने दो आकाश

पंख मत बाँधो उसके !

अम्माँ झींकतीं 

खाना, सफाई, घर- गृहस्थी 

ये भी जरूरी हैं

आता ही क्या है इसे 

कुछ पता भी है 

कितनी तरह के तो तड़के 

मूँग और उड़द 

अरहर और चना दाल 

कुछ पता नहीं फर्क इसे

पापा हंस कर विश्वास से कहते

जिस दिन पकड़ेगी न चमचा देखना

तुम सबकी छुट्टी करेगी

जिस डगर चलेगी

खुद मील का पत्थर गढ़ेगी...!

सब तुम्हारी गलती है पापा

अब देखो न-

मेरे पंख समाते ही नहीं कहीं 

कितना विस्तार इनका...

ठीक कहती थीं अम्माँ 

इतने तेवर लेकर कहाँ जाएगी,

ज़मीनी हक़ीक़त को कैसे जानेगी ?

पापा ! आसमानों से पहले

चाँद, बादल, इन्द्रधनुष से भी पहले

छानना  होता है जमीन को

किताबों से पहले सीखना होता है

चेहरों को पढ़ना...और

लोगों की फितरत पढ़ना

नदियों संग बहने से पहले

बारीक सुई की नोक से

धागे सा पार होना पड़ता है

बताना था न पापा-

स्त्री है तू

बताना था न कि छोटा रख अपना मैं

 कि तू गैर अमानत है

बताना था न कि तेरी ज़मानत नहीं,

किसी अदालत में 

बताना था न कि-

आकाश की भी होती है एक सीमा

कि पीछे रह जाना होता है 

जीत कर भी कभी

चलने देना था न नंगे पैर 

पड़ने देने थे छाले पाँवों में 

कहना था न धूप में तप

बारिशों में भीग, कि बह जाने दे 

थोड़े रंग, कुछ मिट्टी, कुछ सुवास

अब क्या करूँ इस अना का 

बस उलझे धागों को सुलझाती

वक्त की सलाइयों पर

बैठी बुन रही हूँ अब

एक सीधा...एक उल्टा

एक सीधा और फिर एक उल्टा...

सब तुम्हारी गलती है पापा

बताना था न...!!

                   🌺— उषा किरण



बुधवार, 10 मार्च 2021

सुनी हैं ...!


सुनी हैं कान लगा कर

उन सर्द तप्त दीवारों पर

दफन हुई वे

पथरीली धड़कनें

वे काँपती सिसकियाँ 

और खिलखिलाहटें !

आन-बान-शान की, शौर्य की

बेशुमार कहानियाँ 

वे हैरान करती रिवायतें

बंजर जमीनों की कराहटें

स्वागत में ठुमकते पैर

आवाहन करते गीत- 

`केसरिया बालम पधारो म्हारे देस...’

ऊँट, बकरियाँ, आदमी सभी का आधार 

`केर साँगरी ‘

लहरिया, बंधेज के खिलखिलाते रंग

रेत के मीलों फासलों पर

राहत देती वो एकाकी,शीतल झील

एक बेटी की इज़्ज़त की खातिर

दो सौ साल से वीरान पड़ा-

वो उजड़ा, भुतहा `कुलधरा गाँव’

गाड़ी के पीछे धूल भरे नंगे पाँवों से

भागते, चिल्लाते बच्चे

`कमिंग...कमिंग...’

अभिभूत मन....धुँधली आँखें !

क्यूँ न लुटा दूँ दिल दुनिया की

सारी दौलत !

सारी नदियों से माँग चुल्लू भर- भर 

छोड़ दूँ पानी इन प्यासे बंजर खेतों में !

वापिस लौट तो आई पर

एक छोटा सा राजस्थान 

आ गया है संग

मेरी धड़कनों में...!

             — उषा किरण

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

चले जा रहे हैं


कुछ रास्ते कहीं भी जाते नहीं हैं 

कुछ सफर किसी मंज़िल तक 

कभी पहुँचाते नहीं हैं

चल रहे हैं क्यूँकि

चल रहे हैं  सब 

फितरत है चलना

बस चले जा रहे है...! 


जब भी देखा पलट कर

वहीं खड़े थे

जबकि सालों साल 

बारहा हम चलते रहे थे 

ठीक ,सफर में जैसे

मीलों साथ दौड़कर भी

पीछे छूटे दरख्त 

वहीं तो खड़े थे 


हाँ उड़ जाते हैं बेशक

सहम कर परिंदे जरूर 

क्षितिज के पार चमकती 

रौशनी के करीब 


माना कि चल रहे हैं साथ

चाँद, सूरज, और सितारे

कहाँ पहुँचे कभी

वहीं खड़े हैं 

आज भी सारे


कायनात में शामिल है 

हमारा भी नन्हा सा वजूद

कदम मिला हम भी

बस यूँ ही चले जा रहे हैं


कुछ ख्वाबों की परछाइयाँ 

आँखों के सागर में

मुसलसल डोलती हैं 

कैसे कह दें कि

ख्वाब हम नहीं देखते हैं !

दिल के बागानों में पलती 

खुशबुएँ दिखती तो नहीं 

हाँ पर साथ चलती हैं

रुकती भी नहीं ...!


ये जानती हूं लेकिन

कुछ मुसाफ़िर 

माना कि दिखते नहीं 

पर पहुँचते हैं जरूर 

बताते हैं ये

पानियों में बन्द सफर

नदिया सागर तक पहुँच  

सागर हो जाती है जैसे 

खुद एक दिन 


कहीं पहुँचने की जिद 

हमारी भी कम तो नहीं 

पहुँचेंगे जरूर

बस ये जानते हैं 

साध लूँ साज पर

आज कोई रुहानी सुर

ख़ामोश पानियों का सफर

चलो आज हम भी करते हैं...!!

                            —उषा किरण

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

आखिर...!




आते-आते मुझ तक 

अचानक ठिठक गये 

तुम बसन्त


छोड़ दिया हाथ मैंने

नहीं की मनुहार

एक बार भी

और विदा लेकर 

बस दो मुट्ठी में बीज भर 

आगे बढ़ गई मैं


सालों  साल मुट्ठी ढीली कर 

बेध्यानी में

बरस-दर-बरस 

बारहा मीलों चलती रही

न जाने कितने मौसम

आए-गये


बहुत बाद पलट कर देखा 

हैरान थी

अरे...तुम तो झूम रहे थे

मेरे ही पीछे-पीछे


ठिठक कर मैंने भी 

भर लिया अँक में

मुस्कुरा कर स्वागत किया

आख़िरकार...

आ ही गये तुम बसन्त !!


                    — उषा किरण

बुधवार, 6 जनवरी 2021

असुर

 



बहुत मुश्किल था 

एकदम नामुमकिन 

वैतरणी को पार करना 

पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से

उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी

हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!


हताश- निराश हो 

मैंने आह्वान किया दैत्यों का

हे असुरों विराजो

थोड़ा सा गरल

थोड़ी दानवता उधार दो मुझे 

वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !


वे खुश हुए

तुरन्त आत्मसात किया

अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को

मुझमें उतार दिया 

परास्त कर हर बाधा 

बहुत आसानी से

पार उतर आई हूँ मैं !


अब...

मुझे आगे की यात्रा पर जाना है

कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

हे असुरों आओ

जा न सकूँगी आगे 

तुम्हारी इन अमानतों सहित

ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त

ये आर - पार चीरती कटार

मुक्त करो इस दानवता से

पर नदारद हैं असुर !


ओह ! नहीं जानती थी

जितना मुमकिन है 

असुरों का आना

डेरा डाल देना अन्तस में

उतना ही नामुमकिन है 

उनका फिर वापिस जाना

मुक्त कर देना ...!


बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई

हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

आओ हे असुरों आओ

मुक्त करो

आओ......मुक्त करो मुझे

परन्तु....!

                  — उषा किरण

फोटो: Pinterest 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

चाह



मत देना मुझे

कभी  भी 

इतनी ऊँचाई 

कि गुरुर में  गर्दन

अकड़ जाए 

और सुरुर में भाल

झुके न कहीं,

नाक उठा दिखाऊँ 

हरेक को 

उंगली की सीध में

बस अपने ही फलक 


हरेक बात के मायने 

अपनी ही 

डिक्शनरी में तलाशूं,

हरेक का कद 

खुद से बौना लगे

हरेक ऊँचाइयों को

खुद से ही मापने लगूँ


दिखे न मुझे कोई बड़ा 

अपने सिवा,

सबका खुदा 

खुद को ही मान

मैं  खुद को  ही सजदे

करने लगूँ...

नहीं ! मत देना मुझे 

इतनी ऊँचाई


ऊँचे पर्बत से 

जहाँ गिरता हो झरना

उसी अतल गहराई में 

नदिया के किनारे

बना देना मुझे 

बस एक अदने से 

पौधे पर अधखिला

इक नन्हा सा  जंगली फूल....!!


                    — उषा किरण 🍁🍃🌷


चित्र; Pinterest से साभार

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

" तुम कौन “




दूर हटो तुम सब

यदि नहीं भाता ,

मेरा तरीका तुमको

मत सिखाओ मुझे

ये करो

ये न करो

ऐसे बोलो

ऐसा न बोलो

वहाँ जाओ

यहाँ मत जाओ

ये देखो

वो मत देखो

इससे बोलो

उससे मत बोलो

ये खाओ

वो न खाओ

ये लिखो

ये न लिखो

शऊर नहीं 

ये क्या बेहूदगी

उम्र का लिहाज़ नहीं 

बड़ी उड़ रहीं 

बड़ी बन रहीं 

जाने क्या गम हैं

जाने किस ख़ुशी में 

उड़ी जा रहीं

बाल तो देखो

झुर्री आ गईं 

बुद्धि न आई....

हाँ तो नहीं आई 

क्या करें तो ?

ये मेरी जिंदगी 

तुम कौन ?

सबकी पुड़िया बना 

रखो न अपनी जेब में

और हटो एक तरफ

आने दो जरा

कुछ ताजी हवा 

कुछ खुशबू

सतरंगी किरणें

कुछ उजास

भरने दो लम्बी साँस

चन्द दिन

कुछ पंख,

ओस से भीगे  

ये जो हैं न 

मेरी मुट्ठी में

जी लेने दो मुझे

अब उन्मुक्त....!!

                —उषा किरण

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...